मंगलवार, 12 जून 2012

संसद की हीरक जयंती में आखिर आम जनता कहा है ?




क्या अपने जीवन की बुनियादी व व्यापक समस्याओं को लेकर संसद , विधानसभा पर देश के आम जनगण का आशा - विश्वास बढ़ता -- चडता रहा है या फिर वह दर हकीकत घटता गिरता जा रहा है ?


13 मई 2012 को भारतीय संसद ने 60 साल पूरा किया | संसद के दोनों सदनों ने अपनी हीरक जयंती मनाई | अलग -- अलग रूप में भी और फिर संयुक्त रूप में भी |विभिन्न देशो के राजदूत भी इस संसदीय समारोह में शामिल हुए | संसद से लेकर प्रचार माध्यमो तक में भारतीय संसदीय जनतंत्र के 60 साल स्थायित्व के गीत गाये जाते रहे | लेकिन इस अहम सवाल पर कोई चर्चा नजर नही आई की क्या देश का 60 साल का संसदीय जनतंत्र समाज में खासकर जनसाधारण समाज में जनतंत्र को निरंतर बढाने में अर्थात आम समाज में एकता , समानता व भाईचारगी को बढाने में सफल रहा ? फिर इस सवाल पर कही कोई चर्चा दिखाई नही पड़ी की क्या ६० सालो में देश की आम जनता में संसद व संसदीय जनतंत्र के प्रति विश्वास व आस्था में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है ? क्या अपने जीवन की बुनियादी व व्यापकसमस्याओं को लेकर संसद , विधानसभा पर देश के आम जनगण का आशा -- विश्वास बढ़ता -- चडता रहा है या फिर वह दर हकीकत घटता गिरता रहा है ?

प्रचार माध्यमो में 15 मई 1952 से कार्यरत पहली संसद से लेकर वर्तमान समय के 15 व़ी संसद के बारे में उनके कार्यो के बारे , तब से अब तक के सांसदों के बदलते परिवेश तथा चारित्रिक विशेषताओं आदि के बारे में चर्चाये प्रकाशित होती रही | उदाहरण .यह की पहले संसद में राष्ट्र व जनता के गंभीर समस्याओं मुद्दों पर सारगर्भित बहसे चला करती थी | संसद की बैठके भी नियमित रूप में चला करती थी | उनमे सांसदों की उपस्थिति भी आम तौर पर ठीक ठाक रहती थी | पहले के विपक्षी पार्टियों के नेतागण न केवल उस समय के जाने माने अनुभवी राजनीतिज्ञ थे , अपितु सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के नेताओं की तरह स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिकाये निभाते रहे थे | प्रमुखत:इसी कारण उस समय के सांसदों की आम जनता में गहरी पैठ थी | फिर तब के सांसदों के खासे हिस्से में शिक्षा -- दीक्षा में भारी कमी के वावजूद उनके अनुभव व ज्ञान में खासकर जनसाधारण के प्रति जन संघर्षो , जन समस्याओं के प्रति आज जैसी कमी तो एकदम नही थी | उस दौर के संसद में असामाजिक तत्वों की घुसपैठ नही थी | जबकि खबरों के अनुसार वर्तमान संसद में 150 सांसद तो घोषित तौर पर अपराधिक मामलो से जुड़े हुए है | बताने की जरूरत नही की ये सांसद किसी एक पार्टी से नही बल्कि वामपंथी पार्टियों को छोडकर एवं विपक्ष की लगभग सभी पार्टियों से जुड़े हुए है | इसलिए ये मामला केवल चन्द दागी सांसदों का नही रह गया है , बल्कि उन दागी व्यक्तियों को माननीय बनाने वाले सभी राजनैतिक पार्टियों का हो गया है |

पहले के और अब के संसदीय कार्य प्रणाली का तीसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है की पहले की संसदीय पार्टिया , महगाई , बेकारी व रोजी रोजगार की समस्याओं के साथ शिक्षा , स्वास्थ्य जैसे जनहित की समस्याओं को संसद से सडक तक उठाया करती थी | आम जनता को इसके लिए आंदोलित करती रहती थी | हड़ताल , धरना , प्रदर्शन आदि के जरिये सत्ता सरकारों पर दबाव डालती रहती थी | आज संसदीय पार्टिया ऐसा कुछ करती नजर नही आ रही है | अब इसकी जगह कभी -- कभी संसदीय शगुफेबाजी , एकदिनी सांकेतिक हड़ताल और वैसे ही शोबाजी वाले धरना -- प्रदर्शन , बाजार बंद व चक्का जाम आदि का चलन बढ़ता जा रहा है | आम जनता के बीच सांसदों विधायको के बारम्बार आने -- जाने मिलने -- जुलने औरउनके दुःख -- दर्द सुनने का पहले का सिलसिला तक ही सीमित होता गया है | इसी का परीलक्षण है की सरकारी बसों आदि में शायद विधायक सीटों पर अब कोई माननीय बैठने नही आता |
पहले की संसद में जमीदारी उन्मूलन कानून से लेकर देश के आधुनिक , औद्योगिक विकास पर खेती -- किसानी के आधुनिक विकास पर लघु एवं कुटीर उद्योग के सुरक्षा व विकास पर , आम जनता के लिए स्थाई कामधंधे आदि के विकास पर बिना दाम के या कम से कम दाम में शिक्षा , स्वास्थ्य आदि की सेवाओं के विकास -- विस्तार पर चर्चा बहस चला करती थी | इसके लिए नीतिया कानून व प्रोग्राम बनाये जाते रहे थे | इसके लिए देश और दुनिया के धनाढ्य वर्गो को सर्वाधिक छूट देने के साथ -- साथ उनकी पूंजियो परीसम्पत्तियों से लेकर उनके औद्योगिक व्यापारिक क्रिया -- कलापों पर " एम् .आर .टी .पी ." व फेरा जैसे नियंत्रणवादी नीतिया व कानून लागू किए जाते रहे थे |
आज की संसद व संसदीय पार्टियों द्वारा खासकर पिछले 15 --20 सालो में देश के तीव्र आधुनिक विकास के नाम पर तथा '' इंस्पेक्टर -- राज '' खत्म करने के नाम पर धनाढ्य वर्गो पर लगे पहले के थोड़े से नियंत्रणकारी नीतियों , कानूनों को बदला व खत्म किया जाता रहा है |इसके लिए हर क्षेत्र में लाभ की गारंटियो केसाथ छूटो अधिकारों के बढाने वाली नीतियों कानूनों को चरणबद्ध रूप से बढाया जाता है |
यह काम पिछले 20 सालो से देश की संसद द्वारा अनुमोदित उदारीकरणवादी वैश्वीकरणवादी , तथा निजीकरणवादी कही जाने वाली विदेशी या अन्तराष्ट्रीय नीतियों के जरिये किया जाता रहा है | फिर इन्ही नीतियों के तहत पहले से लागू जनसाधारण के थोड़े बहुत हितो को काटा -- घटाया जाता रहा है | तब से अब तक की सभी प्रमुख संसदीय पार्टिया केन्द्रीय व प्रांतीय सभी सरकारों में भागीदार बनकर इस काम में सहयोग करती रही है | इन विदेशी या अन्तराष्ट्रीय आर्थिक नीतियों पर किन्ही पार्टियों का विरोध अगर रहा भी है तो वह चंद क्षेत्रो तक सीमित रहा है या फिर नीतियों के जबानी विरोध व् व्यवहारिक समर्थन के रूप में प्रदर्शित होता रहा है | इसलिए अब संसद में नीतियों कानूनों पर 50 ,60 , 70 के दशक जैसी चर्चाये तथा उन पर संसदीय विरोध प्रदर्शित होने की कोई गुंजाइश नही है | महिला आरक्षण बिल जैसे चन्द उपरी मामलो को छोडकर देश की आर्थिक नीतियों पर उनमे बड़ा विरोध खड़ा होने वाला नही है | इसी का सबूत है की पिछले 15 सालो से देश का केन्द्रीय बजट भी सांसदों द्वारा लगभग बिना चर्चा - बहस के ही पास कर दिया जाता है | देश के जनसाधारण में आज की संसदीय पार्टियों नेताओं में आपसी दूरियों -- रंजिशो -- नोक झोक गाली -- गलौज को इस तरह प्रचारित -- प्रसारित किया जाता रहा है मानो आज की संसदीय पार्टियों में तथा संसद में पहले जैसी एकजुटता नही है | उनमे विरोध ही विरोध है | लेकिन इन प्रचारों के विपरीत सच्चाई यह है की पहले के सांसदों की चर्चाओं बहसों में गंभीर सैद्धांतिक व् व्यवहारिक विरोध प्रकट होते रहते थे | उनमे खासकर कांग्रेस पार्टी , सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों और नेताओं के बीच तथा उनके कार्यकर्ताओं के बीच भी बहसों विरोधो को कही भी देखा -- सुना जा सकता था | उनमे राष्ट्र व राष्ट्र की आम जनता की समस्याओं पर उसके सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक पहलुओं पर तीखी चर्चाये बहस हमेशा ही चलते रहते थे | इसके विपरीत पिछले 20 सालो की संसद में खासकर 1996 के बाद की संसद में बिभिन्न पार्टियों के सांसदों में आपसी सत्ता , स्वार्थी कटुताओं के वावजूद सत्ता स्वार्थी अवसरवादी सहयोग कही ज्यादा बढ़ गया है | आपसी सहयोग से विभिन्न सत्ता स्वार्थी मोर्चा को बनाने के रूप में और फिर विरोधी पार्टियों द्वारा नीतिगत मामलो पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सहयोग समर्थन देने के रूप में यह प्रक्रिया लगातार बढती रही है |
सांसदों के बारे में किन्ही तथ्यगत रूपों से सही टिप्पणीयो के विरुद्ध भी सभी पार्टियों के सांसद एकजुट हो जाते है | वे इसे संसद की अवमानना व अपमान कहकर टिप्पणी देने वाले की ही ऐसी तैसी करने लग जाते है | योग गुरु रामदेव से लेकर अन्य कई लोगो की सांसदों के बारे में टिप्पणीयो पर सभी पार्टियों का यह रुख -- रवैया इस बात का सबूत है की सभी पार्टियों के सांसदों में इल्मी - फ़िल्मी से लेकर अपराधिक रिकार्डधारी तथा गैररिकार्डधारी सांसदों में आपसी सहयोग तथा एकजुटता बढती रही है |परस्पर सहयोग के प्रमुख आधार में निसंदेह: वर्तमान दौर का धनाढ्य वर्गीय वैश्विक सम्बन्ध और उसे बढाने वाली जनविरोधी वैश्वीकरणवादी नीतिया ही है | जिन्हें पिछले बीस सालो से लागू करने का काम सभी संसदीय पार्टियों ने खुले आम किया है | इस आधार पर बनी संसदीय एकता के पीछे देश व दुनिया के धनाढ्य वर्गो के धनाढ्य कम्पनियों के तथा गैर राजनितिक तबको के साथ उच्च वर्गीय राजनीतिको के स्वार्थ हित मौजूद है | क्योंकि इन नीतियों को लागू किए जाने के फलस्वरूप धनाढ्य वर्गो की पूंजियो -- परीसम्पत्तियों में भारी वृद्धि के साथ -- साथ मंत्रियों , सांसदों विधायको के वेतन भत्तो सुविधाओं निधियो आदि में बेतहाशा वृद्धि होती रही है | दूसरी तरफ आम जनता की महगाई बेकारी जैसी समस्याओं संकटों में बेतहाशा वृद्धि होती रही |
देश के संसद की 60 साल हीरक जयंती पर सांसदों से लेकर देश -- दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों द्वारा खुशिया मनाना आपसी एकजुटता दिखाना एकदम स्वाभाविक है | पर उसी संसद द्वारा अनुमोदित जन विरोधी नीतियों के फलस्वरूप तेजी से बढती रही समस्याओं संकटों में घिरते जा रहे जन साधारण को ऐसे संसदीय उत्सव को जले पे नमक जैसा महसूस करना भी एकदम स्वाभाविक है | सांसदों पर तथा संसद पर जनसाधारण के पहले के विश्वासों का टूटना भी स्वाभाविक है |
मुझे नागर्जुन जी की यह कविता याद आ गयी |
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल बाँका कर सकी शासन की बंदूक
-सुनील दत्ता
पत्रकार

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