हिन्दुस्तान में प्रत्यक्ष खुदरा विदेशी निवेश का प्रभाव
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वह पूँजी निवेश है जो किसी विदेशी कम्पनी के द्वारा दूसरे देश में लाभ कमाने के लिए किया जाता है। वह या तो अपनी कम्पनी का विस्तार दूसरे देश में करता है या नई कम्पनी खोलकर पूँजी निवेश करता है। ऐसा करते समय वह इस बात का विशोष
ध्यान रखता है कि जिस देश में वह निवेश करना चाहता है वहाँ स्पष्ट लाभ का अवसर, कच्चा माल, सस्ता मजदूर, यातायात की सुविधा, मुनाफे का बाजार, सस्ते दरों पर पूँजी ऋण की उपलब्धता एवं सुरक्षा, विभिन्न करों में छूट, जमीन, बिजली, आदि आवश्यक संसाधनों की रियायती दरों पर उपलब्धता हो। ऐसा करने के लिए वह विभिन्न देशों का तुलनात्मक अध्ययन करता है और जहाँ उसे सर्वाधिक सहूलियत के साथ लाभ की सम्भावना दिखता है, वह अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए पूँजी निवेश करता है। यद्यपि जरूरी नहीं कि वह अपनी ही पूँजी लगाए। अक्सर वह बैंकों से कर्ज लेकर तथा कम्पनी का शेयर या तो स्वयं खरीदकर या फिर साझे हिस्सेदारी से अपनी कारोबार को ब़ाता है।
हिन्दुस्तान में भी विभिन्न देशों की विदेशी कम्पनियाँ सदियों से व्यापार और कारोबार के लिए आती रहीं हैं। पुर्तगाल, फ्रान्स, इंगलैंड, चीन, जापान, आदि देशों की कम्पनियाँ हमारे देश में आती रही हैं। 1990 में भारत में विदेशी निवेश 1 अरब डालर से भी कम था किन्तु उदारीकरण के साथ विदेशी निवेश में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। अंक्टाड के एक सर्वे आधारित आकलन के अनुसार हमारा देश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में आकर्षण की दृष्टि से चीन के बाद दूसरा स्थान रखता है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 2010 में भारत में 44.8 अरब डालर का हुआ जो 2011 में 13 प्रतिशत ब़ोतरी के साथ 50.8 अरब डालर हो गया। 2012 मार्च तक इसमें आठ गुणा वृद्धि हो गया। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का भारत में आकर्षण का मुख्य कारण दुनिया के औद्योगिक देशों में छाई मंदी के कारण पूँजी के लाभ के लिए सुरक्षित निवेश के बाजार की तलाश और 1990 के दशक में भारत द्वारा अपनाया गया उदारीकरण, भूमंडलीकरण एवं निजीकरण की नीति रही है। भारत सरकार द्वारा लगातार विदेशी पूँजी को आकर्षित करने के लिए रियायतें दी जाती रहीं हैं। कई कम्पनियों के सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी निजी कम्पनियों को बेची गई है। विशोष आर्थिक क्षेत्र का प्रावधान किया गया है जिसके कारण करों में पूर्णतः छूट, श्रमिक कानूनों के अनुपालन में ील एवं अन्य कई रियायतें दी गई हैं। हाल में विमानन के क्षेत्र में 49 प्रतिशत, प्रसारण के क्षेत्र में 74 प्रतिशत, मल्टीब्रांड खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत, एक ब्रांड खुदरा क्षेत्र में 100 प्रतिशत, आपूर्ति क्षेत्र में कोल्ड चेन विकसित करने में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दी गई है।
हमारे देश के सरकारी विशोषज्ञ, अधिकारी, शीर्ष नेतृत्व, मंत्री, एवं प्रधान मंत्री, नई आर्थिक नीति के लागू करने में यह तर्क देते रहे हैं कि निजी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से देश में वस्तु एवं सेवा के उत्पादन में वृद्धि होगी, रोजगार ब़ेगा एवं गरीबी कम होगी। औद्योगिक मंदी जब 2008 में विश्व अर्थव्यवस्था को निगल रही थी तो भी उदारीकरण के पैरोकार यह कहते नहीं थक रहे थे कि भारत का आर्थिक संरचना मजबूत है, इस पर दुनिया के मंदी का असर नहीं पड़ेगा। विकसित कहे जाने वाले देशों में जब कुशल मजदूर, डॉक्टर, इन्जीनियर आदि की छँटनी हो रही थी, जब उनके वीजा के नियमों को सख्त किए जा रहे थे तो भी हम उदारीकरण के फायदे गिनाने में लगे रहे हैं। जबकि आलम यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था का विकास दर लगातार संशोधित हो रहा है और अब लगभग 5 फीसदी पर पहुँच गया है। रोजगार वृद्धि का स्तर तो और भी चिन्ताजनक है। हाल के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि 2000 से 2005 के बीच कुल रोजगार में वृद्धि दर 2.7 फीसदी रही जो 2005 से 2010 के बीच घटकर 0.8 फीसदी हो गई। इन्हीं अवधियों में गैर खेती क्षेत्र में रोजगार वृद्धि दर 4.65 प्रतिशत से घटकर 2.53 हो गया। कुपोषण को तो प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्रीय शर्म तक कह दिया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 200910 के 66वें दौर के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में 2400 कैलोरी से कम पर जीने वाले 79 फीसद तथा शहरी भारत में 2100 कैलोरी से कम उपभोग करने वाले 72 फीसद हैं। फिर भी योजना आयोग की सत्ता ठाकुर सुहाती देश की गरीबी के आकलन को घटाकर 29.8 फीसदी, ग्रामीण गरीबी 33.8 और शहरी गरीबी 20.9 फीसदी कर घटाने में लगी रही है। अतः उदारीकरण के लगभग दो दशक के बाद जो तथ्य उभर कर आए हैं, वे उदारीकरण से लाभ के उन तर्कों के विपरीत हैं। विश्व समुदाय एवं संगठन ने भी यह स्वीकार किया है कि बाजारीकरण से हाशियाकरण ब़ा है। अतः बाजार को मानवीय चेहरा बनाने पर बल दिया जाना चाहिए। वास्तविकता यह है कि बाजार का सीधा रिश्ता लाभ कमाने से है। उसे मानवीय चेहरे के साथ लाभ कमाने की कोई बाध्यता नहीं है। ऐसे में जिस तेवर से दूसरे चरण का आर्थिक सुधार लागू करने में सरकार ने खुदरा क्षेत्र में, विशोषकर मल्टीब्रांडिंग खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दिया है, उसका कितना गहरा प्रभाव आम आदमी पर पड़ेगा, इस पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। यह तब और भी आवश्यक है जब भारत का खुदरा क्षेत्र खेती के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। खुदरा क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ लोग रोजगार पाते हैं, जिसमें अधिकांश छोटे असंगठित एवं स्वरोजगार में लगे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनी के इस क्षेत्र में निवेश की अनुमति से छोटे खुदरा कारोबारियों को रोजगार से बाहर करने की सम्भावना ब़ जाती है। इक्रीयर के 2008 के एक अध्ययन के अनुसार ठेला खोंमचावालों को छोड़कर औसतन 217 वर्गफीट में एक खुदरा कारोबार होता है। इक्रीयर के आकलन के अनुसार भारत में कुल वार्षिक खुदरा व्यवसाय 200607 में 408.8 अरब डालर था और 1.3 करोड़ पारम्परिक खुदरा करोबारी हैं। इस प्रकार प्रति व्यवसाय औसत 31446 डालर या 15 लाख रूपये की पूँजी के साथ औसतन 2 से 3 लोग प्रति कारोबार रोजगार में लगे रहते हैं।
इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वालमार्ट सुपरबाजार लगभग 108000 वर्ग फीट में फैला होता है जिसमें 225 लोग रोजगार में लगे होते हैं। वर्ष 2010 में 28 देशों में फैले लगभग 9800 दुकानों में 21 लाख लोगों को रोजगार देते हुए 405 अरब डालर का कारोबार किया। इस प्रकार एक विदेशी पूँजी की दुकान औसत 1300 दुकानों की जगह लेगा और 3900 लोगों को रोजगार से बेदखल करेगा। अतः खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से रोजगार के नुकसान का अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि वाणिज्य मंत्री खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से तीन साल में लगभग 40 लाख सीधे एवं 60 लाख अन्य तरह से, इस प्रकार 1 करोड़ रोजगार पैदा करने का दावा करते हैं। भारत दुनिया के चार बड़े खुदरा कारोबारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आधार पर जिसमें औसतन 117 को रोजगार मिलता है, इसके लिए कम से कम 34180 मॉल खोलने होंगे। भारत सरकार वैसे शहरों में ऐसा निजी मॉल खोलवाना चाहती है जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है, अर्थात 53 बड़े शहरों में से प्रत्येक शहर में 644 सुपर बाजार खोलने होंगे। यदि अमरीका का मानक जमीन की जरूरत हो तो एक शहर में लगभग 1596 एकड़ जमीन मुहैया कराएगी। इस प्रकार कुल 84588 एकड़ जमीन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए तीन वर्षों में देने का इरादा रखती है। भारत सरकार दावा करती है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से खाद्य आपूर्ति के क्षेत्र में आधुनिकीकरण से खाद्यान्न नष्ट होने से बचाया जा सकेगा, साथ ही किसानों को बिचौलियों से मुक्ति मिलेगी तथा बाजार का लाभ मिलेगा। अमरीकी प्रयोग के अनुभव पर गौर करें तो मात्र 24 फीसदी शीतगृह का निर्माण निजी क्षेत्रों के द्वारा हुआ है, शेष 76 फीसदी सार्वजनिक क्षेत्र का है। निजी क्षेत्र सार्वजनिक सुविधाओं का लाभ लेकर मुनाफा ब़ाता है। जहाँ तक बिचौलियों के समाप्त होने तथा किसानों को बाजार का लाभ मिलने का है, जिन देशों ने निजी क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ब़ाया है वहाँ निजीकरण का लाभ पूँजी को मिला है किसान को नहीं। यूरोपियन संघ में भी फ्रांस, इटली, नीदरलैंड, बेलजियम, आयरलैंड, हंगरी आदि देशों के किसानों के प्रतिरोध के परिणाम स्वरूप 2008 में विभिन्न देशों के संसद ने इसे स्वीकारा। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का अनुभव भी साथ नहीं देता है। मलयेशिया और थाईलैंड के सुपरबाजार ने भी बिचौलियों को ब़ाया ही है। भारत में कैडबरी ने कर्नाटक के कैंपको को बंद करवा दिया। जहाँ तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से सस्ते दरों पर चीजों के उपलब्ध होने की बात है इसका भी आधार नहीं दिखता है। दवा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से दवा की कीमत कम नहीं हुई बल्कि बेतहासा ब़ी है। दुनिया के देशों का अनुभव है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का खुदरा एकाधिकार में ब़ोतरी हुई है।
यह एक ऐतिहासिक सच है कि जब भी विदेशी कम्पनियाँ भारत आईं तो अपने साथ कुछ संस्कृति, कुछ तकनीक, कुछ नई चीजें भी लाइंर्। पुर्तगाली आलू, गोभी, पपीता लाए। इंगलैंड की ईस्ट इन्डिया कम्पनी पहले व्यापार करने आई फिर बंगाल की दीवानी खरीदा, धीरेधीरे सेना, रेल, अपनी जरूरत के हिसाब से न्यायालय, शिक्षा, सचिवालय, जमीनी इन्तजाम, अपनी कर प्रणाली आदि और पूरे देश का शासक बन बैठी। हमारे बीच के ही लोग उनकी मदद कर रहे थे और देश हित को नीलाम कर रहे थे। अधिकांश राजा महाराजा, हुक्मरान, अफसरान और अमला उनके साथ मिलकर आम तौर पर किसानों और मजदूरों का शोषण कर रहे थे। देश गुलाम रहा और दलालों का ऐशो आराम बदस्तूर जारी रहा। खेती, घरेलू उद्योग धंधे विदेशी बाजारों की भेंट च़ गए। बेरोजगारी और गरीबी के बीच आम जन जीवन रेंगती रही। अंग्रेजों का जमींदारों और हुक्मरानों के साथ ब़ते औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ प्रतिरोध और जंग में किसानों और मजदूरों के आंदोलन ने महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया। साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों के संघर्ष ने आजादी की लड़ाई तेज की। विभिन्न नेतृत्व के कशमकश के बीच जैसी भी आजादी मिली, उसे जनसाधारण तक पहुँचाने की चुनौतियाँ आज भी बरकरार हैं। केन्द्र और राज्य में सत्तासीन वर्ग लोकतंत्र का उपयोग
प्रमुखता से पूँजी के पक्ष में करता रहा है। खुदरा क्षेत्र के कारोबार को विदेशी पूँजी के लिए खोलना भी उसी का एक नमूना है। सत्तावर्ग को पूँजी के संकट और औद्योगिक मंदी की जितनी चिंता है, जनसाधारण की गरीबी की नहीं। जिस तबज्जो से विशोष आर्थिक क्षेत्र पर जोर है वैसा जोर भूमि सुधार पर नहीं रहा। जन साधारण की जीविका विस्तार के नाम पर जीविका के अवसर घटते जा रहे हैं। विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनो को पूँजी के हवाले किया जा रहा है। विभिन्न राजनैतिक दल अवसरवादी संसदीय भटकाव में खुदरा विदेशी निवेश के विरोध करने का स्वांग जरूर करते हैं किन्तु अविश्वास प्रस्ताव के निर्णायक परिस्थिति में कोई बहाना बनाकर सरकार को गिरने से बचाने का व्यावहारिक उपाय ़ूढ़ते हैं, जिससे चुनाव से बचा जा सके। ऐसे में दादा धर्माधिकारी का कथन सही प्रतीत होता है कि ॔लोकशाही पूँजी के खेमा में खड़ी है’। ऐसे में लोकशाही और संसद को जनसाधारण के पक्ष में खड़ा करने की चुनौतियाँ हैं। लाजिमी है कि इस प्रयास में सत्ता वर्ग अपना अस्तित्व बचाने के लिए लोकतंत्र के नाम पर हर तरह के जनविरोधी हथकंडे अख्तियार करेगा। जन संघर्ष से ही लोकतंत्र एवं संसद को पूँजी सत्तावर्ग से मुक्त कराया जा सकता है। संघर्ष के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं प्रतीत होता है।
-डी0 एम0 दिवाकर
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वह पूँजी निवेश है जो किसी विदेशी कम्पनी के द्वारा दूसरे देश में लाभ कमाने के लिए किया जाता है। वह या तो अपनी कम्पनी का विस्तार दूसरे देश में करता है या नई कम्पनी खोलकर पूँजी निवेश करता है। ऐसा करते समय वह इस बात का विशोष
ध्यान रखता है कि जिस देश में वह निवेश करना चाहता है वहाँ स्पष्ट लाभ का अवसर, कच्चा माल, सस्ता मजदूर, यातायात की सुविधा, मुनाफे का बाजार, सस्ते दरों पर पूँजी ऋण की उपलब्धता एवं सुरक्षा, विभिन्न करों में छूट, जमीन, बिजली, आदि आवश्यक संसाधनों की रियायती दरों पर उपलब्धता हो। ऐसा करने के लिए वह विभिन्न देशों का तुलनात्मक अध्ययन करता है और जहाँ उसे सर्वाधिक सहूलियत के साथ लाभ की सम्भावना दिखता है, वह अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए पूँजी निवेश करता है। यद्यपि जरूरी नहीं कि वह अपनी ही पूँजी लगाए। अक्सर वह बैंकों से कर्ज लेकर तथा कम्पनी का शेयर या तो स्वयं खरीदकर या फिर साझे हिस्सेदारी से अपनी कारोबार को ब़ाता है।
हिन्दुस्तान में भी विभिन्न देशों की विदेशी कम्पनियाँ सदियों से व्यापार और कारोबार के लिए आती रहीं हैं। पुर्तगाल, फ्रान्स, इंगलैंड, चीन, जापान, आदि देशों की कम्पनियाँ हमारे देश में आती रही हैं। 1990 में भारत में विदेशी निवेश 1 अरब डालर से भी कम था किन्तु उदारीकरण के साथ विदेशी निवेश में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। अंक्टाड के एक सर्वे आधारित आकलन के अनुसार हमारा देश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में आकर्षण की दृष्टि से चीन के बाद दूसरा स्थान रखता है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 2010 में भारत में 44.8 अरब डालर का हुआ जो 2011 में 13 प्रतिशत ब़ोतरी के साथ 50.8 अरब डालर हो गया। 2012 मार्च तक इसमें आठ गुणा वृद्धि हो गया। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का भारत में आकर्षण का मुख्य कारण दुनिया के औद्योगिक देशों में छाई मंदी के कारण पूँजी के लाभ के लिए सुरक्षित निवेश के बाजार की तलाश और 1990 के दशक में भारत द्वारा अपनाया गया उदारीकरण, भूमंडलीकरण एवं निजीकरण की नीति रही है। भारत सरकार द्वारा लगातार विदेशी पूँजी को आकर्षित करने के लिए रियायतें दी जाती रहीं हैं। कई कम्पनियों के सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी निजी कम्पनियों को बेची गई है। विशोष आर्थिक क्षेत्र का प्रावधान किया गया है जिसके कारण करों में पूर्णतः छूट, श्रमिक कानूनों के अनुपालन में ील एवं अन्य कई रियायतें दी गई हैं। हाल में विमानन के क्षेत्र में 49 प्रतिशत, प्रसारण के क्षेत्र में 74 प्रतिशत, मल्टीब्रांड खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत, एक ब्रांड खुदरा क्षेत्र में 100 प्रतिशत, आपूर्ति क्षेत्र में कोल्ड चेन विकसित करने में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दी गई है।
हमारे देश के सरकारी विशोषज्ञ, अधिकारी, शीर्ष नेतृत्व, मंत्री, एवं प्रधान मंत्री, नई आर्थिक नीति के लागू करने में यह तर्क देते रहे हैं कि निजी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से देश में वस्तु एवं सेवा के उत्पादन में वृद्धि होगी, रोजगार ब़ेगा एवं गरीबी कम होगी। औद्योगिक मंदी जब 2008 में विश्व अर्थव्यवस्था को निगल रही थी तो भी उदारीकरण के पैरोकार यह कहते नहीं थक रहे थे कि भारत का आर्थिक संरचना मजबूत है, इस पर दुनिया के मंदी का असर नहीं पड़ेगा। विकसित कहे जाने वाले देशों में जब कुशल मजदूर, डॉक्टर, इन्जीनियर आदि की छँटनी हो रही थी, जब उनके वीजा के नियमों को सख्त किए जा रहे थे तो भी हम उदारीकरण के फायदे गिनाने में लगे रहे हैं। जबकि आलम यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था का विकास दर लगातार संशोधित हो रहा है और अब लगभग 5 फीसदी पर पहुँच गया है। रोजगार वृद्धि का स्तर तो और भी चिन्ताजनक है। हाल के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि 2000 से 2005 के बीच कुल रोजगार में वृद्धि दर 2.7 फीसदी रही जो 2005 से 2010 के बीच घटकर 0.8 फीसदी हो गई। इन्हीं अवधियों में गैर खेती क्षेत्र में रोजगार वृद्धि दर 4.65 प्रतिशत से घटकर 2.53 हो गया। कुपोषण को तो प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्रीय शर्म तक कह दिया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 200910 के 66वें दौर के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में 2400 कैलोरी से कम पर जीने वाले 79 फीसद तथा शहरी भारत में 2100 कैलोरी से कम उपभोग करने वाले 72 फीसद हैं। फिर भी योजना आयोग की सत्ता ठाकुर सुहाती देश की गरीबी के आकलन को घटाकर 29.8 फीसदी, ग्रामीण गरीबी 33.8 और शहरी गरीबी 20.9 फीसदी कर घटाने में लगी रही है। अतः उदारीकरण के लगभग दो दशक के बाद जो तथ्य उभर कर आए हैं, वे उदारीकरण से लाभ के उन तर्कों के विपरीत हैं। विश्व समुदाय एवं संगठन ने भी यह स्वीकार किया है कि बाजारीकरण से हाशियाकरण ब़ा है। अतः बाजार को मानवीय चेहरा बनाने पर बल दिया जाना चाहिए। वास्तविकता यह है कि बाजार का सीधा रिश्ता लाभ कमाने से है। उसे मानवीय चेहरे के साथ लाभ कमाने की कोई बाध्यता नहीं है। ऐसे में जिस तेवर से दूसरे चरण का आर्थिक सुधार लागू करने में सरकार ने खुदरा क्षेत्र में, विशोषकर मल्टीब्रांडिंग खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दिया है, उसका कितना गहरा प्रभाव आम आदमी पर पड़ेगा, इस पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। यह तब और भी आवश्यक है जब भारत का खुदरा क्षेत्र खेती के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। खुदरा क्षेत्र में लगभग 4 करोड़ लोग रोजगार पाते हैं, जिसमें अधिकांश छोटे असंगठित एवं स्वरोजगार में लगे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनी के इस क्षेत्र में निवेश की अनुमति से छोटे खुदरा कारोबारियों को रोजगार से बाहर करने की सम्भावना ब़ जाती है। इक्रीयर के 2008 के एक अध्ययन के अनुसार ठेला खोंमचावालों को छोड़कर औसतन 217 वर्गफीट में एक खुदरा कारोबार होता है। इक्रीयर के आकलन के अनुसार भारत में कुल वार्षिक खुदरा व्यवसाय 200607 में 408.8 अरब डालर था और 1.3 करोड़ पारम्परिक खुदरा करोबारी हैं। इस प्रकार प्रति व्यवसाय औसत 31446 डालर या 15 लाख रूपये की पूँजी के साथ औसतन 2 से 3 लोग प्रति कारोबार रोजगार में लगे रहते हैं।
इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वालमार्ट सुपरबाजार लगभग 108000 वर्ग फीट में फैला होता है जिसमें 225 लोग रोजगार में लगे होते हैं। वर्ष 2010 में 28 देशों में फैले लगभग 9800 दुकानों में 21 लाख लोगों को रोजगार देते हुए 405 अरब डालर का कारोबार किया। इस प्रकार एक विदेशी पूँजी की दुकान औसत 1300 दुकानों की जगह लेगा और 3900 लोगों को रोजगार से बेदखल करेगा। अतः खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से रोजगार के नुकसान का अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि वाणिज्य मंत्री खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से तीन साल में लगभग 40 लाख सीधे एवं 60 लाख अन्य तरह से, इस प्रकार 1 करोड़ रोजगार पैदा करने का दावा करते हैं। भारत दुनिया के चार बड़े खुदरा कारोबारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आधार पर जिसमें औसतन 117 को रोजगार मिलता है, इसके लिए कम से कम 34180 मॉल खोलने होंगे। भारत सरकार वैसे शहरों में ऐसा निजी मॉल खोलवाना चाहती है जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है, अर्थात 53 बड़े शहरों में से प्रत्येक शहर में 644 सुपर बाजार खोलने होंगे। यदि अमरीका का मानक जमीन की जरूरत हो तो एक शहर में लगभग 1596 एकड़ जमीन मुहैया कराएगी। इस प्रकार कुल 84588 एकड़ जमीन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए तीन वर्षों में देने का इरादा रखती है। भारत सरकार दावा करती है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से खाद्य आपूर्ति के क्षेत्र में आधुनिकीकरण से खाद्यान्न नष्ट होने से बचाया जा सकेगा, साथ ही किसानों को बिचौलियों से मुक्ति मिलेगी तथा बाजार का लाभ मिलेगा। अमरीकी प्रयोग के अनुभव पर गौर करें तो मात्र 24 फीसदी शीतगृह का निर्माण निजी क्षेत्रों के द्वारा हुआ है, शेष 76 फीसदी सार्वजनिक क्षेत्र का है। निजी क्षेत्र सार्वजनिक सुविधाओं का लाभ लेकर मुनाफा ब़ाता है। जहाँ तक बिचौलियों के समाप्त होने तथा किसानों को बाजार का लाभ मिलने का है, जिन देशों ने निजी क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ब़ाया है वहाँ निजीकरण का लाभ पूँजी को मिला है किसान को नहीं। यूरोपियन संघ में भी फ्रांस, इटली, नीदरलैंड, बेलजियम, आयरलैंड, हंगरी आदि देशों के किसानों के प्रतिरोध के परिणाम स्वरूप 2008 में विभिन्न देशों के संसद ने इसे स्वीकारा। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का अनुभव भी साथ नहीं देता है। मलयेशिया और थाईलैंड के सुपरबाजार ने भी बिचौलियों को ब़ाया ही है। भारत में कैडबरी ने कर्नाटक के कैंपको को बंद करवा दिया। जहाँ तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से सस्ते दरों पर चीजों के उपलब्ध होने की बात है इसका भी आधार नहीं दिखता है। दवा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से दवा की कीमत कम नहीं हुई बल्कि बेतहासा ब़ी है। दुनिया के देशों का अनुभव है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का खुदरा एकाधिकार में ब़ोतरी हुई है।
यह एक ऐतिहासिक सच है कि जब भी विदेशी कम्पनियाँ भारत आईं तो अपने साथ कुछ संस्कृति, कुछ तकनीक, कुछ नई चीजें भी लाइंर्। पुर्तगाली आलू, गोभी, पपीता लाए। इंगलैंड की ईस्ट इन्डिया कम्पनी पहले व्यापार करने आई फिर बंगाल की दीवानी खरीदा, धीरेधीरे सेना, रेल, अपनी जरूरत के हिसाब से न्यायालय, शिक्षा, सचिवालय, जमीनी इन्तजाम, अपनी कर प्रणाली आदि और पूरे देश का शासक बन बैठी। हमारे बीच के ही लोग उनकी मदद कर रहे थे और देश हित को नीलाम कर रहे थे। अधिकांश राजा महाराजा, हुक्मरान, अफसरान और अमला उनके साथ मिलकर आम तौर पर किसानों और मजदूरों का शोषण कर रहे थे। देश गुलाम रहा और दलालों का ऐशो आराम बदस्तूर जारी रहा। खेती, घरेलू उद्योग धंधे विदेशी बाजारों की भेंट च़ गए। बेरोजगारी और गरीबी के बीच आम जन जीवन रेंगती रही। अंग्रेजों का जमींदारों और हुक्मरानों के साथ ब़ते औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ प्रतिरोध और जंग में किसानों और मजदूरों के आंदोलन ने महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया। साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों के संघर्ष ने आजादी की लड़ाई तेज की। विभिन्न नेतृत्व के कशमकश के बीच जैसी भी आजादी मिली, उसे जनसाधारण तक पहुँचाने की चुनौतियाँ आज भी बरकरार हैं। केन्द्र और राज्य में सत्तासीन वर्ग लोकतंत्र का उपयोग
प्रमुखता से पूँजी के पक्ष में करता रहा है। खुदरा क्षेत्र के कारोबार को विदेशी पूँजी के लिए खोलना भी उसी का एक नमूना है। सत्तावर्ग को पूँजी के संकट और औद्योगिक मंदी की जितनी चिंता है, जनसाधारण की गरीबी की नहीं। जिस तबज्जो से विशोष आर्थिक क्षेत्र पर जोर है वैसा जोर भूमि सुधार पर नहीं रहा। जन साधारण की जीविका विस्तार के नाम पर जीविका के अवसर घटते जा रहे हैं। विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनो को पूँजी के हवाले किया जा रहा है। विभिन्न राजनैतिक दल अवसरवादी संसदीय भटकाव में खुदरा विदेशी निवेश के विरोध करने का स्वांग जरूर करते हैं किन्तु अविश्वास प्रस्ताव के निर्णायक परिस्थिति में कोई बहाना बनाकर सरकार को गिरने से बचाने का व्यावहारिक उपाय ़ूढ़ते हैं, जिससे चुनाव से बचा जा सके। ऐसे में दादा धर्माधिकारी का कथन सही प्रतीत होता है कि ॔लोकशाही पूँजी के खेमा में खड़ी है’। ऐसे में लोकशाही और संसद को जनसाधारण के पक्ष में खड़ा करने की चुनौतियाँ हैं। लाजिमी है कि इस प्रयास में सत्ता वर्ग अपना अस्तित्व बचाने के लिए लोकतंत्र के नाम पर हर तरह के जनविरोधी हथकंडे अख्तियार करेगा। जन संघर्ष से ही लोकतंत्र एवं संसद को पूँजी सत्तावर्ग से मुक्त कराया जा सकता है। संघर्ष के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं प्रतीत होता है।
-डी0 एम0 दिवाकर
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