आज हम सूचना प्रौद्योगिकी अर्थात इन्फ़ार्मेशन टेक्नालाॅजी ;प्ज्द्ध के युग में कुलाँचें भर रहे हैं, कुछ वर्ष पूर्व यह मुहावरा कहा जाता था ‘‘सेहत हज़ार नेमत’’ और लोग अपनी सेहत बनाए रखने के लिए फि़करमन्द रहा करते थे। हवा और रोशनी को सेहत के लिए बहुत ज़रूरी समझा जाता था इसीलिए मकान बनवाते समय इन बातों का ध्यान रखा जाता था कि घरवालों को भरपूर रोशनी और हवा मिलती रहे। बिजली के जलवे ने हवा और रोशनी दोनों की कमी दूर कर दी लेकिन आबादी की भरमार ने घरों को छोटा कर दिया। हमारे एक बुज़ुर्ग और स्वर्गीय दोस्त ने एक बार कहा था कि पहले बड़े-बड़े मकान हुआ करते थे तो लोगों के दिल भी बड़े हुआ करते थे अब मकानों के आकार के हिसाब से छोटे-छोटे दिल के लोग हो गए हैं। बड़े और छोटे दिल सेे मुराद उनके आकार या वज़न से नहीं था कि पहले वाले लोगों का दिल डेढ़ किलो का हुआ करता था और अब मात्र सौ ग्राम का हो गया है।
उदारता, सहनशीलता और क्षमाभाव बड़े दिलवालों का पहचान पत्र हुआ करता था। दूसरों की टोह में रहना, ईष्र्या और अहंकार यह छोटे दिल वालों का परिचय है। उन्हें अपना स्वार्थ सिद्धि से मतलब होता है, दूसरों को किस प्रकार का नुकसान पहुँचता है इसे वे नहीं महसूस कर सकते क्योंकि उनका दिल छोटा होता है,
मैंने बात शुरू की थी सूचना प्रौद्योगिकी की और फँस गया दिल, जिगर, जान के जाल में। सूचना एकत्र करना, उन्हें व्यवस्थित करना और आवश्यकतानुसार उनसे उत्तर प्राप्त करना ही सूचना प्रोद्योगिकी है, इस प्रकार की सूचनाओं के एकत्र करने का स्रोत कम्प्यूटर हुआ करता है, अगर अकेला कम्प्यूटर है तो सूचना का दायरा उसी कम्प्यूटर पर एकत्र सूचनाओं तक महदूद रहेगा और अगर कम्प्यूटर नेटवर्किंग में है अर्थात कई कम्प्यूटर एक दूसरे से जुड़े हैं तो फिर क्या कहने, जितने कम्प्यूटर उतनी ही अधिक सूचना का भण्डारण, अगर कोई इण्टरनेट का सदस्य है तो ‘‘पाँचों उंगली घी में’’ कहावत के अधार पर संसार भर के कम्प्यूटरों से हर प्रकार की सूचना प्राप्त करे और दूसरों तक पहुँचा कर आर्थिक, सामाजिक तथा मानसिक लाभ उठाए।
ऐसा नहीं है कि जब से कम्प्यूटर का प्रयोग शुरू हुआ है तभी से सूचना एकत्र करने और उससे फ़ायदा उठाने का कार्य हो रहा है। प्राचीन काल से ही सूचनाओं का आदान-प्रदान बहुत ही उच्च कोटि का रहा है। सूचनाओं की विश्वसनीयता इसलिए रहती थी कि यह किसी मनुष्य के लिए किसी मनुष्य के द्वारा किसी मनुष्य के सम्बन्ध में होती थी। वे सूचनाएँ जिनका स्रोत मनुष्य होता है उनका वर्गीकरण (मेरे विचार से) दो प्रकार से किया जा सकता है- सामान्य प्रकार की सूचना तथा खतरनाक प्रकार की सूचना। सामान्य प्रकार की सूचनाएँ आम तौर से सत्य पर आधारित होती हैं जैसे किसी का नाम पता पूछा जाना। बताने वाला यदि बहुत किलिट-टाइप का न हुआ तो अपना ही नाम पता बताएगा या जो बात पूछी जाएगी उसी के सम्बन्ध में उत्तर देगा। बेकार और अनावश्यक बातों से परहेज़ करेगा। इससे जुड़े हुए मुख्यतः भले लोग ही होते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे लोग ख़ुराफ़ात में पड़ना नहीं चाहते। बात को बात ही रहने देते हैं बात का बतंगड़ नहीं बनने देते।
सूचनाओं के स्रोत के वर्गीकरण के आधार पर खतरनाक किस्म की सूचना दो प्रकार की होती है पहली ‘‘अफ़वाह’’ और दूसरी ‘‘चुग़ली’’। यह दोनों छोटी बड़ी बहने हैं इसलिए दोनों के स्वभाव बहुत मिलते हैं। इन दोनों की एक ही मंशा रहती है- ‘‘अशान्ति’’। यदि किसी प्रकार की अशान्ति व्यक्ति विशेष को कुप्रभावित करे तो इस प्रकार की सूचना ‘‘चुग़ली’’ जब फैलती है तो जंगल की आग की तरह फैलती है यद्यपि इसके जन्मदाता का पता नहीं चल पाता। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है लखनऊ औरउसके आस-पास के जि़लों में ‘‘पकन्ना’’ का बड़ा जोर रहा। इसकी कहानी यह थी कि देर रात में ‘‘पकन्ना’’ आते हैं और लोगों को पकड़ कर ले जाते हैं (पकड़ कर ले जाने वालों को पकन्ना का नाम रख दिया) और मार कर डाल देते हैं। इनकी लाशों को जगह-जगह पर देखे जाने के दावे भी किए जाने लगे। यह बात अलग है कि किसी ने भी अपनी आँखों से लाश को देखने की बात नहीं कही। इस सूचना ने यह हालत कर दी कि भले और शरीफ लोग ‘‘पकन्ना’’ का सदस्य समझ कर पीटे जाने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों ने सूरज डूबने के बाद घर से निकलना बन्द कर दिया। उन्हें चाहे जितना जरूरी काम हो, अपनी जान बचाए घर में पड़े रहते थे। जो बेचारे दूसरे शहर से आते थे, यदि रात बिरात अपने रिश्तेदार का पता किसी से पूछ लिया तो समझो वह ‘‘पकन्ना’’ समझ लिए गए। अब यह उनकी किस्मत पर रहता था कि वह वे पीटे जाते हैं या बच निकलते हैं।
इस तरह से दिल्ली में बन्दरनुमा आदमी की ख़बर फैली जिसे देखो वह इसके अद्भुत किस्से इस तरह सुनाता था जैसे अपनी आँखों से सबकुछ देखा हो। हर अफ़वाह की तरह यह अफ़वाह भी कुछ दिनों के बाद सर्द खाने में जाकर सो गई। यह भी नहीं पता चल पाता कि खबरें अफ़वाहों में कैसे बदल जाती हैं। यह भी नहीं मालूम हो पता कि इतना बड़ा काम कौन कर जाता है। लेकिन कभी-कभी अनजाने में ही खबर, अफ़वाह बन जाती है, लखनऊ में अक्सर शिया-सुन्नी का मसला गर्माता रहता है। ऐसे ही एक मौके पर जब मामला गर्म हो कर थोड़ा ठण्डा होने लगा था, तभी अमीनाबाद में एक बच्चे की मासूम सूचना अफ़वाह बन गई। हुआ यूँ कि उसके पास एक खोटी अठन्नी थी जिसे चलाने का उसने बहुत प्रयास किया परन्तु चल नहीं पा रही थी। शाम के झुरमुटे में किसी कमज़ोर आँख के खोन्चे वाले ने उसकी अठन्नी के बदले में सामान दे दिया। वह लड़का सामान लेकर खुशी से ‘‘चलगई-चलगई’’ चिल्लाता हुआ अपने घर की ओर भागा। लोगों ने जब ‘‘चलगई-चलगई की आवाज सुनी तो बिना सोचे समझे यह तय कर लिया कि यकीनन गोली चल गई और फटाफट दुकानों के शटर गिरने लगे और बाज़ार में भगदड़ मच गई। एक गली में अपने दरवाजे़ पर खड़े एक साहब ने उस बच्चे से पूछा ‘‘अबे क्या चल गई?’’ बच्चा उसी रफ्तार से भागते हुए बोला ‘‘अठन्नी’’। लोग चल गई का पता नहीं क्या मतलब निकाल कर हलकान हुए जा रहे थे जबकि हकीकत कुछ और ही थी।
बहुत सी ऐसी खबरें होती हैं जो अपने में कोई हकीक़त नहीं रखतीं लेकिन अफ़वाह बन कर तबाही मचा देती हैं। लोग हकीकत जानने की कोशिश नहीं करते और कौव्वे के पीछे अपने कान के लिए दौड़ने लगते हैं।
अफवाह की तरह ही एक और खतरनाक किस्म की सूचना होती है जिसे
साधारण बोल चाल में ‘‘चुग़ली’’ कहा जाता है। यह शब्द कहने सुनने में बड़ा अच्छा लगता है।
इसे सुनकर यही एहसास होता है जैसे कोई कह रहा हो ‘‘चाँदी के वकऱ् में लिपटी हुई पान की गिलौरी’’। लेकिन साहब यह छोटा और सुनने में अच्छा लगने वाला शब्द कितना खतरनाक और ज़हरीला होता है कि पूछिए मत। यह कोई नया शब्द नहीं है। समाज के सभी लोग इस शब्द का अर्थ और इसकी उपयोगिता से भली प्रकार परिचित हैं। यह शब्द दूसरों की ऐसी-तैसी करने तथा अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए रामबाण समझा जाता है।
‘‘चुग़ली’’ मुख्य रूप से तीन व्यक्तियों को अपने घेरे में रखती हैं एक तो वह जो दूसरे की ऐसी-तैसी करना चाहता है, दूसरा वह जिसकी ऐसी-तैसी की जानी हो और तीसरा वह व्यक्ति जो ऐसी-तैसी करने में सक्षम हो। इस प्रकार के तीन व्यक्तियों के नाम होंगे-
1. चुग़ली सुनने वाला
2. चुग़ली करने वाला
3. चुग़ली का शिकार अर्थात जिसकी ऐसी-तैसी की जानी हो।
चुगली एक साधारण सी बात होती है जिसके कहने का विशेष अन्दाज़ होता है यह अन्दाज़ ही साधारण बात और चुग़ली में पहचान कराता है- नमूना देखिए-
‘‘मिश्रा जी! राम प्रसाद आज कानपुर गया है’’
‘‘राम प्रसाद का कानपुर जाना’’ एक साधारण सी बात है जो मिश्रा जी को सम्बोधित करते हुए उनके सूचनार्थ साधारण तरीके से कह दी गई है। अगर इसी बात को कहते समय अपने दाएँ व बाएँ इसलिए देखा जाए कि और कोई दूसरा सुनने वाला तो नहीं है फिर अपना मुँह सुनने वाले के कान के पास ले जाने की कोशिश में गर्दन थोड़ी आगे निकाली जाए, होठों परएक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ एक आँख दबाकर बात कही जाए तो यह चुग़ली रूपी सूचना हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति चुग़ली सुनना पसन्द ही करता हो लेकिन वह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि पानी की लगातार धार से पत्थर सरकता भी है और घिसता भी है। चुगली सुनने का परहेज़ ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाता और एक दिन ऐसा आता है कि परहेज़गार लोग भी होठों पर हल्की मुस्कराहट के साथ, चुग़ली रूपी सूचना को ग्रहण करने के लिए अपनी गर्दन आगे की ओर निकाल देते हैं क्योंकि उन्हें भी यह एहसास होने लगता है कि सूचना के बिना मनुष्य अधूरा रहता है इसलिए वे भी सूचनाओं के आदान प्रदान में लग जाते हैं भले ही प्रारम्भ में बड़े आदर्श की बातें करते हों।
मानवीय कर्तव्य तो यह होना चाहिए कि किसी की ऐब अर्थात बुराई पर पर्दा डाला जाए परन्तु इस सूचना प्रौद्योगिकी के युग में इस प्रकार की बेवकूफि़याँ कोई नहीं करता। अपने स्वार्थ की सिद्धि एवं चुग़ली में चटख़ारा पैदा करने के लिए झूठ-सच, अच्छे बुरे का ध्यान रखे बिना, अपने साथियों और सहयोगियों की ऐसी-तैसी करने के लिए तिल का ताड़ बनाते रहो और खुद कामयाबी की सीढ़ी पर चढ़ते रहो।
प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दीकी चुग़ली रूपी सूचना पर तीखा प्रहार करते हुए लिखते हैं- ‘‘चुग़ली खाना, गि़ज़ा भी है और वरजि़श भी- चुग़ली एक ऐसी गि़ज़ा है जिसके बगै़र हमारी सोसायटी का दस्तरख्वान फीका और वीरान रहता है। जिस तरह खाने का राज़ विटामिन है, सोसायटी की आबरू चुग़ली से है’’।
मेरे विचार से केवल छोटे दिल वाले ‘‘चुग़ली’’ को बुरा समझते होंगे लेकिन अगर इसे चुग़ली न समझ कर सूचना समझा जाये तो यह एक बहुत ही फ़ायदे का काम है क्योंकि हम सूचना प्रौद्योगिकी के युग में कुलाचें भर रहे हैं।
-शमीम इक़बाल ख़ाँ
मो0- 09506953183
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