बुधवार, 2 नवंबर 2011

भ्रष्टाचार विरोध का प्रहसन पटाक्षोप की ओर-3

पूंजीवाद की गहरी नींव

हमारा स्पष्ट मत रहा है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन और उससे निकली टीम अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन नवउदारवादी व्यवस्था को मजबूत करने के लिए हुआ है। हम यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि नवउदारवादी व्यवस्था की मजबूती का यह काम अनजाने या भटकाव के कारण नहीं, स्वाभाविक रूप में हुआ है। नवउदारवादी व्यवस्था और उसके संचालकों ने समय पर हस्तक्षेप करके आगे का रास्ता साफ़ कर लिया है। नवउदारवाद की मजबूती का यह उद्यम दुनिया और भारत में कोई अनोखी या परेशानी की बात नहीं है, बशर्ते उसे उसी रूप में देखा जाए। पूंजीवाद की धु्री पर टिकी आधु्निक औद्योगिक सभ्यता में ज्यादातर शासक वर्ग नवउदारवाद की मजबूती में लगा है। उसे नवउदारवाद की मजबूती में ही दुनिया का कल्याण दिखाई देता है।
आप देख सकते हैं 'दूसरी आजादी’ मिल जाने और क्रान्ति’ हो जाने के बावजूद किसी भी क्षेत्रा और विषय में नवउदारवाद के विरोध संबंधी कोई निर्णय राज्यसत्ता द्वारा नहीं लिया गया है। इससे पूरी टीम को कोई परेशानी नहीं है, जैसे कि उसे पहले के नवउदारवादी पफैसलों से भी नहीं थी, जिनके चलते देश में घोटालों की बा़ आ गई। उसने जन लोकपाल विधेयक को हारिल की लकड़ी की तरह पकड़ा हुआ है। उसी में उसे सारी मुक्ति दिखाई देती है। हमने ऊपर बताया कि अन्ना से जब यह पूछा गया कि आपकी टीम के सदस्य प्रशांत भूषण नवउदारवाद के और अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के विरोधी हैं, तो अन्ना ने दोनों को सही रास्ते पर लाने का भरोसा दिया। वैश्विक आर्थिक संस्थाओं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, एनजीओ, दलालों, बिल्डरों और मुख्यधरा राजनीति के बल पर कारपोरेट पूंजीवाद पहले की तरह बिना रोकटोक चल रहा है।
आप ध्यान करें, दूसरी आजादी’ और ॔क्रांति’ होने की घोषणाओं के साथ नवउदारवादी विज्ञापनों की दुनिया यथावत दिखाई जा रही थी। दोनों में असंगति की चर्चा एक बार भी किसी कोने से नहीं उठी। क्योंकि दोनों में असंगति है ही नहीं। देशभक्ति के ज्वार में झूमते चैनलों में एक भी ऐसा नहीं था जो उतने दिन विज्ञापनों को परे हटा कर केवल दूसरी आजादी’ और क्रान्ति’ का संदेश प्रसारित करता! टीम अन्ना के अगुआ जब कहते हैं कि उन्हें किसी राजनीति या पार्टी से लेनादेना नहीं है, केवल जन लोकपाल कानून बनने से वास्ता है, तो बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है उनका जन लोकपाल कानून नवउदारवाद की मजबूती का कानून है। भूमि अधिग्रहण और चुनाव सुधार आदि मसलों को अन्ना और उनकी टीम से उठवाने के वकील अगर वाकई नहीं समझ पाए हों तो समझ लें जैसा कि ऊपर कहा गया है, आगे इन सब मसलों का नवउदारवादी फ्रेमवर्क में समाधन निकाला जाएगा और फटाफट निकाला जाएगा। आंदोलन की सफलता के बाद प्रकट और प्रच्छन्न नवउदारवादियों को देरी बरदाश्त नहीं होगी। निकट भविष्य में, जब प्रछन्नता का आच्छादन उतार कर पफेंक दिया जाएगा तो नवउदारवादियों की सेना का विकट रूप देखने लायक होगा।
आंदोलन में जिन लोगों का सैलाब उमड़ा, वे नवउदारवादी व्यवस्था से बाहर नहीं होना चाहते। जाहिर है, वे बाहर नहीं होंगे तो दूसरे लोग होंगे करोड़ों किसान, आदिवासी, बेरोजगार नौजवान। टीम अन्ना ने आंदोलनोत्तर जो अभियान छेड़ा हुआ है वह दरअसल उस बदहाल आबादी को अपने स्वार्थ में इस्तेमाल करने का अभियान है, जो या तो बाहर हो चुकी है या आगे होती जाएगी। जनता को छलने का यह मुख्यधरा राजनीति वाला तरीका ही है। हालांकि उससे खतरनाक, क्योंकि इसमें अराजनीतिक होने का पाखंड किया जाता है। क्योंकि राजनीतिक विरोध नहीं होगा तो नवउदारवाद निश्चिंत होकर चलेगा।
दीवारों पर यह साफ़ इबारत लिखी है कि भारत में नवउदारवाद को आगे बड़े काम करने हैं। शिक्षा से लेकर सेना तक को निजीकृत करना है। फालतू आबादियों को साफ़ करना है और बचने वाली आबादी के क्लोनीकरण का काम पूरा करना है। नसनस में प्रतिस्पर्धा, हिंसा, ड्रग और सैक्स का सामान करना है।

रामलीला मैदान के पहले और दौरान जिस तरह का उत्तेजनापूर्ण माहौल मीडिया, टीम अन्ना और सरकार ने मिल कर बनाया, उसमें अन्ना की कोई जरा सी चोट अथवा अनशन के दौरान हल्की मूर्छा भीड़ को हिंसक बना सकती थी, जिसमें बड़ी संख्या में लोग हताहत हो सकते थे। वह भीड़ वैसी ही अहिंसक’ थी जैसे खुद अन्ना हैं, जो बातबात पर फांसी देने, पाकिस्तान पर हमला करने तथा महाराष्ट्र में मजदूरी का काम करने वाले उत्तर भारतीयों को पीट कर खदेड़ने की ललकार देते रहते हैं।
भारत के मध्यवर्ग की हिंसक प्रवृत्ति उसके रोजमर्रा के व्यवहार में कदमकदम पर देखी जा सकती है। उदाहरण के तौर पर, अन्ना के अहिंसक’ आंदोलनकारी कॉलोनियों में कारें खड़ी करते और सड़कों पर चलाते वक्त एकदूसरे से झगड़ते, गालियां बकते और मारपीट करते नजर आते हैं। इध्र टीम के सदस्य और समर्थक आपस में लातघूंसा और जूताचप्पल कर रहे हैं। दरअसल, भारत का बड़े और महानगरों में रहने वाला ज्यादातर मध्यवर्ग नवउदारवादी प्रभावों के चलते या तो उग्र होता है या डिप्रैशन का शिकार। वह जमाना कब का बीत गया जब परिवर्तन की वैचारिक प्रेरणाओं के सपफलीभूत न होने पर मध्यवर्ग के राजनीतिक सोच के लोग विरक्त से लेकर सेजोप्रफेनिक तक हो जाते थे। अब हर कदम पर नित नई उपलब्धि्यां न होने से गुस्से में भरे लोग या तो उग्र होते हैं या डिप्रैशन का शिकार। आपको केवल वे ही लोग ॔स्वस्थचित्त’ मिलेंगे, जो प्रकट या प्रच्छन्न रूप में नवउदारवाद का स्वीकार और भोग करते हैं।
आंदोलन से पैदा हुई ऊर्जा का तर्क समर्थकों द्वारा ऐसे दिया जाता है गोया तर्क की अपनी कोई प्रणाली या प्रमाण न होता हो। कितने ही गंभीर नागरिक आंदोलन के इसलिए समर्थक हो गए कि आंदोलन ने भारी ऊर्जा पैदा कर दी है, जिसका सही उपयोग होना जरूरी है। जाहिर है, सही उपयोग की सबकी अपनीअपनी धरणा है। आंदोलन से जो ऊर्जा पैदा हुई है, उसे सही दिशा में लगाने के आकांक्षी यह समझने को तैयार नहीं हैं कि जिस उद्देश्य के लिए वह पैदा हुई थी, वहां पहले ही अच्छी तरह लग चुकी है। आधु्निक औद्योगिक सभ्यता ऊर्जा से संचालित सभ्यता है। वह जो ऊर्जा पैदा करती है उससे उसी का संचालन होता है। ऊर्जा की खोज, उसे हासिल करने की तकनीकी और उद्देश्य में ही यह निहित है। उससे गांधीवादी या समाजवादी सभ्यता के निर्माण का सपना देखना तर्कसंगत नहीं है। हालांकि पूरे उपनिवेशवादी दौर से आज तक ऐसा सपना पालने वालों की कमी नहीं रही है।
यूरोप में कुछ देशों में सरकारों द्वारा किए जाने वाले सादगी उपायों और उनके खिलापफ नागरिकों के आंदोलनों से लेकर अमेरिका में वाल स्ट्रीट प्रतिरोध तक देखा जा सकता है कि पूंजीवाद ने कितनी गहरी नींव जमाई हुई है। उनमें कोई भी यूरोप के अराजकतावादियों से लेकर भारत के गांधी तक प्रस्तावित वैकल्पिक व्यवस्था का हामी नहीं है। पूंजीवादी विकास के खिलापफ सारे तर्क, तथ्य और प्रमाण होने के बावजूद वह हमारी दुनिया और जिंदगी से जाने की तैयारी में नहीं दिखता। बल्कि, यूरोपअमेरिका के वृद्ध पूंजीवाद ने तीसरी दुनिया के शासक वर्ग में नवजीवन प्राप्त कर लिया है। भारत में आप देख लें। पिछले दो दशकों में पूंजीवाद ने गहरी जड़ें जमा ली हैं और देश का एक अलग चेहरामोहरा उभर कर सामने आ गया है। पूंजीवादी व्यवस्था की शिकार ज्यादातर आबादी की अंतश्चेतना को भी अपने अनुकूल कर लेने का दुश्कर काम काफी हद तक कर लिया गया है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी’ 1936 में इस सभ्यता के बारे में जो लिखा था 'कितनी गहरी डाल रही है नींव’ सत्य साबित हुआ है।
आंदोलन से ही एक उदाहरण देना चाहेंगे। जिस इंडिया गेट पर दूसरी आजादीऔर क्रान्तिके ध्वजाधरी जुलूस के लिए जमा हुए थे और हर शाम मोमबित्तयां जला रहे थे, वहीं कुछ दिन बाद उनके मनोरंजन के लिए उन विशिष्ट विदेशी कारों का प्रदर्शन हुआ जो नोएडा में 28-29 अक्तूबर को फार्मूला वननाम से होने वाली कार रैली में दौड़ेंगी। करोड़ों की कीमत वाली उन कारों के टायरों के निशान राजपथ की सड़क पर अभी तक खुदे हैं। वे मिटेंगे भी नहीं, विदेशों से और नई कारें प्रदर्शन के लिए जाएंगी। इंडिया गेट की चर्चा चली है तो यह भी देख लें कि वहां किसानमजदूर जुलूस या धरना के लिए इकठ्ठा नहीं हो सकते। अन्ना के आंदोलनकारी वहां इकठ्ठा हुए तो इसीलिए कि सरकार से लेकर आंदोलनकारियों तक की एक ही टीम है
यह सही है कि पिछले 20 सालों के संघर्ष में नवउदारवाद के खिलापफ मैदानी जीत संभव नहीं हो पा रही थी। निकट भविष्य में भी उसकी संभावना नहीं दिखाई देती थी। लेकिन अन्ना आंदोलन में शामिल होकर भारत के नवउदारवाद विरोधी वैचारिक लड़ाई भी गंवा बैठे हैं। पिछले बीसपच्चीस सालों में नवउदरवाद की नियामक संस्थाओं और उनके आदेश को लागू करने वाली राजनीति के विरोध में जो भूमिका और ताकत बन रही थी, वह न केवल पीछे धकेल दी गई है, उसका परिप्रेक्ष्य भी गड्मड कर दिया है। मार्क्सवादियों की पूंजीवादी विकास के मॉडल को अपनाने पर आलोचना करने वाले सीधे नवउदारवाद समर्थक आंदोलन में शरीक हैं। नक्सलवादियों के धन के स्रोतों पर सवाल उठाने वाले विदेशी धन और जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर पलने वालों का बचाव कर रहे हैं।
आंदोलन के मैनेजरों के दिमाग की दाद देनी होगी कि उन्होंने देश से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाहर खदेड़ने और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए नई राजनीति विकसित करने के वाकई बड़े संघर्ष को किनारे करके, मुठ्ठी भर लोगों द्वारा तैयार किए गए एक विधेयक को कानून बनाने का संघर्ष सबसे बड़ा बना दिया। उनकी खूबी और बढ़ जाती है जब परिवर्तनकारी चिंतन और आंदोलनों से जुड़े महत्वपूर्ण लोग उनके समर्थन में पूरा हांगा लगा देते हैं। यह कहते हुए कि कारपोरेट घराने, मीडिया घराने, उद्योगपतियों की संस्थाएं, धर्म के धंधेबाज, एनजीओबाज, फ़िल्मी सितारे, अवकाश प्राप्त नौकरशाह, विश्व बैंक से लेकर फोर्ड फाउंडेशन तक की एजेंटी करने वाले नागरिक समाज एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवी जनांदोलनकारी हैं। अन्ना हजारे की मानें तो नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, बाल ठाकरे,राज ठाकरे, मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी सबसे बड़े जनांदोलनकारी हैं। जनांदोलनकारियों का एक भरापूरा नया घराना सामने लाकर अन्ना और उनकी टीम के मैनेजरों ने निश्चय ही चौंका दिया है।

प्रेम सिंह
क्रमश:

2 टिप्‍पणियां:

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

नीतीश के हाल तो खूब मालूम हैं…

मार्क्सवादियों की पूंजीवादी विकास के मॉडल को अपनाने पर आलोचना करने वाले सीधे नवउदारवाद समर्थक आंदोलन में शरीक हैं।...नहीं समझा…

नक्सलवादियों के धन के स्रोतों पर सवाल उठाने वाले विदेशी धन और जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर पलने वालों का बचाव कर रहे हैं।...गलत तो है यह दोहरा व्यवहार लेकिन नक्सलियों के धनस्रितों पर सवाल एकदम जायज है…

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-687:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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