बुधवार, 4 अप्रैल 2012

पश्चिमी अर्थतंत्र का अन्तहीन पतन -8

मानवाधिकारी संगठनों एवं गैर सरकारी संगठनों (एन0जी0ओ0) जिनको बड़े-बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों से धन प्राप्त होता है, उन्हें अश्वेत क्रान्तियों, सत्ता परिवर्तन एवं पुनः उपनिवेशीकरण के युद्धों में कर्णधारों के रूप में प्रयोग किया जाता है।
    एक विचित्र राजनैतिक स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। मानवाधिकार संगठन कारपोरेटांे से जो धन प्राप्त करते हैं, उनका प्रयोग सत्ता परिवर्तन एवं पुनः उप निवेशीकरण के युद्धों में किया जाने लगा है। इसको बड़े परिश्रम के साथ अभिलेखी कृत किया गया है कि ऐसे 70 मानवाधिकार संगठनों ने जिनको पश्चिमी कारपोरेट बैंकों एवं फाउन्डेशनों से धन प्राप्त होता है, सुरक्षा परिषद में एक याचिका प्रस्तुत की जो बिना किसी जांच के लीबिया मंे सैनिक हस्तक्षेप का आधार बनी। लीबिया में मानवाधिकार संगठन के तथाकथित अध्यक्ष सोलीमन बुचीगुर को पश्चिमी गुप्तचर ऐजेंसियों एवं तथाकथित नेशनल ट्राजीशनल काउंसिल का पूरा सहयोग प्राप्त हुआ। लीबिया पर थोपा गया युद्ध झूठे तर्कों पर आधारित था। सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव ऐसे दावों पर आधारित थे जिनको साबित नहीं किया गया। उन झूठे दावों में से एक यह भी था कि कर्नल गद्दाफी ने बगाज़ी में 6000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। लीबिया में कई हजार लोग जो नाटो केन्द्रों से जुड़े थे उनके प्रतिरोध को इन्हीं संगठनों के द्वारा धन प्रदान किया गया। इन संगठनों में अफ्रीकी देशों के उच्च वर्गों से जुड़े लोगों को विद्रोह के लिए भड़काया गया, बाद में इस विद्रोह की बागडोर सशस्त्र सैन्य संगठनों, जो कि लोकल स्तर पर पेशेवर लोगों के सहयोग से काम करती थीं को सौंपी गईं। जब कर्नल गद्दाफी ने पश्चिमी संसार से अपने व्यापार एवं कूटनीतिक सम्बंधों को सुधारने का प्रयास किया, कारपोरेट एवं गुप्तचर एजेंसियों के द्वारा इन मानवाधिकार संगठनों एवं गैर सरकारी संगठनों को पुनः उपनिवेशीकरण की तकनीक के तहत धन प्रदान किया गया। इन संगठनों को नाटो सरकारें सत्ता परिवर्तन, युद्ध एवं लाखों नागरिकों का दमन करने हेतु कर्णधारों के रूप में प्रयोग करती हैं। ये संगठन सामूहिक हत्याओं एवं हजारों लोगों के उत्पीड़न को जो कि विद्रोह-दमन के नाम पर किया जाता है, मूक रूप से अपनी सहमति प्रदान करते हैं एवं जब इनका उद्देश्य पूरा हो जाता है तो ये संगठन अपने स्थान को छोड़ देते हैं। परन्तु इसके पूर्व वे विश्व कारपोरेट मीडिया के माध्यम से गढ़ी हुई कहानियाँ एवं गलत प्रचार, इन संगठनों के माध्यम से फैलाते हैं।
    भारत में आर्थिक सुधार एवं वैश्वीकरण के युग में, संवैधानिक सिद्धांतों एवं कार्यपालिका के निणर्यों के मध्य बढ़ता हुआ अन्तर-
    यह अन्तर प्रजातंत्र पर नवीन आर्थिक नीति, संवैधानिक एवं मानव  अधिकारों के फलस्वरूप सुप्रीम कोर्ट द्वानाम छत्तीसगढ़ राज्यरा नन्दनी सुन्दर ब मुकदमें के निर्णय से उजागर हो गया।
    भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी खण्ड पीठ जिसमें जस्टिस बी0 सुदर्शन रेड्डी एवं जस्टिस सुरेन्दर सिंह निज्जर ने एक ऐतिहासिक निर्णय में, जो कि नंदनी सुन्दर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (30/11) जिसको सलवाजुडूम मुकदमे के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें आदिवासी नवजवानों, माओवादी एवं नक्सलियों के खिलाफ विद्रोह को दमन करने के लिए विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में उनकी नियुक्ति को अवैध ठहराया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में टिप्पणी की थी कि ‘‘हमें अनुशासन एवं संवैधानिकता की कठिनाइयों को अवश्य सहन करना है, जिसका मूल सार शक्ति की जवाबदेही, जिसके द्वारा लोगों की शक्ति जो राज्य के किसी अंग अथवा उसके एजेंटों में निहित है, का प्रयोग संवैधानिक मूल्यों एवं उसके दृष्टिकोण के बढ़ावे के लिए किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि ‘‘समस्या अनैतिक राजनैतिक व्यवस्था में निहित है जिसको कि राज्य संस्तुति प्रदान करता है एवं जिसके परिणाम स्वरूप क्रांतिकारी राजनीति का जन्म होता है।’’ ‘‘न्यायालय ने यह भी जोर दिया कि राज्य की नीतियाँ वैध होनी चाहिए एवं संवैधानिक स्वरूप के अन्तर्गत होनी चाहिए। राज्य के प्रत्येक अंग को संवैधानिक उत्तरदायित्व की सीमा के अन्तर्गत कार्य करना चाहिए।’’
    इस निर्णय का महत्व अदालत के इस निष्कर्ष में निहित है कि राज्य की आर्थिक नीतियों के कारण नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है जैसे कि भारत के आदिवासी अथवा कबाइली लोगों के छत्तीसगढ़ राज्य जो कि आदिवासियों का प्रमुख केन्द्र हैं, के खनिज संसाधनों के दोहन एवं यूरोपियन उपनिवेशिक शक्तियों के द्वारा अफ्रीकी देशों के संसाधनों के दोहन में व्यापक समानता है। अदालत ने मानवता के सामूहिक तजुर्बे की पृष्ठभूमि में एक समयाबद्ध चेतावनी निर्गत की है कि अनियंत्रित शक्ति स्वयं अपना सिद्धांत प्रतिपादित करती है एवं लोगों को अमानवीयता की तरफ ले जाती है।
 -नीलोफर भागवत
अनुवादक: मो0 एहरार एवं मु0 इमरान उस्मानी
क्रमश:

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