सवर्ण तथा छूत जातियों से भिन्न दलित जातियों के प्रति घृणा , क्रोध व हिंसा के प्रदर्शन केवल उस घटना से सम्बन्धित व्यक्ति को ही निशाना नही बनाते , बल्कि समूची जाति समुदाय को उनकी बस्ती को अपना निशाना बना देते है |
7 नवम्बर के दिन तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले के नायक्कन्न कोटटाई गाँव में तीन दलित कालोनियों पर गैर दलित हिन्दू संभवत: उच्च जाति के हिन्दुओं की भीड़ द्वारा हमला बोल दिया गया |सूचनाओं के अनुसार इस हमले में 2000 लोगो की भीड़ ने 268 घरो को जला डाला | यह हमला मुख्यत: दलितों की नाथम कालोनी पर हुआ था | इसके बाद उससे लगी दलितों की अन्ना नगर कालोनी तथा कोडाम पट्टी की पूरानी तथा नई कालोनियों पर भी हमला हुआ | इन कालोनियों में झोपडिया , टाइल्स की छतो वाले घर तथा दो कमरों के कंक्रीट के बने घर भी थे | जिन्हें आग के हवाले कर दिया गया | हमलावरों ने आगजनी के साथ भारी तोड़ -- फोड़ भी की | इन कालोनियों में भागने से बच रहे लोगो ( संभवत: बूढ़े लोगो ) को मारा पीटा और घरो में लूट -- पाट की | उनके राशन कार्ड और भूमि सम्बन्धी आवश्यक कागज पत्र भी आग के हवाले कर दिए गये | हमले के समय इन कालोनियों के ज्यादातर पुरुष सदस्य काम धंधे के लिए कालोनी और गाँव से बाहर थे | कालोनी की तरफ बढती भारी भीड़ को देखकर औरते सब कुछ जस का तस छोड़कर बच्चो को लेकर खेतो में या फिर अपनी रिश्तेदारियो में jजान बचाकर भागी | इस हमले में 1500 दलितों की बस्ती , घर -- मकान की बर्बादी के साथ अपना सब कुछ गवा बैठी |
इस हमले का कारण था 23 वर्षीय दलित इलावरसान और 20 वर्षीय सवर्ण लड़की एन. दिव्या | इन दोनों ने आपसी सहमती से लगभग एक माह पहले मंदिर में शादी कर ली थी | शादी के बाद उन्होंने उस रेंज के डी. आई . जी से संरक्ष की मांग की और वे गाँव छोड़कर चले गये |
इस गाँव व क्षेत्र के गैर दलित या सवर्ण हिन्दुओं की बनी तथा कथित कंगारू कोर्ट ने लड़की के पिता को लड़की को हाजिर करने का आदेश दिया | लड़की को हाजिर करने में विफल रहे लड़की के पिता रंगराजन ने इस दबाव और समाज के व्यंग व आक्षेप के चलते आत्महत्या कर ली | इसी के बाद मृतक की जाति के हिन्दुओं के साथ अन्य सवर्ण हिन्दुओं ने कालोनी पर हमला बोल दिया |
यह किसी घटना को लेकर समूचे दलित समुदाय पर हमले की केवल एक घटना मात्र नही है , बल्कि समाज की जाति व्यवस्था में सबसे नीचे की दलित जाति के प्रति परिलक्षित होती घृणा है | उसका खुला एवं हिंसात्मक प्रदर्शन है | इसे हम सिर्फ तमिलनाडू की घटना मानकर छोड़ नही सकते है | कयोंकि दलित समुदाय को उच्च तथा मध्य या पिछड़ी जातियों द्वारा सामूहिक तौर पर प्रताड़ित किये जाने की घटनाए बार -- बार घटती रही है और इनके समाचार भी आते रहे है | दलितों के प्रति ऐसी घृणा व हिंसा का आवेग इस देश में पूरब से लेकर पश्चिम तथा उत्तर से लेकर दक्षिण तक फूटता रहता है |
सवर्ण तथा छूत जातियों से भिन्न दलित जातियों के प्रति घृणा , क्रोध व हिंसा के ऐसे प्रदर्शन केवल उस घटना से सम्बन्धित व्यक्ति को ही निशाना नही बनाते , बल्कि समूची जाति समुदाय को उनकी बस्ती को अपना निशाना बना देते है | जैसा कि तमिलनाडू के धर्मपुरी में हुआ और जैसा कि हमारे आस -- पास भी बहुत बार होता रहता है | दलितों के अलावा अन्य किसी जाति को इस तरह से निशाना नही बनाया जाता | सवाल है , ऐसा क्यों है ? कयोंकि वे समाज के सबसे निचले व कमजोर हिस्से है | केवल जाति व्यवस्था में ही नही बल्कि धन -- सम्पत्ति और शक्ति के माने भी | न केवल दलितों का समूचा हिस्सा सदियों से हिन्दू समाज का अगड़ी जातियों के साथ -- साथ पिछड़ी जातियों का भी सेवक या दास माना जाता रहा है | बल्कि उसके प्रति हिन्दू समाज में उपेक्षा या घृणा का भाव सदियों से चलता आ रहा है और वह आज भी खत्म नही हुआ है | फिर आधुनिक समाज में भी दलितों का व्यापक हिस्सा आज भी दिहाड़ी मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा है | उनकी इसी सामाजिक व आर्थिक स्थिति के चलते किसी घटना को लेकर उनके प्रति क्रोध व हिंसा का खुलेआम व व्यापक प्रदर्शन होता रहता है |
फिर मामला केवल तमिलनाडू या किसी अन्य जगह की घटना को जानने का ही नही है और न ही दलित जाति और साधारण मजदूरों के प्रति समाज में बैठी जातीय घृणा , विद्वेष या तुच्छता , उपेक्षा को केवल स्वीकार कर लेने का ही है | बल्कि उसके आगे या कहिये असली मामला दलितों के प्रति ऐसे दृष्टिकोण व मनोवृत्तियो को बदलने का है | इसके लिए सामाजिक प्रयास किये जाने चाहिए |
दलितों पर ( या किसी जाति धर्म के समुदाय पर ) किये जाने वाले हमलो को केवल शासन -- प्रशासन व पुलिस कानून की कार्यवाइयो के भरोसे नही छोड़ सकते | शासन -- प्रशासन अपना काम कितना करेगा और कितना नही और अन्तत: उसका क्या परिणाम आयेगा , इसे अब बताने की जरूरत नही रह गयी है | उसे सभी लोग जानते है | फिर यह झगड़ा जनसाधारण समाज का है | इसीलिए इसे घटाने -- मिटाने का प्रयास करना भी जनसाधारण समाज की सभी जातियों खासकर गैर -- दलित जाति के लोगो का सवर्ण जाति के लोगो का , जनतांत्रिक दायित्व बनता है | इस दायित्व को दलितों के प्रति ( या किसी जाति -- धर्म के लोगो के प्रति ) दया भावना से नही बल्कि उन्हें अपने समाज का अभिन्न अंग मानकर निभाया जाना चाहिए | यह दायित्व उनके साथ सदियों से हुए और आज भी हो रहे जातीय शोषण -- उत्पीडन अन्याय के विरुद्ध निभाया जाना चाहिए | इसी भावना से तमिलनाडू में ( या कही भी ) दलित लोगो पर हुए हमलो की निंदा आलोचना व विरोध करते हुए इसे खासकर गैर दलित जाति के लोगो द्वारा आम समाज में सुनाया व बताया भी जाना चाहिए | इस और ऐसी घटनाओं के प्रति निंदा व विरोध की मुखर अभिव्यक्ति जरुर की जानी चाहिए |
फिर इसी जनतांत्रिक भावना से ही समाज में विद्यमान जातीय व्यवस्था के प्रति जातीय लगाव व विरोध के प्रति खासकर जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे की दलित जातियों के प्रति सदियों पुराने दृष्टिकोण व मनोवृत्तियो में भी बदलाव का प्रयास जरूरी है | इस बात पर जरुर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसे बदलाव महज छुआछूत उन्मूलन के लिए सहभोज जैसे कभी कभार के कार्यक्रमों तथा आरक्षण के प्रावधानों आदि से दलित जाति ( या किसी जाति -- धर्म के ) एक छोटे हिस्से के धन सत्ता , पद -- प्रतिष्ठा की उंचाई तक पहुंचने मात्र से ही नही हो जायेंगे | बल्कि उसके लिए जनसाधारण समाज को आधुनिक युग की एकता , बराबरी व भाईचारे की भावनाओं के साथ आंदोलित करना आवश्यक है |
जनसाधारण समाज द्वारा यह प्रयास इसलिए भी आवश्यक है कि अब ऊपरी हिस्सों द्वारा --- शासकीय -- प्रशासकीय तथा उच्च स्तरीय एवं बौद्धिक हिस्सों द्वारा यहाँ तक कि उच्च स्तरीय दलित जाति ( या अन्य जाति धर्म ) के बौद्धिक हिस्सों द्वारा भी इस जातीय दृष्टिकोण को बदलने तथा जाति व्यवस्था को घटाने -- मिटाने का कोई गंम्भीर व निरन्तरचलने वाला प्रयास नही किया जा रहा है | उसकी जगह वर्तमान दौर की जातिवादी राजनीति के जरिये विभिन्न जातियों में अलगाव -- दुराव , झगड़े -- विवाद बढाने और उनमे परस्पर विरोधी राजनितिक , सामाजिक गोलबंदियो को खड़ा करने का प्रयास जरुर किया जाता रहा है | फिर उसके इस्तेमाल से धन -- सत्ता , पद -- प्रतिष्ठा की उंचाइयो पर चढ़ने का प्रयास सभी धर्म जाति इलाका के धनाढ्य एवं उच्च वर्गो तथा माध्यम व्र्गियो के एक हिस्से द्वारा किया जा रहा है | समाज में जातीय दूरी दुराव को खत्म करने वाले सुधार बदलाव का यह प्रयास इसलिए और किया जाना चाहिए कि यह युग विभिन्न धर्म जाति से बनी समाज व्यवस्था का सदियों पुराना युग नही है |
यह वह युग है , जब लोगो के जातीय पेशे टूट रहे है | एक पेशे से दूसरे पेशे में जाने का काम लगातार होता -- बढ़ता जा रहा है | पहले के सामाजिक एवं जातीय सम्बन्ध बदलते जा रहे है | फलस्वरूप दलितों को या अन्य किसी जाति के लोगो को आधुनिक युग के बदलते सामाजिक संबंधो , पहचानो के दृष्टिकोण से ही देखा व समझा जाना चाहिए |
ऐसे दृष्टिकोण व मनोवृत्तियो के बदलाव को समाज में बढावा दिया जाना चाहिए | दलितों के प्रति बदले हुए दृष्टिकोणों के साथ ही हम उन पर हो रहे हमलो के साथ ही हम उन पर हो रहे हमलो को रोक सकते है जातीय अन्तरभेदों तथा जातीय व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म करने के लक्ष्य से आगे बढ़ सकते है | वर्तमान युग में यह हमारा जनतांत्रिक कार्यभार है | सामाजिक जनतंत्र की अनिवार्य आवश्यकता है |
-सुनील दत्ता ..........पत्रकार
1 टिप्पणी:
जारी रहिये, बधाई !!
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