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मंगलवार, 26 मई 2015

मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ

नरेन्द्र मोदी ने 25 मई 2015 को प्रधानमंत्री के रूप में एक साल पूरा कर लिया। उन्होंने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इस एक साल में मोदी की क्या उपलब्धियां रहीं,यह उतना ही विवादास्पद है जितना कि मोदी का व्यक्तित्व। जहां प्रधानमंत्री के समर्थक और अनुयायी यह अतिश्योक्तिपूर्ण दावा कर रहे हैं कि मोदी ने अभूतपूर्व सफलताएं हासिल की हैं वहीं उनके विरोधी, उन वायदों की सूची गिनवा रहे हैं जो पूरे नहीं हुए। उनके कार्यकाल का निष्पक्ष और ईमानदार विश्लेषण करना असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है। हम यहां उन कुछ प्रवृत्तियों की चर्चा करेंगे जो मोदी के कार्यकाल में उभरीं और उस दिशा पर विचार करेंगे, जिस ओर उनके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार देश को ले जा रही है।
आम चुनाव के समय नारा दिया गया था 'अब की बार, मोदी सरकार' और यह सचमुच मोदी की ही सरकार है। यह न तो एनडीए की सरकार है और ना ही भाजपा की। अखबारों के अनुसार, एनडीए के गठबंधन साथियों ने मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना की है। महाराष्ट्र के स्वाभिमानी शेतकारी संगठन और अकाली दल, भूमि अधिग्रहण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों के विरोधी हैं। शिवसेना ने भाजपा की तुलना अफजल खान की सेना के महाराष्ट्र पर आक्रमण से की। पिछली यूपीए सरकार के विपरीत, प्रधानमंत्री शायद यह संदेश देना चाहते हैं कि वे एक कड़े प्रशासक हैं और सभी निर्णय वे स्वयं लेते हैं। प्रजातंत्र में सबको साथ लेकर चलना होता है,सभी के हितों का ख्याल रखना होता है। कुछ महीनों पहले, अखबारों में एक फोटो छपी थी जिसमें प्रधानमंत्री मोदी एक ऊँची कुर्सी पर बैठे हुए थे और बाकी सभी कैबिनेट मंत्रियों की कुर्सियां नीचे थीं। संदेश स्पष्ट था। प्रधानमंत्री ने किस हद तक अपने मंत्रियों पर शिकंजा कस रखा है यह इस बात से जाहिर है कि मंत्रियों को अपने निजी सचिवों की नियुक्तियों के लिए भी प्रधानमंत्री कार्यालय से अनुमति लेनी पड़ती है। कारण यह बताया गया है कि प्रधानमंत्री नहीं चाहते कि मंत्रिगण अपने रिश्तेदारों या परिचितों को अपना निजी सचिव बनाएं। परंतु क्या इसके लिए एक सामान्य निर्देश जारी करना पर्याप्त नहीं होता ?क्या प्रधानमंत्री को अपने मंत्रियों पर इतना भरोसा भी नहीं है कि वे उनके निर्देशों का पालन करेंगे? यह भी साफ नहीं है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने मंत्रियों के प्रस्तावित निजी सचिवों के संबंध में क्या जांच.पड़ताल की।
केंद्रीयकरण
मोदी सरकार में सभी शक्तियां, प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रीकृत कर दी गई हैं। सभी मंत्रालयों के सचिवों की पीएमओ तक सीधी पहुंच है और पीएमओ किसी भी मंत्रालय से कोई भी फाईल बुलवा सकता है। इससे निश्चित तौर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में तेजी आई है परंतु हर तेज निर्णय हमेशा सबसे अच्छा निर्णय नहीं होता। प्रधानमंत्री ने फ्रांस की राफेल कंपनी से लड़ाकू हवाई जहाज खरीदने का सौदा, बिना रक्षामंत्री की मौजूदगी या सहमति के किया। प्रधानमंत्री इस एक वर्ष में दुनिया के बहुत से देशों में गए। इनमें भूटान, श्रीलंका, नेपाल, इंग्लैण्ड,जर्मनी, अमरीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, चीन और मंगोलिया शामिल हैं। विदेश मंत्री, ईराक में फंसे 39 भारतीयों को निकालने और अन्य इसी तरह के कामों में व्यस्त रहीं। यहां तक कि नेपाल में भूकंप के बाद भारत सरकार ने जो राहत पहुंचाई उसका श्रेय भी केवल मोदी को दिया गया। जिन भी देशों में मोदी गए, वहां उन्होंने अप्रवासी भारतीयों की सभाओं को संबोधित किया और स्वदेश की राजनीति के संबंध में टिप्पणियां कीं।
किसी एक व्यक्ति में सारी शक्तियां केंद्रित कर देने से उन लोगों को लाभ होता है जो उस व्यक्ति के करीबी हैं या जिनकी उस तक पहुंच है। वह व्यक्ति जितना अधिक शक्तिशाली होता है उसे उतने ही ज्यादा विवेकाधिकार प्राप्त होते हैं और वह जो नीतियां बनाता हैए उनसे उन लोगों को लाभ होता है जो उसके नजदीक हैं। प्रधानमंत्री की छवि कुबेरपतियों के मित्र की है। उनके 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' 'मेक इन इंडिया' अभियानों से भी यही ध्वनित होता है। इन अभियानों के अंतर्गत उद्योगों की नियमन प्रणाली को लचीला बनाया जा रहा है, उन्हें विभिन्न अनुमतियां प्रदान करने की प्रक्रिया तेज कर दी गई है, कारपोरेट टैक्सों की दरें घटाई गई हैं, पर्यावरण संबंधी बंधन ढीले किए गए हैं और उद्योगपतियों को कर्मचारियों को जब चाहे रखने और जब चाहे हटाने की स्वतंत्रता दे दी गई है। इस सब से श्रमिकों की ट्रेड यूनियनें कमजोर हुई हैं व श्रमिक वर्ग की आमदनी घटी है। राज्य, भूमि अधिग्रहण करने में उद्योगपतियों की मदद कर रहा है और उद्योगों के लिए बेहतर आधारभूत संरचना उपलब्ध करवाने के लिए भारी मात्रा में धन खर्च कर रहा है। मुंबई.दिल्ली औद्योगिक गलियारा और मुंबई से अहमदाबाद बुलेट ट्रेन चलाना सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल हैं। इनकी तुलना पूर्व यूपीए सरकार की प्राथमिकताओं से कीजिए.यद्यपि वह भी उद्योगपतियों की मित्र थी.जिसने मनरेगा, खाद्य सुरक्षा व सूचना के अधिकार जैसी योजनाओं व कार्यक्रमों पर कम से कम कुछ धन तो खर्च किया।
एससी, एसटी व नीति आयोग
अनुसूचित जातियों के लिए विशेष घटक योजना व आदिवासी उपयोजना के लिए केंद्रीय बजट 2015.16 में पिछले बजट की तुलना में प्रावधान क्रमश: रूपये 43,208 करोड़ से घटाकर रूपये 30,851 करोड़ और रूपये 26,715 करोड़ से घटाकर रूपये 19,980 करोड़ कर दिए गए। इन समुदायों के आबादी में अनुपात की दृष्टि से जितना धन इन योजनाओं के लिए उपलब्ध करवाया जाना चाहिए, बजट प्रावधान उससे काफी कम हैं।
अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नज़मा हेपतुल्लाह को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े अल्पसंख्यकों में शिक्षा और रोजगार के अवसरों की कमी से ज्यादा चिंता इस बात की है कि पारसी समुदाय की प्रजनन दर कैसे बढ़ाई जाए।
मोदी सरकार ने योजना आयोग को भंग कर उसके स्थान पर नीति आयोग की स्थापना कर दी। मोदी सरकार का तर्क था कि योजना आयोग की अब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है क्योंकि उसका गठन उस दौर में किया गया था जब सरकार का अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण था। परंतु इस संदर्भ में यह याद रखे जाने की जरूरत है कि शनैः शनैः योजना आयोग अधिक समावेशी नीतियां अपना रहा था और उसी ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में बजट प्रावधान करने की अवधारणा प्रस्तुत की थी। आठवीं पंचवर्षीय योजना में पहली बार 'अल्पसंख्यक' शब्द का इस्तेमाल किया गया और इस बात पर जोर दिया गया कि समाज के हाशिये पर पड़े तबकों को मुख्यधारा के समकक्ष लाए जाने की जरूरत है। नौवीं पंचवर्षीय योजना में सामाजिक न्याय व सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण के जरिए सभी के विकास की बात कही गई थी। अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान लागू किए जाने का सिलसिला दसवीं पंचवर्षीय योजना से शुरू हुआ। इस योजना का फोकस महिलाओं व अल्पसंख्यकों सहित सभी वंचित व कमजोर वर्गों के सामाजिक.आर्थिक विकास पर था। ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना में अधिक समावेशी विकास की बात कही गई थी और सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध करवाने पर जोर दिया गया था। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में समाज के हाशिये पर पड़े वर्गों के लिए और अधिक आर्थिक प्रावधान किए गए थे।
योजना आयोग की जगह नीति आयोग स्थापित करने के निर्णय को इन तथ्यों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए। नीति आयोग का वंचित समूहों के विकास से कोई लेनादेना नहीं है। वह तो एक प्रकार का 'थिंक टैंक'है, जिसका जोर बाजार और औद्योगिक गलियारों के विकास और उद्योगों के लिए बेहतर आधारभूत संरचना उपलब्ध करवाने पर है।
शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्ता
प्रधानमंत्री मोदी के बाद उनके मंत्रिमंडल के जिस मंत्री की मीडिया में सबसे अधिक चर्चा रही वे थीं मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी। और वे लगभग हमेशा गलत कारणों से चर्चा में रहीं। मानव संसाधन विकास मंत्री का कई शैक्षणिक संस्थानों से कई मौकों पर टकराव हुआ और उन्होंने अनेक विवादास्पद निर्णय लिए। इनमें शामिल हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के चार.वर्षीय स्नातक कार्यक्रम को समाप्त करनाए अमर्त्य सेन द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय का दूसरी बार कुलाधिपति बनने से इंकारए परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व निदेशक अनिल काकोडकर व आरण्केण् शैवगांवकर का आईआईटी मुंबई के शासी निकाय से इस्तीफा,केंद्रीय विद्यालयों में शैक्षणिक सत्र के अधबीचए जर्मन की जगह संस्कृत को अनिवार्य विषय बनाना आदि। शैक्षणिक संस्थाओं की स्वायत्ता को समाप्त करने के भरपूर प्रयास किए गए। हरियाणा में स्कूलों में गीता पढ़ाई जा रही है और राजस्थान के स्कूलों में सूर्यनमस्कार अनिवार्य बना दिया गया है।
आरएसएस नेता सुरेश सोनी व कृष्णगोपाल दत्तात्रेय और भाजपा के जेपी नड्डा व रामलाल ने मानव संसाधन विकास मंत्री से मिलकर यह मांग की कि स्कूलों के इतिहास के पाठ्यक्रमों में 'सुधार' किए जाएं। इस मुद्दे पर कई बैठकें हुईं। 30 अक्टूबर 2014 को इस मुद्दे पर छठवीं बैठक आयोजित की गई। दीनानाथ बत्रा की लिखी पुस्तकों को गुजरात  सरकार ने स्कूली विद्यार्थियों के अतिरिक्त अध्ययन के लिए निर्धारित किया है। ये किताबें इतिहास को हिंदू राष्ट्रवादी चश्मे से देखती हैं और इनमें अप्रमाणित तथ्यों के आधार पर प्राचीन भारत का महिमामंडन किया गया है ताकि लोगों में श्रेष्ठता और गर्व का झूठा भाव जगाया जा सके। इतिहास को पौराणिक रंग दे दिया गया है और पौराणिक कथाओं को इतिहास बताया गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं कहा कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी की तकनीक उपलब्ध थी और इसका प्रमाण यह है कि भगवान गणेश का सिर हाथी का और शरीर मनुष्य का है। हम सब यह सोचकर चकित थे कि हाथी का कई क्विंटल वजनी सिर यदि किसी तरह मानव शरीर पर लगा भी दिया जाए तो वह मनुश्य उसका वजन कैसे सहन कर सकेगा। इसी तरह के वक्तव्य कई अन्य भाजपा नेताओं ने भी दिए जिनमें से कुछ ने कहा कि भारत में हजारों साल पहले परमाणु मिसाइलें थीं। विद्यार्थियों के सामने फंतासी और पौराणिक कथाओं को इतिहास के रूप में परोसनाए उनके दिमाग को कुंद करना है। एक अच्छे विद्यार्थी का सबसे बड़ा गुण यही होता है कि वह किसी भी बात को आंख मूंचकर नहीं मानता और हर विश्वास व तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसता है।  
हिन्दू राष्ट्रवादी सांस्कृतिक चेतना
देश में हिन्दू राष्ट्रवादी सांस्कृतिक चेतना का तेजी से प्रसार हो रहा है। यह, हिन्दू धार्मिक चेतना से एकदम अलग है। हिन्दू धार्मिक चेतना का प्रकटीकरण कई स्वरूपों में हो सकता है जिनमें पवित्रता.अपवित्रता की अवधारणाए जो यह निर्धारित करती है कि कौन किसके साथ रोटी.बेटी का संबंध रख सकता है और कौन ऊँचा है और कौन नीचा से लेकर मीरा, कबीर, गुरूनानक, तुकाराम, रविदास आदि के प्रेमए सद्भाव, समानता, सत्य व अहिंसा पर आधारित समावेशी शिक्षाओं तक शामिल हैं। परंतु हिन्दू राष्ट्रवादी चेतना एक प्रकार की राजनैतिक चेतना है जो जाति.आधारित ऊँचनीच को कायम रखते हुए हिन्दुओं को राजनैतिक रूप से एक करना चाहती है और जो 'दूसरे'को न केवल परिभाषित करती है वरन् यह भी सिखाती है कि उस 'दूसरे' से हिन्दुओं को अनवरत युद्धरत रहना है। हिन्दू राष्ट्रवादी चेतना,एकाधिकारवादी राज्य को आसानी से स्वीकार कर लेगी बशर्ते वह उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग के विशेषाधिकारों को कायम रखे और 'दूसरे' समुदाय का हिंसा से दमन करे और यहां तक कि उसे देश से भगा दे।
ध्रुवीकरण करने के उद्धेश्य से शुरू किया गया साम्प्रदायिक विमर्श दिन.प्रतिदिन और दुस्साहसी होता जा रहा है। कुछ राज्यों में गोड़से के मंदिर बन गए हैं और उसे हिन्दुओं का नायक बताया जा रहा है। दिसम्बर 2014 से लेकर अब तक दिल्ली,पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में चर्चों पर हमले की कम से कम 11 घटनाएं हुई हैं।  शासक दल के सांसद और यहां तक कि मंत्री ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं जिनके लिए उनपर दूसरे समुदाय के विरूद्ध घृणा फैलाने के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153ए के तहत कार्यवाही की जा सकती है। गिरिराज सिंह,साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची व अन्यों ने अलग.अलग समय पर कहा कि जो लोग राम में विश्वास नहीं करते वे हरामजादे हैंए मदरसे आतंकवाद के अड्डे हैं,मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है, हिन्दू महिलाओं को कम से कम चार बच्चे पैदा करने चाहिए और जो लोग मोदी को वोट नहीं देते उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। परंतु न तो इन भड़काऊ वक्तव्य देने वालों और ना ही चर्चों पर हमले करने वालों पर कोई कार्यवाही की गई।
घर वापसी अभियान जोरशोर से जारी है और आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने आगरा में गैर.हिन्दुओं को जबरदस्ती हिन्दू बनाए जाने को औचित्यपूर्ण बताते हुए अत्यंत गिरी हुई भाषा का उपयोग किया। उन्होंने यह मांग की कि 'हमारा माल वापिस कर दो' मानो मुसलमान कोई संपत्ति हों। भागवत के खिलाफ कार्यवाही करने की बजाए गृह मंत्री ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया। इसी तरह, कई संगठनों ने यह बीड़ा उठा लिया है कि वे हिन्दू लड़कियों की शादी गैर.हिन्दुओं से नहीं होने देंगे भले ही लड़के और लड़की को इसमें कोई आपत्ति न हो।
हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन केवल मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने से संतुष्ट नहीं हैं। वे राज्य की शक्ति का प्रयोग उनके खिलाफ करना चाहते हैं। गुजरात विधानसभा ने हाल में एक अत्यंत भयावह तथाकथित आतंकवाद.निरोधक विधेयक पारित किया है और सरकार के कहने पर राष्ट्रपति ने महाराष्ट्र सरकार के बीस साल पुराने गौवध निषेध अधिनियम को अपनी स्वीकृति दे दी है। इन सभी कानूनों का उद्धेश्य अल्पसंख्यकों का दमन है।
-इरफान इंजीनियर

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कूका विद्रोह और उसके नायक रामसिंह ........भगत सिंह

शहीद भगत सिंह ने राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन के नायको के जीवन और उनके क्रांतिकारी  क्रिया कलाप , त्याग व बलदान पर श्रृखलाबद्ध लेख लिखा था | कूका विद्रोह और उसके महानायक राम सिंह पर उन्होंने दो लेख लिखे थे | पहला लेख फरवरी 1928 में उन्होंने बी . ए. सिधु के नाम से दिल्ली से प्रकाशित '' महारथी '' और दूसरा लेख अक्तूबर 1928 में विद्रोही के नाम से किरति '' नामक पत्रिका में लिखा था | एक और बात -- कूका विद्रोह के महानायक राम सिंह से देश के धर्मज्ञो और धर्म गुरुओं से लेकर नए पुराने धर्म के अनुयायियों को भी सीख  लेनी चाहिए और वह भी वर्तमान राष्ट्रीय व सामाजिक संदर्भो में | आज विदेशी शक्तिया पुन: देश के हर क्षेत्र में अधिकाधिक व आधिकारिक रूप से घुसपैठ करती जा रही है | इसके फलस्वरूप देश के बहुसंख्यक जनसाधारण का जीवन निरंतर तबाही व बर्बादी की दिशा में बढ़ता जा रहा है | इस दिशा में उसे विदेशी साम्राज्यी शक्तियों के अलावा देश के हर धर्म सम्प्रदाय के धनाढ्य व उच्च हिस्सों द्वारा ढकेला जा रहा है | इसीलिए वर्तमान दौर में कूका विद्रोह और गुरु राम सिंह के बारे में भगत सिंह का लेख  पढने के लिए ही नही पढ़ा जाना चाहिए , बल्कि उसे अमेरिका , इंग्लैण्ड जैसे देशो और उनकी पूंजी तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल से राष्ट्र व समाज की मुक्ति संघर्ष के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए ............................
आज हम पंजाब के तख्ता पलटने के आन्दोलन और राजनितिक जागृति का इतिहास पाठको के सामने रख रहे है | पंजाब में सबसे पहली राजनितिक हलचल कूका आन्दोलन से शुरू होती है | वैसे तो वह आन्दोलन साम्प्रदायिक -- सा नजर आता है , लेकिन जरा गौर  से देखे तो वह बढा भारी राजनैतिक आन्दोलन था , जिसमे धर्म भी मिला था जिस तरह कि सिक्ख आन्दोलन में पहले धरम और राजनीति मिली -- जुली थी | खैर हम देखते है कि हमारी आपस की साम्प्रदायिक और तंगदिली का यही परिणाम निकलता है कि हम अपने बड़े -- बड़े महापुरुषों को इस तरह भूल जाते है जैसे कि वे हुए ही न हो | यही स्थिति हम हम अपने बड़े भारी महापुरुष '' गुरु राम सिंह के सम्बन्ध में देखते है | हम '' गुरु नही कह सकते और वे गुरु कहते है , इसीलिए हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नही -- आदि बाते कहकर हमने उन्हें दूर फेंक रखा है | यही पंजाब का सबसे बड़ा घाटा है | बंगाल के जितने भी बड़े -- बड़े आदमी हुए है , उनकी हर साल बरसिया मनाई जाती  है , सभी अखबारों में उन पर लेख दिए जाते है , यह समझा जाता है कि मौक़ा मिला तो इस पर विचार करेंगे |
पंजाब को सोए थोड़े ही दिन हुए थे , लेकिन नीद बड़ी गहरी आई | हालाकि अब फिर होश आने लगा है | बड़ा भारी आन्दोलन  उठा | उसे दबाने की कोशिश की गयी | कुछ ईश्वर ने स्थिति भी ऐसी ही पैदा कर दी --- वह आन्दोलन भी कुचल दिया गया | उस आन्दोलन का नाम था'' कूका आन्दोलन'' | कुछ ध्रामिक , कुछ सामाजिक रंग -- रूप रखते हुए भी वह आन्दोलन एक तख्ता पलटने का नही , युग पलटने का था | चूकी अब इन सभी आंदोलनों का इतिहास यह बताता है कि आजादी के लिए लड़ने वाले लोगो का एक अलग ही वर्ग बन जाता है , जिनमे न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओ -- जैसा दुनिया का त्याग ही | जो सिपाही तो होते थे लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नही , बल्कि सिर्फ अपने फर्ज के लिए या किसी काम के लिए कहे , वे निष्काम भाव से लड़ते और मरते थे | सिक्ख इतिहास यही कुछ था | मराठो का आन्दोलन भी यही कुछ बताता है | राणा प्रताप के साथी राजपूत भी इसी तरह के योद्धा थे | बुन्देलखंड के वीर छत्रसाल के साथी भी ऐसे थे |
ऐसे ही लोगो का वर्ग पैदा करने वाले बाबा रामसिंह ने प्रचार और संगठन शुरू किया | बाबा रामसिंह का जन्म 1824 में लुधियाना जिले के भैणी गाँव में हुआ | आपका जन्म बढ़ई घराने में हुआ था | जवानी में महाराजा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की | ईश्वर  -- भक्ति अधिक होने से नौकरी -- चाकरी छोड़कर गाँव जा रहे | नाम का प्रचार शुरू  कर दिया |
1857 के गदर में जो जुल्म हुए वे सब देखकर और पंजाब की गद्दारी देखकर कुछ असर जरुर हुआ होगा | किस्सा यह है कि बाबा रामसिंह जी ने उपदेश शुरू करवा दिया | साथ -- साथ बताते गये कि फिरंगियों से पंजाब की मुक्ति जरूरी है | उन्होंने तब उस असहयोग का  प्रचार किया , जैसे वर्षो बाद 1920 में महात्मा गांधी ने किया | उनके कार्यक्रम में अंग्रेजी राज की शिक्षा , नौकरी अदालतों आदि का और विदेशी चीजो का बहिष्कार तो था ही , साथ में रेल और तार का भी बहिष्कार किया गया |
पहले -- पहले सिर्फ नाम का ही उपदेश होता था | हां यह जरुर कहा जाता था कि शराब -- मांस का प्रयोग बिलकुल बंद कर दिया जाए | लडकिया आदि बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी प्रचार होता था , लेकिन बाद में उनका प्रचार राजनितिक रंग में रंगता गया |
पंजाब सरकार के पुराने कागजो में एक स्वामी रामदास का जिक्र आता है , जिसे कि अंग्रेजी सरकार एक राजनितिक आदमी समझती थी और जिस पर निगाह रखी जाती थी |  1857 के
बाद जल्द ही उसके रूस की ओर जाने का पता चला है | बाद में कोई खबर नही मिलती | उसी आदमी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने एक दिन बाबा रामसिंह से कहा कि अब पंजाब में राजनितिक कार्यक्रम और प्रचार की जरूरत है | इस समय देश को आजाद करवाना बहुत जरूरी है | तब से आपने स्पष्ट रूप से अपने उपदेश में इस असहयोग को शामिल कर लिया
1863 में पंजाब सरकार के मुख्य सचिव रहे टी .डी. फार्सिथ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1863 में ही मैं समझ गया था कि यह धार्मिक -- सा आन्दोलन किसी दिन बड़ा गदर मचा देगा | इसीलिए मैंने भैणी के उस गुरुद्वारे में ज्यादा आदमियों का आना -- जाना और इकठ्ठे होना बन्द कर दिया | इस पर बाबा जी ने भी अपना काम का ढंग बदल लिया | पंजाब प्रांत को 22 जिलो में बाट लिया | प्रत्येक जिले में एक -- एक व्यक्ति प्रमुख नियुक्त किया गया , जिसे '' सूबा  '' कहा जाता था | अब उन्होंने '' सूबों '' में प्रचार और संगठन का काम शुरू किया | गुप्त तरीको से आजादी का भी प्रचार जारी रखा | संगठन बढ़ता गया , प्रत्येक नामधारी सिक्ख अपनी आय का दसवा हिस्सा अपने धर्म के लिए देने लगा | बाहर का हंगामा बंद हो जाने से सरकार का शक दूर हो गया और 1869 में सभी बंदिशे हटा ली गयी | बंदिशे हटते ही खूब जोश बढ़ा |
एक दिन कुछ कूके अमृतसर में से जा रहे थे | पता चला कि कुछ कसाई हिन्दुओं को तंग करने के लिए उनकी आँखों के सामने गोहत्या करते है | गाय के तो वे बड़े भक्त थे | रातो -- रात सभी कसाइयो को मार डाला गया और रास्ता पकड़ा | बहुत से हिन्दू पकडे गये | गुरु जी ने पूरी कहानी सुनी | सबको लौटा दिया कि निर्दोष व्यक्तियों को छुडाये और अपना अपराध स्वीकार करे | यही हुआ और वे लोग फांसी चढ़ गये | ऐसी ही कोई घटना फिरोजपुर जिले में भी हो गयी थी | फांसियो से जोश बढ़ गया | उस समय उन लोगो के सामने आदर्श था पंजाब में सिख -- राज स्थापित करना और गोरक्षा को वे अपना सबसे बढ़ा धर्म मानते थे | \इसी आदर्श की पूर्ति के लिए वे प्रत्यन करते रहे |
13 जनवरी  1872 को भैणी में माघी को मेला लगने वाला था | दूर -- दूर से लोग आ रहे थे | एक कूका मलेर कोटला से गुजर रहा था | एक मुसलमान से झगड़ा हो जाने से वे उसे पकड़कर कोतवाली में ले गये और उसे बहुत मारा पिटा व एक बैल की हत्या उसके सामने की गयी | वह बेचारा दुखी हुआ भैणी पंहुचा | वह जाकर उसने अपनी व्यथा सुनाई | लोगो को बहुत जोश आ गया | बदला लेने का विचार जोर पकड गया | जिस विद्रोह का भीतर -- भीतर प्रचार किया गया था , उसे कर देने का विचार जोर पकड़ने लगा , लेकिन अभी मनचाही तैयारी भी नही हुई थी | बाबा रामसिंह ऐसी स्थिति में क्या करते ? यदि उन्हें मना करते है तो वे मानते नही और यदि  उनका साथ देते है तो सारा किया -- धरा तबाह होता है | क्या करे ? आखिर जब 150 आदमी चल ही पड़े तो आपने पुलिस को खबर भेज दी कि यह व्यक्ति हंगामा कर रहे है और शायद कुछ खराबी करे मैं जिम्मेदार नही हूँ | ख्याल था कि हजारो आदमियों के संगठन में से सौ---- डेढ़ सौ आदमी मारे गये और बाकी संगठन बचा रहे तो यह कभी तो पूरी हो जायेगी और जल्द ही फिर पूरी तैयारी होने से विद्रोह हो सकेगा | लेकिन हम यह देखते है कि परिणाम से तय होता है कि तरीके जायज थे या नाजायज का सिद्धांत राजनीति के मैदान में प्राय: लागू होता है | अर्थात यदि सफलता मिल जाए तब तो चाल नेकनीयती से भरी और सोच -- समझकर चली गयी कहलाती है और यदि असफलता मिले तो बस फिर कुछ भी नही | नेताओं को बेवकूफ , बदनीयत आदि खिताब मिलते है | यही बात यहाँ हम देखते है | जो चाल बाबा रामसिंह ने अपने आन्दोलन से बचने के लिए चली , वह कयोंकि सफल नही हुई , इसीलिए अब कोई उन्हें कायर और बुजदिल कहता है और कोई बदनीयत व कमजोर बताता है | खैर
हम तो समझते है कि वह राजनीति के एक चाल थी | उन्होंने पुलिस को खबर कर दी ताकि वे कोई ऐसा इलाज कर ले जिससे कोई बड़ी खराबी पैदा न हो , लेकिन सरकार उनके इस भारी आन्दोलन से डरती थी और उसे पीस देने का अवसर खोज रही थी | उसने कोई ख़ास कार्यवाही न की और उन्हें मर्जी अनुसार जाने दिया |
लेकिन 11 जनवरी के पात्र में डिप्टी  कमिश्नर लुधियाना मि कावन कमिशनर को लिख भेजी कि रामसिंह ने उन लोगो से अपने सम्बन्ध न होने की बात जाहिर की है और उनके सम्बन्ध में हमे सावधान भी कर दिया है | खैर वे 150 नामधारी सिंह बड़े जोश -- खरोश में चल पड़े |
जब वे 150 व्यक्ति वह से बदला लेने के विचार से चल पड़े तो पुलिस को पहले से बताया जा चुका था , लेकिन सरकार ने कोई इंतजाम नही किया | क्यों ? कयोकी वे चाहते थे कि कोई छोटी -- मोटी गड़बड़ हो जाए , जिससे कि वे उस आन्दोलन को पीस दे | सो वह अब मिल गया | वे कूके वीर उस दिन तो पटियाला राज्य की सीमा पर एक गाँव रब्बो में पड़े रहे | अगले दिन भी वही टिके रहे | 14 जनवरी 1872 की शाम को उन्होंने मलोध के किले पर धावा बोल दिया | यह किला कुछ सिक्ख सरदारों का था , लेकिन इस पर हमला क्यों किया ? इस सम्बन्ध में डिस्ट्रिक गजेटियर में लिखा है कि उन्हें उम्मीद थी कि मलोध सरकार उनके विरोध की नेता बनेगी , लेकिन उन्होंने मना कर दिया और इन्होने हमला कर दिया | बहुत संभव है कि बाबा रामसिंह की बड़ी भारी तयारी में मलोध सरकार ने मदद देने का वादा किया हो , लेकिन जब उन्होंने देखा कि विद्रोह तो पहले से ही हो गया है और बाबा रामसिंह भी साथ नही है और पूरी संगत भी नही बुलाई गयी है तो उन्होंने मना कर दिया होगा | खैर! जो भो वह लड़ाई हुई | कुछ घोड़े हथियार और तोपे ले वे वह से चले गये | दोनों ओर के दो -- दो आदमी मारे गये और कुछ घायल हुए |
अगले दिन सवेरे 7 बजे वे मलेर कोटला  पंहुचे गये |
अंग्रेजी सरकार ने मलेर कोटला सरकार को पहले सूचित कर रखा था | उपर बड़ी तैयारिया की गयी थी | सेना हथियार लिए कड़ी थी लेकिन इन लोगो ने इतने बहादुरी से हमला किया कि सेना और पुलिस में कुछ वश न रहा | हमला कर वे शहर में घुस गये और जाकर महल पर हमला कर दिया | वह भी सेना उन्हें नही रोक पायी | वे जाकर खजाना लूटने की कोशिश करने लगे | लूट ही लिया जाता , लेकिन दुर्भाग्य से वे एक और दरवाजा तोड़ते रहे जिससे कि उनका बहुत -- सा समय नष्ट हो गया और भीतर से कुछ भी न मिला | उधर से सेना ने बड़े जोर से धावा बोल दिया | आखिर लड़ते -- लड़ते वहा  से लौटना पडा | उस लड़ाई में उन्होंने 8 सिपाही मारे और 15 को घायल हो गये | उनके सात आदमी मारे गये | वहा  से भी कुछ हथियार और घोड़े लेकर भाग निकले | आगे -- आगे वे और पीछे -- पीछे मलेर कोटला की सेना |
वे भागते जा रहे थे | और लड़ते जा रहे थे | उनके और कई आदमी घायल हो गये और वे उन्हें भी साथ ही उठा ले जाते थे | आखिर कार पटियाला राज्य के रुड गाँव में ये पहुंचे और जंगल में छिप गये | कुछ घंटो के बाद शिवपुर के नाजिम ने फिर हमला बोल दिया | लड़ाई छिड़ गयी पर बेचारे कूके थके -- हारे थे | आखिर 68 व्यक्ति पकड लिए गये | उनमे  से दो औरते थी , वे पटियाला राज को दे दी गयी |
अगले दिन मलेर कोटला लाकर तोप  गाड दी गयी और एक -- एक कर 50 कूके वीर तोप के आगे बाँध -- बंद कर उड़ा दिए गये | हरेक बहादूरी से अपनी -- अपनी बारी पर  तोप के आगे झुक जाता और सतत श्री अकाल कहता हुआ तोप से  उड जाता | फिर कुछ पता नही चलता कि वह किस संसार में चला गया | इस तरह 49 व्यक्ति उड़ा दिए गये | पचासवा एक तेरह साल का लड़का था | उसके पास झुकर डीपटी   कमिशनर ने कहा कि बेवकूफ रामसिंह का साथ छोड़ दे , तुम्हे माफ़ कर दिया जाएगा | लेकिन वह बालक यह बात सहन  नही कर सका और उछलकर उसने कावन की दाढ़ी पकड ली और तब तक नही छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ न काट दिए गये | बाकी 16 आदमी अगले दिन मलोध जाकर फांसी पर लटका दिए गये | उधर बाबा रामसिंह को उनके चार सूबों के साथ गिरफ्तार करके पहले इलाहाबाद और बाद में रंगून भेज दिया गया | यह गिरफ्तारी ( रेगुलेशन  ) 1818 के अनुसार हुई |
जब यह खबर देश में फैली तो और लोग बहुत हैरान हुए कि यह क्या बना | विद्रोह शुरू करके बाबा जी  ने हमे भी क्यों न बुलाया और सैकड़ो  लोग  घर -- बार छोड़कर भैणी की ओर चल पड़े | एक गिरोह जिसमे १७२ आदमी थी , कर्नल वायली से मिला | वह अधीक्षक था | उसने झट उन्हें भी गिरफ्तार करवा लिया | उनमे से 120 को तो घरो को लौटा दिया , लेकिन 50 ऐसे थे कि कोई घरबार नही था | वे सब सम्पत्ति आदि बेचकर लड़ने -- मरने के लिए तैयार थे | उन्हें जेल में डाल  दिया | इस तरह वह आन्दोलन दबा दिया गया और बाबा रामसिंह का पूरा यत्न निष्फल हो गया | बाद में देश में जितने कूके थे वे सभी एक तरह से नजरबंद कर दिए गये | उनकी हाजरी ली जाती थी | भैणी साहिब में आम लोग का आना -- जाना बंद कर दिया गया | ये बंदिशे 1920 में आकर हटाई गयी | यही पंजाब की आजादी  के लिए दी गयी सबसे  पहली कोशिश  का संक्षित इतिहास है |



प्रस्तुती
-सुनील दत्ता
पत्रकार
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