इस सच्चाई पर बहुत कम ध्यान जाता है कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के निर्माण और विकास में उत्तर प्रदेश की कम्युनिस्ट पार्टी का योगदान अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। इससे बड़ा योगदान क्या हो सकता है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कानपुर में सन 1925 में की गई? यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। इसके पीछे पार्टी के निर्माण की तैयारी का इतिहास है। कानपुर में सम्मेलन करने का अर्थ यह भी था कि यू0पी0 (उस समय संयुक्त प्रान्त) में पार्टी, ट्रेड यूनियन और समाजवाद तथा कम्युनिज्म से सम्बंधित काफी कार्य चल रहे थे। इन्हीं कार्यों के परिणाम स्वरूप कानपुर में अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित किया जा सका।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का सवाल
सवाल यह पैदा होता है कि इस सम्मेलन के लिए कानपुर को ही क्यों चुना गया? 1920 के दशक के आरम्भ में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के विषय में कई बार सोचा जा रहा था। बीस का दशक आते आते कानुपर समेत भारत के कई शहरों, औद्योगिक केन्द्रों तथा अन्य जगहों पर कम्युनिस्टों और उनके हमदर्दों तथा माक्र्सवाद एवं समाजवाद से प्रभावित लोगों के ग्रुप तैयार हो रहे थे। मद्रास, बम्बई, कलकत्ता, लाहौर, कराँची इत्यादि जगहों में कम्युनिस्ट और मजदूर ग्रुप और समितियाँ उभर रही थीं तथा कुछ अखबार भी प्रकाशित हो रहे थे। घटनाएँ कम्युनिस्ट सम्मेलन की ओर बढ़ रही थीं।
उन्हीं दिनों कानपुर में भी समाजवाद और कम्युनिज़्म से सम्बंधित गतिविधियाँ हो रही थीं। कानपुर एक महत्वपूर्ण औद्योगिक एवं मजदूर केन्द्र के रूप में उभर रहा था। वहाँ टेड यूनियनें सक्रिय हो रही थीं।1924 में कम्युनिस्टों के खिलाफ अंग्रेजों ने कानपुर षड्यंत्र केस चला रखा था
जिसमें एस0ए0 डांगे, नलिनी गुप्ता, मुजफ्फर अहमद और शौकत उस्मानी पर मुकदमा ठोक दिया गया था और उन्हें जेल में बन्द कर दिया गया था। दिलचस्प बात यह है कि इस मुकदमे के सरकारी वकील रास अलस्टोन ने एक बयान दिया जिसके अनुसार अंग्रेज सरकार द्वारा कम्युनिस्टों पर उनके विचारों के लिए नहीं बल्कि अंग्रेज सरकार गिराने का षड्यंत्र रचने के लिए कम्युनिस्टों पर मुकदमा चलाया जा रहा है।
इस बयान से कम्युनिस्टों को एक मौका मिला। उन्होंने सोचा कि क्यों नहीं हम एक खुला सम्मेलन करके कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर लें और साथ ही अंग्रेजों के इस बयान की परीक्षा भी कर लें। यह विचार कौंधने के बाद कम्युनिस्ट सक्रिय हो गए। जेल में डांगे ने यह सवाल उठाया तथा बाहर एस.वी. घाटे और उनके सहयोगियों ने तथा कानपुर में सत्यभक्त इस लाइन पर सोचने लगे। बम्बई से एक साथी वी0एच0 जोशी मुकदमे से सम्बंधित कार्यों में मदद के लिए कानपुर आया करते थे। उनके जरिए डांगे ने इस विचार की सूचना बम्बई भेजी। अन्यसाथी भी सक्रिय हो गए। वी0एच0 जोशी, गणेश शंकर विद्यार्थी और दूसरों के भी मुकदमों की कानपुर से देखभाल कर रहे थे। जोशी को बताया गया कि वे कानपुर के साथियों को इस बात के बारे में बताएँ। शौकत उस्मानी ने भी कानपुर के अपने सम्पर्क वालों को ऐसे सम्मेलन का विचार दिया और सहायता का अनुरोध किया। इस प्रकार खुले रूप से कानपुर सम्मेलन की तैयारी शुरू हो गई। दूसरी ओर सत्यभक्त ने भी अपनी तरफ से तैयारियाँ आरम्भ कर दीं। सत्यभक्त कानपुर के पुराने क्रांतिकारी थे। वास्तव में वे भरतपुर के थे जो आजकल राजस्थान में हैं। 1913 में वे बम बनाने की प्रक्रिया में घायल हो गए थे। उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भी हिस्सा लिया था। उन पर लगातार पुलिस की नजर थी। अब वे रूस की क्रांति और कम्युनिज्म के अध्ययन की ओर झुक गए। उनका ब्रिटिश कम्युनिस्ट सिल्विया पैंकहर्स्ट के साथ पत्र व्यवहार था। उनसे ब्रिटिश साहित्य मिला करता था। वे राधा मोहन गोकुल जी के साथ भी सहयोग करने लगे। सत्यभक्त एस0ए0 डांगे के साथ भी सम्पर्क में थे।
कानपुर षड्यंत्र मुकदमे के दौरान कलकत्ता से एक अब्दुल हलीम आया करते थे जो मुजफ्फर अहमद को केस के सिलसिले में मदद किया करते थे। ये नौजवान सत्यभक्त के साथ रहा करते थे। एक दिन कोर्ट में सत्यभक्त ने जज को कहते सुना कि कम्युनिज़्म खुद कोई गैरकानूनी चीज नहीं है। बस सत्यभक्त के दिमाग में विचार कौंधा कि क्यों न कानपुर में एक पार्टी बनाई जाए? उन्होंने कानपुर में 1924 में एक कम्युनिस्ट पार्टी बना डाली (इण्डियन कम्युनिस्ट पार्टी या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी)। यह अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन से पहले की बात है। इसमें उनके हिसाब से करीब150 लोग शामिल हुए थे।
इसके बाद सत्यभक्त पर कड़ी सरकारी नजर रखी जाने लगी। उनकी एक किताब की दुकान भी थी, समाजवादी पुस्तक केन्द्र के नाम से, जहाँ से क्रांतिकारी और माक्र्सवादी साहित्य बेचा जाता था। दुकान पर पुलिस का कई बार छापा पड़ा। उनकी अपनी लिखी कुछ पुस्तकें भी जब्त कर ली गइंर्। इस बात के लिए सत्यभक्त की तारीफ करनी होगी कि 1924 या 25 में वे सुदूर विदेश से भी महत्वपूर्ण पुस्तकें मँगवाकर उन्हें बेचा करते थे और इस प्रकार वे पाठकों को पुस्तकें उपलब्ध कराते थे। सत्यभक्त ने 1925 में भारत के सभी कम्युनिस्ट ग्रुपों को कानपुर में सम्मेलन आयोजित करने का सुझाव देते हुए आमंत्रित किया। देश के विभिन्न हिस्सों में जो अलगअलग कम्युनिस्ट ग्रुप्स काम कर रहे थे, उन्होंने कानपुर सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय लिया। इनमें शामिल थे बम्बई, मद्रास, कलकत्ता, कानपुर, लाहौर, कराँची इत्यादि जगहों के कम्युनिस्ट सिंगार वेलू, घाटे, मुजफ्फर अहमद, अयोध्या प्रसाद, अब्दुल माजिद, जोगलेकर, निम्बकर, जे0पी0 बगरहट्टा इत्यादि। उनके अलावा मौलाना हसरत मोहानी, एस0 हसन, कृष्णा स्वामी जैसे लोग भी आए। सारे भारत के कम्युनिस्टों का यह प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन 25 दिसम्बर 1925 को कांग्रेस अधिवेशन के पण्डाल के बगल में एक अलग पण्डाल में आरम्भ हुआ। इसी सम्मेलन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा 26 दिसम्बर को हुई तथा यह सम्मेलन 29 दिसम्बर को सम्पन्न हुआ। यह ध्यान रहे कि उन दिनों आजादी की लड़ाई में कम्युनिस्टों का कांग्रेस के साथ गहरा सहयोग था। इसके अलावा स्वयं कांग्रेस पार्टी के कई प्रगतिशील और वामपंथी नेता चाहते थे कि कम्युनिस्टों का संगठन बने। उनकी शुभकामनाएँ इनके साथ थीं। कांग्रेस अधिवेशन के साथ सम्मेलन करने का एक और फायदा यह भी था कि कांग्रेस के कई कम्युनिस्ट सदस्य इसमें आसानी से हिस्सा ले सकते थे। कम्युनिस्टों को खुला सम्मेलन करने का इससे अच्छा मौका और कोई नहीं था।
सत्यभक्त सम्मेलन में चुनी गई कार्यकारिणी में शामिल किए गए। आगे चलकर उनके इस पार्टी के साथ मतभेद ब़ते चले गए, जो कुछ पहले से ही मौजूद थे। बाद में उन्होंने अपने को अलग कर लिया लेकिन वे सी0पी0आई0 के साथ जुड़े रहे। काफी बाद में वे दिल्ली में अजय भवन भी डॉ0 अधिकारी तथा अन्य से मिलने आया करते थे।
अनिल राजिमवाले
क्रमश:
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