रविवार, 16 दिसंबर 2012

कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह ........भगत सिंह

शहीद भगत सिंह ने राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन के नायको के जीवन और उनके क्रांतिकारी  क्रिया कलाप , त्याग व बलदान पर श्रृखलाबद्ध लेख लिखा था | कूका विद्रोह और उसके महानायक राम सिंह पर उन्होंने दो लेख लिखे थे | पहला लेख फरवरी 1928 में उन्होंने बी . ए. सिधु के नाम से दिल्ली से प्रकाशित '' महारथी '' और दूसरा लेख अक्तूबर 1928 में विद्रोही के नाम से किरति '' नामक पत्रिका में लिखा था | एक और बात -- कूका विद्रोह के महानायक राम सिंह से देश के धर्मज्ञो और धर्म गुरुओं से लेकर नए पुराने धर्म के अनुयायियों को भी सीख  लेनी चाहिए और वह भी वर्तमान राष्ट्रीय व सामाजिक संदर्भो में | आज विदेशी शक्तिया पुन: देश के हर क्षेत्र में अधिकाधिक व आधिकारिक रूप से घुसपैठ करती जा रही है | इसके फलस्वरूप देश के बहुसंख्यक जनसाधारण का जीवन निरंतर तबाही व बर्बादी की दिशा में बढ़ता जा रहा है | इस दिशा में उसे विदेशी साम्राज्यी शक्तियों के अलावा देश के हर धर्म सम्प्रदाय के धनाढ्य व उच्च हिस्सों द्वारा ढकेला जा रहा है | इसीलिए वर्तमान दौर में कूका विद्रोह और गुरु राम सिंह के बारे में भगत सिंह का लेख  पढने के लिए ही नही पढ़ा जाना चाहिए , बल्कि उसे अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे देशो और उनकी पूंजी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल से राष्ट्र व समाज की मुक्ति संघर्ष के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए ............................
आज हम पंजाब के तख्ता पलटने के आन्दोलन और राजनितिक जागृति का इतिहास पाठको के सामने रख रहे है | पंजाब में सबसे पहली राजनितिक हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है | वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक -- सा नजर आता है , लेकिन जरा गौर  से देखे तो वह बढा भारी राजनैतिक आन्दोलन था , जिसमे धर्म भी मिला था जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धरम और राजनीति मिली -- जुली थी | खैर हम देखते है कि हमारी आपस की साम्प्रदायिक और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े -- बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते है जैसे कि वे हुए ही न हो | यही स्थिति हम हम अपने बड़े भारी महापुरुष '' गुरु राम सिंह के सम्बन्ध में देखते है | हम '' गुरु नही कह सकते और वे गुरु कहते है , इसीलिए हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नही -- आदि बाते कहकर हमने उन्हें दूर फेंक रखा है | यही पंजाब का सबसे बड़ा घाटा है | बंगाल के जितने भी बड़े -- बड़े आदमी हुए है , उनकी हर साल बरसिया मनाई जाती  है , सभी अखबारों में उन पर लेख दिए जाते है , यह समझा जाता है कि मौक़ा मिला तो इस पर विचार करेंगे |
पंजाब को सोए थोड़े ही दिन हुए थे , लेकिन नीद बड़ी गहरी आई | हालाकि अब फिर होश आने लगा है | बड़ा भारी आन्दोलन  उठा | उसे दबाने की कोशिश की गयी | कुछ ईश्वर ने स्थिति भी ऐसी ही पैदा कर दी --- वह आन्दोलन भी कुचल दिया गया | उस आन्दोलन का नाम था'' कूका आन्दोलन'' | कुछ ध्रामिक , कुछ सामाजिक रंग -- रूप रखते हुए भी वह आन्दोलन एक तख्ता पलटने का नही , युग पलटने का था | चूकी अब इन सभी आंदोलनों का इतिहास यह बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वाले लोगो का एक अलग ही वर्ग बन जाता है , जिनमे न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओ -- जैसा दुनिया का त्याग ही | जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नही , बल्कि सिर्फ अपने फर्ज के लिए या किसी काम के लिए कहे , वे निष्काम भाव से लड़ते और मरते थे | सिक्ख इतिहास यही कुछ था | मराठो का आन्दोलन भी यही कुछ बताता है | राणा प्रताप के साथी राजपूत भी इसी तरह के योद्धा थे | बुन्देलखंड के वीर छत्रसाल के साथी भी ऐसे थे |
ऐसे ही लोगो का वर्ग पैदा करने वाले बाबा रामसिंह ने प्रचार और संगठन शुरू किया | बाबा रामसिंह का जन्म 1824 में लुधियाना जिले के भैणी गाँव में हुआ | आपका जन्म बढ़ई घराने में हुआ था | जवानी में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की | ईश्वर  -- भक्ति अधिक होने से नौकरी -- चाकरी छोड़कर गाँव जा रहे | नाम का प्रचार शुरू  कर दिया |
1857 के गदर में जो जुल्म हुए वे सब देखकर और पंजाब की गद्दारी देखकर कुछ असर जरुर हुआ होगा | किस्सा यह है कि बाबा रामसिंह जी ने उपदेश शुरू करवा दिया | साथ -- साथ बताते गये कि फिरंगियों से पंजाब की मुक्ति जरूरी है | उन्होंने तब उस असहयोग का  प्रचार किया , जैसे वर्षो बाद 1920 में महात्मा गांधी ने किया | उनके कार्यक्रम में अंग्रेजी राज की शिक्षा , नौकरी अदालतों आदि का और विदेशी चीजो का बहिष्कार तो था ही , साथ में रेल और तार का भी बहिष्कार किया गया |
पहले -- पहले सिर्फ नाम का ही उपदेश होता था | हां यह जरुर कहा जाता था कि शराब -- मांस का प्रयोग बिलकुल बंद कर दिया जाए | लडकिया आदि बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी प्रचार होता था , लेकिन बाद में उनका प्रचार राजनितिक रंग में रंगता गया |
पंजाब सरकार के पुराने कागजो में एक स्वामी रामदास का जिक्र आता है , जिसे कि अंग्रेजी सरकार एक राजनितिक आदमी समझती थी और जिस पर निगाह रखी जाती थी |  1857 के
बाद जल्द ही उसके रूस की ओर जाने का पता चला है | बाद में कोई खबर नही मिलती | उसी आदमी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने एक दिन बाबा रामसिंह से कहा कि अब पंजाब में राजनितिक कार्यक्रम और प्रचार की जरूरत है | इस समय देश को आजाद करवाना बहुत जरूरी है | तब से आपने स्पष्ट रूप से अपने उपदेश में इस असहयोग को शामिल कर लिया
1863 में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव रहे टी .डी. फार्सिथ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1863 में ही मैं समझ गया था कि यह धार्मिक -- सा आन्दोलन किसी दिन बड़ा गदर मचा देगा | इसीलिए मैंने भैणी के उस गुरुद्वारे में ज्यादा आदमियों का आना -- जाना और इकठ्ठे होना बन्द कर दिया | इस पर बाबा जी ने भी अपना काम का ढंग बदल लिया | पंजाब प्रांत को 22 जिलो में बाट लिया | प्रत्येक जिले में एक -- एक व्यक्ति प्रमुख नियुक्त किया गया , जिसे '' सूबा  '' कहा जाता था | अब उन्होंने '' सूबों '' में प्रचार और संगठन का काम शुरू किया | गुप्त तरीको से आजादी का भी प्रचार जारी रखा | संगठन बढ़ता गया , प्रत्येक नामधारी सिक्ख अपनी आय का दसवा हिस्सा अपने धर्म के लिए देने लगा | बाहर का हंगामा बंद हो जाने से सरकार का शक दूर हो गया और 1869 में सभी बंदिशे हटा ली गयी | बंदिशे हटते ही खूब जोश बढ़ा |
एक दिन कुछ कूके अमृतसर में से जा रहे थे | पता चला कि कुछ कसाई हिन्दुओं को तंग करने के लिए उनकी आँखों के सामने गोहत्या करते है | गाय के तो वे बड़े भक्त थे | रातो -- रात सभी कसाइयो को मार डाला गया और रास्ता पकड़ा | बहुत से हिन्दू पकडे गये | गुरु जी ने पूरी कहानी सुनी | सबको लौटा दिया कि निर्दोष व्यक्तियों को छुडाये और अपना अपराध स्वीकार करे | यही हुआ और वे लोग फांसी चढ़ गये | ऐसी ही कोई घटना फिरोजपुर जिले में भी हो गयी थी | फांसियो से जोश बढ़ गया | उस समय उन लोगो के सामने आदर्श था पंजाब में सिख -- राज स्थापित करना और गोरक्षा को वे अपना सबसे बढ़ा धर्म मानते थे | \इसी आदर्श की पूर्ति के लिए वे प्रत्यन करते रहे |
13 जनवरी  1872 को भैणी में माघी को मेला लगने वाला था | दूर -- दूर से लोग आ रहे थे | एक कूका मलेर कोटला से गुजर रहा था | एक मुसलमान से झगड़ा हो जाने से वे उसे पकड़कर कोतवाली में ले गये और उसे बहुत मारा पिटा व एक बैल की हत्या उसके सामने की गयी | वह बेचारा दुखी हुआ भैणी पंहुचा | वह जाकर उसने अपनी व्यथा सुनाई | लोगो को बहुत जोश आ गया | बदला लेने का विचार जोर पकड गया | जिस विद्रोह का भीतर -- भीतर प्रचार किया गया था , उसे कर देने का विचार जोर पकड़ने लगा , लेकिन अभी मनचाही तैयारी भी नही हुई थी | बाबा रामसिंह ऐसी स्थिति में क्या करते ? यदि उन्हें मना करते है तो वे मानते नही और यदि  उनका साथ देते है तो सारा किया -- धरा तबाह होता है | क्या करे ? आखिर जब 150 आदमी चल ही पड़े तो आपने पुलिस को खबर भेज दी कि यह व्यक्ति हंगामा कर रहे है और शायद कुछ खराबी करे मैं जिम्मेदार नही हूँ | ख्याल था कि हजारो आदमियों के संगठन में से सौ---- डेढ़ सौ आदमी मारे गये और बाकी संगठन बचा रहे तो यह कभी तो पूरी हो जायेगी और जल्द ही फिर पूरी तैयारी होने से विद्रोह हो सकेगा | लेकिन हम यह देखते है कि परिणाम से तय होता है कि तरीके जायज थे या नाजायज का सिद्धांत राजनीति के मैदान में प्राय: लागू होता है | अर्थात यदि सफलता मिल जाए तब तो चाल नेकनीयती से भरी और सोच -- समझकर चली गयी कहलाती है और यदि असफलता मिले तो बस फिर कुछ भी नही | नेताओं को बेवकूफ , बदनीयत आदि खिताब मिलते है | यही बात यहाँ हम देखते है | जो चाल बाबा रामसिंह ने अपने आन्दोलन से बचने के लिए चली , वह कयोंकि सफल नही हुई , इसीलिए अब कोई उन्हें कायर और बुजदिल कहता है और कोई बदनीयत व कमजोर बताता है | खैर
हम तो समझते है कि वह राजनीति के एक चाल थी | उन्होंने पुलिस को खबर कर दी ताकि वे कोई ऐसा इलाज कर ले जिससे कोई बड़ी खराबी पैदा न हो , लेकिन सरकार उनके इस भारी आन्दोलन से डरती थी और उसे पीस देने का अवसर खोज रही थी | उसने कोई ख़ास कार्यवाही न की और उन्हें मर्जी अनुसार जाने दिया |
लेकिन 11 जनवरी के पात्र में डिप्टी  कमिश्नर लुधियाना मि कावन कमिशनर को लिख भेजी कि रामसिंह ने उन लोगो से अपने सम्बन्ध न होने की बात जाहिर की है और उनके सम्बन्ध में हमे सावधान भी कर दिया है | खैर वे 150 नामधारी सिंह बड़े जोश -- खरोश में चल पड़े |
जब वे 150 व्यक्ति वह से बदला लेने के विचार से चल पड़े तो पुलिस को पहले से बताया जा चुका था , लेकिन सरकार ने कोई इंतजाम नही किया | क्यों ? कयोकी वे चाहते थे कि कोई छोटी -- मोटी गड़बड़ हो जाए , जिससे कि वे उस आन्दोलन को पीस दे | सो वह अब मिल गया | वे कूके वीर उस दिन तो पटियाला राज्य की सीमा पर एक गाँव रब्बो में पड़े रहे | अगले दिन भी वही टिके रहे | 14 जनवरी 1872 की शाम को उन्होंने मलोध के किले पर धावा बोल दिया | यह किला कुछ सिक्ख सरदारों का था , लेकिन इस पर हमला क्यों किया ? इस सम्बन्ध में डिस्ट्रिक गजेटियर में लिखा है कि उन्हें उम्मीद थी कि मलोध सरकार उनके विरोध की नेता बनेगी , लेकिन उन्होंने मना कर दिया और इन्होने हमला कर दिया | बहुत संभव है कि बाबा रामसिंह की बड़ी भारी तयारी में मलोध सरकार ने मदद देने का वादा किया हो , लेकिन जब उन्होंने देखा कि विद्रोह तो पहले से ही हो गया है और बाबा रामसिंह भी साथ नही है और पूरी संगत भी नही बुलाई गयी है तो उन्होंने मना कर दिया होगा | खैर! जो भो वह लड़ाई हुई | कुछ घोड़े हथियार और तोपे ले वे वह से चले गये | दोनों ओर के दो -- दो आदमी मारे गये और कुछ घायल हुए |
अगले दिन सवेरे 7 बजे वे मलेर कोटला  पंहुचे गये |
अंग्रेजी सरकार ने मलेर कोटला सरकार को पहले सूचित कर रखा था | उपर बड़ी तैयारिया की गयी थी | सेना हथियार लिए कड़ी थी लेकिन इन लोगो ने इतने बहादुरी से हमला किया कि सेना और पुलिस में कुछ वश न रहा | हमला कर वे शहर में घुस गये और जाकर महल पर हमला कर दिया | वह भी सेना उन्हें नही रोक पायी | वे जाकर खजाना लूटने की कोशिश करने लगे | लूट ही लिया जाता , लेकिन दुर्भाग्य से वे एक और दरवाजा तोड़ते रहे जिससे कि उनका बहुत -- सा समय नष्ट हो गया और भीतर से कुछ भी न मिला | उधर से सेना ने बड़े जोर से धावा बोल दिया | आखिर लड़ते -- लड़ते वहा  से लौटना पडा | उस लड़ाई में उन्होंने 8 सिपाही मारे और 15 को घायल हो गये | उनके सात आदमी मारे गये | वहा  से भी कुछ हथियार और घोड़े लेकर भाग निकले | आगे -- आगे वे और पीछे -- पीछे मलेर कोटला की सेना |
वे भागते जा रहे थे | और लड़ते जा रहे थे | उनके और कई आदमी घायल हो गये और वे उन्हें भी साथ ही उठा ले जाते थे | आखिर कार पटियाला राज्य के रुड गाँव में ये पहुंचे और जंगल में छिप गये | कुछ घंटो के बाद शिवपुर के नाजिम ने फिर हमला बोल दिया | लड़ाई छिड़ गयी पर बेचारे कूके थके -- हारे थे | आखिर 68 व्यक्ति पकड लिए गये | उनमे  से दो औरते थी , वे पटियाला राज को दे दी गयी |
अगले दिन मलेर कोटला लाकर तोप  गाड दी गयी और एक -- एक कर 50 कूके वीर तोप के आगे बाँध -- बंद कर उड़ा दिए गये | हरेक बहादूरी से अपनी -- अपनी बारी पर  तोप के आगे झुक जाता और सतत श्री अकाल कहता हुआ तोप से  उड जाता | फिर कुछ पता नही चलता कि वह किस संसार में चला गया | इस तरह 49 व्यक्ति उड़ा दिए गये | पचासवा एक तेरह साल का लड़का था | उसके पास झुकर डीपटी   कमिशनर ने कहा कि बेवकूफ रामसिंह का साथ छोड़ दे , तुम्हे माफ़ कर दिया जाएगा | लेकिन वह बालक यह बात सहन  नही कर सका और उछलकर उसने कावन की दाढ़ी पकड ली और तब तक नही छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ न काट दिए गये | बाकी 16 आदमी अगले दिन मलोध जाकर फांसी पर लटका दिए गये | उधर बाबा रामसिंह को उनके चार सूबों के साथ गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में रंगून भेज दिया गया | यह गिरफ्तारी ( रेगुलेशन  ) 1818 के अनुसार हुई |
जब यह खबर देश में फैली तो और लोग बहुत हैरान हुए कि यह क्या बना | विद्रोह शुरू करके बाबा जी  ने हमे भी क्यों न बुलाया और सैकड़ो  लोग  घर -- बार छोड़कर भैणी की ओर चल पड़े | एक गिरोह जिसमे १७२ आदमी थी , कर्नल वायली से मिला | वह अधीक्षक था | उसने झट उन्हें भी गिरफ्तार करवा लिया | उनमे से 120 को तो घरो को लौटा दिया , लेकिन 50 ऐसे थे कि कोई घरबार नही था | वे सब सम्पत्ति आदि बेचकर लड़ने -- मरने के लिए तैयार थे | उन्हें जेल में डाल  दिया | इस तरह वह आन्दोलन दबा दिया गया और बाबा रामसिंह का पूरा यत्न निष्फल हो गया | बाद में देश में जितने कूके थे वे सभी एक तरह से नजरबंद कर दिए गये | उनकी हाजरी ली जाती थी | भैणी साहिब में आम लोग का आना -- जाना बंद कर दिया गया | ये बंदिशे 1920 में आकर हटाई गयी | यही पंजाब की आजादी  के लिए दी गयी सबसे  पहली कोशिश  का संक्षित इतिहास है |



प्रस्तुती
-सुनील दत्ता
पत्रकार

3 टिप्‍पणियां:

रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) ने कहा…

बेहतर लेखन !!

Rohit Singh ने कहा…

सच में भगत सिंह कोई दिव्यात्मा थे वरना 23 साल की उम्र में फांसी पर चढ़ना और उससे पहले इतनी गहन विवेचना राजनीतिक आंदलोन की..कितना सही कहा है कि आंदोलन की सफलता तय करती है नेता का भाग्य..

लोकेश सिंह ने कहा…

कभी कभी रणनीति सही दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाती कूका आन्दोलन में भी यही हुआ ,लेकिन क्रांति बीज बो दिया जो आगे जाके आजादी के फल के रूप में हमें प्राप्त हुआ ,भारतीय क्रांति इतिहास की जानकारी देता हुआ उत्तम लेख

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