गुरुवार, 5 जुलाई 2012

विज्ञान में पिछड़ता भारत ? आखिर क्यों ?

विज्ञान के प्रोत्साहन में आ रही कमी का ही परीलक्षण है की अब बच्चे विज्ञान की उच्च कक्षाओं के छात्र बनने की जगह इंजीनियरिंग , प्रबन्धन , एवं प्रशाशन के क्षेत्र में ही अधिकाधिक जाने का प्रयास कर रहे है |


एक हिन्दी दैनिक दी गयी सूचनाओं के अनुसार प्रधान मंत्री ने कुछ महीने पहले भारतीय विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए कहा की ' पिछले कुछ दशको में विज्ञान के क्षेत्र में गिरावट आई है | अमेरिका व यूरोपीय देशो में ही नही बल्कि पड़ोसी देश चीन से हम पिछड़ते जा रहे है |' इसी तरह 2010 के अधिवेशन को संबोधित करते हुए प्रधान मंत्री ने कहा था की ' देश में विज्ञान व शोध के विकास को बढावा देने में निजी क्षेत्र की भूमिकa निराशाजनक है |

कुछ साल पहले एडमिनिस्ट्रेटीव स्टाफ कालेज आफ इंडिया ' द्वारा कराए गये अध्ययन से पता चला था की 80% से ज्यादा भारतीय कम्पनिया रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर कोई खर्च नही करती है |फिर सरकारी क्षेत्रो में भी विज्ञान कोबढावा बहुत कम दिया जा रहा है |

विज्ञान के प्रोत्साहन में आ रही कमी का ही परीलक्षण है की अब बच्चे विज्ञान की उच्च कक्षाओं के छात्र बनने की जगह इंजिनियर , प्रबन्धन एवं प्रशासन के क्षेत्र में ही अधिकाधिक पहुचने का प्रयास कर रहे है | इंजीनियरिंग की पढाई में भी मामला तकनीकि ज्ञान के विकास और नए शोध का नही है बल्कि झटपट प्लेसमेंट वाली तथा भारी भरकम पॅकेज वाली नौकरियों का है | वैज्ञानिक शिक्षा तथा शोध व विकास को हतोत्साहित किए जाने का परीलक्षण है की भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलौर में आवश्यक 478 प्राध्यापकों की जगह 250
प्राध्यापक ही मौजूद है | फिर यह बात भी सच है की सरकारी विद्यालयों एवं उच्च विद्यालयों में भी नए खोजो अनुसन्धानो और फंड अनुदान में भारी कमी की गयी है |

सूचना यह भी है की भारत में विज्ञान एवं शोध व विकास के लिए सकल घरेलू उत्पाद का नगण्य हिस्सा खर्च किया जाता है , जबकि अमेरिका से लेकर जापान , कोरिया , चीन तथा ताइवान तक इस क्षेत्र में अपने सकल घरेलू उत्पाद का कही ज्यादा धन खर्च करते है |
ह तो देश में विज्ञान एवं शोध व विकास के बारे में प्रधानमन्त्री के बयान और उसके तथ्यगत सबूत | अब अगला महत्वपूर्ण सवाल है की आखिर ऐसा है क्यों ?
प्रधानमन्त्री का कहना है की पिछले कुछ दशको से विज्ञान की स्थिति में गिरावट आई है ...................फिर 2010 में उनका यह भी कहना है की विज्ञान की उच्च शिक्षा एवं शोध व विकास को बढावा देने में निजी क्षेत्र की भूमिका नगण्य है | प्रधानमन्त्री जी के दोनों बयानों में उनकी अपनी भूमिका के साथ एक परस्पर सम्बन्धित तथ्य मौजूद है |वह यह की 1991 से उसे उदारीकरणवादी निजीकरणवादी तथा वैश्वीकरणवादी अन्तराष्ट्रीय नीतियों को नयी आर्थिक नीतियों के नाम से लागू करने वाले वित्त मंत्री और कोई नही , बल्कि वर्तमान प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी ही थे | देश में इन नीतियों '' सुधारों को आगे बढाते हुए निजी क्षेत्र को ही अर्थात निजी क्षेत्र के देशी व विदेशी बड़े मालिको को ही सर्वाधिक बढावा दिया गया | पहले के सार्वजनिक क्षेत्रो को भी निजीकरण , के तहत निजी मालिको को सौपने का काम किया जाता रहा | इसीलिए विज्ञान एवं शोध व विकास में निजी क्षेत्र की नगण्य भूमिका और ज्यादा उभरकर सामने आ गयी | पहले की तुलना में विज्ञान एवं शोध व विकास की स्थिति में और गिरावट आ गयी है |
वैसे तो वैज्ञानिक अनुसंधान में यूरोप के मुकाबले पूरा एशिया ही पीछे है | हमारे देश में ब्रिटिश काल में हुए चंद वैज्ञानिकों के अलावा आधुनिक वैज्ञानिक खोजो की जानी मानी हस्ती न तो पहले है और न बाद में | इसके वावजूद पहले के तीन दशको में सरकारे जितना भी इस क्षेत्र के लिए प्रयास कर रही थी , बाद के दशको में वह भी ढीला पद गया , कमजोर हो गया क्योंकि ---पहले शिक्षा को वैज्ञानिक शिक्षा को , वैज्ञानिक खोज को बढाने का जिम्मा सरकारों को था | निजी क्षेत्र की हैसियत औकात व अधिकार कम थे , नियंत्रित थे | सरकारे किसी हद तक विज्ञान को बढावा भी दे रही थी | इसका सबूत यह भी है की तब मेधावी व अध्ययनशील छात्रों का बड़ा समूह विज्ञान की शिक्षा और वह भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लालायित रहता था | इस संदर्भ में यह भी याद रखना चाहिए उस समय सरकारे देश की आत्मनिर्भरता के नारे लगाती रही थी |आत्मनिर्भर वैज्ञानिक एवं तकनिकी विकास के सपने भी दिखा रही थी | पर आत्मनिर्भरता के लिए वैज्ञानिक व तकनिकी विकास का काम कभी नही हुआ , उल्टे विदेशी वैज्ञानिक एवं तकनिकी उपलब्धियों के आयात को लगातार बढावा देना जारी रखा गया | इसके बावजूद उस समय तक भारत में वैज्ञानिक शिक्षा पर आज से कही ज्यादा जोर था और वह जोर कुछ न कुछ आत्मनिर्भरता के नाम पर था |
पर अब पिछले तीन दशको से देश के आत्म निर्भर विकास के नाम -- नारे को भी छोडकर वैश्वीकरण का नारा लगाया जाने लगा | विकसित देशो से पूंजी व तकनीकि का अंधाधुंध आयात बढने लग गया | देश में वैज्ञानिक खोज करने कराने की जगह उसे विदेशो से आयात करने और देश में उसे हतोत्साहित करने का काम बढने लग गया है | वैज्ञानिक एवं तकनीकि खोजो को करने करवाने और फिर उसे आयात करके लाभ दर लाभ कमाने तथा भारत जैसे विकासशील देशो को तकनीकि तौर पर निर्भर बनाने में माहिर बहुराष्ट्रीय कम्पनिया और उनकी साम्राज्यी सरकारे पहले से लगी रही है | वे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दबाव डालकर भी इन देशो में वैज्ञानिक एवं तकनीकि खोजो को कमजोर करवाती रही है | फिर देश की निजी क्षेत्र के बड़े धनाढ्य मालिक इसके लिए पहले से ही ( ब्रिटिश काल ) से तैयार रहे है , ताकि उन्हें वैज्ञानिक खोज पर धन न खर्च करना पड़े न समय लगाना पड़े | उनकी जगह उन खोजो तकनीको के आयात से अधिक उत्पादन व बिक्री का लाभ उन्हें तुरंत मिल जाए | पिछले तीन दशको में विदेशी व देशी धनाढ्य कम्पनियों को मिलती रही छूटो व अधिकार ने वैज्ञानिक व तकनिकी खोज के आयात को अंधाधुंध बढावा देकर तात्कालिक रूप से आर्थिक वृद्धि को तो दर्शा दिया पर देश में वैज्ञानिक व तकनिकी अनुसन्धान को लगातार लम्जोर करने का काम किया | जाहिर सी बात है की वैज्ञानिक शिक्षा तथा खोज व अनुसंधान का यह काम देशी व विदेशी धनाढ्य कम्पनियों को विदेशी तकनीक के आयात को बढावा देते हुए हरगिज नही हो सकता | यह काम उन पर नियंत्रण लगाने के साथ तथा देश के आत्मनिर्भर विकास के लिए वैज्ञानिक शिक्षा व तकनिकी खोज को बढावा देते हुए ही हो सकता है |
सुनील दत्ता
पत्रकार

1 टिप्पणी:

Arvind Mishra ने कहा…

सही है ,भारत में वैज्ञानिकों और विज्ञान के लिए उपयुक्त परिवेश नहीं है !

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