उस समय लन्दन में 'विश्व दंगल' का आयोजन हो रहा था। इसमें इमामबख़्श, अहमदबख़्श और गामा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया। गामा का क़द साढ़े पाँच फ़ुट 7 इंच और वज़न 200 पाउंड के लगभग था। लन्दन के आयोजकों ने गामा का नाम उम्मीदवारों की सूची में नहीं रखा। गामा के स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुँची। उन्होंने एक थिएटर कम्पनी में जाकर दुनिया भर के पहलवानों को चुनौती देते हुए कहा कि जो पहलवान अखाड़े में मेरे सामने पाँच मिनट तक टिक जाएगा, उसे 'पाँच पाउंड' नकद दिया जाएगा। पहले कई छोटे-मोटे पहलवान गामा से लड़ने को तैयार हुए।
जब इस चुनौती को स्वीकार करके कोई गामा से लड़ने नहीं आया तो गामा ने 'स्टेनिस्लस ज़िबेस्को' और 'फ़्रॅन्क गॉश' को चुनौती दी। यह चुनौती अमेरिका के पहलवान 'बैंजामिन रोलर' ने स्वीकार की। गामा ने रोलर को 1 मिनट 40 सेकेण्ड में पछाड़ दिया। गामा और रोलर की दोबारा कुश्ती हुई, जिसमें रोलर 9 मिनट 10 सेकेण्ड ही टिक सका। गामा ने पहले अमेरिकी पहलवान रोलर को हराया और इमामबख्श ने स्विट्ज़रलैंड के कोनोली और जान लैम को मिनटों और सैकिंडों में चित्त कर दिया। इस पर विदेशी पहलवानों और दंगल के आयोजकों के कान खड़े हुए और उन्होंने गामा को सीधे विश्व विजेता स्टेनली जिबिस्को से लड़ने को कह दिया।
10 सितम्बर 1910 को गामा और 'स्टेनिस्लस ज़िबेस्को' की कुश्ती हुई। इस कुश्ती में मशहूर 'जॉन बुल बैल्ट' और 250 पॉउड का इनाम रखा गया। 1 मिनट से भी कम समय में गामा ने स्टेनिस्लस ज़िबेस्को को नीचे दबा लिया। ज़िबेस्को आकार में और वज़न में गामा से बड़ा था, इसलिए 2 घण्टे 35 मिनट की कोशिश के बावजूद भी पेट के बल लेटा हुआ ज़िबेस्को गामा से चित्त नहीं हो पाया। गामा ने पोलैण्ड के इस पहलवान को इतना थका दिया था कि वह हांफने लगा। जब गामा ने ज़िबिस्को को नीचे पटका तो वह अपने बचाव के लिए लेट गया। उसका शरीर इतना वज़नी था कि गामा उसे उठा नहीं सके।
इस पर भी जब हार-जीत का फैसला न हो सका तो कुश्ती को अनिर्णीत घोषित किया गया और फैसले के लिए दूसरे दिन की तारीख़ तय की गई। दूसरे दिन जिबिस्को डर के मारे मैदान में ही नहीं आया। दंगल के आयोजक जिबिस्को की खोजबीन करने लगे, लेकिन वह न जाने कहाँ छिप गया और इस प्रकार गामा को विश्व-विजयी घोषित किया गया। 17 सितम्बर 1910 को दोबारा दोनों के बीच कुश्ती की घोषणा हुई, लेकिन निश्चित तिथि और समय पर ज़िबेस्को गामा का सामना करने नहीं पहुँचा। गामा को विजेता घोषित कर दिया गया और इनाम की राशि के साथ ही 'जॉन बुल बैल्ट' भी गामा को दे दी गई। इसके बाद गामा की उपाधि 'रुस्तम-ए-ज़मां' (ज़माना), 'विश्वकेसरी' अथवा 'विश्वविजेता' हो गयी।
इस यात्रा के दौरान गामा ने अनेक पहलवानों को धूल चटाई, जिनमें 'बैंजामिन रॉलर' या 'रोलर', 'मॉरिस देरिज़', 'जोहान लेम' और 'जॅसी पीटरसन' थे। रॉलर से कुश्ती में गामा ने उसे 15 मिनट में 13 बार फेंका। इसके बाद गामा ने खुली चुनौती दी कि जो भी किसी भी कुश्ती में ख़ुद को 'विश्वविजेता' कहता हो वो गामा से दो-दो हाथा आज़मा सकता है, जिसमें जापान का जूडो पहलवान 'तारो मियाकी', रूस का 'जॉर्ज हॅकेन्शमित', अमरीका का 'फ़ॅन्क गॉश' शामिल थे। किसी की हिम्मत गामा के सामने आने की नहीं हुई। इसके बाद गामा ने कहा कि वो एक के बाद एक लगातार बीस पहलवानों से लड़ेगा और इनाम भी देगा लेकिन कोई सामने नहीं आया।
'रहीमबख़्श सुलतानीवाला' को हराने के बाद गामा ने भारत के मशहूर 'पहलवान पन्डित बिद्दू' को 1916 में हराया। इंग्लैंड के 'प्रिंस ऑफ़ वेल्स' ने 1922 में भारत की यात्रा के दौरान गामा को चाँदी की बेशक़ीमती 'गदा' (ग़ुर्ज) प्रदान की। इस बार गामा ने केवल ढाई मिनट में ही जिबिस्को को पछाड़ दिया। गामा की विजय के बाद पटियाला के महाराजा ने गामा को आधा मन भारी 'चाँदी की गुर्ज' और '20 हज़ार रुपये' नकद इनाम दिया था।
दक्षिण एशिया का महान पहलवान
1927 तक गामा को किसी ने चुनौती नहीं दी। 1928 में गामा का मुक़ाबला पटियाला में एक बार फिर ज़िबेस्को से हुआ 42 सेकेण्ड में गामा ने ज़िबेस्को को धूल चटा दी और दक्षिण एशिया के महान पहलवान की उपाधि धारण की। 1929 के फरवरी के महीने में गामा ने 'जेसी पीटरसन' को डेढ़ मिनट में पछाड़ दिया। इसके बाद 1952 में अपने पहलवानी जीवन से अवकाश लेने तक गामा को किसी ने चुनौती नहीं दी। गामा अपने पहलवानी जीवन में अजेय रहे जो किसी भी पहलवान के लिए आज भी असम्भव है। यह गुण गामा को विश्व का महानतम पहलवान के दर्जे में ले आता है।
1947 में भारत के बँटवारे के समय गामा पाकिस्तान चले गये वहाँ अपने भाई इमामबख़्श के साथ और अपने भतीजों के साथ रहे और अपना शेष जीवन बिताया। 'रुस्तम-ए-ज़मां' के आखिरी दिन बड़े कष्ट और मुसीबत में गुज़रे। रावी नदी के किनारे इस अजेय पुरुष को एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर रहना पड़ा। अपनी अमूल्य यादगारों सोने और चाँदी के तमग़े बेच-बेचकर अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन गुज़ारने पड़े। वह हमेशा बीमार रहने लगे। उनकी बीमारी की ख़बर पाकर भारतवासियों का दु:खी होना स्वाभाविक ही था।
महाराजा पटियाला और बिड़ला बन्धुओं ने उनकी सहायता के लिए धनराशि भेजनी शुरू की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 22 मई, 1960 लाहौर, पाकिस्तान को 'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा मृत्यु से हार गए। गामा मरकर भी अमर है। भारतीय कुश्ती-कला की विजय पताका को विश्व में फहराने का श्रेय केवल गामा को ही प्राप्त है।
आज भी पटियाला में 'नेशनल इस्टीटूयट ऑफ़ स्पोर्टस' में उनके कसरत करने का उपकरण रखा हुआ है। यह एक पत्थर का गोल चक्का है, जिसको गले में पहन कर गामा बैठक लगाया करते थे। इस गोल चक्के का वज़न 95 किलो है।
- Jagadishwar Chaturvedi
4 टिप्पणियां:
अच्छी प्रविष्टि !
गामा पहलवान की कहानी बाँच कर गर्व हुआ ........आपके इस आलेख के लिए शत शत धन्यवाद
रोचक पोस्ट
स्मरण कराने का आभार
सुन्दर प्रस्तुति!
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