गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय भाग 9


वास्तव में हमें यह ध्यान में रखना होगा कि राज्य को माओवादी एवं नक्सली हिंसा के कारण अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि राज्य की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों एवं सरकार की नीतियों के कारण उग्रवाद का जन्म हुआ हो। किसी राज्य का तख्ता पलटना एवं उसके एजेंटों की हत्या करना एवं निर्दोष नागरिकों के खिलाफ हिंसा की वारदातंे करना, सुव्यवस्थित जीवन को समाप्त करना है। राज्य का यह कर्तव्य है कि वह इस उग्रवाद का मुकाबला करे एवं नागरिकों की सुरक्षा का प्रबंध करे। राज्य का यह मौलिक उŸारदायित्व है। जब न्यायपालिका राज्य की नीतियों को अवैध घोषित कर देगी, जो आतंकवाद एवं उग्रवाद से निपटने के लिए बनाई र्गइं हैं तथापि हम सुरक्षा सम्बंधी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं जिसके लिए दक्षता एवं उत्तरदायित्व का भार कार्यपालिका पर है जिस पर विधायिका का नियंत्रण होता है। न्यायपालिका इन मामलों में संवैधानिक मूल्यों, उद्देश्यों, मौलिक अधिकारों जैसे समानता एवं जीवन के अधिकार की सुरक्षा के लिए हस्तक्षेप करती है। न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है। संवैधानिक बेंच के हाल ही के निर्णय में जी0वे0 के0 इण्डस्ट्रीज बनाम आई0टी0 मामले में, इस अदालत ने कहा था कि ‘‘हमारे संविधान ने राज्य के सभी अंगों को राष्ट्र की सुरक्षा, कल्याण, एवं हित की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा है। उन्हें इस कार्य को पूरा करने के लिए आवश्यक शक्तियाँ भी प्रदान की गई हैं। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्तियाँ इसलिए प्रदान की गई हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये शक्तियाँ संविधान में वर्णित सीमाओं के अनुसार प्रयोग की गई हैं। परिणाम स्वरूप यह आवश्यक है कि राज्य को प्रदान की र्गइं इस प्रकार की शक्तियाँ न्यायिक आदेश के द्वारा सीमित न हों, यहाँ तक कि राज्य के अंग अपने संवैधानिक कर्तव्यों को पूरा करने में अक्षम हो जाएँ। शक्तियाँ जो संविधान के द्वारा प्रदान की गई हैं अथवा उसमें निहित हैं, उन्हें आवश्यक रूप से स्वीकार किया जाए। फिर भी
संविधान का यह मूल तत्व है कि राज्य का कोई भी अंग उन शक्तियों के बाहर न जाए जो संविधान में वर्णित है। उस संतुलन को बनाए रखना न्यायपालिका का कार्य है। न्यायिक संयम, सरकार की समानवर्ती शाखाआंे के अधिकारों की चर्चा के समय, आवश्यक है। परन्तु संयम का तात्पर्य उस कर्तव्य का परित्याग नहीं है।
68. जैसा कि हमने इस मामले की सुनवाई की है, हम वास्तव में एक दूसरे की बारीक सीमाओं से परिचित हैं। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए हम तथ्यों एवं
संवैधानिक मूल्यों से मार्गदर्शित हंै। मौलिक मूल्य यह है कि राज्य के प्रत्येक अंग का यह दायित्व है कि संवैधानिक उत्तरदायित्व की परिसीमाओं में रहकर कार्य करे। यही कानून का राज्य है।
69. यह सत्य है कि आतंकवाद एवं उग्रवाद की समस्या संसार के कई देशों में है एवं भारत दुर्भाग्यवश कई दशकों से इसका शिकार रहा है। आतंकवाद एवं उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई संवैधानिक प्रजातंत्रों के द्वारा हर प्रकार के माध्यमों से प्रभावकारी नहीं बनाया जा सकता है। कार्यकुशलता सभी मूल्यों की इकलौती कसौटी नहीं है। वे माध्यम जिन्हें हम किसी विशिष्ट समस्या से निपटने के लिए इस्तेमाल करते हैं वे अन्य संवैधानिक उद्देश्यों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। अतएव सम्पूर्ण सक्षम तरीके अगर वास्तव में वे सक्षम हंै, तो भी उन्हें वैधानिक नहीं माना जा सकता।
70. जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि माओवादी नक्सलवादी हिंसा के खिलाफ लड़ाई केवल एक कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में नही देखी जा सकती जिसको कि हम किसी भी माध्यम से निपटारा कर सकते हैं। मौलिक समस्या राज्य की सामाजिक और आर्थिक नीतियों में छिपी हुई है। ये नीतियाँ ऐसे समाज पर लागू की जा रही हैं जो घोर विषमताओं एवं असमानताओं से भरा हुआ है। अतएव माओवादियों एवं नक्सलवादियों के खिलाफ लड़ाई केवल नैतिक, संवैधानिक एवं कानूनी लड़ाई नहीं है। हमारा संविधान उन निर्देशों की व्यवस्था करता है जिसके अनुसार राज्य को कार्य करना है एवं अपनी शक्ति का प्रयोग भी करना है एवं उसे बनाए भी रखना है। इन निर्देशों का अतिक्रमण ही अवैध रूप से कार्य करना है जिससे राज्य एवं संविधान की नैतिक और वैधानिक शक्ति खतरे में पड़ जाती है। यह अदालत इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि आतंकवादी गतिविधियाँ नागरिकों और राज्य को कितना क्षति पहुँचा रही हैं। फिर भी हमारा
संविधान जिसमें कि मानव बुद्धिमत्ता कूट-कूट कर भरी हुई है, यह चेतावनी देता है कि उद्देश्य की प्राप्ति यह साबित नहीं करता कि अपनाए गए माध्यम भी उचित थे। उद्देश्यों का एक आवश्यक एवं अभिन्न अंग, राज्य शक्ति के प्रयोग के
माध्यमों को, संवैधानिक सीमाओं के अन्तर्गत रखना है। इसके विपरीत कार्य करना
अवैध रूप से कार्य करना है।
71. कानून की प्रतिक्रिया संवैधानिक अनुमति की सीमाओं के अन्तर्गत तर्क संगत होनी चाहिए। इसका आवश्यक रूप से तात्पर्य दो प्रकार का मार्ग हैः-
1. उन सभी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों को दुरुस्त करना जिससे सामाजिक असंतोष बढ़ता है एवं जिसकी परिणति आतंकवाद के रूप में होती है।
2. सुप्रशिक्षित एवं पेशेवर कानून लागू करने वाली क्षमताओं एवं शक्तियों को विकसित करना जो संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करें।
72. माओवादियों तथा नक्सलवादियों से निपटने के लिए एस0पी0ओ0 जैसे एक समूह का गठन जिनको अस्थाई रूप से नौकरी दी जाती है एवं मानदेय प्रदान किया जाता है एवं जिनमें से बहुत से व्यक्ति
क्रोध, घृणा एवं बदले की भावना से प्रेरित हैं। ये सारी प्रतिक्रिया ऊपर दिए हुए मानकों के प्रतिकूल है। हम इस सम्बन्ध में विस्तार से परिचर्चा कर चुके हैं। यहाँ पर हम एक बात और कहना चाहते हैं। यह स्पष्ट है कि राज्य एस0पी0ओ0 का प्रयोग मौजूदा नियमित पुलिस बल की कमी को पूरा करने के लिए कर रहा है। आवश्यकता लम्बे समय के लिए है। परिणाम स्वरूप राज्य का यह कार्य अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों का परित्याग करना है। आवश्यकता इस बात की है कि पूरी तरह से एक प्रशिक्षित, नियमित पुलिस बल का गठन किया जाए, जिसमंे पर्याप्त मात्रा में सदस्य मौजूद हों एवं जिनकी नियुक्ति स्थाई आधार पर की जाए। यह राज्य के आवश्यक कार्यों में से है तथा इसकी पूर्ति एक अस्थाई पुलिस बल से नहीं की जा सकती है। एस0पी0ओ0 की छत्तीसगढ़ राज्य में नियुक्ति राज्य द्वारा संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन है।
73. केन्द्र सरकार एवं छत्तीसगढ़ राज्य ने एस0पी0ओ0 की नियुक्ति को सही ठहराने की कोशिश इस आधार पर की है वे माओवादी हिंसा से निपटने के लिए प्रभावकारी एवं बलवर्धक हैं। इस प्रकार के कार्य का प्रतिकूल प्रभाव, वर्तमान एवं भविष्य में, समाज पर अत्यन्त घातक है। राज्य की ऐसी नीतियाँ संविधान की धारा 14 एवं 21 का उल्लंघन करती हंै। किसी भी बल की प्रभावकारिता, संवैधानिक अनुमति का आँकलन करने के लिए, इकलौता मानक नहीं हो सकता और न उसे होना चाहिए। एस0पी0ओ0 माओवादी एवं नक्सलवादी गतिविधियों से निपटने में कितने प्रभावकारी रहे हैं इस बारे में संदेह है। यदि हम केवल तर्क के रूप में यह मान लें कि एस0पी0ओ0 वास्तव में माओवादियों के खिलाफ प्रभावकारी थे, तो यह लाभ, हानि केवल इस अर्थ में हुई है कि संविधान के प्रति वफादारी का बहुत बड़ा ह्रास हुआ है। एक सामाजिक व्यवस्था चैपट हुई है। संविधान के बल में भी ह्रास हुआ है। संवैधानिक निष्ठा इस बात की अनुमति नहीं प्रदान करता है और न कर सकता है और न करना चाहिए कि हम एस0पी0ओ0 जैसे बल का गठन करें। संवैधानिक औचित्य, ऐसे शब्दों के प्रयोग जैसे बलवर्धक आदि से, नहीं ठहराये जा सकते। संवैधानिक निर्णय एवं नागरिकों की सुरक्षा, नागरिक स्वतंत्रता की सुरक्षा ऐसा पवित्र दायित्व है जिसे उपर्युक्त तर्क एवं शब्दों के आधार पर प्रभावित नहीं किया जा सकता।

क्रमश:

अनुवादक : मो0 एहरार
मो 08009513858

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