जनसाधारण की समस्याए बढती ही जा रही है |चारो तरफ से बढ़ रही है |आम उपभोग के सामानों की मंहगाई की चरम सीमा रोज बन और बिगड़ रही है |लगता है की अब इस सीमा का चरम बिंदु का निर्धारण ही गलत है |इसके चरम सीमा के बारे में सोचना ही गलत है |साधारण अनपढ़ मजदूरों से लेकर औसत और ठीक ठाक पढ़े -लिखे लोगो में बेकारी , बेरोजगारी बढती जा रही है |स्थायी रोजगार के अवसरों में भारी कटाव -घटाव होता जा रहा है |छोटे और औसत जोतो के मालिक ,किसानो तथा दस्तकारी ,बुनकरी व छोटे -मोटे कामधन्धो में लगे तमाम लोगो का काम धंधा संकटग्रस्त ,कमजोर व मंदा पड़ता जा रहा है |
उनमे टूटन आती जा रही है |परिवार के अन्य सदस्य ,दूसरों के यहा काम ,मजदूरी करने के लिए बाध्य होते जा रहे है |साधारण मध्यम वर्गीय परिवारों में भी अब एक व्यक्ति की कमाई से साधारण स्तर का भी गुजर -बसर संभव होता नही दिख रहा है |पति -पत्नी दोनों को ही काम या मजदूरी में लगना आवश्यक होता जा रहा है |सस्ती और बेहतर शिक्षा ,चिकित्सा जैसी सुविधायेतो कब की हवा हो चूकि है |आम आदमी के लिए आसानी से सुरक्षा व न्याय पाना दूर की कौड़ी हो गया है |उल्टे वह आज कल सरेआम अन्यायियो व अत्याचारियों की यहा तक की अपराधियों की भी सेवा कर रही है |यह स्थिति जनसाधारण के लिए शासन ,सुशासन के लोप को ही नही ,अपितु जनसाधारण के हितो की दृष्टि से समूची शासन व्यवस्था की जगह राज की अव्यवस्था या कहिये अव्यवस्था का राज स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता जा रहा है |
यह सब दो -चार सालो से नही हो रहा है |बल्कि लम्बे समय से चल रहा है |1947 -50 के बाद आम जनता की आशाओं उम्मीदों से एकदम अलग हो रहा है |उसकी तब की आशाये अब निराशाओं में बदलती जा रही है |सुनहरे भविष्य के सपने ,सोते समय देखे गये सपनो जैसा साबित होते जा रहे है | लेकिन देश के धनी मानी लोगो के लिए ,देश के हुक्मरानों के लिए देश काफी तरक्की पर है |जनता की स्थितिया बेहतर हो रही है |उसकी गरीबी घट रही है |खुशहाली आ रही है |
कमोबेश ऐसा ही आकलन देश के उच्च स्तरीय विद्वानों का भी है |इसीलिए प्रचार माध्यमो में उनके लेखो चर्चाओं में समाज के बहुसंख्यक जनसाधारण की बढती समस्याओं पर समाचारों ,चर्चाओं को महत्व नही मिल पा रहा है |पैसे और चमक दमक से भरपूर खेलो के लिए ,फ़िल्मी सितारों ,गायकों ,नर्तको और अन्य चुटकुलेबाज विदूषको के लिए समाचार पत्रों के दो तीन पेज सुरक्षित है |टी० वी0 के कई चैनल आरक्षित है |सूचनाओं और खबरिया चैनलों पर भी इन्ही उच्च स्तरीय लोगो से सम्बन्धित सूचना एवं खबरे छायी रहती है | आम आदमी से जुडी समस्याए ,खबरे ,छिटपुट इधर -उधर की सूचनाओं ,खबरों के रूप में ही दिखाई सुनाई पड़ती है
यह स्थिति पिछले 20 -25 सालो से लगातार बढती जा रही है |इन सालो में केन्द्रीय व प्रांतीय शासन सत्ता में चढती रही सभी पार्टिया अपने -अपने शासन के बेहतर व जनपक्षधर होने का प्रचार भी चलाती व चलवाती रही है |राज्य के अफसरान हिस्सों और डंडा बंदूक धारी हिस्सों की बात ही छोड़ दे | वे तो कभी भी अपने को आम जनता का सेवक नही मानते रहे है |उल्टे वे अपने ब्रिटिश शासन के जमाने से ही आम जनता का शासक -प्रशासक मानते रहे है |और वैसा ही व्यवहार भी करते रहे है | आम जनता इस या उस पार्टी को वोट भले ही दे दे |भले ही अपना मत धर्म ,जाति,के लगाव आदि के चलते दे दे |लेकिन अब बहुसंख्यक जनसाधारण को किसी भी पार्टी पर यह विश्वास नही रह गया है की वह आम जनता की समस्याओं पर गंभीरता से ध्यान देगी ,उनका निराकरण करेगी |उसकी जगह बहुसंख्यक का यह विश्वास बढ़ता जा रहा है की आज तक उसके मतों से शासन -सत्ता में चढती रही पार्टियों के नेता गण फिर से शासन -सत्ता में आने के बाद अपना चरित्र बदलने वाले नही है |उसे राहत देने वाले नही है |मंहगाई ,बेकारी ,भ्रष्टाचार ,असुरक्षा आदि को कम करने वाले नही है |
विभिन्न पार्टियों व नेताओं के प्रति जनसाधारण का बढ़ता यह नजरिया इस बात का सबूत है की अब वे पार्टिया उनकी समूची सत्ता -सरकार और देश का वर्तमान राज्य प्रणाली या व्यवस्था बहुसंख्यक आम जनता को मानवोचित जीवन का अधिकार और न्यायपूर्ण अधिकार नही दे सकता ,और उसे देने में लगातार अक्षम साबित होता जा रहा है |क्या आम जनता की बाद से बदतर होती जा रही स्थितियों में अब विभिन्न पार्टियों की आलोचनाये करके और अपनी उपलब्धिया गिना कर लोगो से चुनावी वोट पाने का अधिकार रह गया है ?क्या आम जन में विश्वास बढाने की जगह अविश्वास बढाने वाले राज्य और उसके प्रतिनिधि आम जनता का मत पाने के अधिकारी रह जाते है ?
इन बिन्दुआओ पर सोचे। क्या हक़ बनता है इन पार्टियों और नेताओं को .....
कुछ तो होगा
कुछ तो होगा
अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का
मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा
टूट मेरे मन टूट
अब अच्छी तरह टूट
झूठ मूठ अब मत रूठ
सुनील दत्ता
पत्रकार
पत्रकार
1 टिप्पणी:
vicharneey lekh
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