आज माओवादियों के सामने संकट यह है कि नव्य उदारतावाद के खिलाफ उनका संघर्ष किसानों से लेकर मध्यवर्ग तक अपील खो चुका है। दूसरी ओर बुर्जुआ उदार लोकतंत्र की साख में भी बट्टा लग चुका है। समाजवाद के अधिकांश मॉडल पिट चुके हैं ऐसी अवस्था में माओवादी समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें?
माओवादियों ने हाल के वर्षों में नव्य उदारतावाद के खिलाफ संघर्ष करके जो जमीन बनाई थी वह ग्लोबल एजेण्डा पूरी तरह पिट गया है। यह अमरीकी ग्लोबल एजेण्डा था। आज जब अमेरिका में इस एजेण्डे का अंत हुआ है तो स्वाभाविक तौर पर सारी दुनिया में इसकी विदाई की घोषणा हो गई है।
नव्य उदारतावाद की विदाई की बेला में माओवादियों के पास सही एजेण्डे का अभाव है, यही बुनियादी वजह है जिसके कारण वे अंधाधुंध हत्याएँ कर रहे हैं। यह उनके दिशाहीन होने का संकेत है। माओवादियों का हिंसाचार 2001 के बाद से क्रमशः बढ़ा है और यह उनके एजेण्डे के पिटने का संकेत है।
माकपा और वामदलों ने नव्य उदारतावाद के बरक्स अपनी राजनीति में संतुलन पैदा किया और विकल्प का मार्ग चुना और इस दौर में नव्य उदारतावाद के संदर्भ में नए नीतिगत उपाय लागू कराने में सफलता हासिल की। नव्य उदारतावाद के पिटते ही सोनिया-राहुल गांधी भी किसानों के हितों का ख़याल रखने की बातें करने लगे हैं। आज सोनिया और माओवादियों में किसानों की जमीन के मामले में एक ही स्वर दिखाई दे रहा है। अब वे जमीन
अधिग्रहण के मामले में नया सख्त कानून लाना चाहते हैं। लेकिन अधिकांश राज्यों में किसानों की लाखों एकड़ जमीन तो कारपोरेट घराने खरीद चुके हैं। कानून ही लाना था तो 10 साल पहले क्यों नहीं लाए?
माओवादी संगठनों के हिंसाचार का एक अन्य कारण है भारत में खासकर आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र में जनता की व्यापक शिरकत। लोकतंत्र में व्यापक शिरकत के कारण ही वे लाख प्रचार करके भी साधारण लोगों को वोट ड़ालने से रोक नहीं पाए हैं। यही वजह है कि वे गरीबों की अंधाधुंध हत्याएँ कर रहे हैं। उल्लेखनीय है नव्य उदारतावाद के लाख दोष हों लेकिन आम आदमी की चेतना और शिरकत में कई गुना वृद्धि हुई है। संचार क्रांति ने क्रांति के सभी रूपों को फीका बना दिया है। बुर्जुआ लोकतंत्र के प्रति आकर्षण बढ़ा है।
समाप्त
जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो0: 09331762360
1 टिप्पणी:
तीनों भाग पढ़ने से कुछ लगा कि ठीक है…समाजवाद के अधिकांश माडल पिट चुके हैं…क्या पूँजीवाद एक दिन में ही आ गया था…या इसके भी कई माडल पिटे थे सदियों तक?…लोकतंत्र का हाल तो दिख रहा है…
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