उत्तर प्रदेश में भारद्वाज का योगदान
हम भारद्वाज का कुछ उल्लेख कर आए हैं। वे एक असाधारण कम्युनिस्ट थे, दुर्भाग्य से वे मात्र 40 वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए। उनका जन्म दिसम्बर 1908 में और मृत्यु 8 अप्रैल 1948 को हुई। लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन पर अपनी अमिट छाप अंकित कर दी। उनके राजनैतिक जीवन का प्रारम्भ पं0 जवाहर लाल नेहरू और पी0सी0 जोशी की देखरेख में हुआ। 1919 में जब महात्मा गांधी पालवाल (आजकल हरियाणा में) में गिरफ्तार कर लिए गए तो रुद्र दत्त भारद्वाज ने बड़ौत (मेरठ) में अपने स्कूल में हड़ताल करवा दी। इसके अगले ही साल तिलक की मृत्यु पर स्कूल में उन्होंने फिर हड़ताल करवाई। गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने फिर हड़ताल करवाई। गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने स्कूल का बहिष्कार कर दिया। पैदल चलकर दिल्ली गए और गांधी जी के आम आह्वान पर उन्होंने दो महीनों तक चरखा चलाया। फिर उनके बड़े भाई देव दत्त भारद्वाज उन्हें वापस ले गए। 1925 के कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में वे सक्रिय कार्यकर्ता बने। बाद में इलाहाबाद और बनारस में पॄे। पी0सी0 जोशी से उनका परिचय 1928 में हुआ। वे जोशी के भाषण से प्रभावितहो गए और उनसे बातें करने गए। फिर उनकी दोस्ती आगे ब़ती गई और वैचारिक विचार विमर्श होता गया। तब भारद्वाज को समझ में आया कि रूसी और फ्रांसीसी क्रांतियों में क्या अन्तर है।
1929 में मेरठ षडयंत्र केस में पी0सी0 जो0शी की गिरफ्तारी के बाद कम्युनिस्ट पर चार और पार्टी बनाने की जिम्मेदारी भारद्वाज पर आ गई। इसी समय उन्हें पं0 नेहरू के साथ यूथ लीग में काम करने का मौका मिला।
आर0डी0 भारद्वाज ने 1931 में एम0ए0 पास किया। साथ ही उन्होंने मेरठ मुकदमे के कैदियों के लिए सक्रिय काम भी किया। पॄाई पूरी करके रुद्रदत्त भारद्वाज बम्बई चले गए जहाँ वे गिरनी कामगार यूनियन तथा नौजवान मजदूर सभा के काम में लग गए। ऐसा उन्होंने मेरठ में गिरफ्तार बम्बई के साथियों के आग्रह पर किया क्योंकि वहाँ काम करने वाले साथियों की जरूरत थी। वे वहाँ बी0बी0 एण्ड सी0आई0 रेलवे की यूनियन के महामंत्री चुने गए। उन्हें कामरेड सर देसाई के साथ काम करने का मौका मिला। भारद्वाज ने बम्बई तथा अन्य जगहों के कपड़ा मिल मजदूरों में बड़ा ही सक्रिय काम किया। फलस्वरूप उन्हें 3 महीनों की जेल की सजा दी गई। फिर रेलवे के मजदूरों में काम के लिए भी ड़े महीने की सजा भुगतनी पड़ी। यह तीस के दशक के आरम्भ की बात है। वे 1934 के बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कपड़ा मिल मजदूर सम्मेलन में सक्रिय थे। उन्हें फिर अहमदाबाद से दो साल का वारण्ट जारी करके गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें सिन्धु प्रदेश के हैदराबाद में गिरफ्तार रखा गया। 1936 में जेल से छूटने पर पुलिस उन्हें इलाहाबाद ले आई और उनके बड़े भाई देवदत्त भारद्वाज के हवाले कर दिया। देवदत्त लीडर नामक अखबार के सम्पादक थे।
अब आर0डी0 भारद्वाज के राजनैतिक जीवन की अगली मंजिल आरम्भ हुई और वे मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश में काम करने लगे। उन्हें नागपुर में उसी समय हुई केन्द्रीय समिति की बैठक में समिति का सदस्य बना दिया गया। गुप्त पार्टी कार्यालय बनाकर लखनऊ में वे रहने लगे। फिर पार्टी के दो हिन्दी अखबार उन्होंने प्रकाशित करने शुरू किए। इनके नाम थे साप्ताहिक नया हिन्दुस्तान और मासिक प्रभा। बहुत जल्द ही कानपुर में पार्टी का एक मजबूत केन्द्र स्थापित हो गया। इसमें संत सिंह, यूसुफ, अशोक बोस, सोने लाल, संतोष कपूर, अर्जुन अरोड़ा इत्यादि के साथ भारद्वाज हमेशा तत्परता के साथ शामिल रहते थे।
कांग्रेस कमेटियों में कम्युनिस्ट सदस्य तथा संयुक्त मोर्चा
उन दिनों पी0सी0 जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्र रूप से काम करने के अलावा कांग्रेस में रहकर काम की नीति अपना रखी थी। इससे पार्टी एवं जन आन्दोलन को बहुत फायदा पहुँचा। कई कम्युनिस्ट विभिन्न प्रादेशिक कांग्रेस कमेटियों तथा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने। डॉ0 जेड0 ए0 अहमद तो उत्तर प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी थे। ए0आई0सी0सी0 में आगे चलकर आर0डी0 भारद्वाज भी चुने गए। उन्होंने ए0आई0सी0सी0 में जोरदार भाषण भी दिए। भारद्वाज ने कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में हिस्सा लिया और कम्युनिस्टों के विचार प्रस्तुत किए। वे 1940 के कांग्रेस के रामग़ अधिवेशन में भी गए। कानपुर मजदूर सभा की स्थापना में कम्युनिस्ट और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रगतिशील कांग्रेसियों का परस्पर सहयोग रहा। यहाँ भारद्वाज की बड़ी सक्रिय भूमिका रही। इन लोगों और बाद में पं0 बाल कृष्ण शर्मा ॔नवीन’ के कारण कानपुर में कांग्रेस कम्युनिस्ट एकता आगे ब़ी।
आगे चलकर रुद्रदत्त भारद्वाज को कठिन जेल जीवन और कष्टमय परिस्थितियों के कारण टी0बी0 हो गया। उनका देहान्त इसी बीमारी के कारण 1948 में हो गया। वे उत्तर प्रदेश के ही नहीं बल्कि समूचे भारत के एक असाधारण कम्युनिस्ट तथा स्वतंत्रता सेनानी थे। वे सच्चे मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण थे, भले उनका अपना जीवन सुखों से वंचित और विभिन्न प्रकार के दुखों से भरा हुआ था। यह बड़े ही खेद का विषय है कि उनकी जीवनी और योगदान की उपेक्षा कर दी गई है। अब समय आ गया है कि उनके यादों के बारे में विस्तार से जनता को ही नहीं बल्कि स्वयं कम्युनिस्टों को भी अवगत कराया जाए।
अनिल राजिमवाले
क्रमश:
1 टिप्पणी:
achhi hai rachna ,
एक नए ब्लागर के लिए लिखने से अधिक पढ़ना सुविधाजनक होता है.
हिंदी में टिप्पणी करना भी अभी कठिन है.
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