आखिर क्यों अमरीका ने विश्व जनमत का उल्लंघन किया और अनदेखी? इसका जवाब है तेल! इस पूरी राजनीति के पीछे इराक़ और अरब देशो के तेल पर कब्जा करना असली उद्देश्य था। दूसरे शब्दों में सारी उक्त बातें, आतंकवाद, अमरीका को ख़तरे, इराक़ और दूसरी जगहों पर तानाशाही का होना और जनतंत्र का नहीं होना इत्यादि के बारे में लंबीचौड़ी बातों की जड़ में तेल और दूसरे कच्चे मालों और स्रोतों पर कब्जा करने के उद्देश्य छिपे हुए थे।
यहाँ अमरीका का विशिष्ट परंपरागत सम्राज्यवादी रूप सामने आ जाता है। बुश ने एक बार तो यह भी कहा कि गॉड’ ने सपने में आकर उन्हे इराक़ को बचाने के लिए कहा है और फिर इसके विपरीत प्रेसीडेंट का पद त्याग करते वक्त उन्होंने कहा कि इराक़ में अमरीका का जाना एक ग़लती थी, एक ग़लत सूचना के आधार पर वे ऐसा कर बैठे! कितने हल्के ंढग से, कितनी आसानी से यह सब कह दिया। उन्होंने यह तक नहीं सोचा कि उतनी दूर से आकर इराक़ की सभ्यता, संस्कृति, पुराने इतिहास, परंपरा, उसके गाँवों, शहरों, सड़कों, मकानों इत्यादि को बर्बाद करने और इराक़ियों को अपमानित करने का उन्हें क्या हक था? वे आते हैं और एक सार्वभौम राष्ट्र के राष्ट्रपति सद्दाम को फाँसी पर पहुंचा देते हैं! कहाँ गए जनतंत्र और विश्व संबंधों के नियम क़ानून? सद्दाम की तानाशाही को तो एक समय खुद अमरीका ने सहायता देकर खड़ा किया था। तानाशाही से निपटने के तरीके हैं, और किसी दूसरे देश में घुसपैठ करने का हक नहीं है।
सम्राज्यवाद के लिए ख़तरे
वास्तव में अमरीका अपने को इतना असुरक्षित समझता है कि उसे दूर दराज के कमजोर देशों से भी खतरा दिखाई देता है। इराक़ की घटनाओं के बाद आतंकवाद घटा नहीं, बढ़ा है। इसकी ज़िम्मेदारी अमरीका पर है। इराक़ में सफलता के बाद उसने समझा कि वह ईरान तथा अन्य देशों पर भी उसी तरह हमला करके उन्हें अपने कब्ज़े में कर लेगा। लेकिन उसे पता नहीं था कि अब उसके सहयोगी भी उसका साथ देने को तैयार नहीं हैं। दुनिया के देश अब इराक़ को दोहराना नहीं चाहते। इसीलिए अमरीका ईरान में इराक़ जैसा कुछ नहीं कर पा रहा है। इस बीच रूस और कुछ अन्य देश ज्यादा सक्रिय होकर अमरीका का विरोध कर रहे हैं जिनमें चीन, भारत और दूसरे देश शामिल हैं। रूस ने साफ कहा है कि इराक़ जैसा हस्तक्षेप नहीं होने देगा। इस बार यू।एन. की भूमिका भी बढ़ा गई है। लीबिया में भी अमरीका अप्रत्यक्ष रूप से ही काम कर पाया और सीरिया एवं अन्य देशों के मामले में उसे बहुत ही घूमकर चलना पड़ रहा है। उसकी नज़रें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और फिर भारत पर भी हैं। साथ ही मध्य एशिया के पूर्व सोवियत गणतंत्रों के देश भी उसके निशाने पर हैं। तो क्या अमरीका सफल हो पाएगा?. नहीं, अब इतना आसान नहीं है।बदलती परिस्थिति
अमरीका यह भूल रहा है कि अब एक नया ज़माना और नई परिस्थिति चल रही है। पुराने ंढग से साम्राज्यवाद काम नहीं कर सकता। नई सूचना एवं तकनीकी क्रांति के ज़माने में विकासमान देश भी अपने को मजबूत और आत्मविश्वास भरा महसूस कर रहे हैं। आज ब्रिक्स के रूप में भारत, चीन, ब्राज़ील और अन्य देश अमरीका के सामने खड़े हो जाते हैं। वे उसे चुनौती दे रहे हैं, जबकि आज कोई सोवियत संघ नहीं है। इतिहास में पहली बार विकासमान देशों की विकास दर विकसित देशों से आगे निकल कर 3 गुना से अधिक हो गई है। आज विश्व साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था गहन संकट में फँसा हुआ है। इससे निकलने के लिए वह छटपटा रहा है लेकिन रास्ता नहीं मिल रहा है।इसलिए पुराने साम्राज्यवादी तरीक़ों के द्वार बंद होते जा रहे हैं, और नए तरीके क्या होंगे यह उन्हें नहीं पता। आज पहली बार अमरीका पीछे हटने को मजबूर है। अमरीका एक बात नहीं समझता और ना ही समझने की कोशिश कर रहा है। इतिहास और समाज विकास संबंधी जिन समस्याओं का सोवियत संघ सामना कर रहा था, वे अन्य रूपों में अमरीका तथा अन्य विकसित पूँजीवादी और साम्राज्यवादी देशों के सामने भी खड़ी हो रही हैं। केंद्रीकृत राष्ट्र, जनतंत्र की कमी, आदेशों और फ़तवों से राज करना, दूसरे देशों पर धौंस जमाना, उन्हें डराना
धमकाना, अत्याधुनिक हथियारों का प्रदशर्न और होड़, सूचना पर रोक लगाने की कोशिश करना, अमरीकी अत्याचारों को छिपाने की असफल कोशिशों करना, जैसे कई तरीके हैं जो अब नहीं कामयाब होते, ख़ासकर सूचना क्रांति के दौर में. इराक़ में अपनी काली करतूतों और दमनकारी तरीकों को अमरीका छिपा नहीं सका।
साम्राज्यवाद के कई पुराने तरीके अब कारगर नहीं रह गए, इसलिए स्वयं साम्राज्यवाद के लिए ही संकट पैदा होता जा रहा है।
इसके अलावा, आज दुनिया एक ध्रुवीय नहीं रह गई है। अब वह बहु ध्रुवीय बनती जा रही हैं। इनमें, रूस, चीन, ब्रिक्स के विकासमान देश अपनी अधिक असरदार भूमिका अदा कर रहे हैं।
स्वयं साम्राज्यवाद की अर्थ व्यवस्था में ही कई परिवर्तन हो रहे हैं जिन्हें समझने की ज़रूरत है। आज वह जिस संकट और मंदी से गुजर रहा है वह 1930 के दशक के संकट से काफ़ी अलग है। आज विश्व पूँजीवाद, उत्पादक पूँजी और गैर उत्पादक वित्त पूँजी के हिस्सों में बँट गया है। उत्पादक पूँजी को कसीनो’ पूँजीवाद और जमा वित्त पूँजी से आज़ाद होना पड़ेगा।
साम्राज्यवाद नई उत्पादक और संचार शक्तियों का प्रयोग करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है। उनका बेहतर इस्तेमाल गैर साम्राज्यवादी देश कर रहे हैं। एक नए किस्म की विकास की धारा चल पड़ी है। साम्राज्यवादी तौर तरीके काम नहीं आएँगे। आज अमरीका अत्याधुनिक हथियार निर्मित किए जा रहा है, क्यों? किससे ख़तरा है? किसी से नहीं, इसलिए वह काल्पनिक ख़तरे पैदा कर उनसे लड़ने के लिए हवा में तलवार भाँज रहा है। अन्य विकसित पूँजीवादी देशों समेत दुनिया के लोग इसे समझ चुके हैं, और यही है अमरीका की त्रासदी।
उसे समझना पड़ेगा कि यह नव तकनीकी सूचना संचार का युग है, इसलिए दूसरे देशों के साथ पुराने तरीके से पेश नहीं आ सकता है। कोई भी केंद्रीकृत, जबरन तरीके, संरचनाएँ, संगठन, सरकार और राज्य इत्यादि नहीं चल सकता या उतनी आसानी से नहीं चल सकता। यह समझने में अमरीका देर कर रहा है, लेकिन यह उसे समझना ही होगा।
इसीलिए लैटिन अमरीका के दर्जन से अधिक देशों में जनवादी और वामपंथी सरकारें कायम हो गयी हैं, यूरोप की हाल कि घटनाएँ कोई साम्राज्यवाद के लिए सुसमाचार नहीं हैं। विश्व एक भारी ऐतिहासिक परिवर्तन के कगार पर खड़ा है।
-अनिल राजिमवाले
मोबाइल : 09868525812
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