सोमवार, 11 जून 2012

क्या सीता महिलाओं का आदर्श हैं


पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियों को तोड़कर महिलाओं के स्वयंसिद्धा बनने की प्रक्रिया समाज के प्रजातंत्रीकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण का अविभाज्य हिस्सा है। यद्यपि भारतीय संविधान ने आज से 62 साल पहले ही महिलाओं को पुरूषों के बराबर दर्जा दे दिया था तथापि सर्वज्ञात व कटु सत्य यह है कि हमारे समाज के अधिकांश पुरूष आज भी महिलाओं को अपने बराबर का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं हैं और महिलाएं पुरूषों के अधीन जीने को मजबूर हैं। धर्म.आधारित राजनीति के उदय ने महिलाओं की स्थिति को और गिराया है। इस राजनीति के पैरोकार महिलाओं पर दकियानूसी सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएं लाद रहे हैं। धर्म.आधारित राजनीति ने लैंगिक न्याय के संघर्ष पर विपरीत प्रभाव डाला है। महिला अधिकार आंदोलन सामाजिक बराबरी के लिए संघर्षरत है परंतु उसकी राह में अनेक बाधाएं हैं और जब ये बाधाएं धर्म के नाम पर खड़ी की जाती हैं तो उनसे पार पाना और कठिन हो जाता है।
बंबई उच्च न्यायालय ने हाल ;मार्च 2012 में टिप्पणी की है कि विवाहित महिलाओं को देवी सीता की तरह व्यवहार करना चाहिए और अपने पति का साथ पाने के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तैयार रहना चाहिए। विद्वान न्यायाधीशगणों ने यह टिप्पणी तलाक के एक मामले की सुनवाई के दौरान की। यह मामला एक ऐसी महिला से संबंधित था जिसका पति पोर्टब्लेयर में नौकरी कर रहा था और वह अपने पति के साथ पोर्टब्लेयर जाने को तैयार नहीं थी और मुंबई में ही रह रही थी। न्यायाधीश की टिप्पणी अनावश्यक तो थी ही उसमें एक पौराणिक चरित्र का उल्लेख तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। जहां तक सीता से तुलना किए जाने का प्रश्न हैए शायद ही कोई महिला सीता जैसा दुःखी जीवन बिताना चाहेगी। भगवान राम की कथा के कई संस्करण उपलब्ध हैं परंतु निःसंदेह इनमें से सबसे अधिक लोकप्रिय है वाल्मीकि।रचित रामायण। वाल्मीकि की रामायण को महर्षि रामानन्द सागर के टेलीविजन धारावाहिक ने घर.घर तक पहुंचा दिया। इस धारावाहिक में सीता को राम की सेविका और उनकी हर आज्ञा को आंख मूंदकर स्वीकार करने वाली पत्नी के रूप में दिखाया गया है। उदाहरणार्थ जब राम सीता की पवित्रता के संबंध में फैल रही अफवाहों के चलते इस दुविधा में रहते हैं कि वे सीता को वनवास पर भेजें या नहीं तब रामानन्द सागर के धारावाहिक के अनुसार सीता स्वयं राम से विनती करती हैं कि वे उन्हें त्याग दें। यह तो वाल्मीकि से भी एक कदम और आगे जाना था।
भगवान राम की कहानी के अधिकांश संस्करणों में यह बताया गया है कि सीता राजा जनक को खेत में तब पड़ी हुई मिलीं थीं जब वे एक धार्मिक अनुष्ठान के तारतम्य में खेत की जुताई कर रहे थे। उनका विवाह राम से कर दिया जाता है और अपनी एक रानी कैकयी को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए राम के पिता दशरथ उन्हें चौदह साल के वनवास पर भेज देते हैं। यहीं से सीता की मुसीबतों का दौर शुरू होता है। राम-लक्ष्मण शूर्पनखा का अपमान करते हैं और इसका बदला लेने के लिए शूर्पनखा का भाई रावण सीता को अपह्रत कर अपने महल की अशोक वाटिका मे बंधक बना लेता है। रावण स्वयं सीता से विवाह करने का इच्छुक है परंतु सीता इसके लिए राजी नहीं होतीं। सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाए जाने के दौरान भी उनका जमकर अपमान होता है। राम सीता से कहते हैं कि उन्होंने उन्हें अपने सम्मान की रक्षा की खातिर मुक्त कराया है! इसके बादए सीता को अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। इस परीक्षा में सफल हो जाने के बाद वे अपने पति के साथ अयोध्या आ जाती हैं।
परंतु उनकी मुसीबतें कम नहीं होतींए अपितु और बढ़ जाती हैं। महारानी की पवित्रता पर संदेह व्यक्त करने वाली अफवाहें फैलने लगती हैं। सीता ने राम के समक्ष अग्निपरीक्षा दी थी परंतु इसके बावजूद अपनी गर्भवती पत्नी का बचाव करने की बजाएए राम अपने वफादार भाई लक्ष्मण को आदेश देते हैं कि वे सीता को जंगल में छोड़ आएं। गर्भवती पत्नी को अकारण घर से निकाल देना इतिहास के किसी दौर के सामाजिक तौरतरीकों में शामिल नहीं था। सालों बाद राम की संयोगवश सीता से मुलाकात हो जाती है। वे तब भी सीता को अपने साथ ले जाने में हिचकिचाते हैं। इसके बाद सीता आत्महत्या कर लेती हैं। शायद ही किसी पौराणिक चरित्र का जीवन इतना त्रासद रहा हो जितना कि सीता का था।
यह सब दंतकथाओं और लोक व धार्मिक साहित्य का हिस्सा है। परंतु यह समझना मुश्किल है कि कोई विद्वान न्यायाधीश भला कैसे किसी महिला को सीता के पदचिन्हों पर चलने की सलाह दे सकता है किसी महिला के लिए सीता जैसा जीवन बिताने से बुरा शायद ही कुछ और हो सकता है। एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि जब हमारा देश प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को सर्वोपरि मानता है तब किसी न्यायालय द्वारा एक पौराणिक चरित्र का हवाला देना कहां तक उचित है रामायण महाभारत व पुराणों में जिस युग का चित्रण किया गया है वह राजशाही और सामंतवाद का युग था। उस युग का समाज जन्म.निर्धारित जातिगत व लैंगिक ऊँच.नीच पर आधारित था। ऐसा प्रचार किया जाता है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें समाज में बहुत ऊँचा दर्जा प्राप्त था। इस सिलसिले में यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता जैसी सुभाषितों को भी उद्धत किया जाता है। सच यह है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को पुरूषों की दासी से बेहतर दर्जा प्राप्त नहीं था। उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने पिता पति व पुत्रों की हर आज्ञा का पालन करें। shmanusmritis में महिलाओं के कर्तव्यों का वर्णनए इस तथ्य की पुष्टि करता है। श्मनुस्मृति द्वारा लैंगिक व जातिगत ऊँच.नीच के प्रतिपादन के कारण ही डाक्टर bii aara. अम्बेडकर ने इस पुस्तक को सार्वजनिक रूप से जलाया था।
आज महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कई आंदोलन चल रहे हैं। सरकारों ने कई नए कानून बनाए हैं और पति पत्नी का मालिक होता हैए इस मान्यता को चुनौती दी जा रही है। इन परिस्थितियों में क्या यह आवश्यक नहीं है कि हमारी अदालतें भी महिलाओं के अधिकारोंए उनकी महत्वाकांक्षाओं और उनके सशक्तिकरण के प्रयासों को सम्मान और प्रोत्साहन दें। आज इस अवधारणा को ही चुनौती दी जा रही है कि विवाह के बाद महिला अपनी पूर्व पहचान खोकर केवल पति के परिवार का अंग बन जाती है। इस अवधारणा को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया हैए जोकि पूर्णतः उचित भी है। आज पति.पत्नी के बीच सामांजस्य बिठाने के लिए दोनों पक्षों को प्रयास करने होते हैं। केवल पत्नी से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह अपने पति के अनुरूप स्वयं को ढाल ले। पश्चिमी देशों में तो ऐसा हो ही रहा है हमारे देश में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। हमारे देश में भी ऐसे दम्पत्ति हैं जो अपने वैवाहिक संबंधों को निभाते हुए भी अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। हमें समय के साथ अपनी सोच बदलनी होगी हमें अपने विचारों को प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप ढालना होगाए हमें जन्म.आधारित ऊँच.नीच के विचार को त्यागकरए सबको बराबरी की दृष्टि से देखना सीखना होगा। सभी धर्मों में सामंती और अन्य सड़ेगले मूल्य धार्मिक कट्टरवाद के भेष में समाज में घुसपैठ कर रहे हैं। चाहे वे ईसाई कट्टरपंथी होंए इस्लामिक कट्टरपंथी या हिन्दुत्व के झंडाबरदार.सभी धर्म के नाम पर महिलाओं के दमन को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं।
भारत में भी धर्म।आधारित राजनीति के उदय और राम मंदिर आंदोलन के बाद सैकड़ों बाबा और भगवान कुकरमुत्तों की तरह उग आए हैं। ये सभी परिष्कृत भाषा में सामाजिक रिश्तों में यथास्थितिवाद की वकालत करते हैं। पांच सितारा बाबा और गुरू मनुस्मृति के आधुनिक संस्करण के प्रचारक हैं। जहां तक महिलाओं की बराबरी और उनके सशक्तिकरण का प्रश्न है इस मामले में कई टेलीविजन धारावाहिकों की भूमिका भी अत्यंत निकृष्ट है। बाबाओं और टेलीविजन का संयुक्त मोर्चा अत्यंत खतरनाक और शक्तिशाली है। यह समाज को सही दिशा में बढ़ने से रोक रहा है.उस दिशा में जहां हम सामंती व सड़ीगली दकियानूसी मान्यताओं को त्यागकर प्रजातंत्र व बराबरी पर आधारित मूल्यों को अपनाएंगे।
अदालत द्वारा आज की स्त्रियों के संदर्भ में सीता का उदाहरण दिया जाना अत्यंत दुःखद है। वैसे तो अदालतों और अन्य प्रजातांत्रिक संस्थाओं को भारत में प्रजातंत्र के उदय के पूर्व के केवल उन्हीं चरित्रों का हवाला देना चाहिए जो प्रगतिशील मूल्यों के हामी थे और भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत थे। हमें उम्मीद है कि देश की महिलाओं को सीता की राह पर चलने की सलाह देने से पहले हमारी अदालतें इस पर विचार करेंगी कि सीता का जीवन कितना दुःखद और संघर्षपूर्ण था। उन्हें उन सबके के हाथों अपमान और अवहेलना झेलनी पड़ी जिनसे उन्हें सम्मान प्रेम और सहानुभूति की अपेक्षा थी।
-राम पुनियानी

11 टिप्‍पणियां:

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

http://krantiswar.blogspot.in/2011/02/blog-post_19.html

प्रस्तुत लिंक पर 'सीता' की क्रांतिकारी भूमिका का संक्षिप्त वर्णन है दूसरे कई लेखों द्वारा 'राम' के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का विस्तृत वर्णन दिया है। बेहद अफसोस हुआ 'ढोंग-पाखंड'पर आधारित दुष्प्रचार को सही मान कर इस लेख मे सीता के चरित्र पर प्रहार देख कर। प्रतीत होता है कि यह लेख महिला विरोधी मानसिकता से ग्रस्त विचारों का महिमामंडन करने हेतु लिखा गया है।

ZEAL ने कहा…

यदि कोई पुरुष 'राम' जैसा होगा तो उसकी स्त्री निसंदेह 'सीता' जैसी ही होगी। लेकिन दुर्भाग्यवश 'राम' नहीं अवतार लेते अब। सीताएं तो बहुत हैं।

ZEAL ने कहा…

क्या पत्नी की ख़ुशी के लिए कोई पति अपनी पसंदीदा नौकरी छोड़कर पत्नी के साथ रहने के लिए तैयार होगा ? सारा बलिदान पत्नियाँ दें ? स्त्रियों से देवी बनने की अपेक्षा रखने वाली, देवता बनने को तैयार हैं क्या ?

शिवम् मिश्रा ने कहा…

Nice

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - आज का दिन , 'बिस्मिल' और हम - ब्लॉग बुलेटिन

ms khan ने कहा…

is shaandaar lekh ke liye aap badhaai ke patra hain.hamare desh me logon ka adalaton par wese bhi bahut kam barosha hai lekin adalaten is tarah ke dakiyanusi hawala dekar aamjan ka vishwas kho rahi hain.......

kunwarji's ने कहा…

आदरणीय सुमन जी,
राम राम,

क्या आपको नहीं लगता कि माता सीता का विषय असंख्य की अगाध(अंध नहीं) श्रद्धा से जुड़ा हुआ विषय भी है!क्या आपको महसूस हो रहा है कि जिस तरह से आपने उनको महज़ एक शब्द अथवा दन्त कथा के चरित्र के रूप में वर्णित किया है वो माता सीता को अपमानित करना नहीं है!न्यायलय के हिसाब से आपने असंख्य जनों की श्रद्धा को ठेस पहुँचाने की कोशिश नहीं कर दी है...?
वो एक अलग विषय है कि ये सब जानभूझ कर किया गया है अथवा भूल वश हुआ है!
आप बताये श्रीराम और सीता माता के चरित्र पर संदेह अथवा उसमे भी खोट देखने वाले और उनमे श्रद्धा और आदर्श देखने वाले में अधिक विद्वान् कौन हो सकता है...?

@"किसी महिला के लिए सीता जैसा जीवन बिताने से बुरा शायद ही कुछ और हो सकता है।"

बिल्कल सही कहा आपने!पर मुझे लगा कि आधी बात ही कही है!इसे ऐसा कह कर पूरा किया जाना चाहिए कि
"किसी महिला के लिए सीता जैसा जीवन बिताने से बुरा शायद ही कुछ और हो सकता है पर इतने पर भी वो अपने आदर्शो पर अटल रही!क्या ये एक मिसाल नहीं है..?"

आप थोडा स्पष्ट करेंगे कि आपके हिसाब से तब की "गुलाम अबला" और आज की "आजाद नारी" में अधिक स्वतंत्र औरत कौन सी है..?

तब औरत से ज्यादा खिलवाड़ होते थे अथवा अब..?

क्या आप "मर्यादा" शब्द और उसकी महत्ता से कुछ लगाव रखते है?

कुँवर जी,

kunwarji's ने कहा…

@अदालत द्वारा आज की स्त्रियों के संदर्भ में सीता का उदाहरण दिया जाना अत्यंत दुःखद है।

क्यों....?
क्या आज की नारी में अपना कोई आत्मविश्वाश नहीं है जिसके सहारे हर परिस्थिति में वो खुद को मजबूत साबित कर सकती है या फिर केवल सुख और सुविधाओ के लिए ही वो खुद साबित करना चाहेगी,विकट परिस्थितियों के आते ही पलायन उसको सही साबित करेगा....?
कुँवर जी,

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

हम सीता जी का सम्मान करते हैं और मानते हैं कि वह अपने पति श्री राम चंद्र जी के साथ सदा सुख से रहीं .
दुख वाली बातें कवि ने कथा को रोचक बनाने के लिए लिख दी थीं .
उन घटनाओं को सत्य न माना जाए .

सुज्ञ ने कहा…

विजय माथुर साहब,
आप जहां मार्क्सवाद का सहिष्णु और सुसंस्कृत चहरा उजागर करने में प्रयत्नशील है वहीं यह लोग मार्क्सवाद को घृणित मंशाओं में लपेटने में लिप्त है।

सोच जब निम्न होती है तो निष्कर्ष भी निम्न ही आते है।

सुज्ञ ने कहा…

कुंवर जी के प्रश्न सटीक है, लेखक और ब्लॉग धारक को जवाब देने चाहिए…………

Pallavi saxena ने कहा…

दिव्या उर्फ zeal जी की बातों से पूर्णतः सहमत हूँ।

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