गुजरात में इस माह चुनाव होने जा रहे हैं। अधिकांश चुनावी सर्वेक्षणों और भाजपा व स्वयं मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अनुसार, वर्तमान सरकार भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटेगी। मीडिया ने मोदी का जम कर महिमामंडन किया है। मोदी की स्वयं की मीडिया मैनेजमेंट कंपनी भी उनकी ‘विकास पुरूष‘ की छवि बनाने के लिए सघन प्रयास कर रही है। बड़े औद्योगिक घराने मोदी को एक बार फिर मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। उद्योगपतियों को गुजरात में अनेक ऐसी सुविधाएं और लाभ उपलब्ध हैं जो उन्हें अन्यत्र कहीं नहीं मिलते। मोदी और उनके साथियों के दावों के विपरीत, गुजरात में आमलोग बहुत सुखी नहीं हैं। विकास के विभिन्न मानकों, जिनमें शामिल हैं पौष्टिकता का स्तर और गर्भवती महिलाओं में हीमोग्लोबिन का प्रतिशत, से साफ है कि गुजरात का आम आदमी वहां हुए तथाकथित विकास के फलों से महरूम है। परंतु अधिकांश लोगों का यह मानना है कि मोदी एक बार फिर जीतकर आएंगे और भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी सशक्त उम्मीदवारी प्रस्तुत करेंगे।
इसके साथ ही, मोदी मुसलमानों के एक तबके का भरोसा हासिल करने की भी कोशिश कर रहे हैं। इसमें शामिल है मुसलमानों का धनिक और व्यवसायी वर्ग। इनमें से कुछ ने खुलकर मोदी को समर्थन भी दिया है।
लगभग एक दशक पहले तक यह माना जाता था कि यह एक मिथक है कि धार्मिक समुदाय, विशेषकर अल्पसंख्यक, एक राय होकर वोट देते हैं। गुजरात के पहले तक, मुख्यतः गरीब मुसलमान दंगों के शिकार होेते थे। गुजरात दंगों ने दंगा पीडि़तों के इस वर्गीय विभाजन को समाप्त कर दिया। अब तो एहसान जाफरी की तरह धनी और प्रभावशाली व्यक्ति भी हिंसा का शिकार बन सकते हैं और बन रहे हैं। इस परिवर्तन के चलते, अधिकांश मुसलमान किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देने की रणनीति अपना सकते हैं, जो कि भाजपा को हराने में सक्षम हो। इस तरह की रणनीतियां पहले भी बनाई गई हैं और उन पर अमल भी हुआ है।
कुछ मुसलमानों का यह भी तर्क है कि चूंकि भाजपा और कांग्रेस में कोई खास फर्क नहीं है, अतः उनमें से किसी के भी सत्ता में आने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। आज यदि कांग्रेस को भाजपा के साथ एक ही पलड़े पर तौला जा रहा है तो इसका कारण है साम्प्रदायिक मुद्दों पर कांग्रेस की ढुलमुल नीतियां, अवसरवादिता और कई मौकों पर साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ उसकी मिलीभगत। कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ कभी खुलकर झण्डा नहीं उठाया इसलिए लोगों के मन में कांग्रेस की यह छवि घर कर गई है। परंतु गंभीरता से सोचने पर मुसलमानों को यह समझ आएगा कि भाजपा और कांगे्रस में मूलभूत अंतर है। अंतर यह है कि कांग्रेस की साम्प्रदायिकता अवसरवादिता की साम्प्रदायिकता है जबकि भाजपा की रीति-नीति में ही साम्प्रदायिकता बसी हुई है। भाजपा, संघ परिवार का हिस्सा है। संघ परिवार का लक्ष्य है हिन्दू राष्ट्र का निर्माण और वह अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए भारतीय प्रजातंत्र द्वारा उपलब्ध कराए गए उदार राजनैतिक वातावरण का इस्तेमाल करना चाहता है। इस अर्थ में भाजपा की तुलना किसी भी अन्य पार्टी से नहीं की जा सकती। भाजपा तो मात्र वह माध्यम है जिसका इस्तेमाल भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का पितामह-आरएसएस- समाज का साम्प्रदायिकीकरण करने के लिए कर रहा है।
भाजपा यह प्रचार करती रही है कि कांग्रेस के राज में अधिक संख्या में साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं तब फिर साम्प्रदायिक हिंसा और साम्प्रदायिकता के दृष्टिकोण से, कांग्रेस भाजपा से बेहतर कैसे हो सकती है। इस प्रचार में कोई दम नहीं है। सच यह है कि चूंकि कांग्रेस अधिक समय तक सत्ता में रही है इसलिए उसके शासनकाल में हुए दंगों की संख्या, भाजपा के शासनकाल में हुए दंगों से अधिक होना स्वाभाविक है। दूसरे, जब कांग्रेस शासन में रही है तब भाजपा और उसके साथी संगठनों ने दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। दूसरी ओर, भाजपा शासनकाल में कांग्रेस ने भले ही दंगाईयों का साथ दिया हो या दंगों की मूकदर्शक बनी रही हो परंतु उसने कभी दंगे भड़काए नहीं। इसके अलावा, दंगों के मामले में पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूणर््ा होती है। अधिकांश पुलिसकर्मी घोर साम्प्रदायिक हैं। इसके अतिरिक्त, पुलिस बलों में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जिनका झुकाव साम्प्रदायिक राजनैतिक ताकतोें की ओर है। इस जटिल परिस्थिति में मुसलमान आखिर किसे वोट दें?
जानेमाने इस्लामिक विद्वान और भारतीय इस्लाम का उदारवादी चेहरा डाॅ. असगर अली इंजीनियर का कहना है कि यद्यपि अधिकांश बोहरा मुसलमानों और उनके धार्मिक नेता दाई के, मुख्यतः व्यवसायिक कारणों से, मोदी से अच्छे रिश्ते हैं, फिर भी अधिकांश मुसलमान मोदी को अपना मत नहीं देंगे। वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य को उसकी समग्रता में देखने के पश्चात शायद ही कोई मुसलमान भाजपा का साथ देगा। मौलाना वस्तनवी, जिन्होंने कुछ समय पहले कहा था कि गुजरात में मुसलमानों की हालत देश के अन्य स्थानों से बेहतर है, ने भी मुसलमानों से मोदी को वोट न देने की अपील की है।
मोदी जी-जान से मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने की कोशिश में लगे हुए हैं। उन्होंने गुजरात के जफर सरेसवाला जैसे बड़े मुस्लिम व्यवसायियों से गठजोड़ कर लिया है। इसके बावजूद मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा आज भी मोदी से खौफ खाता है। उनके ‘सद्भावना उपवासों‘ के बाद भी मुसलमान जानते हैं कि मोदी की अल्पसंख्यकों के प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं है। मोदी के उपवास और सद्भावना समारोह केवल नाटक थे, जिनमें दाढ़ी और टोपी से लैस अनेक लोगों ने मोदी की अभ्यर्थना की। परंतु वहां भी, एक मुस्लिम मौलवी द्वारा भंेट की गई टोपी पहनने से इंकार करने से मोदी के असली चरित्र का पर्दाफाश हो ही गया। मोदी को हर तरह की रंग-बिरंगी हिन्दू और जैन टोपियां और पगडि़यां पहनने से कोई परहेज नहीं है परंतु वे मुस्लिम टोपी पहनना नहीं चाहते। मुस्लिम समुदाय यह समझता है कि सरकारी खजाने के करोड़ों रूपये खर्च कर मोदी ने अपनी छवि एक उदार नेता की बनाने की कोशिश भले ही की हो परंतु असल में उनके मन में मुसलमानों के प्रति कलुषता ही भरी हुई है। मुसलमानों के दिलों को लगे गहरे घाव इस तरह के नाटकों से नहीं भरे जा सकते।
मुसलमानों को याद है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता डाॅ बंदूकवाला ने मोदी से यह अनुरोध किया था कि वे गुजरात हिंसा में उनकी भूमिका के लिए प्रायश्चित कर लें तो मुस्लिम समुदाय गुजरात दंगों को भुलाकर आगे बढ़ने के लिए तैयार है। परंतु प्रायश्चित तो दूर, मोदी ने कभी गुजरात कत्लेआम के लिए खेद तक व्यक्त नहीं किया। इसके बजाए उन्होंने अपने पापों को ढंकने के लिए और अधिक चमकदार पर्दों का इस्तेमाल शुरू कर दिया। पूर्व सांसद सैयद शाहबुद्दीन ने मोदी को एक खुला पत्र लिखकर (नवम्बर 2012) कहा है कि अगर वे चाहते हैं कि मुसलमान उन्हें मत दें तो उन्हें 2002 के गुजरात हत्याकांड के लिए माफी मांगनी चाहिए अन्यथा मुसलमान भारी संख्या में मतदान करेंगे और वे उम्मीदवार के धर्म या उसकी पार्टी की परवाह किए बगैर, रणनीति बतौर, ऐसे उम्मीदवार को अपना मत देंगे जो संबंधित विधानसभा क्षेत्र में भाजपा को पराजित कर सके। सैयद शाहबुद्दीन अपने पत्र की भाषा और लहजे के कारण विवादों से घिर गए हैं परंतु उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं वे गुजरात के मुसलमानों के लिए महत्वपूर्ण है। शाहबुद्दीन ने मोदी से यह मांग की है कि दंगा पीडि़त मुसलमानों का समग्र पुनर्वास किया जाए, उनके चिकित्सा व्यय की प्रतिपूर्ति की जाए और उन्हें समुचित मुआवजा दिया जाए। इसके अतिरिक्त, साम्प्रदायिक हिंसा में जिन मुस्लिम प्रार्थनास्थलों को नुकसान पहुंचा है, उनका पुनर्निमाण हो। यह आश्चर्यजनक है कि शाहबुद्दीन यह सोच भी कैसे सकते हैं कि मोदी इस तरह के सुझावों को अमल में लाएंगे। मोदी को इस तरह का पत्र लिखना समय और ऊर्जा की बर्बादी है। कुछ लोग इसे आशावादिता कह सकते हैं परंतु यह दिन में स्वप्न देखने से ज्यादा कुछ नहीं है।
मुस्लिम समुदाय के सामने मुख्य समस्या यह है कि उन्हें गुजरात में दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है और इस तथ्य को वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अनुभव कर रहे हैं। राजनीति में वे हाशिए पर पटक दिए गए हैं और आर्थिक दृष्टि से पीछे ढकेल दिए गए हैं। राज्यतंत्र उनके साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है। ऐसे में इस बात की तनिक भी संभावना नहीं है कि मुसलमान मोदी को वोट देने के बारे में सोचेंगे भी। निःसंदेह, सरेसवाला जैसे कुछ संपन्न मुसलमान मोदी के लिए वोट मांगेगे परंतु आम मुसलमान, जो ‘गुजरात के हिन्दू राष्ट्र‘ में रहने की त्रासदी से गुजर रहा है और जहां विहिप, बजरंग दल, वनवासी कल्याण आश्रम और अभाविप आदि का राज चल रहा है, वे मोदी को समर्थन देने के लिए कतई तैयार नहीं होंगे। मोदी की चुनावों में सफलता के जश्न की तैयारियां अभी से चल रही हैं परंतु यह साफ है कि इस बार का चुनाव जीतना मोदी के लिए उतना आसान नहीं होगा जितनी आसानी से उन्होंने 2002 और 2007 के चुनाव जीते थे। ‘वाईबे्रंट गुजरात‘ के भुलावे में ना तो मुसलमान आने वाले हैं और ना ही दलित, आदिवासी और अन्य गरीब तबके, जिन्हें मोदी राज में बहुत कुछ भोगना पड़ा है। राज्य में रहनेवाले धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी व संस्कृतिकर्मी भी मोदी के जाल में नहीं फँसंेगे। चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने वाले विशेषज्ञ भले ही दिन रात मोदी की जीत को सुनिश्चित बता रहे हों परंतु गुजरात 2012 के परिणाम चैंकाने वाले हो सकते हैं। जो लोग 2002 के घावों के दर्द और सामाजिक विकास के अभाव के जनमानस पर प्रभाव को कम करके आंक रहे हैं, उनका गलत सिद्ध होना अवश्यंभावी है।
-राम पुनियानी
इसके साथ ही, मोदी मुसलमानों के एक तबके का भरोसा हासिल करने की भी कोशिश कर रहे हैं। इसमें शामिल है मुसलमानों का धनिक और व्यवसायी वर्ग। इनमें से कुछ ने खुलकर मोदी को समर्थन भी दिया है।
लगभग एक दशक पहले तक यह माना जाता था कि यह एक मिथक है कि धार्मिक समुदाय, विशेषकर अल्पसंख्यक, एक राय होकर वोट देते हैं। गुजरात के पहले तक, मुख्यतः गरीब मुसलमान दंगों के शिकार होेते थे। गुजरात दंगों ने दंगा पीडि़तों के इस वर्गीय विभाजन को समाप्त कर दिया। अब तो एहसान जाफरी की तरह धनी और प्रभावशाली व्यक्ति भी हिंसा का शिकार बन सकते हैं और बन रहे हैं। इस परिवर्तन के चलते, अधिकांश मुसलमान किसी ऐसे उम्मीदवार को वोट देने की रणनीति अपना सकते हैं, जो कि भाजपा को हराने में सक्षम हो। इस तरह की रणनीतियां पहले भी बनाई गई हैं और उन पर अमल भी हुआ है।
कुछ मुसलमानों का यह भी तर्क है कि चूंकि भाजपा और कांग्रेस में कोई खास फर्क नहीं है, अतः उनमें से किसी के भी सत्ता में आने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। आज यदि कांग्रेस को भाजपा के साथ एक ही पलड़े पर तौला जा रहा है तो इसका कारण है साम्प्रदायिक मुद्दों पर कांग्रेस की ढुलमुल नीतियां, अवसरवादिता और कई मौकों पर साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ उसकी मिलीभगत। कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ कभी खुलकर झण्डा नहीं उठाया इसलिए लोगों के मन में कांग्रेस की यह छवि घर कर गई है। परंतु गंभीरता से सोचने पर मुसलमानों को यह समझ आएगा कि भाजपा और कांगे्रस में मूलभूत अंतर है। अंतर यह है कि कांग्रेस की साम्प्रदायिकता अवसरवादिता की साम्प्रदायिकता है जबकि भाजपा की रीति-नीति में ही साम्प्रदायिकता बसी हुई है। भाजपा, संघ परिवार का हिस्सा है। संघ परिवार का लक्ष्य है हिन्दू राष्ट्र का निर्माण और वह अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए भारतीय प्रजातंत्र द्वारा उपलब्ध कराए गए उदार राजनैतिक वातावरण का इस्तेमाल करना चाहता है। इस अर्थ में भाजपा की तुलना किसी भी अन्य पार्टी से नहीं की जा सकती। भाजपा तो मात्र वह माध्यम है जिसका इस्तेमाल भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का पितामह-आरएसएस- समाज का साम्प्रदायिकीकरण करने के लिए कर रहा है।
भाजपा यह प्रचार करती रही है कि कांग्रेस के राज में अधिक संख्या में साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं तब फिर साम्प्रदायिक हिंसा और साम्प्रदायिकता के दृष्टिकोण से, कांग्रेस भाजपा से बेहतर कैसे हो सकती है। इस प्रचार में कोई दम नहीं है। सच यह है कि चूंकि कांग्रेस अधिक समय तक सत्ता में रही है इसलिए उसके शासनकाल में हुए दंगों की संख्या, भाजपा के शासनकाल में हुए दंगों से अधिक होना स्वाभाविक है। दूसरे, जब कांग्रेस शासन में रही है तब भाजपा और उसके साथी संगठनों ने दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। दूसरी ओर, भाजपा शासनकाल में कांग्रेस ने भले ही दंगाईयों का साथ दिया हो या दंगों की मूकदर्शक बनी रही हो परंतु उसने कभी दंगे भड़काए नहीं। इसके अलावा, दंगों के मामले में पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूणर््ा होती है। अधिकांश पुलिसकर्मी घोर साम्प्रदायिक हैं। इसके अतिरिक्त, पुलिस बलों में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जिनका झुकाव साम्प्रदायिक राजनैतिक ताकतोें की ओर है। इस जटिल परिस्थिति में मुसलमान आखिर किसे वोट दें?
जानेमाने इस्लामिक विद्वान और भारतीय इस्लाम का उदारवादी चेहरा डाॅ. असगर अली इंजीनियर का कहना है कि यद्यपि अधिकांश बोहरा मुसलमानों और उनके धार्मिक नेता दाई के, मुख्यतः व्यवसायिक कारणों से, मोदी से अच्छे रिश्ते हैं, फिर भी अधिकांश मुसलमान मोदी को अपना मत नहीं देंगे। वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य को उसकी समग्रता में देखने के पश्चात शायद ही कोई मुसलमान भाजपा का साथ देगा। मौलाना वस्तनवी, जिन्होंने कुछ समय पहले कहा था कि गुजरात में मुसलमानों की हालत देश के अन्य स्थानों से बेहतर है, ने भी मुसलमानों से मोदी को वोट न देने की अपील की है।
मोदी जी-जान से मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने की कोशिश में लगे हुए हैं। उन्होंने गुजरात के जफर सरेसवाला जैसे बड़े मुस्लिम व्यवसायियों से गठजोड़ कर लिया है। इसके बावजूद मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा आज भी मोदी से खौफ खाता है। उनके ‘सद्भावना उपवासों‘ के बाद भी मुसलमान जानते हैं कि मोदी की अल्पसंख्यकों के प्रति तनिक भी सहानुभूति नहीं है। मोदी के उपवास और सद्भावना समारोह केवल नाटक थे, जिनमें दाढ़ी और टोपी से लैस अनेक लोगों ने मोदी की अभ्यर्थना की। परंतु वहां भी, एक मुस्लिम मौलवी द्वारा भंेट की गई टोपी पहनने से इंकार करने से मोदी के असली चरित्र का पर्दाफाश हो ही गया। मोदी को हर तरह की रंग-बिरंगी हिन्दू और जैन टोपियां और पगडि़यां पहनने से कोई परहेज नहीं है परंतु वे मुस्लिम टोपी पहनना नहीं चाहते। मुस्लिम समुदाय यह समझता है कि सरकारी खजाने के करोड़ों रूपये खर्च कर मोदी ने अपनी छवि एक उदार नेता की बनाने की कोशिश भले ही की हो परंतु असल में उनके मन में मुसलमानों के प्रति कलुषता ही भरी हुई है। मुसलमानों के दिलों को लगे गहरे घाव इस तरह के नाटकों से नहीं भरे जा सकते।
मुसलमानों को याद है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता डाॅ बंदूकवाला ने मोदी से यह अनुरोध किया था कि वे गुजरात हिंसा में उनकी भूमिका के लिए प्रायश्चित कर लें तो मुस्लिम समुदाय गुजरात दंगों को भुलाकर आगे बढ़ने के लिए तैयार है। परंतु प्रायश्चित तो दूर, मोदी ने कभी गुजरात कत्लेआम के लिए खेद तक व्यक्त नहीं किया। इसके बजाए उन्होंने अपने पापों को ढंकने के लिए और अधिक चमकदार पर्दों का इस्तेमाल शुरू कर दिया। पूर्व सांसद सैयद शाहबुद्दीन ने मोदी को एक खुला पत्र लिखकर (नवम्बर 2012) कहा है कि अगर वे चाहते हैं कि मुसलमान उन्हें मत दें तो उन्हें 2002 के गुजरात हत्याकांड के लिए माफी मांगनी चाहिए अन्यथा मुसलमान भारी संख्या में मतदान करेंगे और वे उम्मीदवार के धर्म या उसकी पार्टी की परवाह किए बगैर, रणनीति बतौर, ऐसे उम्मीदवार को अपना मत देंगे जो संबंधित विधानसभा क्षेत्र में भाजपा को पराजित कर सके। सैयद शाहबुद्दीन अपने पत्र की भाषा और लहजे के कारण विवादों से घिर गए हैं परंतु उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं वे गुजरात के मुसलमानों के लिए महत्वपूर्ण है। शाहबुद्दीन ने मोदी से यह मांग की है कि दंगा पीडि़त मुसलमानों का समग्र पुनर्वास किया जाए, उनके चिकित्सा व्यय की प्रतिपूर्ति की जाए और उन्हें समुचित मुआवजा दिया जाए। इसके अतिरिक्त, साम्प्रदायिक हिंसा में जिन मुस्लिम प्रार्थनास्थलों को नुकसान पहुंचा है, उनका पुनर्निमाण हो। यह आश्चर्यजनक है कि शाहबुद्दीन यह सोच भी कैसे सकते हैं कि मोदी इस तरह के सुझावों को अमल में लाएंगे। मोदी को इस तरह का पत्र लिखना समय और ऊर्जा की बर्बादी है। कुछ लोग इसे आशावादिता कह सकते हैं परंतु यह दिन में स्वप्न देखने से ज्यादा कुछ नहीं है।
मुस्लिम समुदाय के सामने मुख्य समस्या यह है कि उन्हें गुजरात में दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है और इस तथ्य को वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अनुभव कर रहे हैं। राजनीति में वे हाशिए पर पटक दिए गए हैं और आर्थिक दृष्टि से पीछे ढकेल दिए गए हैं। राज्यतंत्र उनके साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है। ऐसे में इस बात की तनिक भी संभावना नहीं है कि मुसलमान मोदी को वोट देने के बारे में सोचेंगे भी। निःसंदेह, सरेसवाला जैसे कुछ संपन्न मुसलमान मोदी के लिए वोट मांगेगे परंतु आम मुसलमान, जो ‘गुजरात के हिन्दू राष्ट्र‘ में रहने की त्रासदी से गुजर रहा है और जहां विहिप, बजरंग दल, वनवासी कल्याण आश्रम और अभाविप आदि का राज चल रहा है, वे मोदी को समर्थन देने के लिए कतई तैयार नहीं होंगे। मोदी की चुनावों में सफलता के जश्न की तैयारियां अभी से चल रही हैं परंतु यह साफ है कि इस बार का चुनाव जीतना मोदी के लिए उतना आसान नहीं होगा जितनी आसानी से उन्होंने 2002 और 2007 के चुनाव जीते थे। ‘वाईबे्रंट गुजरात‘ के भुलावे में ना तो मुसलमान आने वाले हैं और ना ही दलित, आदिवासी और अन्य गरीब तबके, जिन्हें मोदी राज में बहुत कुछ भोगना पड़ा है। राज्य में रहनेवाले धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी व संस्कृतिकर्मी भी मोदी के जाल में नहीं फँसंेगे। चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने वाले विशेषज्ञ भले ही दिन रात मोदी की जीत को सुनिश्चित बता रहे हों परंतु गुजरात 2012 के परिणाम चैंकाने वाले हो सकते हैं। जो लोग 2002 के घावों के दर्द और सामाजिक विकास के अभाव के जनमानस पर प्रभाव को कम करके आंक रहे हैं, उनका गलत सिद्ध होना अवश्यंभावी है।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
बेहतर लेखन !!
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