हमारा जीवन विंडबनाओं से परिपूर्ण है परंतु हर विडंबना, नकारात्मक नहीं
होती। कुछ से हमें रचनात्मक उर्जा मिलती है, प्रसन्नता का अनुभव होता है। हाल में (25 मार्च
2012), हम सबने पाकिस्तान के डिप्टी अटार्नी जनरल मोहम्मद ख़ुर्शीद खान को दिल्ली के
गुरूद्वारा रकाबगंज में श्रद्धालुओं के जूते चमकाते देखा। उनके चित्र लगभग सभी अखबारों में
प्रमुखता से छपे। इस तरह की “सेवा“ का गुरूद्वारों में महत्वपूर्ण स्थान है। “सेवा“ सामान्यतः
पापों के प्रायश्चित स्वरूप की जाती है। मोहम्मद ख़ुर्शीद खान ने यह “सेवा“ तालिबानियों द्वारा
सिक्खों पर किए गए अत्याचारों के प्रायश्चित स्वरूप की। उन्होंने हिंसा से आहत सिक्खों के घ्
ाावों पर मरहम लगाने की केषिष भी की। तालिबान ने फिरौती की खातिर तीन सिक्खों का
अपहरण किया और बाद में इनमें से एक को मौत के घाट उतार दिया था। ख़ुर्शीद की मान्यता
है कि तालिबानों की यह हरकत न केवल अमानवीय थी वरन् इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ भी
थी। इससे दुःखी होकर उन्होंने विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच शांति व सद्भाव की स्थापना
का अपना यह अभियान शुरू किया है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि बड़ी संख्या में कट्टरपंथी, दकियानूसीमुसलमानों ने ख़ुर्शीद के इस मानवीय और दिल को छू लेने वाले प्रयास की निंदा की होगी,
उसे गलत ठहराया होगा। हम सब जानते हैं कि तालिबान, इस्लाम के घोर असहिष्णु व कट्टर
संस्करण में विश्वास रखते हैं। तालिबान को बढ़ावा मिला उन मदरसों से जिनकी स्थापना
अमेरिका ने पाकिस्तान में की थी ताकि इन मदरसों से निकलने वाले लड़ाके, अफगानिस्तान पर
काबिज सोवियत सेनाओं से मुकाबला कर सकें। तालिबान की सोच व उनके कार्यकलाप,
इस्लाम के मूल्यों व सिद्धांतों के खिलाफ हैं। तालिबानियों ने ही बामियान में बुद्ध की विशाल,
ऐतिहासिक मूर्ति को नष्ट किया था, सिक्खों पर ज़जिया लगाया था और विभिन्न धर्मों के लोगांे
को अलग-अलग रंगांे के कपड़े पहनने पर मजबूर किया था। दक्षिण एशिया लंबे समय से
धार्मिक अतिवाद की चपेट में है। लगभग हर देष में अल्पसंख्यक, धर्म के नाम पर की जा रही
राजनीति के शिकार हो रहे हैं। यह वह राजनीति है जो धर्म के नाम पर घृणा फैलाती है, जो
दूसरे धर्मों के लोगों को शत्रु व दुष्ट बताती है।
यह राजनीति एक ही धर्म के लोगों के बीच भी खाई खोदती है-उन्हें संकीर्ण
पंथों में बांटती है। हिन्दुओं व ईसाईयों की तरह, पाकिस्तान में अहमदिया व कादियान जैसे
छोटे इस्लामिक पंथ भी हिंसा का शिकार हो रहे हैं। भारत में पिछले तीन दशकों में तेजी से
बढ़ी साम्प्रदायिक हिंसा से ईसाई और मुसलमान तो प्रभावित हुए ही हैं, दलित व आदिवासी भी
इससे अछूते नहीं रह सके हैं।
धर्म की राजनीति, धार्मिक पहचान को केन्द्र में रखती है। धर्मों की नैतिक
षिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता है। वह धर्म-विशेष के राजाओं को उनके धर्म
का प्रतीक व दूसरे धर्मों के राजाओं को खलनायक बताती है। विभिन्न धार्मिक समुदायों के
आपसी मेलजोल को दरकिनार कर, यह राजनीति दो धर्मों के लोगों को एक-दूसरे का शत्रु
निरूपित करती है। जबकि इतिहास का सच यह है कि सामाजिक बैर का आधार आर्थिक रहा
है न कि धार्मिक। जैसे, जमींदार और किसान एक-दूसरे के वर्ग शत्रु थे। सभी धर्मों के पुरोहित
वर्ग ने हमेशा संपन्न व शासक वर्ग का साथ दिया। संतों ने षोषितों की वाणी को स्वर दिया।
राजा-जमींदार सत्ता व संपत्ति के वास्ते युद्धरत रहे जबकि आमजन कंधे से कंधा मिलाकर
जीते रहे, एकसाथ सूफी दरगाहों पर सिर झुकाते रहे, कबीर जैसे जनकवियों के भक्त बने रहे।
साम्राज्यवादी ताकतों की रूचि, दक्षिण एशिया की प्राकृतिक व अन्य संपदा को
लूटने मंे थी। भारतीय उपमहाद्वीप पर मुख्यतः अंग्रेजों का राज रहा। अंग्रेजों ने जमींदारों और
राजाओं के अस्त होते वर्ग को बढ़ावा दिया, उन्हें उनके धर्मों के प्रतिनिधि का दर्जा दिया।
इससे ही साम्प्रदायिक राजनीति की नींव पड़ी। इस राजनीति में एक ओर थे आरएसएस-हिन्दू
महासभा व दूसरी ओर मुस्लिम लीग। इन संगठनों ने राजाओं-नवाबों पर केन्द्रित, इतिहास की
साम्प्रदायिक व्याख्या को हवा दी। धर्मरक्षा के नाम पर वे अपनी राजनैतिक स्वार्थसिद्धि करते
रहे। इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या, मिलीजुली सांस्कृतिक परंपराओं को नजरअंदाज करती
है। यह उन आमजनों को महत्व नहीं देती जिन्हें बुल्ले षाह व निजामुद्दीन औलिया की शरण
में जाने पर भी उतनी ही शांति मिलती थी जितनी कि रामदेव बाबा, वीर सत्यदेव पीर या सत्य
पीर के चरणों में या फिर दादू, रैदास और तुकाराम की रचनाओं में।
अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति की सफलता का चरमोत्कर्ष था
भारत का विभाजन बल्कि हम इसे यूं कहें कि धर्म-आधारित पाकिस्तान का गठन। भारतीय
उपमहाद्वीप के शेष हिस्से में स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को सर्वोपरि स्थान दिया गया और
भारत, धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक राष्ट्र के रूप में उभरा। कुल मिलाकर, दक्षिण एशिया
(भारत-पाकिस्तान-बांगलादेश) की संस्कृति व परंपराएं मिली-जुली हैं। उनका मूल चरित्र
कट्टरपंथी या असहिष्णु नहीं है।
पिछले तीन दशकों में संकीर्ण संप्रदायवाद तेजी से उभरा है। इसके पीछे धरतीके नए षहंषाह अमेरिका की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है। अमरीका ने हिंसा को धर्म से जोड़ा
और इस्लाम का दानवीकरण किया। इसके पीछे थी दुनिया के तेल संसाधनों पर कब्जा करने
की उसकी हवस। नतीजे में विभाजन और उसके साथ हुई हिंसा के घाव फिर हरे हो गए हैं
और दक्षिण एषियाई देषों में साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत हुई हैं। सभी साम्प्रदायिक ताकतों का
मूल एजेंडा एक ही है। वे सब प्रजातंत्र के खिलाफ हैं और कमजोर वर्गों के
मानवाधिकारों को कुचलना चाहती हैं। ऊपर से देखने पर ऐसा लग सकता है कि वे एक-दूसरे
के खिलाफ हैं परंतु असल में उनके रास्ते व लक्ष्य एक हैं।
इस निराषापूर्ण माहौल में खुर्षीद जैसे लोग प्रकाषस्तंभ की तरह हैं।
कट्टरपंथियों के विरोध की परवाह न करते हुए वे साम्प्रदायिक सद्भाव की मषाल जलाए हुए
हैं। जहां तालिबान, जिया-उल-हक व आरएसएस आदि ने अपने-अपने राष्ट्रों मंे आग भड़काई
वहीं खुर्षीद जैसे लोग शांति के गीत गा रहे हैं। खुर्षीद जैसे लोगों के संदेष धीरे-धीरे ही सही
परंतु लोगों के दिलों में उतर रहे हैं। आमजनों को यह एहसास हो रहा है कि सभी धर्मों
का एक मानवीय पक्ष भी है, जिसे हम सब नजरअंदाज करते आए हैं।
इस दिशा में हो रहे प्रयास अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय लोगयह जानते हैं कि अन्याय का शिकार हुए समूहों को अपने अधिकार पाने के लिए संघर्ष करना
होगा। इसके साथ ही वे यह भी समझते हैं कि समाज का विकास तभी संभव हो सकता है जब
हम उन संकीर्ण संप्रदायवादी भावनाओं से ऊपर उठे जो हमारे प्रजातंत्र के स्वरूप को विकृत
कर रही हैं। प्रजातांत्रिक सोच व मूल्य ही वह नींव है जिसपर न्याय पूर्ण व बेहतर समाज की
इमारत खड़ी हो सकती है। विभिन्न धार्मिक समुदायों में मेल भाव बढ़ाने वाले, उन्हें एक-दूसरे के
नज़दीक लाने वाले हर प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए। इन प्रयासों से सद्भाव के सेतु
बनेंगे, प्रजातंत्र और न्याय मजबूत होंगे। मोहम्मद ख़ुर्शीद खान-जिन्दाबाद।
-राम पुनियानी
3 टिप्पणियां:
rajnitik stuntbazi hai yh sab.
भारत और पाकिस्तान के संबंधो की फ़िजा बदल रही है। भारत से दुश्मनी का दंभ भरने वाले और इस नाम से चांदी काटने वाले आज मुक्त पाकिस्तानी मीडिया के सामने असहाय खड़े हैं। दुख सिर्फ़ इस बात का है कि भारतीय मीडिया अपने पतन के चरम पर है। [आकिस्तान और भारत मे दोस्ती होना आर्थिक और राजनैतिक रूप से भारत के लिये अपरिहार्य सा है
badiya chintan karati prastuti..aabhar!
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