शनिवार, 10 मार्च 2012

मानव सभ्यता की धुरी हैं हमारे खेत-4


दूसरा फ्रंट है भारत-अमरीका संयुक्त व्यापार संगठन, इस संगठन के द्वारा लिए गए तमाम फैसलों को हरित क्रांति के बहाने थोपा जा रहा है। इस कौंसिल के अनेक नीतिगत फैसलों ने कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय निगमों का दबाब बढ़ा दिया है। तीसरा बड़ा नीतिगत फैसला बीज के क्षेत्र में 1987 में लिया गया। इसके तहत बीज के क्षेत्र में सरकारी आधिपत्य की समाप्ति कर दी गई और बीज के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का रास्ता साफ कर दिया गया। अभी जिस बीज बिल को संसद के सामने पेश किया गया है वह सीधे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की हिमायत करता है। तमाम संशोधनों के बाद भी इस बिल का रुझान निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर बना हुआ है। यह बिल किसानों को बीज के संरक्षण, उत्पादन, विनिमय, साझेदारी आदि का हक नहीं देता। इसमें राज्य सरकारों की भूमिका को हाशिये पर डाल दिया गया है। साथ ही बीज के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूत भूमिका को सुनिश्चित नहीं करता। यह बिल मूलतः बीज के अ-राष्ट्रीयकरण की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। उदारीकरण की नीतियों को लागू किए जाने के कारण खाद के उत्पादन के मामले में तेजी से गिरावट आई है। खाद के मामले में सरकारी क्षेत्र के तंत्र को तोड़ने के सुनियोजित प्रयास किए गए हैं। खाद उत्पादन की क्षमता बढ़ाने के काम को विदाई दे दी गई है। सात क्षेत्रों में खाद का उत्पादन बंद कर दिया गया है। सरकार ने खाद सब्सीडी को किसानों को न देकर सीधे खाद कारखानों को देने का फैसला किया है इससे मझोले और छोटे किसानों को सीधे नुकसान होगा।
इन दिनों मीडिया में केन्द्र सरकार की एक नीति और कार्यक्रम के बारे में सबसे ज्यादा प्रचार हो रहा है, वह है “मनरेगा” यानी महात्मा गांधी अनिवार्य ग्रामीण रोजगार योजना,। इस कार्यक्रम को जिस फैशन और मीडिया हाइप के साथ पेश किया जा रहा है और कांग्रेस के नेता इस पर जिस तरह जोर दे रहे हैं उतना वे उसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं बता रहे। इस योजना को लागू करने का कृषिक्षेत्र पर सीधा असर यह होगा कि छोटी जोत के किसानों और मझोले किसानों को खेतों में फसल के समय काम करने वाले मजदूर ही नहीं मिलेंगे। इससे धीरे-धीरे मझोले और छोटी जोत के किसानों का खेती से पलायन और विस्थापन आरंभ हो जाएगा। इसके अलावा जो इलाके या राज्य तथाकथित हरित क्रांति के गढ़ माने जाते हैं वहाँ पर भी खेती के समय माइग्रेटेड मजदूर नहीं आ पाएँगे, इन माइग्रेटेड मजदूरों के जरिए ही बड़े पैमाने पर हरित क्रांति संभव हुई है। सरकार ने मनरेगा के तहत जो योजना बनाई है उसमें मजदूरों को कृषि के बजाय सड़क निर्माण और इंफ्रास्ट्रक्चर के कामों में लगाने को प्राथमिकता दी है। फलतः कृषि के लिए फसल के समय मजदूरों की कमी होती चली जाएगी, और धीरे धीरे कृषि उत्पादन में गिरावट आएगी, जमीनें बिकेंगी, खेत मजदूरों की संख्या बढ़ेगी और भूमि के स्वामित्व का केन्द्रीकरण बढ़ेगा। मूल बात यह है कि इससे गाँवों में पामाली बढ़ेगी। कायदे से केन्द्र सरकार को इस योजना के तहत कृषि उत्पादन के काम को शामिल करना चाहिए। मसलन् फसल बोने और कटाई के समय मजदूरों की उपलब्धता बनाए रखने पर ध्यान देना होगा। साथ ही माइग्रेषन को एकदम रोकने का अर्थ भयानक हो सकता है। बहुराष्ट्रीय कृषि कंपनियों का सरकार पर दबाब है कि मनरेगा को सख्ती से लागू किया जाए जिससे उन्हें व्यापारिक लाभ हो सके। आँकड़े बताते हैं कि मनरेगा में काम करने वाले मझोले और छोटी जोत के किसान हैं और उनमें 42 फीसदी अब खेती नहीं करना चाहते। इसका अर्थ यह भी है कि भारत को अपनी जरूरत का गेहूँ आदि खाद्य विदेशों से मँगाना पड़ेगा। मनरेगा यदि ईमानदारी से लागू हो गया तो हरित क्रांति के विगत 40-45 सालों में जितने भी लाभ देश ने उठाए हैं वे सारे खत्म हो जाएँगे। हमें ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे कृषि बचे और मनरेगा भी बचे। मनरेगा को महज दैनिक मजदूरी का विकल्प बनाने के बजाय कृषि उत्पादन बढ़ाने का विकल्प बनाना चाहिए। कृषि में आर्थिक अवस्था बेहद खराब है हमें उसको दुरुस्त करने के उपाय करने चाहिए। मसलन् पंजाब के किसानों में 89 प्रतिशत खेती करने वाले किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। पंजाब में कृषि करने वाले परिवारों की आय में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है इसके कारण युवाओं में खेती का आकर्षण घट रहा है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2003-04 के अनुसार लंबे समय से कृषक परिवार की मासिक आय 3,400 रूपये पर अटकी हुई है। यह आय बढ़े इस ओर कोई नीतिगत पहलकदमी सामने नहीं आई है। किसान को आमदनी बढ़ाने के लिए नगदी फसल पैदा करने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन इसके चलते खाद्यसंकट पैदा हो सकता है। नगदी फसलें पैदा करने से देश और किसान का समग्रता में कोई फायदा नहीं होता। इसके अलावा प्राइवेट कंपनियों के लिए ठेके पर मजदूरी करने का भी पंजाब के किसानों का बड़ा बुरा अनुभव रहा है। कंपनियों के खेतों में ठेके पर काम करने वालों में कम जोत वाले किसानों की संख्या ही सबसे ज्यादा रही है और वे इस ठेकाप्रथा से तंग आ चुके हैं। ठेके पर काम करने गए 65 फीसदी किसान मानते हैं कि वे दोबारा इस तरह की मजदूरी के काम पर जाना नहीं चाहते। नगदी फसलों के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए कृषि के नए मॉडल पेश किए जा रहे हैं, किसानों से कहा जा रहा है गेहूँ नहीं गुलाब पैदा करो। चावल नहीं गन्ना पैदा करो। कृषि उत्पादन को वर्णसंकर बीजों की मदद से वैविध्यमय बनाओ। इस तरह के सुझावों के परिणामों पर पंजाब के अनुभवों के आधार पर विचार करें तो आँखें खुल जाएँगी। मसलन्, गन्ने के उत्पादन में गेहूँ और चावल से ज्यादा पानी लगता है। मोटे तौर पर ढाईगुना ज्यादा पानी खर्च होता है। गुलाब के उत्पादन में भी पानी सामान्य फसल से ज्यादा मात्रा में खर्च होता है। सामान्य तौर पर गेहूँ और चावल के उत्पादन की तुलना में नगदी फसल के उत्पादन में पाँच से दस गुना ज्यादा पानी और तिगुना रासायनिक खाद खर्च होता है। कायदे से हमें उद्योगकेन्द्रित कृषि उत्पादन से बचना चाहिए। नगदी फसलों का उससे गहरा संबंध है।
हमें स्वाभाविक कृषि उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के विकास पर जोर देना चाहिए। अमरीका से हमारे देश में बहुत कुछ सीखने पर जोर है, ऐसे में यदि एक बात अमरीका से सीख लें तो हमें सुख मिलेगा। अमरीका में कृषियोग्य जमीन को गैर-कृषि कार्यों में इस्तेमाल या स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता। अतःभारत में भी कृषियोग्य जमीन को कृषि तक सीमित रखा जाए। इस जमीन को सुरक्षित-संरक्षित करने के उपाय किए जाएँ। कृषियोग्य जमीन को समृद्ध करने के लिए विशेष आर्थिक उपाय किए जाएँ। अमरीका में इसके लिए विशेष पैकेज दिया जाता है। इस तरह की सहायता का मकसद है कृषियोग्य जमीन को और ज्यादा उपजाऊ और उपयोगी बनाना।
हमें खेतों की जरूरत है, वे हमारी अर्थव्यवस्था की धुरी हैं। खेतों का लोप हमारी सभ्यता का लोप है। खेत बचें इसके लिए जरूरी है कि रासायनिक खाद का उपयोग बंद किया जाए, किसानों को बैंकों से सस्तीदर पर कर्ज दिया जाए, सस्ती बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल, मनोरंजन की व्यवस्था की जाए। फसल की बिक्री, खरीद आदि की समुचित व्यवस्था की जाए।
-डा जगदीश्वर चतुर्वेदी

मो. 09331762368

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |