उर्वरको की घटती खपत
हिन्दी दैनिक बिजनेस स्टैंडर्ड के एक अप्रैल की सूचनाओं के अनुसार रासायनिक खादों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त अर्थात विनियंत्रित किए जाने के बाद से रासायनिक खादों के इस्तेमाल में खासी गिरावट हुई है |इस गिरावट का प्रमुख कारण रासायनिक खादों के इस विनिय्त्रण के बाद उनकी कीमतों में बार -- बार होती रही बढ़ोत्तरी रही है | समाचार पत्र की सूचनाओं के अनुसार यह गिरावट खासकर डी. ए. पी. ( डाई अमोनिया फास्फेट ) और एम् .ए. पी. (मोनो अमोनिया फास्फेट ) की खपत में हुई है | हालाकि यूरिया की कीमत में भी भारी वृद्धि हुई है पर चूकि अभी भी वह सरकारी नियंत्रण में है , इसलिए डी। ए .पी. एम्. ए. पी . के मुकाबले उसका मूल्य अभी कुछ धीमी रफ़्तार से बढ़ रहा है | समाचार पत्र ने यह भी सुचना दी है की डी.ए. पी. एम्. ए. पी. की खपत में यह गिरावट 2003 - ०3 के बाद पहली बार हुई है | इन दोनों की खपत में पिछले वित्त वर्ष ( २2011--12 में लगभग28% की कमी आई है जून 2010 में सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिए जाने से पहले डी. ए. पी. की कीमत 9350 रूपये प्रति टनअर्थात935 रूपये प्रति कुन्तल या ४६८ रूपये प्रति बोरी थी |अब इसकी कीमत 20300 रूपये प्रतिटन अर्थात 1015 रूपये प्रति बोरी हो गयी है | इस तरह यह सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने के बाद इसमें अब तक 117% की बढ़ोत्तरी हुई है | इसी तरह एम्. ए. पी. की कीमत नियंत्रण से पहले 4450 रूपये प्रति कुन्तल या 223 रूपये प्रति बोरी थी | अब इसकी कीमत बढकर 12040रूपये प्रति टन या 602रूपये प्रति बोरी हो गयी है | इस तरह से इसकी कीमत में 17% बढ़ोत्तरी हुई है | इन खादों के मूल्य में यह तीव्र वृद्धिया और उसके साथ जरूरत के समय पर खाद की भारी कमी भी इस बात का सुनिश्चित संकेत देता है की देश की विभिन्न पार्टियों की केन्द्रीय व प्रांतीय सरकारे न केवल किसानो को खादों के इस्तेमाल को घटाने के लिए मजबूर कर रहे है , बल्कि उसके फलस्वरूप खेती का उत्पादन घटाने और किसानो को अधिकाधिक संकटग्रस्त होने के लिए मजबूर कर रहे है | इसी के साथ यह बात भी ध्यान देने लायक है की एम्. ए. पी . और डी. ए.पी. जमीन के पोषक तत्वों को बढाने वाली खाडे है | इसलिए देश -- प्रदेश के सत्ता सरकारों द्वारा इनके मूल्य बढाकर और खपत घटाकर , कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति को भी घटाने या नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है |
पेट्रोल , डीजल और रासायनिक खादों के विनियंत्रण के साथ तेजी से बढ़ते
मूल्य के संदर्भ में एक दिलचस्प पर बेदभाव भरा अंतर देखे | पेट्रोल की सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने के बाद से उसके मूल्य में कई बार वृद्धि की जाती रही है | यही काम एम्. ए. पी . और डी. ए. पी. खादों के साथ हुआ
लेकिन दोनों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह रहा है की पेट्रोल मूल्य वृद्धि के बाद उसकी प्रचार माध्यमो में खूब महत्व पाती रही है | प्रमुखता के साथ छापी जाती रही है | फलस्वरूप आम लोगो की चर्चाओं में भी प्रमुखता पाती रही है |
जबकि विनियंत्रित डी. ए . पी एम् . ए . पी आदि के बार -- बार मूल्य वृद्धियोम के वावजूद इसकी खबरों को प्रचार माध्यमो में बहुत कम महत्व दिया जाता रहा है | स्थानीय समाचार पत्रों तक में भी ये खबरे अत्यंत कम महत्व की खबरों के साथ तीसरे व चौथे पेज पर ही कही जगह पाती रही है | इलेक्ट्रानिक मीडिया तो खैर इसे कोई महत्व ही नही देता | लेकिन क्यों ? क्योंकि रासायनिक खादों का प्रयोगकर्ता किसान है और अब किसानो को ( धनाढ्य किसानो को छोडकर ) या उनके व्यापक हिस्सों को वर्तमान समय में प्रभावी बाजार मानने का सिलसिला पिछले पन्द्रह सालो से छोड़ा जा रहा है | हालाकि 1950 के बाद देश के बाजार के विकास में प्रमुख रूप से आम किसानो को ही बाजार का अहम हिस्सा बनाने का प्रयास किया गया था | जमीदारी उन्मूलन ने उसे आगे बढाया था | लेकी भूमंडलीयकरण के वर्तमान दौर और इसमें बहुप्रचारित तीव्र आर्थिक वृद्धि के दौर में आम किसानो , मजदूरो , दस्तकारो आदि को प्रभावी उपभोक्ता मानना ही बंद किया जा रहा है | इसके विपरीत वर्तमान समाज में पेट्रोल का कम या ज्यादा खपत करने वाला हिस्सा आम किसानो के मुकाबले राष्ट्र के बाजार का बेहतर उपभोक्ता है , या कहिये बाजार बेहतर हिस्सा है | इसलिए पेट्रोल की महंगाई का मामला खासकर वाहन कम्पनियों के बाजार से लेकर वर्तमान समाज के छोटे -- बड़े पर प्रभावी उपभोक्ताओं का बाजार की चिंता या चर्चा का विषय बन जाता है | इसीलिए इसकी चिंता को प्रचार माध्यमो में प्रमुखता मिल जाती है | राजनितिक पार्टिया भी पेट्रोल मूल्य वृद्धि के विरोध में जोर -- जोर से बोलने लग जाते जाती है जबकि रासायनिक खाद की मूल्य वृद्धि पर चुप्पी साध लेती है | यह सीधे -- सीधे किसानो के हितो का विरोध है | किसानो के विरोध में समूचे धनाढ्य व उच्चवर्गीय समाज की उसके राजनितिक हिस्सों की एक जुटता है | किसानो के व्यापक हिस्से को संकटों में धकेलने और आत्म्ह्ताये तक करने के लिए बाध्य कर देने की , खेतिया छुडा देने की साजिश है | इस सच्चाई को सबसे जयादा किसानो को समझना है | उन्हें ही विनियंत्रण की नीतियों को ही समझना है | उन्हें ही विनियंत्रण की नीतियों का और इसे आगे बढाने वाली वैश्वीकरणवादी नीतियों तथा डंकल प्रस्ताव जैसी विदेशी नीतियों का भी विरोध करना है |
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