इस साल 6 दिसम्बर को बाबरी मस्जिद ठहाए जाने की 20वीं बरसी थी। बाबरी मस्जिद को जमींदोज किए जाने के पहले और उसके बाद, देशभर में भयावह साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। केवल मुंबई में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। यहां यह स्मरणीय है कि घोषणा यह की गई थी कि कारसेवा पूर्णतः शांतिपूर्ण होगी। अटलबिहारी वाजपेयी के कद के नेता ने साफ शब्दों में कहा था कि 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में होने वाली कारसेवा में केवल भजन गाए जाएंगे और इसलिए भाजपा को कारसेवा करने की अनुमति दी जानी चाहिए। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन भाजापाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी ऐसा ही आश्वासन दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. व्ही. नरसिम्हाराव ने वाजपेयी के आश्वासन को गंभीरता से ले लिया और कारसेवा की अनुमति दे दी।
उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने हजारों बल्कि लाखों कारसेवकों को अयोध्या में प्रवेश करने दिया। न तो कल्याण सिंह और न ही भाजपा के केन्द्रीय नेताओं ने इस भारी भीड़ पर नियंत्रण बनाए रखने की कोई कोशिश की।
और जब उच्चतम न्यायालय ने कल्याण सिंह को भीड़ पर नियंत्रण करने में असफल रहने का दोषी ठहराया और उन्हें एक दिन की सजा सुनाई तब उन्होंने कहा कि उन्हें एक महान लक्ष्य की खातिर जेल जाने पर गर्व है। सच यह है कि भीड़ पर नियंत्रण रखने की कोशिश करना तो दूर, एल. के. आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और कई अन्य नेताओं ने उत्तेजक भाषण देकर भीड़ को भड़काया। बल्कि, ये सभी लोग बाबरी मस्जिद को गिराने का लक्ष्य लेकर ही अयोध्या पहुचे थे। यह है साम्प्रदायिक ताकतों का असली चरित्र और चेहरा। वे अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए झूठ बोलने में जरा भी संकोच नहीं करते और उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके कारण कितने लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ेंगी और कितनों की जीवन भर की कमाई स्वाहा हो जाएगी।
सच यह है कि बाबरी मस्जिद को संघ परिवार ने एक सोची समझी, सुनियोजित साजिश के तहत हाया था। कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि यद्यपि वाजपेयी इस षड़यंत्र का हिस्सा नहीं थे तथापि उन्हें निश्चित तौर पर यह जानकारी थी कि मस्जिद हा दी जाएगी। माहौल को देखते हुए उन्होंने मस्जिद को बचाने की कोई कोशिश भी नहीं की।
हिन्दी मीडिया एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह संघ परिवार का साथ दे रहा था। वह भी चाहता था कि मस्जिद हा दी जाए। हिन्दी समाचारपत्रों में बाबरी मस्जिद को ॔विवादस्पद ांचा॔ कहा जाता था। हिन्दी अखबारों में जिस तरह के लेख और समाचार छपते थे, उनसे ऐसा लगता था कि बाबरी, मस्जिद नहीं बल्कि राम मंदिर है। उत्तर भारत में (यद्यपि दक्षिण में नहीं) मस्जिद को गिराने का जुनून हावी था और मस्जिद हा दिए जाने के बाद उत्तर भारत के कई शहरों में जश्न हुए। कानपुर के एक धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ता के अनुसार उत्तर प्रदेश के कई शहरों में इतने पटाखे चलाए गए कि ऐसा लगने लगा मानो उस दिन दीपावली हो। जानेमाने पत्रकार प्रफुल्ल बिडवई उस दिन मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी में थे। उन्होंने लिखा कि वहां प्रिशक्षण प्राप्त कर रहे आईएएस, आईपीएस व आईआरएस अधिकारियों ने भी जमकर जश्न मनाया।
संघ परिवार ने इस मुद्दे पर हिन्दुओं और मुसलमानों का इस हद तक धु्रवीकरण कर दिया था, जितना कि शायद विभाजन के समय था। अपने शक्तिशाली प्रचार तंत्र के जरिए संघ परिवार ने ऐसा माहौल पैदा कर दिया था कि आम हिन्दुओं को यह महसूस होने लगा था कि बाबरी मस्जिद का बना रहना उनके लिए घोर शर्मिंदगी की बात है और यह भी कि बाबरी मस्जिद हिन्दुओं की मुगल बादशाहों की गुलामी का प्रतीक है। संघ परिवार के लिए बाबरी मस्जिद को गिराना, सत्ता में आने की आवश्यक शर्त थी। जहां तक मेरी जानकारी है, दुनिया में शायद ही किसी राजनैतिक दल ने एक ऐतिहासिक इमारत को हाने को अपने एजेन्डे का हिस्सा मनाया होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ मुस्लिम नेताओं ने भी भावनाएं भड़काईं और हालात को और गंभीर बनाया। मुस्लिम नेताओं ने सकारात्मक बातचीतजिसके लिए कुछ नरमपंथी हिन्दू तैयार थेके जरिए संकट को टालने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की।
उत्तेजना के उस दौर में जिन चन्द लोगों ने अपना संतुलन बनाए रखा और तल्खी से परहेज रखा उनमें शामिल थे वामपंथी व जेएनयू के कुछ जानेमाने धर्मनिरपेक्ष इतिहासविद जैसे प्रोफेसर रोमिला थापर, प्रो. सतीशचन्द्र, प्रो. विपिनचन्द्र, प्रो. हरबंस मुलखिया, प्रो. इरफान हबीब व कुछ अन्य। इन सबने मिलकर एक पैम्फलैट निकाला था जिसमें ठोस ऐतिहासिक सुबूतों व तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया गया था कि संघ परिवार के इस दावे में जरा सी भी सच्चाई नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण, राम मंदिर को गिराकर किया गया था। इतिहास में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त एक आईएएस अधिकारी शेरसिंह ने एक किताब लिखकर यह दावा किया था कि राम के युग में उस स्थान पर घना जंगल था, जहां कि आज की अयोध्या है। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की थी कि राम की अयोध्या वहां थी, जहां आज का अफगानिस्तान है। परंतु उस जुनूनी दौर में समझदारी की बातें सुनने और गुनने वाला था ही कौन।
अधिकांश मुसलमानों के मन में प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता के संबंध में गहरे संदेह थे। ऐसा माना जा रहा था कि उनका झुकाव संघ परिवार की ओर है। यहां तक कि स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने भी इस बात पर अप्रसन्नता जाहिर की थी कि प्रधानमंत्री ने सुरक्षाबलों को बाबरी मस्जिद का विध्वंस रोकने के निर्देश नहीं दिए और उन्हें अयोध्या से 11 किलोमीटर पहले रोक दिया गया। सुरक्षाबलों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस रोकने के लिए योजना तैयार कर ली थी परंतु उच्चाधिकारियों से निर्देश न मिलने के कारण वे उस योजना को अमली जामा नहीं पहना सके। अयोध्या में उस समय तैनात सुरक्षाबलों के मुखिया से मेरी मुलाकात माउंट आबू स्थित सीआरपीएफ प्रिशक्षण अकादमी में हुई थी। उन्होंने सीआरपीएफ की एक कार्यशाला में नक्शों की सहायता से यह समझाया था कि मस्जिद का विध्वंस कैसे रोका जा सकता था। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि वे कार्यवाही शुरू करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देशों का इंतजार करते रहे परंतु वहां से उन्हें तब तक कोई संदेश प्राप्त नहीं हुआ जब तक कि मस्जिद को पूरी तरह हा नहीं दिया गया। नरसिम्हाराव के कुछ नजदीकियों के अनुसार प्रधानमंत्री की यह इच्छा थी कि बाबरी मस्जिद हा दी जाए ताकि संघ परिवार के हाथों से एक बड़ा मुद्दा खिसक जाए। अगर ऐसा था भी, तो नरसिम्हाराव ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हजारों निर्दोर्षों को कत्ल करवा दिया। उस समय भारत फासीवाद की कगार पर पहुंच गया था।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि खुलओम गुंडागर्दी करने और एक ऐतिहासिक, संरक्षित स्मारक को गिराने वालों में से एक को भी कोई सजा नहीं मिली। जब धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक शक्तियों ने भाजपा को इस बर्बरता के लिए लताड़ा तो आडवानी ने इससे अपना पल्ला झाड़ते हुए यह कहा कि ॔॔वह उनके जीवन का सबसे दुःखद दिन था।॔॔ क्या आडवानी यह भूल गए कि वे राम मंदिर आंदोलन के प्रणेता और शीर्षतम नेता थे। उन्होंने ही देश भर में ॔रथयात्रा॔ निकाली थी जो कि द टाईम्स ऑफ इंडिया के अनुसार ॔ब्लड यात्रा॔ बन गई थी। यह यात्रा अपने पीछे खून की लकीरें छोड़ गई थी। हमेशा की तरह, राव सरकार ने बाबरी मस्जिद कांड की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग गठित कर दिया। इस आयोग ने, जिसका नाम लिब्रहान आयोग था, 16 साल से अधिक समय में अपनी रिपोर्ट तैयार की और जैसा कि अपेक्षित था, नरसिम्हाराव को क्लीन चिट दे दी। दरअसल, न्याययिक जांच आयोगों की नियुक्ति ही इसलिए की जाती है ताकि कोई त्वरित कार्यवाही न करनी पड़े। ये आयोग जांच पूरी करने में सालों और कभी कभी दशकों लगा देते हैं और जनता की गा़ी कमाई के दसियों लाख रूपये उन पर बर्बाद हो जाते हैं। इन आयोगों की नियुक्ति ही इसलिए की जाती है ताकि सरकारों को समय मिल जाए और दोषी बच निकलने में कामयाब हो जाएं।
सीबीआई अदालत भी बाबरी विध्वंस के लिए किसी की जिम्मेदारी तय करने मे विफल रही और एल. के. आडवानी (जिन्होंने रथयात्रा निकालकर देश भर में भावनाएं भड़काईं थीं), एम. एम. जोशी, विनय कटियार, कल्याण सिंह, उमा भारती आदि सभी खुलओम घूम रहे हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि उनके खिलाफ चश्मदीदों सहित ठोस सुबूत उपलब्ध हैं। सन 1999 में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन केन्द्र में सत्ता में आया। इस सरकार में आडवानी गृहमंत्री थे और सीबीआई उनके अधीनस्थ थी। ऐसे में सीबीआई अपने ही मंत्री के खिलाफ भला कैसे कार्यवाही कर सकती थी? सन 2004 में एनडीए की हार के बाद यूपीए की सरकार बनी और सीबीआई ने अयोध्या मामले में बरेली की अदालत में कार्यवाही आगे ब़ाई। परंतु अंततः इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला।
मुझे कभीकभी ऐसा लगता है कि सभी पार्टियों के बीच एक अलिखित समझौता होता है कि वे सत्ता में आने पर, एकदूसरे के नेताओं को कटघरे में खड़ा नहीं करेंगी और शायद इसी समझौते के चलते सभी पार्टियों के नेता बिना किसी डर के अपने राजनैतिक खेल खेलते रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या अयोध्या में हुई मनमानी और गुंडागर्दी को कोई भी प्रजातांत्रिक राष्ट्र माफ कर देता? बल्कि, यदि राव सरकार प्रभावी कदम उठाती तो बाबरी कांड होता ही नहीं। तत्कालीन केन्द्र सरकार बहुत आसानी से आडवानी, जोशी, उमा भारती, कटियार आदि को विषवमन करने से रोक सकती थी। अंततः, जब मस्जिद गिरा ही दी गई थी तब भी दोषियों को सजा दिलवाकर हमारे देश के प्रजातंत्रिक मूल्यों की रक्षा की जा सकती थी। परंतु वह भी नहीं हुआ। इतना ही खेदजनक यह तथ्य है कि इलाहबाद उच्च न्यायालय ने सितम्बर 2010 के अपने निर्णय में उस जमीनजिस पर बाबरी मस्जिद थीको बांटने का हुक्म सुना दिया। अदालत ने इस संबंध में कुछ नहीं कहा कि उस जमीन का असली हकदार कौन है, जबकि मुकदमा इसी प्रश्न के समाधान के लिए दाखिल किया गया था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय में अपील लंबित है और हम आशा कर सकते हैें कि इस देश की सबसे बड़ी अदालत न्याय करेगी। उच्चतम न्यायालय जो भी निर्णय दे, उसे सभी पक्षकारों को सद्भावनापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। अब इस मुद्दे के हल का बस यही एक रास्ता बचा है।
अंगे्रजी की एक कहावत है ॔एवरी क्लाउड हेज ए सिल्वर लाईनिंग॔ (हर मुसीबत का एक उजला पक्ष होता है)। यह कहावत बाबरी विध्वंस के बारे में भी सही है। इस घटना के बाद मुसलमानों को यह एहसास हुआ कि उन्हें शिक्षा और आर्थिक विकास जैसी अपनी असली समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। संघ परिवार और उनके स्वयं के नेताओं ने मुसलमानों को एक भावनात्मक मुद्दे में जबरन फंसा दिया था जिसके कारण उनका ध्यान अपनी असली समस्याओं पर से हट गया था। इस एहसास से मुसलमानों का बहुत भला हुआ है। बाबरी कांड के बाद अनेक शैक्षणिक संस्थाएं अस्तित्व में आईं हैं और इनसे मुसलमानों को लाभ हुआ है।
दुर्भाग्यवश, शिक्षा मुफ्त नहीं मिलती। शिक्षा पाने के लिए पैसा खर्च करना होता है। मुसलमानों में कितनी गरीबी है, यह सच्चर समिति की रपट से जाहिर है। इस रपट में कहा गया है कि रोजगार और आर्थिक विकास की दृष्टि से मुसलमान दलितों से भी नीचे खिसक गए हैं। स्पष्टतः, निजीकरण और उदारीकरण के इस युग में, जब उच्च शिक्षा का खर्च बहुत ब़ गया है, गरीबी की समस्या को हल किए बगैर मुस्लिम समुदाय के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करना संभव नहीं है। इस मामले में सरकार को ही हस्तक्षेप करना होगा। परंतु यह भी आसान नहीं है क्योंकि मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व इतना सक्षम नहीं है कि वह सरकार को कुछ करने के लिए मजबूर कर सके और गैरमुस्लिम धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व में इस कार्य को करने की इच्छाशक्ति का नितांत अभाव है। हम केवल इंतजार कर सकते हैं और यह उम्मीद कि समय बदलेगा, हालात सुधरेंगे और हमारी दुनिया बेहतर बनेगी।
-डॉ. असगर अली इंजीनियर
उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने हजारों बल्कि लाखों कारसेवकों को अयोध्या में प्रवेश करने दिया। न तो कल्याण सिंह और न ही भाजपा के केन्द्रीय नेताओं ने इस भारी भीड़ पर नियंत्रण बनाए रखने की कोई कोशिश की।
और जब उच्चतम न्यायालय ने कल्याण सिंह को भीड़ पर नियंत्रण करने में असफल रहने का दोषी ठहराया और उन्हें एक दिन की सजा सुनाई तब उन्होंने कहा कि उन्हें एक महान लक्ष्य की खातिर जेल जाने पर गर्व है। सच यह है कि भीड़ पर नियंत्रण रखने की कोशिश करना तो दूर, एल. के. आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और कई अन्य नेताओं ने उत्तेजक भाषण देकर भीड़ को भड़काया। बल्कि, ये सभी लोग बाबरी मस्जिद को गिराने का लक्ष्य लेकर ही अयोध्या पहुचे थे। यह है साम्प्रदायिक ताकतों का असली चरित्र और चेहरा। वे अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए झूठ बोलने में जरा भी संकोच नहीं करते और उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके कारण कितने लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ेंगी और कितनों की जीवन भर की कमाई स्वाहा हो जाएगी।
सच यह है कि बाबरी मस्जिद को संघ परिवार ने एक सोची समझी, सुनियोजित साजिश के तहत हाया था। कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि यद्यपि वाजपेयी इस षड़यंत्र का हिस्सा नहीं थे तथापि उन्हें निश्चित तौर पर यह जानकारी थी कि मस्जिद हा दी जाएगी। माहौल को देखते हुए उन्होंने मस्जिद को बचाने की कोई कोशिश भी नहीं की।
हिन्दी मीडिया एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह संघ परिवार का साथ दे रहा था। वह भी चाहता था कि मस्जिद हा दी जाए। हिन्दी समाचारपत्रों में बाबरी मस्जिद को ॔विवादस्पद ांचा॔ कहा जाता था। हिन्दी अखबारों में जिस तरह के लेख और समाचार छपते थे, उनसे ऐसा लगता था कि बाबरी, मस्जिद नहीं बल्कि राम मंदिर है। उत्तर भारत में (यद्यपि दक्षिण में नहीं) मस्जिद को गिराने का जुनून हावी था और मस्जिद हा दिए जाने के बाद उत्तर भारत के कई शहरों में जश्न हुए। कानपुर के एक धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ता के अनुसार उत्तर प्रदेश के कई शहरों में इतने पटाखे चलाए गए कि ऐसा लगने लगा मानो उस दिन दीपावली हो। जानेमाने पत्रकार प्रफुल्ल बिडवई उस दिन मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी में थे। उन्होंने लिखा कि वहां प्रिशक्षण प्राप्त कर रहे आईएएस, आईपीएस व आईआरएस अधिकारियों ने भी जमकर जश्न मनाया।
संघ परिवार ने इस मुद्दे पर हिन्दुओं और मुसलमानों का इस हद तक धु्रवीकरण कर दिया था, जितना कि शायद विभाजन के समय था। अपने शक्तिशाली प्रचार तंत्र के जरिए संघ परिवार ने ऐसा माहौल पैदा कर दिया था कि आम हिन्दुओं को यह महसूस होने लगा था कि बाबरी मस्जिद का बना रहना उनके लिए घोर शर्मिंदगी की बात है और यह भी कि बाबरी मस्जिद हिन्दुओं की मुगल बादशाहों की गुलामी का प्रतीक है। संघ परिवार के लिए बाबरी मस्जिद को गिराना, सत्ता में आने की आवश्यक शर्त थी। जहां तक मेरी जानकारी है, दुनिया में शायद ही किसी राजनैतिक दल ने एक ऐतिहासिक इमारत को हाने को अपने एजेन्डे का हिस्सा मनाया होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ मुस्लिम नेताओं ने भी भावनाएं भड़काईं और हालात को और गंभीर बनाया। मुस्लिम नेताओं ने सकारात्मक बातचीतजिसके लिए कुछ नरमपंथी हिन्दू तैयार थेके जरिए संकट को टालने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की।
उत्तेजना के उस दौर में जिन चन्द लोगों ने अपना संतुलन बनाए रखा और तल्खी से परहेज रखा उनमें शामिल थे वामपंथी व जेएनयू के कुछ जानेमाने धर्मनिरपेक्ष इतिहासविद जैसे प्रोफेसर रोमिला थापर, प्रो. सतीशचन्द्र, प्रो. विपिनचन्द्र, प्रो. हरबंस मुलखिया, प्रो. इरफान हबीब व कुछ अन्य। इन सबने मिलकर एक पैम्फलैट निकाला था जिसमें ठोस ऐतिहासिक सुबूतों व तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया गया था कि संघ परिवार के इस दावे में जरा सी भी सच्चाई नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण, राम मंदिर को गिराकर किया गया था। इतिहास में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त एक आईएएस अधिकारी शेरसिंह ने एक किताब लिखकर यह दावा किया था कि राम के युग में उस स्थान पर घना जंगल था, जहां कि आज की अयोध्या है। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की थी कि राम की अयोध्या वहां थी, जहां आज का अफगानिस्तान है। परंतु उस जुनूनी दौर में समझदारी की बातें सुनने और गुनने वाला था ही कौन।
अधिकांश मुसलमानों के मन में प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता के संबंध में गहरे संदेह थे। ऐसा माना जा रहा था कि उनका झुकाव संघ परिवार की ओर है। यहां तक कि स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने भी इस बात पर अप्रसन्नता जाहिर की थी कि प्रधानमंत्री ने सुरक्षाबलों को बाबरी मस्जिद का विध्वंस रोकने के निर्देश नहीं दिए और उन्हें अयोध्या से 11 किलोमीटर पहले रोक दिया गया। सुरक्षाबलों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस रोकने के लिए योजना तैयार कर ली थी परंतु उच्चाधिकारियों से निर्देश न मिलने के कारण वे उस योजना को अमली जामा नहीं पहना सके। अयोध्या में उस समय तैनात सुरक्षाबलों के मुखिया से मेरी मुलाकात माउंट आबू स्थित सीआरपीएफ प्रिशक्षण अकादमी में हुई थी। उन्होंने सीआरपीएफ की एक कार्यशाला में नक्शों की सहायता से यह समझाया था कि मस्जिद का विध्वंस कैसे रोका जा सकता था। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि वे कार्यवाही शुरू करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देशों का इंतजार करते रहे परंतु वहां से उन्हें तब तक कोई संदेश प्राप्त नहीं हुआ जब तक कि मस्जिद को पूरी तरह हा नहीं दिया गया। नरसिम्हाराव के कुछ नजदीकियों के अनुसार प्रधानमंत्री की यह इच्छा थी कि बाबरी मस्जिद हा दी जाए ताकि संघ परिवार के हाथों से एक बड़ा मुद्दा खिसक जाए। अगर ऐसा था भी, तो नरसिम्हाराव ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हजारों निर्दोर्षों को कत्ल करवा दिया। उस समय भारत फासीवाद की कगार पर पहुंच गया था।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि खुलओम गुंडागर्दी करने और एक ऐतिहासिक, संरक्षित स्मारक को गिराने वालों में से एक को भी कोई सजा नहीं मिली। जब धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक शक्तियों ने भाजपा को इस बर्बरता के लिए लताड़ा तो आडवानी ने इससे अपना पल्ला झाड़ते हुए यह कहा कि ॔॔वह उनके जीवन का सबसे दुःखद दिन था।॔॔ क्या आडवानी यह भूल गए कि वे राम मंदिर आंदोलन के प्रणेता और शीर्षतम नेता थे। उन्होंने ही देश भर में ॔रथयात्रा॔ निकाली थी जो कि द टाईम्स ऑफ इंडिया के अनुसार ॔ब्लड यात्रा॔ बन गई थी। यह यात्रा अपने पीछे खून की लकीरें छोड़ गई थी। हमेशा की तरह, राव सरकार ने बाबरी मस्जिद कांड की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग गठित कर दिया। इस आयोग ने, जिसका नाम लिब्रहान आयोग था, 16 साल से अधिक समय में अपनी रिपोर्ट तैयार की और जैसा कि अपेक्षित था, नरसिम्हाराव को क्लीन चिट दे दी। दरअसल, न्याययिक जांच आयोगों की नियुक्ति ही इसलिए की जाती है ताकि कोई त्वरित कार्यवाही न करनी पड़े। ये आयोग जांच पूरी करने में सालों और कभी कभी दशकों लगा देते हैं और जनता की गा़ी कमाई के दसियों लाख रूपये उन पर बर्बाद हो जाते हैं। इन आयोगों की नियुक्ति ही इसलिए की जाती है ताकि सरकारों को समय मिल जाए और दोषी बच निकलने में कामयाब हो जाएं।
सीबीआई अदालत भी बाबरी विध्वंस के लिए किसी की जिम्मेदारी तय करने मे विफल रही और एल. के. आडवानी (जिन्होंने रथयात्रा निकालकर देश भर में भावनाएं भड़काईं थीं), एम. एम. जोशी, विनय कटियार, कल्याण सिंह, उमा भारती आदि सभी खुलओम घूम रहे हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि उनके खिलाफ चश्मदीदों सहित ठोस सुबूत उपलब्ध हैं। सन 1999 में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन केन्द्र में सत्ता में आया। इस सरकार में आडवानी गृहमंत्री थे और सीबीआई उनके अधीनस्थ थी। ऐसे में सीबीआई अपने ही मंत्री के खिलाफ भला कैसे कार्यवाही कर सकती थी? सन 2004 में एनडीए की हार के बाद यूपीए की सरकार बनी और सीबीआई ने अयोध्या मामले में बरेली की अदालत में कार्यवाही आगे ब़ाई। परंतु अंततः इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला।
मुझे कभीकभी ऐसा लगता है कि सभी पार्टियों के बीच एक अलिखित समझौता होता है कि वे सत्ता में आने पर, एकदूसरे के नेताओं को कटघरे में खड़ा नहीं करेंगी और शायद इसी समझौते के चलते सभी पार्टियों के नेता बिना किसी डर के अपने राजनैतिक खेल खेलते रहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या अयोध्या में हुई मनमानी और गुंडागर्दी को कोई भी प्रजातांत्रिक राष्ट्र माफ कर देता? बल्कि, यदि राव सरकार प्रभावी कदम उठाती तो बाबरी कांड होता ही नहीं। तत्कालीन केन्द्र सरकार बहुत आसानी से आडवानी, जोशी, उमा भारती, कटियार आदि को विषवमन करने से रोक सकती थी। अंततः, जब मस्जिद गिरा ही दी गई थी तब भी दोषियों को सजा दिलवाकर हमारे देश के प्रजातंत्रिक मूल्यों की रक्षा की जा सकती थी। परंतु वह भी नहीं हुआ। इतना ही खेदजनक यह तथ्य है कि इलाहबाद उच्च न्यायालय ने सितम्बर 2010 के अपने निर्णय में उस जमीनजिस पर बाबरी मस्जिद थीको बांटने का हुक्म सुना दिया। अदालत ने इस संबंध में कुछ नहीं कहा कि उस जमीन का असली हकदार कौन है, जबकि मुकदमा इसी प्रश्न के समाधान के लिए दाखिल किया गया था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय में अपील लंबित है और हम आशा कर सकते हैें कि इस देश की सबसे बड़ी अदालत न्याय करेगी। उच्चतम न्यायालय जो भी निर्णय दे, उसे सभी पक्षकारों को सद्भावनापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। अब इस मुद्दे के हल का बस यही एक रास्ता बचा है।
अंगे्रजी की एक कहावत है ॔एवरी क्लाउड हेज ए सिल्वर लाईनिंग॔ (हर मुसीबत का एक उजला पक्ष होता है)। यह कहावत बाबरी विध्वंस के बारे में भी सही है। इस घटना के बाद मुसलमानों को यह एहसास हुआ कि उन्हें शिक्षा और आर्थिक विकास जैसी अपनी असली समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। संघ परिवार और उनके स्वयं के नेताओं ने मुसलमानों को एक भावनात्मक मुद्दे में जबरन फंसा दिया था जिसके कारण उनका ध्यान अपनी असली समस्याओं पर से हट गया था। इस एहसास से मुसलमानों का बहुत भला हुआ है। बाबरी कांड के बाद अनेक शैक्षणिक संस्थाएं अस्तित्व में आईं हैं और इनसे मुसलमानों को लाभ हुआ है।
दुर्भाग्यवश, शिक्षा मुफ्त नहीं मिलती। शिक्षा पाने के लिए पैसा खर्च करना होता है। मुसलमानों में कितनी गरीबी है, यह सच्चर समिति की रपट से जाहिर है। इस रपट में कहा गया है कि रोजगार और आर्थिक विकास की दृष्टि से मुसलमान दलितों से भी नीचे खिसक गए हैं। स्पष्टतः, निजीकरण और उदारीकरण के इस युग में, जब उच्च शिक्षा का खर्च बहुत ब़ गया है, गरीबी की समस्या को हल किए बगैर मुस्लिम समुदाय के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करना संभव नहीं है। इस मामले में सरकार को ही हस्तक्षेप करना होगा। परंतु यह भी आसान नहीं है क्योंकि मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व इतना सक्षम नहीं है कि वह सरकार को कुछ करने के लिए मजबूर कर सके और गैरमुस्लिम धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व में इस कार्य को करने की इच्छाशक्ति का नितांत अभाव है। हम केवल इंतजार कर सकते हैं और यह उम्मीद कि समय बदलेगा, हालात सुधरेंगे और हमारी दुनिया बेहतर बनेगी।
-डॉ. असगर अली इंजीनियर
2 टिप्पणियां:
बेहतर लेखन !!
MAHMOOD GAJNAVI K BARE ME KOI LEKH KYUN NAHI LIKHTE AAP.
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