सीधी-सीधी दखलंदाजी का उदाहरण नहीं है। असली मुद्दा यह भी है कि महज 70 करोड़ रूपये में ऐसा जन विरोधी नीतिगत निर्णय भारतीय लोकतंत्र पर थोपा जा सकता है। हजारों करोड़ रूपये के निवेश को यहाँ के खेती के बाद आम आदमी के रोजगार के दूसरे मुख्य धन्धों में लगाने की इजाजत ऐसी शर्तों, ऐसी प्रतिकूल चालू आर्थिक स्थिति और सरकार की घटती साख के दौरान तकनीकी तथा व्यावहारिक रूप से एक सुगमतम धन्धे में लगाने की आजादी विश्व की विशालतम कम्पनियों को दे दी गई थी। एक बार इसे स्थगित करने के बाद एक ओर तो इस आत्मघाती (आ बैल, मुझे मार नुमा) फैसले के पक्ष में प्रचार बढ़ा दिया गया है, दूसरी ओर यह घोषणा भी की जा रही है कि इसे शीघ्र लागू कराने की कोशिशें जारी हैं।
किस तरह बेहतर राजनैतिक या कम विरोध की स्थितियाँ पैदा की जाएँगी या इस निर्णय में सुधार किए जाएँगे ताकि कम से कम इसके गलत प्रभावों को कमतर किया जा सके, यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा है।
हाँ, कई बेतुकी दलीलें देकर जनता को भरमाने के प्रयास जरूर हो रहे हैं। यू0पी0 के विधान सभा चुनावों ने राजनैतिक लोगों को एक बार फिर जनता के दरवाजों पर दस्तक लगाने को मजबूर कर दिया है। इस अवसर का इस्तेमाल खुदरा व्यापार में विशाल विदेशी कम्पनियों की भारत प्रविष्टि के पक्ष में प्रचार करने के लिए भी किया जा रहा है। इस सिलसिले में एक बिना सिर पैर की दलील का उदाहरण इस मुहिम के खोखलेपन की पोल खोलने के लिए पर्याप्त नजर आता है।
कांग्रेस के एक अति शक्तिशाली नेता ने किसानों को एक बहुत ही लचर और सच्चाई से कोसों दूर दलील देकर वालमार्ट जैसी कम्पनियों के आगमन से मिलने वाले फायदों का खाका खींचा। इस दलील का सार यह है कि किसान के आलू जैसे उत्पादन को अभी बहुत कम कीमत पर खरीदा जाता है और उसका इस्तेमाल करके डिब्बा या थैली बन्द सामान जैसे उत्पाद बनाकर उन्हें कई गुना ऊँचे दामों पर बेच दिया जाता है। इस तरह किसान को अपनी मेहनत का लाभ बहुत नाम मात्र मिल जाता है। दूसरी ओर मुख्य रूप से किसान द्वारा पैदा किए गए सामान को काफी ऊँची या महँगी दरों पर बेचा पाता है। यह सारा लाभ कृषिमाल का इस्तेमाल करने वाले उत्पादक हजम कर लेते हैं जाहिर है यह सिलसिला लगातार चला आ रहा है। सरकार और देश के लोग मिलकर इन हालात को बदल नहीं पाए है।
नेता आम सभाओं में कहते हैं कि अब सरकार इस कमी को दूर करके किसान को उसका हक दिलाना चाहती है। अब सरकार विदेशी, मुख्य रूप से यूरोप और अमरीका की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के सहारे यह करने जा रही है।
प्रत्येक कम्पनी जो 2500 करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश भारत के दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में काम कर सकने मंे समर्थ है (कुल 53 शहरों में) उनको अब भारत में खुदरा दुकानें खोलने की इजाजत देना कांग्रेस की सदारत में चलने वाली सरकार का लगभग एक तरफा निर्णय था। अभी तो विरोध के चलते इसे लागू नहीं किया जा पा रहा है किन्तु सरकार इस निश्चय पर अडिग है और इसे लागू करवा कर किसान को उसकी उपज के अच्छे दाम दिलाने को कटिबद्ध है। जाहिर है इस सरकार को अति विशाल पूँजीवाली विदेशी कम्पनियों का दामन थामकर किसानों को उनके माल का अच्छा दाम दिलाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा है। अब तक के अपने लम्बे शासनकाल में किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम दिला पाने में नाकामयाब सत्ता अब इन बाहरी विशाल कम्पनियों के माध्यम से इस मकसद को अंजाम देना चाहती है।
यहाँ दो सवाल विचारणीय हैं सच है किसान को उसकी फसल के उचित दाम मिलने में कई बाधाएँ आती हैं। उदारीकरण के बीस सालों में पेप्सी जैसी बाहरी कम्पनियों मैकडोनालड स्टारबक, सब वे, जैसी कई रेस्त्रां सीधे किसानों से फसल खरीदने वाली बहुराष्ट्रीय अनाज व्यापारी कम्पनियों को भारत में न्यौता गया, किन्तु स्थिति सुधरी नहीं। अनुबन्ध खेती में अग्रणी पंजाब जैसे राज्यों में जहाँ आलू, टमाटर की विदेशी कम्पनियों से अनुबन्ध या कान्ट्रेक्ट, खेती का चलन बहुत बढ़ा, किसानों को आलू सड़क पर फेंकने को मजबूर होना पड़ा। खाद्य प्रसंस्करण के नाम पर हानिप्रद पैकटों में नमकीन बेचने को इतना बढ़ाया गया कि लाखों हलवाइयों का रोजगार घटा। ये सब बाजार की शक्तिशाली कम्पनियों को बढ़ावा देने का नतीजा है। इन्हीं नीतियों के
सूत्रधार अब अपने करतूतों के खराब नतीजों से किसानों को बचाने के लिए और ज्यादा कड़ी, प्रतियोगिता, खुदरा व्यापारियों को न्यौतकर किसान को न्यायपूर्ण वाजिब कीमत दिलाने का झूठा भरोसा दिला रहे हैं। राजस्थानी में कहावत है कि ‘‘झूठ बोलने वाला और जमीन पर सोने वाला तंगी महसूस नहीं करता’’। इस वादे का दो मुँहा चरित्र और खुलकर सामने आता है जब यह कहा जाता है कि किसान की उपज उससे अच्छे (यानी ऊँचे) दामों पर खरीदी जाएगी और वही फसल उपभोक्ताओं को सस्ती बेच दी जाएगी।
यह चैकोर आकृति को गोल करने का करतब दिखाने का आधार क्या है। कहा जा रहा है कि ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ अनेक बिचैलियों को हटाकर बीच के मुनाफे को घटा देंगी। पहली बात तो यह है कि क्या ये विशाल खुदरा विदेशी सीधे हमारे सात लाख के करीब गाँवों के इर्द-गिर्द पसरे खेतों से खरीदकर पाएँगे। या तो उनके कर्मचारी यह काम करेंगे या उनके एजेंट, दलाल। एक थोक व्यापारी को अनेक अन्य थोक व्यापारियों को किसान का माल खरीदने में टक्कर देनी होती है। जिसका जितना वाजिब दाम और जल्दी भुगतान होगा और नाप-तौल में पारदर्शी ईमानदारी होगी, वही उतना ज्यादा माल खरीद पाएगा। इस स्थिति के मुकाबले इन बड़ी कम्पनियों के मुख्यालय अपने दलालों या कर्मचारियों को एक निश्चित कीमत पर खरीदने का हुक्म देंगे। किसानों के पास खरीदारांे के विकल्प नहीं रहेंगे। मजबूरन उन्हंे इन बड़े मगरमच्छांे द्वारा तय कीमत ही मिल पाएगी। ये मगरमच्छ इन जिन्सों के वायदा बाजार में भी सौदे करते हैं उनके पास सारे देश और संसार की संभावित फसल के आँकड़े होते हैं। इनके सामने किसान की शक्ति, क्षमता, सूचना, विकल्पों आदि की बेहद कमी। ऐसी स्थिति मंे यह उम्मीद करना कि सैकड़ों करोड़ धनराशि को पैरवी में लगाने वाली ये कम्पनियाँ किसान को वाजिबदाम यानी अभी मिल रहे दामों से ऊँचे दाम किसानों को देकर उपभोक्ताओं को अभी चुकाने पड़ने वाले दामों से कम पर बेचेंगे, किसी सामान्य समझवाले इन्सान के गले के नीचे नहीं उतर सकती है।
ऐसे लुभावने झाँसों की पुरानी, लम्बी परम्परा की यह नई खेप क्यों लाई गई है। इन दिनों भारत के विदेशी लेन-देन का घाटा राष्ट्रीय आय के चार प्रतिशत का आँकड़ा छूने की ओर बढ़ रहा है। बाहर से पूँजी आकर्षित करना अब अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है। जिन धनी देशों से यह पूँजी आती थी, वे स्वयं गिरावट, पारस्परिक विश्वास, समाप्ति से ग्रस्त वित्तीय क्षेत्र, बेरोजगारी, सरकारी बजट घाटे और भारी कर्जों के बोझ से पीडि़त हैं। अतः खुलेे आॅयल की छूट देकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बड़ा बाजार देना दिनांे-दिन विदेशी भुगतान संकट को निकट करता है। अतः अब इन कम्पनियों और उनकी वितरक खुदरा और थोक व्यापार कम्पनियों को चोर दरवाजे से रिटेल बाजार की पूँजी के रूप में भारत में अपना जाल फैलाने के लिए आने की अनुमति दी जा रही है। इस तरह 2500 करोड़ रूपये से ज्यादा विदेशी मुद्रा लाने वाली कम्पनियों को हमारे यहाँ एक-दो लाख रूपयों से लकर 5-10 करोड़ तक की पूँजी से व्यापार करने वालों के खिलाफ व्यापारिक जंग में उतारा जा रहा है। इस तरह विदेशी कम्पनियों तथा पूँजी को भारत मंे आकर मुनाफे कमाने के अवसर देने का एक खास कारण विदेशी मुद्रा संकट से बचना है। इसका सीधा अर्थ है भूमण्डलीकरण की आजादी बढ़ाने के लिए करोड़ों परिवारों की रोजी-रोटी यानी आजीविका को दाँव पर लगा दिया गया है।
वास्तव में थोक बाजार में बाहरी पूँजी को अनुमति दी जा चुकी है। विदेशी माल को बेचने के लिए उनके उत्पादकों को सीधे अपनी दुकाने खोलने की इजाजत दी जा चुकी है। रिटेल में आने की इजाजत के साथ कुछ भ्रामक शर्तें लगाई गई हैं। इन शर्तों के पालन की कोई जाँच नहीं होगी। इनको कितने अरसे में पूरा करना है, यह भी नहीं बताया गया है। गाँवों खेतों से माल खरीदने, भण्डार बनाने और उनके हानिरहित रख-रखाव में निवेश पहले होगा या दुकानें पहले खोली जाएँगी? दुकान आज खोलो और इन व्यापार सहायक कामों में निवेश वर्षो बाद करो, किन्तु घोषणा कर दो हमने ये शर्तें पूरी कर ली हैं। तब इन संभावित लोगों का क्या हश्र होगा। फिर 30 प्रतिशत माल देश के अन्दर खरीदने का अर्थ है वे 70 प्रतिशत माल आयात कर सकते हैं। हमारे उद्योगों के लिए यह एक भयावह खतरे की घंटी है। जब रोजगार समाप्त हो जाएगा, लोग उपभोक्ता ही नहीं रह पाएँगे फिर किसके भले के लिए ये कम्पनियाँ आएँगी। केवल धनी शहरी लोगों के लिए। स्पष्ट है इतने बड़े जनविरोधी फैसले की शायद ही कोई दूसरी मिसाल मिले।
-कमल नयन काबरा
मो0:- 09013504389
लोकसंघर्ष पत्रिका के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित
किस तरह बेहतर राजनैतिक या कम विरोध की स्थितियाँ पैदा की जाएँगी या इस निर्णय में सुधार किए जाएँगे ताकि कम से कम इसके गलत प्रभावों को कमतर किया जा सके, यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा है।
हाँ, कई बेतुकी दलीलें देकर जनता को भरमाने के प्रयास जरूर हो रहे हैं। यू0पी0 के विधान सभा चुनावों ने राजनैतिक लोगों को एक बार फिर जनता के दरवाजों पर दस्तक लगाने को मजबूर कर दिया है। इस अवसर का इस्तेमाल खुदरा व्यापार में विशाल विदेशी कम्पनियों की भारत प्रविष्टि के पक्ष में प्रचार करने के लिए भी किया जा रहा है। इस सिलसिले में एक बिना सिर पैर की दलील का उदाहरण इस मुहिम के खोखलेपन की पोल खोलने के लिए पर्याप्त नजर आता है।
कांग्रेस के एक अति शक्तिशाली नेता ने किसानों को एक बहुत ही लचर और सच्चाई से कोसों दूर दलील देकर वालमार्ट जैसी कम्पनियों के आगमन से मिलने वाले फायदों का खाका खींचा। इस दलील का सार यह है कि किसान के आलू जैसे उत्पादन को अभी बहुत कम कीमत पर खरीदा जाता है और उसका इस्तेमाल करके डिब्बा या थैली बन्द सामान जैसे उत्पाद बनाकर उन्हें कई गुना ऊँचे दामों पर बेच दिया जाता है। इस तरह किसान को अपनी मेहनत का लाभ बहुत नाम मात्र मिल जाता है। दूसरी ओर मुख्य रूप से किसान द्वारा पैदा किए गए सामान को काफी ऊँची या महँगी दरों पर बेचा पाता है। यह सारा लाभ कृषिमाल का इस्तेमाल करने वाले उत्पादक हजम कर लेते हैं जाहिर है यह सिलसिला लगातार चला आ रहा है। सरकार और देश के लोग मिलकर इन हालात को बदल नहीं पाए है।
नेता आम सभाओं में कहते हैं कि अब सरकार इस कमी को दूर करके किसान को उसका हक दिलाना चाहती है। अब सरकार विदेशी, मुख्य रूप से यूरोप और अमरीका की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के सहारे यह करने जा रही है।
प्रत्येक कम्पनी जो 2500 करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश भारत के दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में काम कर सकने मंे समर्थ है (कुल 53 शहरों में) उनको अब भारत में खुदरा दुकानें खोलने की इजाजत देना कांग्रेस की सदारत में चलने वाली सरकार का लगभग एक तरफा निर्णय था। अभी तो विरोध के चलते इसे लागू नहीं किया जा पा रहा है किन्तु सरकार इस निश्चय पर अडिग है और इसे लागू करवा कर किसान को उसकी उपज के अच्छे दाम दिलाने को कटिबद्ध है। जाहिर है इस सरकार को अति विशाल पूँजीवाली विदेशी कम्पनियों का दामन थामकर किसानों को उनके माल का अच्छा दाम दिलाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा है। अब तक के अपने लम्बे शासनकाल में किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम दिला पाने में नाकामयाब सत्ता अब इन बाहरी विशाल कम्पनियों के माध्यम से इस मकसद को अंजाम देना चाहती है।
यहाँ दो सवाल विचारणीय हैं सच है किसान को उसकी फसल के उचित दाम मिलने में कई बाधाएँ आती हैं। उदारीकरण के बीस सालों में पेप्सी जैसी बाहरी कम्पनियों मैकडोनालड स्टारबक, सब वे, जैसी कई रेस्त्रां सीधे किसानों से फसल खरीदने वाली बहुराष्ट्रीय अनाज व्यापारी कम्पनियों को भारत में न्यौता गया, किन्तु स्थिति सुधरी नहीं। अनुबन्ध खेती में अग्रणी पंजाब जैसे राज्यों में जहाँ आलू, टमाटर की विदेशी कम्पनियों से अनुबन्ध या कान्ट्रेक्ट, खेती का चलन बहुत बढ़ा, किसानों को आलू सड़क पर फेंकने को मजबूर होना पड़ा। खाद्य प्रसंस्करण के नाम पर हानिप्रद पैकटों में नमकीन बेचने को इतना बढ़ाया गया कि लाखों हलवाइयों का रोजगार घटा। ये सब बाजार की शक्तिशाली कम्पनियों को बढ़ावा देने का नतीजा है। इन्हीं नीतियों के
सूत्रधार अब अपने करतूतों के खराब नतीजों से किसानों को बचाने के लिए और ज्यादा कड़ी, प्रतियोगिता, खुदरा व्यापारियों को न्यौतकर किसान को न्यायपूर्ण वाजिब कीमत दिलाने का झूठा भरोसा दिला रहे हैं। राजस्थानी में कहावत है कि ‘‘झूठ बोलने वाला और जमीन पर सोने वाला तंगी महसूस नहीं करता’’। इस वादे का दो मुँहा चरित्र और खुलकर सामने आता है जब यह कहा जाता है कि किसान की उपज उससे अच्छे (यानी ऊँचे) दामों पर खरीदी जाएगी और वही फसल उपभोक्ताओं को सस्ती बेच दी जाएगी।
यह चैकोर आकृति को गोल करने का करतब दिखाने का आधार क्या है। कहा जा रहा है कि ये बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ अनेक बिचैलियों को हटाकर बीच के मुनाफे को घटा देंगी। पहली बात तो यह है कि क्या ये विशाल खुदरा विदेशी सीधे हमारे सात लाख के करीब गाँवों के इर्द-गिर्द पसरे खेतों से खरीदकर पाएँगे। या तो उनके कर्मचारी यह काम करेंगे या उनके एजेंट, दलाल। एक थोक व्यापारी को अनेक अन्य थोक व्यापारियों को किसान का माल खरीदने में टक्कर देनी होती है। जिसका जितना वाजिब दाम और जल्दी भुगतान होगा और नाप-तौल में पारदर्शी ईमानदारी होगी, वही उतना ज्यादा माल खरीद पाएगा। इस स्थिति के मुकाबले इन बड़ी कम्पनियों के मुख्यालय अपने दलालों या कर्मचारियों को एक निश्चित कीमत पर खरीदने का हुक्म देंगे। किसानों के पास खरीदारांे के विकल्प नहीं रहेंगे। मजबूरन उन्हंे इन बड़े मगरमच्छांे द्वारा तय कीमत ही मिल पाएगी। ये मगरमच्छ इन जिन्सों के वायदा बाजार में भी सौदे करते हैं उनके पास सारे देश और संसार की संभावित फसल के आँकड़े होते हैं। इनके सामने किसान की शक्ति, क्षमता, सूचना, विकल्पों आदि की बेहद कमी। ऐसी स्थिति मंे यह उम्मीद करना कि सैकड़ों करोड़ धनराशि को पैरवी में लगाने वाली ये कम्पनियाँ किसान को वाजिबदाम यानी अभी मिल रहे दामों से ऊँचे दाम किसानों को देकर उपभोक्ताओं को अभी चुकाने पड़ने वाले दामों से कम पर बेचेंगे, किसी सामान्य समझवाले इन्सान के गले के नीचे नहीं उतर सकती है।
ऐसे लुभावने झाँसों की पुरानी, लम्बी परम्परा की यह नई खेप क्यों लाई गई है। इन दिनों भारत के विदेशी लेन-देन का घाटा राष्ट्रीय आय के चार प्रतिशत का आँकड़ा छूने की ओर बढ़ रहा है। बाहर से पूँजी आकर्षित करना अब अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है। जिन धनी देशों से यह पूँजी आती थी, वे स्वयं गिरावट, पारस्परिक विश्वास, समाप्ति से ग्रस्त वित्तीय क्षेत्र, बेरोजगारी, सरकारी बजट घाटे और भारी कर्जों के बोझ से पीडि़त हैं। अतः खुलेे आॅयल की छूट देकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बड़ा बाजार देना दिनांे-दिन विदेशी भुगतान संकट को निकट करता है। अतः अब इन कम्पनियों और उनकी वितरक खुदरा और थोक व्यापार कम्पनियों को चोर दरवाजे से रिटेल बाजार की पूँजी के रूप में भारत में अपना जाल फैलाने के लिए आने की अनुमति दी जा रही है। इस तरह 2500 करोड़ रूपये से ज्यादा विदेशी मुद्रा लाने वाली कम्पनियों को हमारे यहाँ एक-दो लाख रूपयों से लकर 5-10 करोड़ तक की पूँजी से व्यापार करने वालों के खिलाफ व्यापारिक जंग में उतारा जा रहा है। इस तरह विदेशी कम्पनियों तथा पूँजी को भारत मंे आकर मुनाफे कमाने के अवसर देने का एक खास कारण विदेशी मुद्रा संकट से बचना है। इसका सीधा अर्थ है भूमण्डलीकरण की आजादी बढ़ाने के लिए करोड़ों परिवारों की रोजी-रोटी यानी आजीविका को दाँव पर लगा दिया गया है।
वास्तव में थोक बाजार में बाहरी पूँजी को अनुमति दी जा चुकी है। विदेशी माल को बेचने के लिए उनके उत्पादकों को सीधे अपनी दुकाने खोलने की इजाजत दी जा चुकी है। रिटेल में आने की इजाजत के साथ कुछ भ्रामक शर्तें लगाई गई हैं। इन शर्तों के पालन की कोई जाँच नहीं होगी। इनको कितने अरसे में पूरा करना है, यह भी नहीं बताया गया है। गाँवों खेतों से माल खरीदने, भण्डार बनाने और उनके हानिरहित रख-रखाव में निवेश पहले होगा या दुकानें पहले खोली जाएँगी? दुकान आज खोलो और इन व्यापार सहायक कामों में निवेश वर्षो बाद करो, किन्तु घोषणा कर दो हमने ये शर्तें पूरी कर ली हैं। तब इन संभावित लोगों का क्या हश्र होगा। फिर 30 प्रतिशत माल देश के अन्दर खरीदने का अर्थ है वे 70 प्रतिशत माल आयात कर सकते हैं। हमारे उद्योगों के लिए यह एक भयावह खतरे की घंटी है। जब रोजगार समाप्त हो जाएगा, लोग उपभोक्ता ही नहीं रह पाएँगे फिर किसके भले के लिए ये कम्पनियाँ आएँगी। केवल धनी शहरी लोगों के लिए। स्पष्ट है इतने बड़े जनविरोधी फैसले की शायद ही कोई दूसरी मिसाल मिले।
-कमल नयन काबरा
मो0:- 09013504389
लोकसंघर्ष पत्रिका के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित
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