सिर्फ काशी नगरी ही तीन लोक से न्यारी नही है ,बल्कि यहा के लोग ,उनका रहन -सहन ,उनके आचार -विचार ,यहा तक की सरकारी -गैर सरकारी संस्थाए भी अपने ढंग की निराली है |उदाहरण के लिए बनारस नगरपालिका को ही ले लीजिये |इस नगरी का निरालापन कोई मुफ्त में न देख जाए ,इस गरज से वह प्रत्येक यात्री पीछे एक आना प्रवेश -कर लेती है |जहा तक प्रवेश -कर का सवाल है ,हमे एतराज नही है |लेकिन पालिका 'निकासी -कर 'भी लेती है \कहने का मतलब यह की अगर कोई बाहरी आदमी बनारस आये और आकर वापस चला जाए तो उसे दो आने की चपत पड़ जाती है |शायद आपको यह जानकर आश्चर्य होगा की घर के लोग अर्थात ख़ास बनारस के बाशिंदे भी इस कर से मुक्त नही है |चूँकि यह कर रेलवे के माध्यम से लिया जाता है >इसलिए हम -आप नही जान पाते |काशी जैसी नगरी के लिए क्या यह नियम निरालेपन का द्योतक नही है ?
सफाई पसंद शहर
इस कर ' की बाबत कहा जाता है की यह इसलिए लिया जाता है की तीर्थ स्थान होने की वजह से यहा गंदगी काफी होती है |लिहाजा सफाई खर्च (बनाम जर्माना )'तीर्थयात्री 'कर के रूप में लिया जाता है |बनारस कितना साफ़ -सुधरा शहर है ,इसका नमूना गली -सड़के तो पेश करती ही है अखबारों के 'सम्पादक के नाम पत्र ' वाले कालम भी प्रसंशा-शब्दों से रंगे रहते है |माननीय पंडित नेहरु तथा स्वच्छ काशी आन्दोलन के जन्मदाता आचार्य विनोवा भावे इस बात के प्रत्यक्ष गवाह है |
खुदा आबाद रखे देश के मंत्रियों को जो गाहे -बगाहे कनछेदन ,मुंडन ,शादी और उदघाटन के सिलसिले में बनारस चले आते है जिससे कुछ सफाई हो जाती है ; नालियों में पानी और छुने का छिडकाव हो जाता है |
निराली भूमि
अगर आप कभी काशी नही आये है तो आपको लिखकर सारी बाते समझाई नही जा सकती |अगर आये है और इसका निरालापन नही देखा है तो यह आपके लिए दुर्भाग्य की बात है |शायद आप यह सवाल करे की आखिर बनारस में इतना क्या निरालापन है जिसके लिए ढिढोरा पीटा जा रहा है ,तो अर्ज़ है ---
विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है की पृथ्वी शून्य में स्थित है और वह सूर्य के चारो तरफ चक्कर काटती है |लेकिन इस तथ्य को भारत वासी नही मानते |उनका विज्ञान यह कहता है की पृथ्वी 'शेषनाग 'के फेन 'पर स्थित है और स्वं सूर्य उसके चारो ओर चक्कर काटता है |हमने कभी पश्चिम ,उत्तर या दक्षिण से सूरज को उगते नही देखा |यह सब विज्ञान की बाते चंडूखाने की गप्प है |एक बेपेदी का लोटा जब बिना सहारे के इधर --उधर लुढकता है तब पृथ्वी जैसी भारी गोलाकार वस्तु (बकौल पश्चिमी विज्ञान )बिना किसी लाग (सहारे ) के कैसे स्थिर रह सकती है ?बताइए ,है कोई वैज्ञानिक -खगोलवेत्ता जो उत्तर देने का साहस करे !
बनारस वालो का दृढ विश्वास है -पृथ्वी शेषनाग के फन पर स्थित है पर उनका बनारस भगवान शंकर के त्रिशूल पर है |शेषनाग से उनका कोई मतलब नही |इसीलिए काशी को तीन लोक से न्यारी कहा गया है |यहा गंगा उत्तरवाहिनी है ,यहा कभी भूकम्प नही आता |कभी -कभी शंकर भगवान जब आराम करने के लिए त्रिशूल पर पथ टेक देते है तब यहा की जमीन कुछ हिल भर जाती है |अधिक दूर क्यों ,काशी शंकर के त्रिशूल पर है या नही ,इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यहा की भूमि की बनावट है |
अब आप एक त्रिशूल की कल्पना करे जिसमे तीन फल होते है |बीचवाला फल सबसे उंचा और दोनों ओर ढलुवा होता है |बाकी दोनों फल ऊपरी दिशा में मुड़े होते है |बीचवाला फल वर्तमान चौक -ज्ञानवापी है |प्राचीन काल में काशी का महाश्मशान यही था |वर्तमान विश्वनाथ मंदिर के निकट से गंगा बहती थी |शंकर का सबसे प्रिय स्थान श्मशान होने की वजह से उसे शीर्ष स्थान दिया गया है |आज भी आधी रात के बाद शंकर के 'गण ' इस स्थान के प्रसिद्ध बाज़ार कचौड़ी गली में मिठाई खरीदने आते है |चौक के दोनों ओर भयंकर ढाल है |यह ढाल कितना भयंकर है इसका अंदाज रिक्शे की सवारी में अनुभव हो जाता है | दक्षिण का ढाल जगमबाड़ी में और उत्तर का ढाल मैदागिन में जाकर समाप्त होता है |फिर दूसरी चढाई वाला ढाल मछोदरी से राजघाट और उधर जगमबाड़ी से भदैनी तक है |इसके बाद दोनों तरह उतराई है |काशी के इस भूगोल को पढने के पश्चात अब आपको भी मानना पड़ेगा की काशी शंकर के त्रिशूल पर अवश्य स्थित है |इसमें संदेह करने की कोई गुंजाइश नही है |
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जिस प्रकार हिन्दु धर्म कितना प्राचीन है पता नही चलता ठीक उसी प्रकार काशी कितनी प्राचीन है ,पता नही लग सका |
यद्धपि बनारस की खुदाई से प्राप्त अनेक मोहरे ,ईट,पथ्थर ,हुक्का ,चिलम और सुराही के टुकडो का पोस्मार्टम हो चुका है फिर भी सही बात अभी तक प्रकाश में नही आई है |जन -साधारण में अवश्य काशी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है |कहा जाता है कि सृष्टि कि उत्पत्ति के पूर्व काशी को शंकर भगवान अपने त्रिशूल पर लादे घूमते -फिरते थे |जब सृष्टि कि उत्पत्ति हो गयी तब इसे त्रिशूल से उतारकर पृथ्वी के मध्य में रख दिया गया |
यह सृष्टि कितनी प्राचीन है ,इस सम्बन्ध में उतना ही बड़ा मतभेद है जितना यूरोप और एशिया में या पूर्वी गोलार्द्ध में है |सृष्टि कि प्राचीनता के सम्बन्ध में एक बार प्रसिद्ध पर्यटक बर्नियर को कौतूहल हुआ था |अपनी इस शंका को उसने काशी के तत्कालीन पंडितो पर प्रगट की,नतीजा यह हुआ कि उन लोगो ने अलजबरा कि भांति इतना बड़ा सवाल लगाना शुरू किया जिसे देखकर बर्नियर कि बुद्धि गोल हो गयी |फलस्वरूप उसका हल बिना जाने उसने यह स्वीकार कर लिया कि काशी बहुत प्राचीन है |इसका हिसाब सहज नही |अगर हजरत कुछ दिन यंहा और ठहर जाते टी सृष्टि कि प्राचीनता के सम्बन्ध में सिर्फ उन्हें ही नही ,बल्कि उनकी डायरी से सारे संसार को यह बात मालूम हो जाती |चूँकि पृथ्वी के जन्म के पूर्व काशी कि उत्पत्ति हो गयी थी इसलिए इसे 'अपुनभर्वभूमि ' कहा गया है |एक अर्से तक शंकर के त्रिशूल पर चक्कर काटने के कारण 'रुद्रावास 'कहा गया |प्राचीन काल में यंहा के जंगलो में भी मंगल था ,इसीलिए इसे 'आनंदवन 'और 'आनन्द-कानन ' कहा गया |इन्ही जंगलो में ऋषि -मुनि मौज -पानी लेते थे ,इसीलिए इसे 'तप: स्थली 'कहा गया | तपस्वियों की अधिकता के कारण यंहा की भूमि को 'अविमुक्त -क्षेत्र 'की मान्यता मिली |
इसका नतीजा यह हुआ की काफी तादाद में लोग यंहा आने लगे |उनके मरने पर उनके लिए एक बड़ा श्मशान बनाया गया | कहने का मतलब काशी का 'नाम 'महाश्मशान ' भी हो गया |
प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह पता चलता है कि काश्य नामक राजा ने काशी नगरी बसाई :अर्थात इसके पूर्व काशी नगरी का अस्तित्व नही था |जब काश्य के पूर्व यह नगर बसा नही था तब यह निश्चित है कि उन दिनों मनु कि सन्ताने नही रहती थी ,बल्कि शंकर के गण ही रहते थे |हमे प्रस्तरयुग ,ताम्रयुग ,और लौहयुग कि बातो का पता है |हमारे पूर्वज उत्तरी ध्रुव से आये या मध्य एशिया से आये ,इसका समाधान भी हो चुका है |पर काश्य के पूर्व काशी कहा थी ,पता नही लग सका |
काशी की स्थापना
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काश्य के पूर्वज राजा थे इसीलिए उन्हें राजा कहा गया है अथवा काशी नगरी बसाने के कारण उन्हें राजा कहा गया है ,यह बात विवादास्पद है |ऐसा लगता है की इन्हें अपनी पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा नही मिला ,फलस्वरूप ये नाराज होकर जंगल में चले गये |वहा जंगल आदि साफ़ कर एक फर्स्ट क्लास का बंगला बनवाकर रहने लगे |धीरे -धीरे खेती -बारी भी शुरू की |लेकिन इतना करने पर भी स्थान उदास ही रहा |नतीजा यह हुआ की कुछ और मकान बनवाये और उन्हें किराए पर दे दिया |इस प्रकार पहले -पहल मनु की संतानों की आबादी यहाँ बस गयी |आजकल जैसे मालवीय नगर ,लाला लाजपत नगर आदि बस रहे है ठीक उसी प्रकार काशी की स्थापना हो गयी |
ऐसा अनुमान किया जाता है की उन दिनों काशी की भूमि किसी राजा की अमलदारी में नही रही वरना काश्य को भूमि का पत्ता लिखवाना पड़ता ,मालगुजारी देनी पड़ती और लगान भी वसूल करते |चूँकि इस नगरी को आबाद करने का श्रेय इन्ही को प्राप्त हुआ था ,इसीलिए लोगो ने समझदारी से काम लेकर इसे काशी नगरी कहना शुरू किया |आगे चलकर इनके प्रपौत्र ने इसे अपनी राजधानी बनाया कहने का मतलब परपोते तक आते -आते काशी नगरी राज्य बन गयी थी और उस फर्स्ट क्लास के बंगले को महल कहा जाने लगा था |इन्ही काश्य राजा के वंशधर थे -दिवोदास |सिर्फ दिवोदास ही नही ,महाराज दिवोदास |कहा जाता है की एक बार इन पर हैहय वंश वाले चढ़ आये थे |लड़ाई के मैदान से रफूचक्कर होकर हजरत काशी से भाग गये | भागते -भागते गंगा -गोमती के संगम पर जाकर ठहरे |अगर वहा गोमती ने इनका रास्ता न रोका होता तो और भी आगे बढ़ जाते |जब उन्होंने यह अनुभव किया की अब पीछा करने वाले नही आ रहे है तब वे कुछ देर के लिए वही आराम करने लगे |जगह निछ्द्द्म थी |बनारसवाले हमेशा से निछ्द्द्म जगह जरा अधिक पसंद करते है |नतीजा यह हुआ की उन्होंने वही डेरा डाल दिया |कहने का मतलब वही एक नयी काशी बसा डाली | कुछ दिनों तक चवनप्रास का सेवन करते रहे ,दंड पेलते रहे और भांग छानते रहे |जब उनमे इतनी ताकत आ गयी की हैहय वंश वालो से मोर्चा ले सके ,तब सीधे पुरानी काशी पर चढ़ आये और बात की बात में उसे ले लिया |इस प्रकार फिर काशीराज बन बैठे |हैहय वालो के कारण काशी की भूमि अपवित्र हो गयी थी ,उसे दस अश्वमेघ यज्ञ से शुद्ध किया और शहर के चारो तरफ परकोटा बनवा दिया ताकि बाहरी शत्रु झटपट शहर पर कब्जा न कर सके |इसी सुरक्षा के कारण पूरे 500 वर्ष यानी 18 -20 पीढ़ी तक राज्य करने के पश्चात इना वंश शिवलोक वासी हो गया |
काशी से वाराणसी
इस पीढ़ी के पश्चात कुछ फुटकर राजा हुए | उन लोगो ने कुछ कमाल नही दिखाया ,अर्थात न मंदिर बनवाए ,न स्तूप खड़े किए और न खम्भे गाड़े |फलस्वरूप ,उनकी ख़ास चर्चा नही हुई |कम -से -कम उन भले मानुषो को एक -एक साइनबोर्ड जरुर गाढ़ देना चाहिए था | इससे इतिहासकारों को कुछ सुविधा होती |
ईसा पूर्व सातवी शताब्दी में ब्रम्हदत्त वंशीय राजाओं का कुछ हालचाल ,बौद्ध -साहित्य में है ,जिनके बारे में बुद्ध भगवान ने बहुत कुछ कहा है ,लेकिन उनमे से किसी राजा का ओरिजनल नाम कही नही मिलता |
पता नही किस्मे यह मौलिक सूझ उत्पन्न हुई की उसने काशी नाम को सेकेण्ड हैण्ड समझकर इसका नाम वाराणसी कर दिया | कुछ लोगो का मत है की वरुणा और अस्सी नदी के बीच उन दिनों काशी नगरी बसी हुई थी ,इसीलिए इन दोनों नदियों के नाम पर नगरी का नाम रख दिया गया ,ताकि भविष्य में कोई राजा अपने नाम का सदुपयोग इस नगरी के नाम पर न करे |इसमें संदेह नही की वह आदमी बहूदूरदर्शी था वरना इतिहासकारों को ,चिठ्ठीरसो को और बाहरी यात्रियों को बड़ी परेशानी होती |
लेकिन यह कहना की वरुणा और असी नदी के कारण इस नगरी का नाम वाराणसी रखा गया बिलकुल वाहियात है ,गलत है और अप्रमाणिक है | जब पद्रहवी शदाब्दी में यानी तुलसीदास जी के समय ,भदैनी का इलाका शहर का बाहरी क्षेत्र माना जाता था तब असी जैसे बाहरी क्षेत्र को वाराणसी में मान कैसे लिया गया ? दूसरे विद्वानों का मत है की असी नही ,नासी नामक एक नदी थी जो कालान्तर में सुख गयी ,इन दोनों नदियों के मध्य वाराणसी बसी हुई थी ,इसलिए इसका नाम वाराणसी रखा गया |यह बात कुछ हद तक काबिलेगौर है लिहाजा हम इसे तस्दीक कर लेते है |
भगवान बुद्ध के कारण काशी की ख्याति आधी दुनिया में फ़ैल गयी थी | इसलिए पड़ोसी राज्य के राजा हमेशा इसे हडपना चाहते थे | जिसे देखो वही लाठी लिए सर पर तैयार रहने लगा |नाग ,शुंग और कण्व वंश वाले हमेशा एक दूसरे के माथे पर सेंगरी बजाते रहे | इन लोगो की जघन्य कार्यवाही के प्रमाण -पत्र सारनाथ की खुदाई में प्राप्त हो चुके है |
ईसा की प्रथम शताब्दी में प्रथम विदेशी आक्रामक बनारस आया | यह था -कुषाण सम्राट कनिष्क | लेकिन था बेचारा भला आदमी | उसने पड़ोसियों के बमचख में फायदा जरुर उठाया पर बनारस के बहरी अलंग सारनाथ को खूब सवारा भी | कनिष्क के पश्चात भारशिवो और गुप्त सम्राटो का रोब एक अरसे तक बनारस वालो पर ग़ालिब होता रहा | इस बीच इतने उपद्रव बनारस को लेकर हुए की इतिहास के अनेक पृष्ठ इनके काले कारनामो से भर गये है |मौखरी वंश वाले भी मणिकर्णिका घाट पर नहाने आये तो यहाँ राजा बन बैठे | इसी प्रकार हर्षवर्द्धन के अन्तर में बौद्ध धर्म के प्रति प्रेम उमड़ा तो उन्होंने भी बनारस को धर दबाया | आठवी शताब्दी में इधर के इलाके में कोई तगड़ा राजा नही था ,इसीलिए बंगाल से लपके हुए पाल नृपति चले आये | लेकिन कुछ ही दिनों बाद प्रतिहारो ने उन्हें खदेड़ दिया और स्वंय 150 वर्ष के लिए यहा जम गये | कन्नौज से इत्र की दूकान लेकर गाह्डवाले भी एक बार आये थे | मध्य प्रदेश से दुधिया छानने के लिए कलचुरीवाले भी आये थे |कलचुरियो का एक साइनबोर्ड कर्दमेश्वर मंदिर में है | यह मंदिर यंहा 'कनवा 'ग्राम में है | यही बनारस का सबसे पुराना मंदिर है | इसके अलावा जितने मंदिर है सब तीन सौ वर्ष के भीतर बने हुए है |
वाराणसी से बनारस
अब तक विदेशी आक्रमक के रूप में वाराणसी में कनिष्क आया था | जिस समय कलचुरी वंश के राजा गांगेय कुम्भ नहाने प्रतिष्ठान गये हुए थे ,ठीक उसी समय नियालतगिन चुपके से आया और यहा से कुछ रकम चुराकर भाग गया | नियालतगिन के बाद जितने विदेशी आक्रमक आये उन सबकी अधिक कृपा मंदिरों पर ही हुई | लगता है इन लोगो ने इसके पूर्व इतना उंचा मकान नही देखा था | देखते भी कैसे ? सराय में ही अधिकतर ठरते थे जो एक मंजिल से ऊँची नही होती थी | यहा के मंदिर उनके लिए आश्चर्य की वस्तु रहे | उनका ख्याल था की इतने बड़े महल में शहर के सबसे बड़े रईस रहते है ,इसलिए उन्हें गिराकर लूटना अपना कर्तव्य समझा | नियालतगिन के बाद सबसे जबर्दस्त लुटेरा मुहम्मद गौरी सन 1914 ई. में बनारस आया | उसकी मरम्मत पृथ्वीराज पांच -छ बार कर चुके थे ,पर जयचंद के कारण उसका शुभागमन बनारस में हुआ | नतीजा यह हुआ की उस खानदान का नामोनिशान हमेशा के लिए मिट गया | सन 1300 ई ,में अलाउद्धीन खिलजी आया | उसके बाद उसका दामाद बाबर्कशाह आया ,जिसे 'काला पहाड़ ' भी कहा गया है |सन 1494 ई. में सिकन्दर लोदी साहब आये और बहुत कुछ लाद ले गये | जहागीर ,शाहजहा और औरंगजेब की कृपा इस शहर पर हो चूकि है | फरुखासियर और ईस्ट इंडिया कम्पनी की याद अभी ताजा है | पता नही ,इन लोगो ने बनारस को लुटने का ठेका क्यों ले रखा था ? लगता है ,उन्हें लुटने की यह प्रेरणा स्वनामधन्य लुटेरे महमूद गजनबी से प्राप्त हुई थी | संभव है, उन दिनों बनारस में काफी मालदार लोग रहा करते थे अथवा ये लोग बहुत उत्पाती और खतरनाक रहे हो |इसके अलावा यह संभव है की बनारस वाले इतने कमजोर रहे की जिसके में आया वही दो धौल जमाता गया | खैर कारण चाहे जो कुछ भी रहे हो बनारस को लुटा खूब गया है ,इसे धार्मिक और इतिहास के पंडित दोनों ही मानते है | बनारस को लुटने की यह परम्परा फरुखसियर के शासनकाल तक बराबर चलती रही |इन आक्रमणों में कुछ लोग यहा बस गये | उन्हें वाराणसी नाम श्रुतिकटु लगा ,फलस्वरूप वाराणसी नाम घिसते -घिसते बनारस बन गया |जिस प्रकार रामनगर को आज भी लोग नामनगर कहते है | मुगलकाल में इसका नाम बनारस ही रहा |
बनारस बनाम मुहम्मदाबाद
औरंगजेब जरा ओरिजनल टाइप शासक था | सबसे अधिक कृपा उसकी इस नगर पर हुई | उसे बनारस नाम बड़ा विचित्र लगा | कारण बनारस में न तो कोई रस बनता था और न यहा के लोग रसिक रह गये थे | औरंगजेब के शासनकाल में इसकी हालत अत्यंत खराब हो गयी थी | फलस्वरूप उसने इसका नाम मुहम्मदाबाद रख दिया |
मुहम्मदाबाद से बनारस
मुगलिया सल्तनत भी 1857 के पहले उखड़ गयी | नतीजा यह हुआ की सात समुन्द्र सत्तर नदी और सत्ताईस देश पार कर एक हकीम शाहजहा के शासनकाल में आया था ,उसके वंशधरो ने इस भूमि को लावारिस समझकर अपनी सम्पत्ति बना ली | पहले कम्पनी आई ,फिर यहा की मालिकन रानी बनी | रानी के बारे में कुछ रामायण प्रेमियों को कहते सुना गया है की वह पूर्व जन्म में त्रिजटा थी | संभव है उनका विश्वास ठीक हो |ऐसी हालत में यह मानना पडेगा की ये लोग पूर्व जन्म में लंका में रहते थे अथवा बजरंगबली की सेना में लेफ्ट -राईट करते रहे होंगे | गौरांग प्रभुओ की 'कृपा से ' हमने रेल ,हवाई जहाज ,स्टीमर ,मोटर ,साइकिल देखा | डाक -तार ,कचहरी और जमीदारी के झगड़े देखे | यहा से विदेशो में कच्चा माल भेजकर विदेशो से हजारो अपूर्व सुन्दरिया मंगवाकर अपनी नस्ल बदल डाली |
ये लोग जब बनारस आये तब इन्होने देखा --यहा के लोग बड़े अजीब हैं | हर वक्त गहरे में छानते है ,गहरेबाजी करते है और बातचीत भी फराटे के साथ करते है | कहने का मतलब हर वक्त रेस करते है |नतीजा यह हुआ की उन्होंने इस शहर का नाम 'बेनारेस' रख दिया |
बनारस से पुन:वाराणसी
ब्राह्मणों को सावधान करने वाले आर्यों की आदि भूमि का पता लगानेवाले डाक्टर सम्पूर्णानन्द को यह टेढा नाम पसंद नही था | बहुत दिनों से इसमें परिवर्तन करना चाहते थे पर मौक़ा नही मिल रहा था |लगे हाथ बुद्ध की 2500 वी. जयंती पर इसे वाराणसी कर दिया | यद्धपि इस नाम पर काफी बमचख मची ,पर जिस प्रकार संयुक्त प्रांत से उत्तर प्रदेश बन गया ,उसी प्रकार अब बनारस से वाराणसी बनता जा रहा है |
भविष्य में क्या होगा ?
भविष्य में वाराणसी रहेगा या नही ,कौन जाने | प्राचीनकाल की तरह पुन:वाराणसी नाम पर साफा -पानी होता रहे तो बनारस बन ही जाएगा इसमें कोई संदेह नही | जिन्हें वाराणसी बुरा लगता हो उन्हें यह श्लोक याद रखना चाहिए ---------
ख़ाक भी जिस जमी का पारस है ,
शहर मशहूर यही बनारस है |
पांचवी शताब्दी में बनारस की लम्बाई आठ मील और चौड़ाई तीन मील के लगभग थी | सातवी शताब्दी आते -आते नौ -साढे नौ मील लम्बाई और तीन -साढे तीन मील चौड़ाई हो गयी |
ग्यारहवी शताब्दी में ,न जाने क्यों इसका क्षेत्रफल पांच मील में हो गया | इसके बाद १1881 ई. में पूरा जिला एक हजार वर्ग मील में हो गया | अब तो वरुणा -असी की सीमा तोडकर यह आगे बढती जा रही है ; पता नही रबड़ की भाति इसका घेरा कहा तक फ़ैल जाएगा | आज भी यह माना जाता है की गंगा के उस पार मरने वाला गधा योनी में जन्म लेते है ,जिसके चश्मदीद गवाह शरच्चन्द्र चटर्जी थे | लेकिन अब उधर की सीमा को यानी मुगलसराय को भी शहर बनारस में कर लेने की योजना बन रही है | अब हम मरने पर किस योनी में जन्म लेंगे ,इसका निर्णय शीघ्र होना चाहिए ,वरना इसके लिए आन्दोलन -सत्याग्रह छिड़ सकता है | बनारस में शहरी क्षेत्र उतना ही माना जाता है जहा की नुक्कड़ पर उसके गण अर्थात चुंगी अधिकारी बैठकर आने -जाने वालो की गठरी टटोला करते है | इस प्रकार अब बनारस शीघ्र ही मेयर के अधिकार में आ जाएगा |
-सुनील दत्ता
.साभार विश्वनाथ मुखर्जी की पुस्तक ""बना रहे बनारस से ""
1 टिप्पणी:
आपकी बात में सार है.
यह दिल को छू गयी है.
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