आगे का रास्ता
‘‘किसान आंदोलन आज जिस स्थिति में है उसको एक स्वतःस्पफूर्त विद्रोह या टेªड यूनियन की कोटि में ही रखा जा सकता है। उसका राजनीतिकरण कैसे होगा या उसका वैचारिक विकास कैसे होगा, इसका उत्तर परमात्मा ही दे सकेगा क्योंकि इस वक्त जो संगठित राजनीति और बु(िजीवी वर्ग हैं, वे सहायक सि( नहीं हो रहे हैं। इस वक्त यही उम्मीद की जा सकती है कि गांव और जंगल के अनपढ़ लोग अपने अंदर से ही कुछ प्रोपफेसर ;यानी एक बु(िजीवी समूहद्ध पैदा कर डालेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह निर्दलीय-अराजनीतिक किसान आंदोलन बिखर सकता है। अगर बिखर जाएगा तो हमारे प्रोपफेसर लोग और नेता लोग आह्लादित होकर कहेंगे, ‘‘हमारी भविष्यवाणी सही निकली।’’ इसलिए हम भविष्यवाणी करते हैं कि राजनीति और बौ(िक वर्ग की अकर्मण्यता के कारण किसान आंदोलन एक व्यर्थ अध्याय साबित हो सकता है। लेकिन इसकी भी संभावना है कि भारत का निर्दलीय-अराजनीतिक किसान आंदोलन अपना एक बु(िजीवी समूह और अपनी एक राजनीति पैदा कर लेगा।’’ ;किशन पटनायक, ‘किसान आंदोलन: दशा और दिशा’द्ध किशन पटनायक का 1989 का यह उ(रण भ्रष्टाचार विरोध्ी आंदोलन की शुरू से अब तक की समीक्षा में असंदर्भित लग सकता है। यह उ(रण देने का औचित्य हम थोड़ा बाद में स्पष्ट करेंगे।
अनशन तोड़ने के दिन से ही टीम अन्ना का ऐलान है कि संघर्ष आगे जारी रहेगा। उनके पास ध्न और लोग हैं। भाजपा चाहती है यह संघर्ष जारी रहे। भाजपा के चाहने का अर्थ दोनों तरह की सहायता है। कांग्रेस गहरी है। वह भाजपा से ज्यादा चाहेगी कि टीम अन्ना का आंदोलन कम से कम कुछ आने वाले समय तक, कांग्रेस के विरोध् की कीमत पर भी, जारी रहे। आंदोलन ने नवउदारवाद के विरु( संघर्ष को जो पीछे किया है, उसका महत्व कांग्रेस से ज्यादा कोई नहीं समझ सकता। संघर्ष जितने दिन भी चले, टीम अन्ना का कुछ भी नुकसान न पीछे हुआ है, न आगे होगा। संघर्ष का जो भी स्वरूप या अवध् िरहे, चलेगा वह नवउदारवाद के साथ गलबहियां करके। कुछ लोग आंदोलन के समर्थन में कहते हैं कि उसने सिस्टम की वैध्ता को चुनौती दे दी हैऋ हालांकि उससे भाजपा को पफायदा हुआ है। वे भाजपा को हुए पफायदे को दूसरे नंबर पर और सिस्टम को हिला कर रख देने के पफायदे को पहले नंबर पर रखते हैं। इस तरह वे आंदोलन के अपने समर्थन की वैध्ता सि( करना चाहते हैं। ऐसे लोगों के आकलन को अंतर्विरोध्ी कहने के बजाय उनसे एक सवाल पूछा जाना चाहिए - क्या भाजपा सिस्टम में नहीं आती है? और भी, क्या नागरिक समाज की स्वीकृति और सहयोग के बगैर कोई सिस्टम बन और बचा रह सकता है?
ऐसा नहीं है आगे जमीनों, खदानों, नदियों, पहाड़ों की लूट के खिलापफ संघर्ष नहीं होंगे। लूट होगी, विस्थापन होगा, बेरोजगारी होगी, मंहगाई होगी, तो केवल आत्महत्याएं नहीं होंगी। संघर्ष भी होगा। लेकिन अब बागडोर, कम से कम कुछ समय के लिए, वास्तविक जनांदोलनकारियों या राजनीतिक कार्यकर्ताओं के हाथ में नहीं होगी। जनांदोलनकारियों का यह जो नया घराना निकल कर आया है, उसके हाथ में और उसी के हित में होगी। आगे सब कुछ निर्णायक रूप से नवउदारवादी नीतियों के तहत निपटाया जाएगा। पहले भी सरकारों का यही प्रयास होता था। लेकिन अब वह स्पष्ट बात करेगी। सरकार कांग्रेस की हो या भाजपा की, पुराने जनांदोलनकारियों को वह कह देगी कि आपकी मर्जी का सख्त लोकपाल कानून बना दिया है। बाकी काम हमें करने दो। हमें भी किसानों, विस्थापितों, बेरोजगारों, बीमारों की चिंता है। तब जनांदोलनकारियों का नया घराना सरकारों की हां में हां मिलाने के लिए हाजिर रहेगा। अपने यु( के लिए दूसरे के रथ में सवार होने पर यही हश्र होता है।
राम से जामवंत पूछते हैं कि अगर कल को रावण भी आपकी शरण में आ जाए तो आप उसे कहां का राज देंगे? लंका का राज विभीषण को देने का वचन दे चुके राम कहते हैं कि वे रावण को अयोध्या का राज देंगे। जामवंत पूछते हैं कि तब आप कहां का राज करेगें? राम कहते हैं, हम वन का राज करेंगे। कहने का आशय है कि तरह-तरह के रथों पर सवार होकर भ्रष्टाचार के रावण को फूंकने का दावा करने वाले दरअसल सोने की लंका में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी चाहने वाले हैं।जब राम और रावण का युद्ध होना तय हो जाता है तो देवता मिल कर राम के पास पहुंचते हैं। उन्हें चिंता है कि बिना रथ के राम रावण जैसे महायोगी से कैसे लड़ेंगे - ‘रावण रथी विरथ रघुवीरा’। वे राम को युद्ध के लिए अपना रथ प्रदान करना चाहते हैं। लेकिन राम यह कह कर मना कर देते हैं कि जिस रथ से विजय होती है वह और ही होता है। राम जानते हैं सहायता के बदले देवता जीती जाने वाली सोने की लंका का राज/हिस्सा चाहेंगे। एनजीओ वाले जनांदोलनकारी नवउदारवादी नीतियों से बदहाल आबादी के संघर्ष में जुटे जनांदोलनकारियों की इसीलिए सहायता करते हैं कि नवउदारवादी व्यवस्था बनी रहे और उन्हें उसमें ज्यादा हिस्सेदारी मिलती रहे। पहले यह खेल छुपछुपा कर होता था। इस आंदोलन से खुला हो गया है। खुद जनांदोलनकारी कारपोरेट पूंजीवाद के शक्तिकोशों - कारपोरेट घरानों, एनजीओ आदि- द्वारा सज्जित रथ पर सवार हो गए हैं।
आइए, अब किशन पटनायक के उदहारण पर बात करें। याद कीजिए, अस्सी के दशक में जब देशव्यापी स्वतःस्पफूर्त किसान आंदोलन हुआ था तो यह मध्यवर्ग उसके साथ नहीं आया था। बल्कि उसने नाक-भौं सिकोड़ी थी और किसानों पर दिल्ली को गंदा करने की तोहमत लगाई थी। उस दौरान एक बार पांच लाख के आस-पास किसान बोट क्लब पर जमा हुए थे। रामलीला मैदान से वह संख्या कई गुना ज्यादा थी। पूरे देश का किसान अपने खेतों-घरों में उस जमघट से जुड़ा था। वह आंदोलन असपफल हो गया। उसके बाद देश में सबसे बड़ा राममंदिर आंदोलन चला। अपनी आंतरिक उठान में वह बाबरी मस्जिद ध्वंस का आंदोलन था जो 1992 में गिरा भी दी गई। उसके बाद यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ है। इसकी संगति किसके साथ बैठती है? किसान आंदोलन के साथ, नई आर्थिक नीतियों के विरोध् में शुरू हुए छोटे किंतु वास्तविक जनांदोलनों के साथ या राममंदिर आंदोलन के साथ?
टीम अन्ना में कौन-कौन भले लोग हैं, किस हैसियत में हैं, क्या सोच रखते हैं और उन्होंने उसमें रहते अन्ना और आंदोलन की क्या आलोचनाएं प्रस्तुत की हैं, दिगर बातें है। जो सच्चाई आइने की तरह सापफ है वह यह कि राममंदिर आंदोलन का बच्चा-बच्चा अन्ना और आंदोलन के साथ है। जेपी का आपातकाल विरोधी आंदोलन में आरएसएस को साथ लेने का पफैसला राजनीतिक था। उसके जो अच्छे-बुरे राजनीतिक परिणाम निकले और आलोचनाएं हुईं, उसके विवेचन की यह जगह नहीं है। राजनीति का एक सिरे से निषेध् करने वाले टीम अन्ना के भ्रष्टाचार विरोध्ी आंदोलन की वंशबेल का फैसला होना चाहिए।
अंत में कह सकते हैं, भारत में आजादी के पूर्व और पश्चात परिवर्तनकारी राजनीतिक संघर्ष का कुर्बानियों से भरा शानदार इतिहास है। उसकी रोशनी और प्रेरणा से, नवउदारवाद की वर्तमान जीत के बावजूद, आगे का रास्ता आसान हो सकता है। जैसा कि किशन पटनायक ने कहा है, किसान और आदिवासी अपने बेटों को आगे करके सोचा-विचारा, सतत और शांतिपूर्ण संघर्ष करें। ऐसे बुद्धिजीवी बेटे, जो मानते हैं जमीनें और जंगल मुआवजा लेकर बेचने के लिए नहीं हैं। यह अडिगता आ जाए तो नवउदारवाद की उलटी गिनती शुरू हो जाएगी।
प्रेम सिंह
समाप्त
1 टिप्पणी:
इन्तजार करना है…
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