मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

अमरीका में वाल स्ट्रीट कब्जा करो आंदोलन स्वर्ण किले पर दावेदारी भाग 2


इस प्रदर्शन के प्रति पुलिस का रवैया काफी कड़ा है। अब तक हजारों लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। सैकड़ों लोग पुलिस के बल प्रयोग से बुरी तरह घायल हुए हैं। इस अभियान में शामिल प्रदर्शनकारी महिलाओं के खिलाफ पुलिस अत्यंत हिंसक और यौन उत्पीड़क व्यवहार कर रही है। यह अमरीका में अपने ही लोगों के खिलाफ किए जा रहे व्यवहार का भिन्न तरह का नमूना है, जो बताता है कि वहाँ की राजसत्ता किस तरह अपना नकाब उतार कर फेंक चुकी है। अमरीका में चल रहा आंदोलन यूरोप में चल रहे मजदूर आंदोलन का विस्तारित रूप है। यह ऊपर से देखने पर अरब में उभरकर आए जनांदोलन जैसा दिख सकता है। यह रूप की समानता भले ही हो, पर अंतर्वस्तु में एकदम भिन्न है। यह आंदोलन एक भिन्न देश व सन्दर्भ में उभरकर आया है। जिसकी काफी हद तक समानता यूरोप में उठ रहे असंतोष, मजदूर व आम लोगों के द्वारा किए जा रहे हड़ताल प्रदर्शन के साथ है। दरअसल यह पूँजी के साम्राज्य का उतरता हुआ आवरण है, जो बुरी तरह झीना हो चुका है। बमुश्किल चार साल पहले- 2008 में मंदी की मार से एशियाई व यूरोपीय देश बुरी तरह तबाह थे। उस समय यह दावा किया गया कि मंदी खत्म हो चुका है और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक बार फिर पटरी पर है। पर न तो उस समय मंदी की मार खत्म हुई और न ही उससे निपटने के शिगूफे सफल हो पाए। जापान का विकास दर .05 प्रतिशत के आसपास बना। यूरोपीय देशों में जर्मनी, स्वीडेन जैसे कुछ देशों को छोड़कर वहाँ के हालात बद से बदतर बने रहे। अमरीका में 1947 से 2011 की शुरुआत तक औसत विकास दर 3.80 प्रतिशत रहा है, वह 2011 के मध्य में आकर 1.30 प्रतिशत रह गया है। आमतौर पर मैन्यूफैक्चरिंग यूनिटों में विकास दर गिरने का अर्थ बड़े पैमाने पर मजदूरों की छँटनी होना होता है। जब यह आम बीमारी की तरह फैलने लगता है तब इसका सीधा असर बैंकिंग या वित्तीय पूँजी पर होता है। पूँजीवादी व्यवस्था पर खड़ी सरकार के आय व व्यय पर पड़ने वाले इसके असर से न केवल विभिन्न संस्थान संकट में आ जाते हैं बल्कि यदि संकट गंभीर हो तो खुद सरकार के होने का ही संकट खड़ा हो जाता है। मध्यम आयवर्ग के लोगों की आय में या तो सीधी कटौती की जाती है या उनकी खरीद क्षमता को ही गिराकर उनसे अधिक वसूल किया जाने लगता है। मध्यम व उच्च आय के लोग अपनी जरूरतें पूरा करने के लिए कर्ज का सहारा भी लेते हैं जिसे आय न होने के चलते पर पाना मुश्किल होता है। वित्तीय बाजार में यह संकट बचत से अधिक खर्च के रूप में प्रकट होता है। वैश्वीकरण के दौर में पूँजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस वृहद एकाकार होते वैश्विक पूँजी के राज का चित्र खींचा था वह एक देश में अपने विशिष्ट संकटों के साथ दूसरे देशों के आम संकट से मिलकर एक वृहद संकट का चित्र खड़ा कर रहा है। वैश्वीकरण के दौर में जिस वित्तीय पूँजी के सहारे गैर उत्पादक कार्य के माध्यम से अर्थव्यस्था को फूँककर फुलाया गया, वह आज अपनी वास्तविक जमीन को खोजते हुए नीचे आ रहा है। आज भारत व चीन में जो विकास दर दिख रहा है उसके पीछे भागकर आ रही वित्तीय पूँजी का निवेश है जो अमरीकी संकट के दौरान कमाई का जरिया खोजने में लगी है। वैश्विक मुद्रा की दावेदारी करने वाले डालर को राजनैतिक जोर जबरदस्ती के बदौलत उसकी साख को अमरीका बचाने में लगा है। वास्तविक उत्पादन विनिमय में मुद्रा की यह भूमिका पहले से कहीं अधिक जटिल व आक्रामक होकर उभरा है। वैश्वीकरण जिस पूँजीवादी साम्राज्यवाद को बचाने के लिए युद्ध व विŸा की व्यवस्था के साथ उभरी आज वह तबाही का मंजर खड़ा करते हुए अंततः खुद अपने ही देश में बन रहे दलदल में फँस गया है। वॉल स्ट्रीट पर कब्जा आंदोलन यह बता रहा है कि मंदी 2008 के बाद भी खत्म नहीं हुआ बल्कि वह बढ़ता गया है। आज इस मंदी की बाढ़ से लोगों का दम घुट रहा है। यह मीडिया ही है जो संकट की तस्वीर देने के बजाय यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि मंदी तो बस ग्रीस तक है और वह भी उबर ही जाएगा जबकि अमरीकी अर्थव्यवस्था अपने ही पैरों पर गिरने को हो रही है। यहाँ यह जरूर याद कर लेना ठीक होगा कि मंदी से धनिकों की संपत्ति में इजाफा होना नहीं रुकता और न ही उनके सी0इ0ओ0 की तनख्वाहों में कमी आती है। हाँ, धनिकों का एक हिस्सा तबाह हो जाता है और संचित निधि का बँटवारा चंद पूँजीपति अपनी ताकत के अनुसार कर लेते हैं। पूँजीवाद जब तक है वह अपने राजनीति व अर्थनीति में धनी होने का सिद्धांत है। इसकी सबसे बड़ी मार आम जन व श्रमिक समुदाय पर पड़ता है। आज अमरीका के आम लोग व श्रमिक समुदाय जिस वॉल स्ट्रीट कब्जा आंदोलन के साथ आगे आए हैं वह अमरीकी पूँजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत है। यह आंदोलन धनिकों पर नियंत्रण रखने, सरकार की नीतियो में फेर बदल कर जन के पक्ष में ले आने, बेरोजगार व नौकरी खो रहे लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने व मजदूरों को उनके यूनियन बनाने के अधिकार के साथ सामने आया है। यदि हम इसे अमरीका के श्रमिक आंदोलन के इतिहास के सामने रखकर देखें तो यह बेहद कमजोर दिखेगा। पर यदि हम इसे आज के सन्दर्भ में रखें तो निश्चय ही इसके विभिन्न मायने निकलेंगे।

-अंजनी कुमार
समाप्त
-साभार

1 टिप्पणी:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

हमारा स्वस्थ नैतिक दृष्टिकोण ही हमारे समाज के विकास में सहायक सिद्ध हो सकता है । http://bhartiynari.blogspot.com/2011/12/blog-post_3777.html

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