मंगलवार, 15 नवंबर 2011

’वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन का बेबाक संदेश


पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद वस्तुतः लोकतंत्र का निषेध है। यह बात पूंजीवाद का गढ़ अमेरिका में ही सि( हो रही है, जहां लोगों ने एक फीसद धन पशुओं के खिलाफ 99 फीसद जनता का जनयु( घोषित किया है। जनता के लिये जनता द्वारा जनता का जनतंत्र धनिकों के लिये धनिकों द्वारा धनिकों का धनतंत्र में तब्दील हो चुका है। ‘वालस्ट्रीट पर कब्जा करो’ के बैनर तले जुक्कोटी पार्क में बैठे नौजवान धनपशुओं के आवास मैनहट्टन में घुसकर लाभ-लोभ-लालच पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को ललकार रहे हैं। साम्राज्यवादी दौलत की विश्व राजधानी कांनगर न्यूयार्क डगमगा रहा है। फलतः औपनिवेशिक लूट का जमा धन पर मौज-मस्ती करनेवाले अपने ही घरेलू असंतोष से लड़खड़ाते यूरो-अमेरिकी साम्राज्यवादी फिर से जड़ जमाने के लिये अपने आक्रामक मिसायलों को अरब-अफ्रीका की तरफ भिड़ा दिया है। लेकिन क्या एशिया-अफ्रीका के जाग्रत जनगण अपने अजस्र कच्चामाल के स्रोत खनिज संपदा, तेल भंडार और सबसे बढ़कर सस्ता श्रम और विशाल उपभोक्ता बाजार को फिर से विकसित औद्योगिक राष्ट्रों का चारागाह बनने देंगे? निश्चय ही ऐसा इतिहास फिर से नहीं दोहरायगा। वाॅलस्ट्रीट में बैठे आंदोलनकारियों की स्पष्ट मांग है कि पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजनीति को आर्थिक समानता के साथ जोड़कर सार्थक सीधा जनवादी अर्थतंत्र बनाया जाय। उनका संदेश साफ हैः पूंजीवाद केवल संकट पैदा करता है, स्वयं अपने लिये भी।
‘वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ ;आॅक्यूपाई वाल स्ट्रीटद्ध आंदोलन शुरू हुए एक महीना से ज्यादा हो गया है। आॅक्यूपाई वाल स्ट्रीट ;व्ॅैद्ध का प्रारंभ 17 सितम्बर 2011 को हुआ, जब सैकड़ों युवक युवतियाँं न्यूयार्क के जुक्कोटी पार्क में जाकर बैठ गयीं तो फिर वहां से हटने का नाम नहीं लिया। जुक्कोटी पार्क न्यूयार्क का हृदयस्थल मैनहट्टन इलाका में है। मैनहट्टन क्षेत्र में अमेरिका के बड़े धनाढ़यों के आलिशान आवास और दैत्याकार कार्पोरेट कार्टेलों के मुख्यालय है। सब जानते हैं कि वाल स्ट्रीट दुनिया का सट्टाबाजार और वित्त पूंजी का पर्याय है। स्वाभाविक ही था कि आंदोलनकारियों ने इसे ही अपना लक्ष्य बनाया। आंदोलनकारियों का प्रकट गुस्सा कार्पोरेट लूट के खिलाफ है। इन्होंने अमेरिका के एक फीसद धनिकों के खिलाफ 99 फीसद आम लोगों का यु( घोषित किया है।
देखते-देखते इस आंदोलन का फैलाव संपूर्ण अमेरिका, योरप और विकसित देशों में हो गया। अमेरिका के प्रायः सभी शहरों में जुलूस निकाले जा रहे है। मुख्य रूप से उनका लक्ष्य बैंक और वित्तीय संस्थान हैं। सभी जगह स्टाॅक मार्केट और बैंकों के सामने आक्रोशपूर्ण विरोध प्रदर्शन लगातार हो रहे हैं। अखबारों के मुताबिक दुनिया के कोई एक हजार से ज्यादा शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए।
कौन हैं ये आंदोलनकारी
इस आंदोलन का नेतृत्व कोई राजनीतिक दल नहीं करता है। इसका कोई एक नेता नहीं है। कार्पोरेट लोभ-लालच विरोधी कनाडियन ग्रुप एडबस्टर्स ने एक बड़ा आकर्षक पोस्टर तैयार किया, जिसमें शेयर मार्केट का प्रतीक सांड़ और सांड़ की पीठ पर नृत्य करती नर्तकी के साथ पृष्ठभूमि में उपद्रवी पुलिस ;तवपज चवसपबमद्ध की आक्रमकता चित्रित है। ठीक वैसा ही जैसा कभी यमुना ही नदी के कालिया नाग के मास्तक पर चढ़कर भगवान कृष्ण ने नत्र्तन किया था। इस पोस्टर को विगत जुलाई महीने में न्यूयार्क के व्यस्त इलाके में लगाया गया। पोस्टर में ‘आक्यूपाई वालस्ट्रीट’ की अपील है। इस पोस्टर ने जनता का ध्यान बड़े पैमाने पर खीचा। तब अगस्त महीना में एक आई टी विशेषज्ञ ओ’ ब्रीयन नेे इंटरनेट पर ट्वीटिंग और बहुत कुछ प्रांरभिक प्रचारात्मक काम न्ै क्ंल व ित्ंहम नाम से किया। किंतु आम लोगों के बीच जाने और जन आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने की निर्णायक भूमिका का श्रेय न्यूपार्क के युवकों, कलाकारों और छात्रों की एक संगठित टोली को है। ”न्यूयार्कर्सं एगेंस्ट बजट कट“ के बैनर तले पहले भी एक बड़ा आंदोलन चलाने का तजुर्बा इस टोली को था। इन लोगों ने छात्र संगठनों और ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर न्यूयार्क सीटी के मेयर द्वारा बजट के नागरिक प्रावधानों में कटौतियां और ले-आफ के विरू( मेयर ब्लूमबर्गविले के कार्यालय पर तीन सप्ताहों तक कब्जा जमाया था। इसमें इन्हें कामयाबी मिली। मेयर ने बजट के कई जन विरोधी प्रावधान वापस लिये। आंदोलन के इस व्यावहारिक अनुभव ने इन्हें उत्साहित किया और ये वालस्ट्रीट कब्जा के लिये आगे बढ़े। कार्पोरेट/ कार्टेल के भ्रष्ट कारनामे और मुनाफा कमाने का अनंत लोभ ने अमेरिकी जनगण को उस चैराहे पर पहुंचा दिया है, जहां से आगे बढ़ने के लिये उसे नया रास्ता की तलाश है।
इस आंदोलन को नेतृत्व करने का दावा कोई व्यक्ति या समूह नहीं करता है। सभी फैसले जुक्कोटी पार्क में बैठे जनरल एसेम्बली में आम राय से किये जाते हैं। वे विभिन्न कामों के लिये अलग-अलग समूहों में भी बैठते हैं, चर्चा करते हैं और निर्णय लेते हैं। कभी-कभी आम राय बनाने में कई दिन लग जाते हैं। जब आम राय बनती हैं तो पार्क में उल्लास छा जाता है। यह बड़ा ही उत्तेजित करनेवाला प्रेरक प्रसंग है। इस आंदोलन की विशेषताओं को निम्नप्रकार दर्ज किया जा सकता हैः-
¹ यह एक व्यापक जन आंदोलन है। इसका कोई एक नेता नहीं है और ना ही कोई एक निश्चित विचारधारा, जिसकी पहचान विद्यमान राजनीति के फ्रेमवर्क में की जा सके।
¹ फिर भी आंदोलन लक्ष्यविहीन नहीं है और ना ही है दिशा विहीन। यह निश्चय ही वर्तमान अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्वतःस्फूर्त विस्फोट है।
¹ इस आंदोलन में अराजकतावादियों समेत विभिन्न मतावलंबियों का पंचमेल संगम प्रकट है। इसके बावजूद इनका मजबूत नेटवर्किंग है और फैसला लेने के लिये एक ‘जनरल एसेम्बली’ भी है, जहां आमराय से सभी फैसले किये जाते हैं।
¹ आंदोलन का अबतक कोई मांगपत्र ;चार्टरद्ध तैयार नहीं है, फिर भी इनके नारों में मांगें स्पष्ट हैं। जैसे कार्पोरेट/कार्टेल का भ्रष्टाचार, लूट और अनंत लाभ-लोभ का विरोध, सैन्य उद्योग समूह नष्ट करना, मृत्युदंड समाप्त करना, सबको स्वास्थ्य प्रावधान, आर्थिक विषमता और बेरोजगारी।
¹ इनके नारों में ‘मुनाफा के पहले जनता’ ;च्मवचसम इमवितम चतवपिजद्ध और सीधा लोकतंत्र ;क्पतमबज क्मउवबतंलद्ध बहुत लोकप्रिय है।
¹ आंदोलन के स्वरूप के बारे में इनकी ‘जनरल एसेम्बली’ की एकमात्र पसंदीदा मार्ग है ”सीधी अहिंसक कार्रवाई“ ;छवदअपवसमदज क्पतबज ।बजपवदद्ध
¹ अनेक स्थानों में पुलिस हस्तक्षेप और गिरफ्तारियों के बावजूद आंदोलन आश्चर्यजनक शांतिपूर्ण है।
¹ आंदोलन का मुख्य निशाना बैंक, शेयर बाजार और वित्तीय संस्थान है।
गैरबराबरी तबाही का कारण
नौजवानों के इस आंदोलन ने निःसंदेह अमेरिकी समृ(ि के गुब्बारे की हवा निकाल दी है। अमेरिका के लाखों लोग आज फूड कूपन पर गुजारा करते हैं। वे स्वास्थ्य बीमा के कवरेज से बाहर हैं। बेराजगारी दो अंको को चूमने को है। आर्थिक विषमता और नाबराबरी का फर्क आकाश पाताल का है। सिर्फ 400 अमेरिकी धनाढ्यों के पास इतनी संपदा इकट्ठी हो गयी है, जो 15 करोड़ आम अमेरिकियों की कुल जमा संपति से ज्यादा है। अर्थात नीचे के 90 प्रतिशत जनसंख्या की सम्मिलित कुल संपदा से ज्यादा धन महज एक प्रतिशत धनिकों के हाथों में बंद है। ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक अमेरिका की कुल आर्थिक उपलब्धियों का 65 प्रतिशत केवल एक प्रतिशत धनी हड़प लेते हैं।
जहां तक कर्मचारियों के वेतन में व्याप्त विषमता का प्रश्न है न्यूयार्क स्टाक एक्सचेंज में कार्यरत कर्मचारियों का औसत वेतन 3, 61, 330 डालर है, जो अमेरिका के अन्य निजी क्षेत्र में काम करनेवाले कर्मचारियों के वेतन की तुलना में साढ़े पांच गुना अधिक है। इसका अर्थ यह है कि औद्योगिक मजदूरों का वेतन वित्तीय क्षेत्र के मुकाबले साढ़े पांच गुना कम है। वर्ष 2010 के सर्वेक्षण के मुताबिक अमेरिका के 100 बड़ी कपंनियों के प्रमुख कार्यकारी अफसरों का वेतन उस कम्पनी के द्वारा सभी तरह के टैक्स भुगतान की कुल धनराशि से ज्यादा था। प्रदर्शनकारियों ने बैनर लगाया हैः ठंदामते ंतम इंपसमक वनजए ूम ंतम ेवसक वनज ;बैंकर्स को राहत आम आदमी को आफतद्ध प्रदर्शनकारी सख्त एतराज जताते हैं कि बैंकों के डूबने का जिम्मेदार आम आदमी नहीं है तो फिर आम आदमी बैंक डूबने की सजा क्यों भुगते?
आम आदमी के कंधों पर वित्त संकट का हल निकाला जा रहा है। बैंक प्रमुखों के वेतन/पक्र्स नहीं काटे गये, जबकि कर्मचारियों का वेतन फ्रीज किया गया।
पूंजीवाद का अंतर्विरोध उबाल पर
मंदी और वित्त संकट पर हाल के वर्षों में अनेक शोध ग्रंथ छपे हैं। उन शोध ग्रंथों की समीक्षा करते हुए प्रसि( स्तंभकार निकोलस क्रीस्टौफ का न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक आलेख काफी चर्चित हुआ है, जिसमें बताया गया है कि अमेरिका में उभर रही आर्थिक नाबराबरी न केवल सामाजिक तनाव पैदा करती है, बल्कि अर्थव्यवस्था को ही बर्बाद कर रही है।
अर्थव्यवस्था के अमेरिकी शोधकर्ता कार्ल माक्र्स के कथन को सही ठहरा रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि पूंजीवाद अपना कब्र खुद खोदता है। सभी शोध ग्रंथों का निचोड़ है कि सरकार के बेल आउट पैकेजों के अपेक्षित परिणाम नहीं आये।
कार्नल विश्वविद्यालय के प्रो. राबर्ट फ्रैंक ने अपनी पुस्तक ”द डार्विन इॅकानामी“ में दुनिया के 65 औद्योगिक देशों की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया गया है। इसमें इस तथ्य को उजागर किया गया है कि अर्थव्यवस्था में ज्यादा विषमता की अवस्था विकास दर को धीमा करती है। पुस्तक में यह निचोड़ निकाला गया है कि आय में अपेक्षाकृत ज्यादा समानता विकास दर तेज करती है, जबकि विषम आय की अवस्था में स्लोडाउन देखा गया है।
इन शोध ग्रंथों के हवाले से निकोलस क्रीस्टौफ लिखते हैं कि अमेरिका के मामले में इन शोध ग्रंथों का यह मंतव्य बिल्कुल सही है। 1940 से 1970 तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मजबूती से तेज विकास हुआ, क्योंकि लोगों ने ज्यादा समानता का उपभोग किया। उसके बाद विषमता फैली तो विकास धीमा दर्ज हुआ। है। इसलिये आर्थिक विषमता जाहिरा तौर पर अर्थव्यवस्था को वित्तीय संत्रास और दिवालियापन में धकेलती है। ;इंडियन एक्सप्रेसः 17 अक्टूबर 2011द्ध

एकमात्र पसंदीदा मार्ग
इस आंदोलन के बारे में राजनेताओं में अल गौरे का बयान ध्यान देने लायक है। अल गौरे ने इसे ”लोकतंत्र का बुनियादी चित्कार“ ;च्तपउंस ैबतमंउे व िकमउवबतंबलद्ध कहा है। अमेरिकी लोकतंत्र के बारे में प्रो. नोम चैम्स्की का कथन है कि ”अमेरिका में लोकतंत्र काम नहीं करता है और यहां संसदीय पद खरीदे जाते हैं।
पहले पहल अमेरिकी जनगण को इस तथ्य का अहसास हो रहा है कि राजनीतिक लोकतंत्र के साथ आर्थिक लोकतंत्र भी जरूरी है। लोकतंत्र की सार्थकता जनगण की आर्थिक खुशहाली में निहित है। अर्थपूर्ण लोकतंत्र के लिये जनगण की खुशहाली पहली शर्त हैं।
कुछ दिन पूर्व तक अमेरिकी अर्थशास्त्री मुक्त बाजारवाद के गीत गाते थे। उनका उपदेश थाः सरकार का काम राज करना है। सरकार के लिये व्यापार और उद्योग परिचालन में दखल देना अनैतिक है। आज वे ही अर्थशास्त्री डूबे बैंकों को उबारने के लिये सरकारी सहायता के लिये हाथ फैला रहे है और सरकार भी मुक्तहस्त से उन्हें उपकृत भी कर रही है। यह बात जनता की समझ में आ गयी है कि सरकारी चिंता केवल कार्पोरेट मुनाफा को बचाने की है। इसलिये उन्होंने ‘मुनाफा के पहले इंसान’ ;च्मवचसम ठमवितम च्तवपिजद्ध का नारा दिया है।
यहां यह बात खासतौर पर गौर करने की है कि आंदोलनकारियों की रणनीति लंबी लड़ाई की है। इसलिये वे आंदोलन को शांतिपूर्ण बनाये रखने के लिये दृढ़ हैं। वे आंदोलन के दरम्यान ही संगठन का लोकतांत्रिक ढांचा भी तैयार करने में जुटे हैं। उनके सामने मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से जनता की व्यापक लामबंदी का प्रत्यक्ष इतिहास है। इसलिये आंदोलन की जनरल एसेम्बली ने काफी विचार विमर्श के बाद ”अहिंसक सीधी कार्रवाई“ ;छवदअपवसमदज क्पतमबज ।बजपवदद्ध को ”एकमात्र पसंदीदा मार्ग“ ;वदसल बीवपबमद्ध का अवलंबन तय किया है। जाहिर है, लोक आकांक्षा की अभिव्यक्ति पर आधारित जनता का शांतिपूर्ण आंदोलनात्मक क्रियाकलाप एक शक्तिशाली विश्वव्यापी आयाम ग्रहण कर चुका है।
आंदोलनकारी पूंजीवाद, समाजवाद जैसे प्रचलित जुमले इस्तेमाल नहीं करते हैं, पर वे कार्पोरेट लोभ और आर्थिक विषमता को बेबाक तरीके से बेनकाब करते हैं। इतना तय है कि अमेरिकी इतिहास में पहली मरतबा नौजवानों और आम लोगों ने बहुप्रचारित अमेरिकी समृ(ि पर सीधी ऊंगली उठायी है। पूंजी के जंगल में आग लगा चुकी है। यह दावानल रूकनेवाला नहीं है। इसे कतिपय रियायतों की घोषणा से दबाया नहीं जा सकता। यह संपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था के विरू( प्रकट वर्ग यु( है। लोग समझने लगे हैं कि पूंजीवाद अपने आप में एक संकट है। पूंजीवाद समाधान नहीं हैं। जनगण की समस्याओं का समाधान कर पाने में विफल पूंजीवादी अर्थतंत्र में अंतर्निहित अंतर्विरोध का स्वतस्फूर्त विस्फोट है यह नौजवानों द्वारा शुरू किया गया आंदोलन। इसीलिये ट्रेड यूनियनें, विभिन्न नागरिक समूह और आम लोग भी इसमें खींचते चले आ रहे हैं।

सत्य नारायण ठाकुर

3 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

तथ्यात्मक और संग्रहणीय लेख
बहुत बढिया

BS Pabla ने कहा…

विचारोत्तेजक लेख

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

किंगफ़िशर एअरलाइन इसी आंदोलन से प्रभावित होकर सरकार से पैसे मांगती लगती है :)

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