अफ़ज़ल और संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान – 1
(
कसाब की फांसी के बाद, अफ़ज़ल को भी जल्दी ही फांसी की मांग उठाए जाने की
पृष्ठभूमि में यह आलेख पढ़ने को मिला. 13 दिसम्बर, संसद पर हमले की तारीख़
की आमद के मद्देनज़र अरुंधति रॉय के इस आलेख को गंभीरता से पढ़ा जाना और आम
किया जाना और भी मौज़ूं हो उठता है. हिंदी में यह अभी नेट पर उपलब्ध नहीं
है, इसीलिए इसे यहां प्रस्तुत करना आवश्यक लग रहा है. आलेख लंबा है अतः
व्यक्तिगत टाइपिंग की सीमाओं के बरअक्स यह कुछ भागों में प्रस्तुत किया
जाएगा.
अरुंधति आलेख के अंत में कहती हैं, ‘यह
जाने बग़ैर कि दरअसल क्या हुआ था, अफ़ज़ल को फांसी पर चढ़ाना ऐसा दुष्कर्म
होगा जो आसानी से भुलाया नहीं जा पायेगा। न माफ़ किया जा सकेगा। किया भी
नहीं जाना चाहिए।’ इसी परिप्रेक्ष्य में अफ़ज़ल की कहानी और भारतीय संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान से बावस्ता होने का जिगर टटोलिए. )
और उसकी ज़िंदगी का चिराग़ बुझना ही चाहिए
भारतीय संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान (पहला भाग )
०अरुंधति रॉय ( अनुवाद – जितेन्द्र कुमार )
इतना भर हम जानते हैं
: 13 दिसम्बर, 2001 को भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था। (
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, एनडीए सरकार पर एक और भ्रष्टाचार के प्रवाद
को लेकर हमले हो रहे थे ) सुबह के साढ़े ग्यारह बजे पांच हथियारबंद आदमी एक
सफ़ेद अम्बैसेडर कार में, जिसमें कामचलाऊ विस्फोटक उपकरण ( इम्प्रोवाइज़्ड
एक्सप्लोज़िव डिवाइस ) लगा हुआ था, नई दिल्ली में संसद भवन के फाटक से
होकर बढ़े। जब उनको रोका गया तो वे कार से कूदे और उन्होंने गोलियां बरसानी
शुरू कर दीं। इसके बाद की गोलीबारी में सारे-के-सारे हमलावर मार गिराये
गये। आठ सुरक्षाकर्मी और एक माली भी मारा गया। पुलिस ने कहा कि मारे गये
आतंकवादियों के पास संसद भवन को उड़ाने के लिए काफ़ी विस्फोटक पदार्थ और एक
पूरी बटालियन का सामना करने के लिए गोला-बारूद था।1 अधिकतर आतंकवादियों के विपरीत, ये पांच अपने अपने पीछे सुराग़ों की जबरदस्त श्रृंखला छोड़ गये – हथियार, मोबाइल फ़ोन, फ़ोन नंबर, पहचान पत्र, फ़ोटो, सूखे मेवों के पैकेट, यहां तक कि एक प्रेम-पत्र भी।2
आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी
वाजपेयी ने मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए हमले की तुलना अमरीका के 11 सितंबर
के आक्रमण से की, जो सिर्फ़ तीन महिने पहले की घटना थी।
संसद पर आक्रमण के दूसरे दिन, 14 दिसम्बर,
2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने ऐसे कई लोगों का
पता लगा लिया है, जिन पर इस षडयंत्र में शामिल होने का संदेह है। एक दिन
बाद, 15 दिसम्बर को उसने घोषणा की कि उसने ‘मामले को सुलझा लिया था’ :
पुलिस ने दावा किया कि हमला पाकिस्तान आधारित दो आतंकवादी गुटों,
लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का संयुक्त अभियान था। इस षडयंत्र में 12
लोगों के शामिल होने की बात कही गयी। जैश-ए-मोहम्मद का ग़ाज़ी बाबा ( आरोपी
नंबर -1), जैश-ए-मोहम्मद का ही मौलाना मसूद अज़हर ( आरोपी नंबर -2), तरीक़
अहमद ( पाकिस्तानी नागरिक ), पांच मारे गये ‘पाकिस्तानी आतंकवादी’( आज तक
हम नहीं जानते कि वे कौन थे ) और तीन कश्मीरी मर्द एस.ए.आर. गिलान, शौकत
गुरू और मोहम्मद अफ़ज़ल। इसके अलावा शौकत की बीबी अफ़सान गुरू। सिर्फ़ यही
चार गिरफ़्तार हुए।3
उसके बाद के तनाव-भरे दिनों में संसद को
स्थगित कर दिया गया। 21 दिसम्बर को भारत ने अपने राजदूत को पाकिस्तान से
वापस बुला लिया, हवाई, रेल और बस संपर्क रोक दिये गये और हमारी वायु-सीमा
से गुज़रने वाली पाकिस्तानी उडानोंपररोक लगा दी गयी। भारत ने युद्ध की
जबरदस्त तैयारी शुरू कर दी और पांच लाख से ज़्यादा सैनिकों को पाकिस्तान की
सीमा पर भेज दिया गया। विदेशी दूतावासों ने अपने कर्मचारियों को हटाना
शुरू कर दिया और भारत आने वाले पर्यटकों को यात्रा की चेतावनी वाली सलाह
जारी कर दी। परमाणु युद्ध के कगार की ओर बढ़ते उपमहाद्वीप को दुनिया सांस
रोककर देखने लगी।4 भारत को इस सबकी क़ीमत जनता के दस हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके चुकानी पड़ी। कुछ सौ सैनिक तो हड़बड़ाहट-भरी तैनाती की प्रक्रिया में ही जान से हाथ धो बैठे।
लगभग साढे़ तीन साल बाद, 4 अगस्त, 2005 को
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अंतिम फ़ैसला सुना दिया। उसने इस
दृष्टिकोण की पुष्टि की कि संसद पर हमले को जंगी कार्रवाई के तौर पर लिया
जाना चाहिए। उसने कहा ‘संसद पर आक्रमण की कोशिश निःसंदेह भारतीय राज्य और
सरकार की, जो उसकी ही प्रतिरूप है, प्रभुसत्ता का अतिक्रमण है…मृत
आतंकवादियों को जबरदस्त भारत विरोधी भावनाओं से भड़काकर यह कार्रवाई करने
के लिए प्रेरित किया गया जैसा कि कार ( एक्स.पी डब्लू 1-8 ) पर पाये गये
गृहमंत्रालय के नक़ली स्टिकर में लिखे हुए शब्दों से भी साबित होता है।’
न्यायालय ने आगे कहा, ‘कट्टर फ़ियादिनों ने जो तरीक़े अपनाये वे सब भारत
सरकार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की मंशा दर्शाते हैं।’
गृहमंत्रालय के नक़ली स्टिकर पर जो लिखा था, वह यह है :
‘हिन्दुस्तान बहुत
ख़राब मुल्क है और हम हिन्दुस्तान से नफ़रत करते हैं, हम हिन्दुस्तान को
बर्बाद कर देना चाहते हैं और अल्लाह के करम से हम ऐसा करेंगे अल्लाह हमारे
साथ है और हम भरसक कोशिश करेंगे। यह मूरख वाजपेयी और आडवाणी हम उन्हें मार
देंगे। इन्होंने बहुत से मासूम लोगों की जानें ली हैं और वे बेइन्तहा ख़राब
इन्सान हैं, उनका भाई बुश भी बहुत ख़राब आदमी है, वह अगला निशाना होगा। वह
भी बेकुसूर लोगों का हत्यारा है उसे भी मरना ही है और हम यह कर देंगे।’5
चतुराई-भरे शब्दों में लिखी गयी यह
स्टिकर-घोषणा संसद की ओर जाते कार-बम के अगले शीशे पर लगा हुआ था। ( इस पाठ
में जितने शब्द हैं उन्हें देखते हुए यह हैरत की बात है कि ड्राइवर कुछ
देखने की स्थिति में रहा भी होगा। शायद यही कारण है कि वह उप-राष्ट्रपति की
कारों के काफ़िले से टकरा गया था? )
पुलिस ने अपना आरोप-पत्र एक त्वरित-सुनवाई
अदालत में दायर किया जो कि ‘आतंकवाद निरोधक अधिनियम’ ( पोटा ) के मामलों को
निपटाने के लिए स्थापित की गयी थी। निचली अदालत ( ट्रायल कोर्ट ) ने 16
दिसम्बर, 2002 को गिलानी, शौकत और अफ़ज़ल को मौत की सज़ा सुनायी। अफ़सान
गुरू को पांच वर्ष की कड़ी कैद की सज़ा दी गयी। साल भर बाद उच्च न्यायालय
ने गिलानी और अफ़सान गुरू को बरी कर दिया। लेकिन शौकत और अफ़ज़ल की मौत की
सज़ा को बरकरार रखा। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी रिहाइयों को यथावत्
रखा और शौकत की सज़ा को 10 वर्ष की कड़ी सज़ा में तब्दील कर दिया। लेकिन
उसने न केवल मोहम्मद अफ़ज़ल की सज़ा को बरक़रार रखा, बल्कि बढ़ा दिया। उसे
तीन आजीवन कारावास और दोहरे मृत्युदंड की सज़ा दी गयी।
4 अगस्त, 2005 के अपने फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़-साफ़ कहा है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मोहम्मद अफ़ज़ल किसी आतंकवादी गुट या संगठन का सदस्य है।
लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है : ‘जैसा कि अधिकांश षड्यंत्रों के मामले
में होता है, उस सांठ-गांठ का सीधा प्रमाण नहीं हो सकता और न है जो आपराधिक
षड्यंत्र ठहरती हो। फिर भी, कुल मिलाकर आंके जाने पर परिस्थितियां अचूक
ढंग से अफ़ज़ल और मारे गये ‘फ़ियादीन’ आतंकवादियों के बीच सहयोग की ओर
इशारा करती हैं।’
यानि सीधा कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन परिस्थितिजन्य प्रमाण हैं।
फ़ैसले के एक विवादास्पद पैरे में कहा गया है : ‘इस घटना ने, जिसके कारण कई मौतें हुईं, पूरे राष्ट्र को हिला दिया था और समाज का सामूहिक अन्तःकरण तभी संतुष्ट होगा जब अपराधी को मृत्युदंड दिया जायेगा।’6
हत्या के अनुष्ठान को, जो कि मृत्युदंड वास्तव में है, सही साबित करने की ख़ातिर ‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण’ का आह्वान करना भीड़ द्वारा हत्या करने के क़ानून को मानक
बनाने के बहुत नज़दीक आ जाता है। यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि यह
हमारे ऊपर शिकारी राजनेताओं या सनसनी तलाशते पत्रकारों की ओर से नहीं आया (
हालांकि उन्होंने भी ऐसा किया है ), बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर
से एक फ़रमान की तरह जारी हुआ है।
अफ़ज़ल को फांसी की सज़ा देने के कारणों को
स्पष्ट करते हुए फ़ैसले में आगे कहा गया है, ‘अपील करने वाला, जो हथियार
डाल चुका उग्रवादी है और जो राष्ट्रद्रोही कार्यों को दोहराने पर आमादा था,
समाज के लिए एक ख़तरा है और उसकी ज़िंदगी का चिराग़ बुझना ही चाहिए।’
यह वाक्य ग़लत तर्क और इस तथ्य के निपट
अज्ञान का मिश्रण है कि आज के कश्मीर में ‘हथियार डाल चुका उग्रवादी’ होने
का क्या मतलब होता है।
सो : क्या मोहम्मद अफ़ज़ल की ज़िंदगी का चिराग़ बुझना ही चाहिए?
बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं, संपादकों,
वकीलों और सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण लोगों के एक छोटे-से, लेकिन
प्रभावशाली समूह ने नैतिक सिद्धांत के आधार पर मृत्युदंड का विरोध किया है।
उनका यह भी तर्क है कि ऐसा कोई व्यावहारिक प्रमाण नहीं है जो सुझाता हो कि
मौत की सज़ा आतंकवादियों के लिए अवरोधक का काम करती है। ( कैसे कर सकती
है, जब फ़िदायीनों और आत्मघाती बमवारों के इस दौर में मौत सबसे बड़ा आकर्षण
बन गई जान पड़ती हो? )
अगर जनमत-संग्रह ( ओपिनियन पोल ), संपादक
के नाम पत्र और टीवी स्टूडियो के सीधे प्रसारण में भाग ले रहे दर्शक भारत
में जनता की राय का सही पैमाना हैं तो हत्यारी भीड़ ( लिंच मॉब ) में
घंटे-दर-घंटे इज़ाफ़ा हो रहा है। ऐसा लगता है मानो भारतीय नागरिकों की
बहुसंख्यक आबादी मोहम्मद अफ़ज़ल को अगले कुछ वर्षों तक हर दिन फांसी पर
चढ़ाये जाते हुए देखना चाहेगी, जिनमें सप्ताहांत की छुट्टियां भी शामिल
हैं। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, अशोभनीय हड़बड़ी प्रदर्शित करते हुए,
चाहते हैं कि उसे फ़ौरन से पेश्तर फांसी दे दी जाये, एक मिनट की भी देर
किये बिना।7
इस बीच कश्मीर में भी लोकमत उतना ही प्रबल
है। ग़ुस्से से भरे बड़े-बड़े प्रदर्शन बढ़ती हुई मात्रा में यह स्पष्ट
करते जा रहे हैं कि अगर अफ़ज़ल को फांसी दी गयी तो इसके राजनैतिक परिणाम
होंगे। कुछ इसे न्याय का विचलन मानकर इसका विरोध कर रहे हैं, लेकिन विरोध
करते हुए भी वे भारतीय न्यायालयों से न्याय की अपेक्षा नहीं करते। वे इतनी ज़्यादा बर्बरता से गुज़र चुके हैं कि अदालतों, हलफ़नामों और इन्साफ़ पर उनका अब कोई विश्वास नहीं रह गया है।
कुछ दसरे लोग भी हैं जो चाहते हैं कि मोहम्मद अफ़ज़ल मक़बूल बट्ट की तरह
फांसी चढ़ जाये – कश्मीर के स्वतंत्रता-संघर्ष के एक गर्वीले शहीद के रूप
में।8 कुल मिलाकर,
ज़्यादातर कश्मीरी मोहम्मद अफ़ज़ल को एक युद्धबंदी की तरह देखते हैं, जिस
पर क़ब्ज़ा करने वाली ताक़त की अदालत में मुक़दमा चल रहा है ( जो निस्संदेह
सच है )। स्वाभाविक रूप से राजनैतिक दलों ने भारत में भी और कश्मीर में भी
हवा को सूंघ लिया है और बेमुरव्वती से जस्त लगाये, शिकार पर झपट पड़ने के
लिए बढ़ रहे हैं।
दुखद यह है कि इस पागलपन में लगता है अफ़ज़ल ने व्यक्ति होने का अधिकार
गंवा दिया है। वह राष्ट्रवादियों, पृथकतावादियों और मृत्युदंड विरोधी
कार्यकर्ताओं – सबकी कपोल-कल्पनाओं का माध्यम बन गया है। वह भारत का महा-खलनायक
बन गया है और कश्मीर का महानायक – महज़ यह सिद्ध करते हुए कि हमारे
विद्धज्जन, नीति-निर्धारक और शांति के गुरू चाहे जो कहें, इतने साल बाद भी
कश्मीर में युद्ध को किसी भी तरह ख़त्म हुआ नहीं कहा जा सकता।
ऐसी परिस्थिति में, जो इतनी आशंका भरी हों और जिसका इस हद तक राजनीतिकरण कर दिया गया हो, यह मानने का लालच होता है कि हस्तक्षेप का समय आकर चला गया है।
आख़िरकार, कानूनी प्रक्रिया चालीस महीने चली और सर्वोच्च न्यायालय ने उन
साक्ष्यों को जांचा है जो उसके सामने मौजूद थे। उसने आरोपियों में से दो
को सज़ा सुना दी और दो को बरी कर दिया। निश्चय ही यह अपने आप में न्याय की
वस्तुपरकता का प्रमाण हैं? इसके बाद कहने को क्या रह जाता है? इसे देखने का
एक और तरीक़ा भी है। क्या यह अजीब नहीं है कि अभियोजन पक्ष आधे मामले में इतने विलक्षण ढंग से ग़लत साबित हुआ और आधे में इतने शानदार तरीक़े से सही?
( अगली बार लगातार… दूसरा भाग )
संदर्भ :
1. संसद के हमले और उसके बाद की अदालती कार्रवाई के लिए देखें, नन्दिता हक्सर, फ्रेमिंग गिलानी, हैंगिंग अफ़ज़ल : पेट्रिऑटिज़म इन द नेम ऑफ़ टेरर ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2007 ); प्रफ़ुल्ल बिदवई, 13 डिसेम्बर-ए रीडर : द स्ट्रेंज केस ऑफ़ दी अटैक ऑन दी इंडियन पार्लियामेंट ( नयी दिल्ली : पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2006 ); सैयद बिस्मिल्लाह गिलानी, मैन्युफ़ैक्चरिंग टेरिज़्म : कश्मीरी एनकाउंटर्स विद मीडिया एंड द लॉ ( नई दिल्ली, प्रॉमिला, 2006 ); निर्मलांशु मुखर्जी, डिसेम्बर 13 : टेरर ओवर डेमोक्रेसी ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2005 ); पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, बैलेंसिंग एक्ट : हाई कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 डिसेम्बर, 2001 केस ( नयी दिल्ली : 19 दिसम्बर, 2003 ); पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल ऑफ़ एरर्स : ए क्रिटिक ऑफ़ द पोटा कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 दिसम्बर केस ( नई दिल्ली, 15 फ़रवरी, 2003 )।
2. न्यायाधीश एस.एन. ढींगरा, विशेष पोटा अदालत का फ़ैसला, मोहम्मद अफ़ज़ल बनाम राज्य ( दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ), 16 दिसम्बर, 2002।
3. गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का बयान, 18 दिसम्बर, 2001 । पाठ भारतीय दूतावास (वाशिंगटन) की बेबसाइट पर उपलब्ध है : http://www.indianembassy.org/new/parliament_doc_12_01.html ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया ) ( अब यह उपलब्ध नहीं है – प्रस्तुतकर्ता )।
4. देखें, सूज़न मिलिगन, ‘डिस्पाइट डिप्लोमेसी, कश्मीर ट्रूप्स ब्रोस’, बॉस्टन ग्लोब, 20 जनवरी, 2002, पृ. A1; फ़राह स्टॉकमैन एंड ऐंटनी शदीद, ‘सेक्शन फ़्यूएलिंग आयर बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान’, बॉस्टन ग्लोब, 28 दिसम्बर, 2001, पृ. A3; ज़ाहिद हुसैन, ‘टिट फ़ॉर टैट बैन्स रेज़ टेन्शन ऑन कश्मीर’, द टाइम्स (लंदन), 28 दिसम्बर, 2001; और ग़ुलाम हसनैन और निकोलस रफ़र्ड, ‘पाकिस्तान रेज़ेज़ कश्मीर न्यूक्लियर स्टेक्स’, संडे टाइम्स (लंदन), 30 दिसम्बर, 2001 ।
5. ढींगरा, विशेष पोटा कोर्ट का फ़ैसला।
6. देखें, सोमिनी सेनगुप्ता, ‘इंडियन ओपिनियन स्प्लिट्स ऑन कॉल फ़ॉर एक्सीक्यूशन’, इंटरनेशनल हेरल्ड ट्रिब्यून, 9 अक्टूबर, 2006; और सोमिनी सेनगुप्ता और हरी कुमार, ‘डेथ सेंटेस इन टेरर अटैक पुट्स इंडिया ऑन ट्रायल’, न्यूयार्क टाइम्स, 10 अक्टूबर, 2006, पृ. A3 ।
7. ‘आडवाणी क्रिटिसाइज्ड डिले इन अफ़ज़ल एक्जुक्यूषन’, द हिंदू, 13 नवम्बर, 2006 ।
8. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक संस्थापक मक़बूल बट्ट को 11 फ़रवरी, 1984 को दिल्ली में फांसी दी गयी। देखें, ‘इंडिया हैंग्स कश्मीरी फ़ॉर स्लेयिंग बैंकर’, न्यूयार्क टाइम्स, 12 फ़रवरी, 1984, सेक्शन 1, पृ. 7 । मक़बूल बट्ट के बारे में विवरण इंटरनेट पर उपलब्ध है : http://www.maqboolbutt.com और http://www.geocities.com/jklf-kashmir/maqboolstory.html ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया ) ( अब यह साइट बंद हो गई है – प्रस्तुतकर्ता )।
1. संसद के हमले और उसके बाद की अदालती कार्रवाई के लिए देखें, नन्दिता हक्सर, फ्रेमिंग गिलानी, हैंगिंग अफ़ज़ल : पेट्रिऑटिज़म इन द नेम ऑफ़ टेरर ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2007 ); प्रफ़ुल्ल बिदवई, 13 डिसेम्बर-ए रीडर : द स्ट्रेंज केस ऑफ़ दी अटैक ऑन दी इंडियन पार्लियामेंट ( नयी दिल्ली : पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2006 ); सैयद बिस्मिल्लाह गिलानी, मैन्युफ़ैक्चरिंग टेरिज़्म : कश्मीरी एनकाउंटर्स विद मीडिया एंड द लॉ ( नई दिल्ली, प्रॉमिला, 2006 ); निर्मलांशु मुखर्जी, डिसेम्बर 13 : टेरर ओवर डेमोक्रेसी ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2005 ); पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, बैलेंसिंग एक्ट : हाई कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 डिसेम्बर, 2001 केस ( नयी दिल्ली : 19 दिसम्बर, 2003 ); पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल ऑफ़ एरर्स : ए क्रिटिक ऑफ़ द पोटा कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 दिसम्बर केस ( नई दिल्ली, 15 फ़रवरी, 2003 )।
2. न्यायाधीश एस.एन. ढींगरा, विशेष पोटा अदालत का फ़ैसला, मोहम्मद अफ़ज़ल बनाम राज्य ( दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ), 16 दिसम्बर, 2002।
3. गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का बयान, 18 दिसम्बर, 2001 । पाठ भारतीय दूतावास (वाशिंगटन) की बेबसाइट पर उपलब्ध है : http://www.indianembassy.org/new/parliament_doc_12_01.html ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया ) ( अब यह उपलब्ध नहीं है – प्रस्तुतकर्ता )।
4. देखें, सूज़न मिलिगन, ‘डिस्पाइट डिप्लोमेसी, कश्मीर ट्रूप्स ब्रोस’, बॉस्टन ग्लोब, 20 जनवरी, 2002, पृ. A1; फ़राह स्टॉकमैन एंड ऐंटनी शदीद, ‘सेक्शन फ़्यूएलिंग आयर बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान’, बॉस्टन ग्लोब, 28 दिसम्बर, 2001, पृ. A3; ज़ाहिद हुसैन, ‘टिट फ़ॉर टैट बैन्स रेज़ टेन्शन ऑन कश्मीर’, द टाइम्स (लंदन), 28 दिसम्बर, 2001; और ग़ुलाम हसनैन और निकोलस रफ़र्ड, ‘पाकिस्तान रेज़ेज़ कश्मीर न्यूक्लियर स्टेक्स’, संडे टाइम्स (लंदन), 30 दिसम्बर, 2001 ।
5. ढींगरा, विशेष पोटा कोर्ट का फ़ैसला।
6. देखें, सोमिनी सेनगुप्ता, ‘इंडियन ओपिनियन स्प्लिट्स ऑन कॉल फ़ॉर एक्सीक्यूशन’, इंटरनेशनल हेरल्ड ट्रिब्यून, 9 अक्टूबर, 2006; और सोमिनी सेनगुप्ता और हरी कुमार, ‘डेथ सेंटेस इन टेरर अटैक पुट्स इंडिया ऑन ट्रायल’, न्यूयार्क टाइम्स, 10 अक्टूबर, 2006, पृ. A3 ।
7. ‘आडवाणी क्रिटिसाइज्ड डिले इन अफ़ज़ल एक्जुक्यूषन’, द हिंदू, 13 नवम्बर, 2006 ।
8. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक संस्थापक मक़बूल बट्ट को 11 फ़रवरी, 1984 को दिल्ली में फांसी दी गयी। देखें, ‘इंडिया हैंग्स कश्मीरी फ़ॉर स्लेयिंग बैंकर’, न्यूयार्क टाइम्स, 12 फ़रवरी, 1984, सेक्शन 1, पृ. 7 । मक़बूल बट्ट के बारे में विवरण इंटरनेट पर उपलब्ध है : http://www.maqboolbutt.com और http://www.geocities.com/jklf-kashmir/maqboolstory.html ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया ) ( अब यह साइट बंद हो गई है – प्रस्तुतकर्ता )।
प्रस्तुति – रवि कुमार
( यह आलेख अरुंधति रॉय के लेखों के संग्रह, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और नीलाभ द्वारा संपादित पुस्तक “कठघरे में लोकतंत्र”
से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है. यह अंग्रेजी की मूलकृति Listening of
Grasshoppers से अनूदित है. यह लेख सबसे पहले ३० अक्तूबर, २००६ को ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. )
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अफ़ज़ल गुरु को भी जल्दी ही फांसी होनी चाहिए,,,
recent post: रूप संवारा नहीं,,,
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