साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने 'वर्तमान भारतीय सभ्यता व उसकी असंतुष्टताएँ’’ विषय पर पुड्डूचेरी (पूर्व नाम पांडिचेरी) में दोदिवसीय सेमीनार आयोजित किया था। पुड्डुचेरी, महर्षि अरविन्दो के आश्रम और अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जानी जाती है। सेमीनार में प्रस्तुत अवधारणापत्र में आयोजकों प्रोफेसर आलोक भल्ला व किशोर संत ने सेमीनार के विषय को फ्रायड की पुस्तक 'माडर्न सिविलाईजेशन एंड इट्स डिस्कंटेंट्स’’ (आधुनिक सभ्यता और उसकी असंतुष्टताएँ) से प्रेरित बताया।
चूँकि फ्रायड 'साईकोएनालिस्ट’ (मनोविश्लेषक) थे इसलिए सेमीनार में अनेक मनोविश्लेषकों को आमंत्रित किया गया था। इनमें शामिल थे सुधीर कक्कड़, जिन्होंने मुख्य शोधपत्र प्रस्तुत किया। मनोविश्लेषकों, मनोवैज्ञानिकों व शिक्षाविदों के अतिरिक्त, सेमीनार में लेखकों व समाजविश्लेषकों को भी आमंत्रित किया गया था। मैं भी मुख्य वक्ताओं में से एक था।
इस लेख का उद्देश्य, सेमीनार की कार्यवाही का विवरण देना नहीं है और ना ही यह बताना है कि वहाँ किसने क्या कहा। इतना कहना पर्याप्त होगा कि सेमीनार काफी विचारोत्तजक था और वहाँ हुए विचारों के आदानप्रदान से सभी प्रतिभागी संतुष्ट व प्रसन्न थे। सेमीनार के संयोजक, प्रतिभागियों व शोधपत्रों के विषयों के चुनाव के लिए बधाई के पात्र हैं। मैं यहाँ असंतुष्टताओं की प्रकृति व उनके कारणों का विश्लेषण करना चाहूंगा।
मैंने सेमीनार में प्रस्तुत अपने शोधपत्र में कहा कि असंतुष्टताओं के मुख्यतः दो स्त्रोत होते हैं। पहला पशुवत सहजवृत्ति, जिसका सभ्य समाज में हमें दमन और परिष्कार करना होता है और दूसराआनंदप्राप्ति की इच्छा या उपभोक्तावाद। आखिर सभ्यता है क्या? सभ्यता है उन पशुवत सहजवृत्तियों पर नियंत्रण पाने का प्रयास, जो हमें पशु से मनुष्य बनने की प्रक्रिया में विरासत में प्राप्त हुई हैं। ये सहजवृत्तियाँ हैं आक्रामकता, क्रोध, सेक्स, लोभ व लालच। नि:संदेह फ्रायड ने सबसे अधिक महत्व सेक्स को दिया और उनके अनुसार, सेक्स की सहजवृत्ति का दमन करने से विभिन्न तरह के 'न्यूरोसिस’ (विक्षिप्तताएं) उत्पन्न होती हैं।
हम इस विषय पर समकालीन भारतीय सभ्यता के संदर्भ में चर्चा करेंगें, जिसकी निरंतर विकसित व विस्तारित हो रही उदार, वैश्विक अर्थव्यवस्था है। उपभोक्तावाद इस अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है। और यही उपभोक्तावाद, असंतुष्टताओं का प्रमुख स्त्रोत है। यहाँ उपभोक्तावाद से मेरा आशय, लोभ लालच की मानवीय प्रवृत्तियों से है।
गाँधीजी का कहना था कि किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास की असली कसौटी यह है कि उस विकास से सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति के जीवन पर क्या असर पड़ रहा है। परंतु हम तो महात्माओं का पूजन करने में विश्वास रखते हैं, उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने में नहीं। अगर हम अपने महात्माओं की सीखों को गंभीरता से लेते होते तो क्या हम अपनी लिप्सा पर नियंत्रण नहीं पा लेते? क्या हम अपनी असंतुष्टताओं को घटा नही लेते?
आज उपभोक्तावाद हमारी असंतुष्टताओं का मुख्य स्त्रोत बन गया है। हम इसे उपभोक्तावाद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी जरूरी व असली आवश्यकताओं पर आधारित नहीं है। इसका आधार है हमारी कृत्रिम जरूरतें, जो कि आकर्षक विज्ञापनों से उपजती हैं। गाँधीजी इसी के खिलाफ थे। उनकी मान्यता थी कि अर्थव्यवस्था, आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए, लिप्सा पर नहीं। लिप्साआधारित अर्थव्यवस्था जन्म देती है असंतुष्टों को और असंतुष्टों की ब़ती संख्या से अंततः उपजती है हिंसा।
यहाँ मैं असंतुष्टताओं के मनोवैज्ञानिक कारणों की विवेचना नहीं करना चाहता। मैं केवल असंतुष्टताओं के भौतिक पक्ष तक स्वयं को सीमित रखना चाहूंगा, जो कि हमारे समाज में हिंसा की जनक बनती हैं। सांप्रदायिक हिंसा इसी का एक विशिष्ट स्वरूप है। मध्यकालीन भारत में सांप्रदायिक हिंसा का नामोनिशान नहीं था परंतु आधुनिक, समकालीन समाज में यह एक नासूर बन गई है। पिछली सदी में यूरोप ने एक फासीवादी (मुसोलिनी) व एक नाजीवादी (हिटलर) को जन्म दिया। उनके समकालीनों ने पहले उनका महिमामंडन किया और बाद में कटु निंदा।
हमारे भारत में ऐसे कई नेता हैं जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू व मुसलमानके बीच नफरत पैदा कर सत्ता पाना चाहते हैं। मध्यकाल में जब हम 'दकियानूसी॔' थे, 'आधुनिक' नहीं, तब हमारे देश में अनेक महान धार्मिक चिन्तक हुए। इनमें शामिल हैं अबुल फजल, फैज़ी, अकबर, दाराशिकोह, बाबा फरीद, निजामुद्दीन औलिया और मोइनउद्दीन चिश्ती। इन सभी ने दोनों धर्मों के बीच प्रेम और सद्भाव के सेतु बनाये और उन्हें दोनों समुदायों के लोगों का सम्मान प्राप्त हुआ।
यह महत्वपूर्ण है कि यद्यपि मध्यकाल में सम्प्रदाय के आधार पर हिंसा नहीं होती थी तथापि सत्ता पाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाना आम था। सांप्रदायिक इतिहासविद चाहे जो कहें, परन्तु सच यही है कि मध्यकाल में हिंसा के पीछे साम्प्रदायिकता नहीं वरन गद्दी पर काबिज होने का संघर्ष होता था। शासक वर्ग में भाई, भाई को मार देता था और पिता को अपने पुत्र का कत्ल करने में जरा भी संकोच नहीं होता था।
अब हमारे देश में प्रजांतात्रिक व्यवस्था है। सत्ता पाने के लिए सभी को चुनाव की राह पर चलना होता है और यह दावा भी किया जाता है कि सत्ता का उद्देश्य लोगों की सेवा करना और उनकी समस्याओं को सुलझाना है। परन्तु यह सिर्फ एक परदा है। असल में सत्ता पाने के लिए धर्म, जाति, भाषा व नस्ल जैसे संकीर्ण मुद्दों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है। धर्म का बेजा इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है क्योंकि भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय, धार्मिक है। जिस तरह से पूँजीपति विज्ञापन का इस्तेमाल कर हममें असन्तुष्टता का भाव उत्पन्न करते हैं और हमें उन चीजों को खरीदने के लिए बाध्य करते हैं जिनकी असल में हमें कोई जरूरत ही नहीं है : उसी तरह साम्प्रदायिक राजनेता, धर्म का इस्तेमाल उस घृणा को भड़काने के लिए करते हैं, जिसका असल में कोई अस्तित्व ही नहीं होता। जिस तरह पूँजीपति विज्ञापन के बल पर कृत्रिम आवश्यकताएं पैदा कर धन कमाते हैं उसी तरह राजनेता, कृत्रिम घृणा पैदा कर सत्ता हासिल करते हैं। जिस तरह पूँजीपति अपने उत्पाद बेचने के लिए हर तरह के झूठे दावों और आकर्षक विज्ञापनों का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह राजनेता, धर्म और जाति के मुद्दों पर झूठे दावों और आकर्षक वायदों के जरिए सम्मान और सत्ता पाते हैं।
इस तरह के राजनेताओं का उदाहरण हैं श्री बाल ठाकरे और श्री नरेन्द्र मोदी। दोनों ने अत्यंत भड़काऊ धार्मिक दुष्प्रचार का इस्तेमाल कर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की खाई खोदी और अपनेअपने राज्यों में निर्दोषों का खून बहाया।
महाराष्ट्र और गुजरात में दंगों में हजारों मासूमों ने अपनी जानें गवाईं परन्तु इन साम्प्रदायिक व क्षेत्रीय नेताओं का, जो इस खूनखराबे के लिए जिम्मेदार थे, कुछ नहीं बिगड़ा। उलटे, उन्हें सम्मान और सत्ता दोनों हासिल हुए। यह सचमुच विडम्बनापूर्ण है कि हमारे राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग उनका प्रशंसक बन गया। यह इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने खुल्लमखुल्ला हमारे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया। उन्हें कोई सजा तो मिली ही नहीं बल्कि उन्हें राष्ट्रनायक और ना जाने क्याक्या कहा जाने लगा।
हाल में श्री ठाकरे की मृत्यु के बाद उनकी शवयात्रा में लाखों लोग शामिल हुए। इनमें चोटी के बॉलीवुड फिल्मस्टार, उद्योग जगत की जानीमानी हस्तियां और कई प्रमुख राजनेता शामिल थे। श्री ठाकरे को ऐसी श्रद्घांजलि दी गई मानो देश ने कोई महान नेता खो दिया हो। क्या हम सचमुच सभ्य हैं? हम सब को यह प्रश्न अपने आप से करना चाहिए। बाल ठाकरे जैसे नेताओं ने देश में कितना असंतोष, कितना दुःख फैलाया था। यही बात नरेन्द्र मोदी के बारे में भी सही है, जिन्हें उनकी पार्टी और उद्योगपतियों का एक तबका प्रधानमंत्री पद का दावेदार बता रहा है।
इस सबसे से उन लाखों लोगों के दिल कितने दुखे होंगे जिन्हें इन नेताओं के कारण अपने घरगाँव छोड़ने पड़े और जिनके प्रियजन हमेशा के लिये उनसे बिछुड़ गये। असली सभ्य व्यक्ति वह होता है जो दूसरों की दुःख तकलीफों के प्रति संवेदनशील हो। सच्ची सभ्यता वह होती है जो प्रेम, न्याय व सहृदयता जैसे मानवीय मूल्यों ंपर आधारित हो। यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ता की अपनी कभी न पूरी होने वाली लिप्सा की खातिर, जिन लोगों ने हमारे समाज में घोर असंतुष्टताएँ पैदा कीं, उन्हें ही आज देश के सभ्य नेता और भविष्य के प्रधानमंत्री जैसी उपाधियों से नवाजा जा रहा है।
वे कितने सभ्य थे, यह हमें उनकी कथनी नहीं बल्कि उनकी करनी से आँकना चाहिये। बाल ठाकरे और नरेन्द्र मोदी उस सभ्यता के प्रतिनिधि हैं जो अधिकतम असंतुष्टताएँ पैदा करती है। यह नतीजा होता है सत्ता के प्रति प्रेम का। एक सच्ची सभ्यता में सत्ता के प्रति प्रेम नहीं होता वरन प्रेम की सत्ता होती है। आप सत्ता से जितना अधिक प्रेम करेंगे, उतने ही अधिक लोगों को आप असंतुष्ट बनायेंगे। आप प्रेम की सत्ता का जितना अधिक इस्तेमाल करेंगे, उतने ही अधिक लोगों को आप संतुष्टि देंगे।
फ्रायड के अनुसार, मूल मानवीय सहजवृत्तियों का दमन करने से ॔॔न्यूरोसिस’’ (विक्षिप्तताएँ) उपजती हैं। फ्रायड का मानना है कि दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो ॔न्यूरोसिस॔ से पूर्णतः मुक्त हो। अंतर सिर्फ न्यूरोसिस की गंभीरता का होता है। जैसा कि हम सब जानते हैं, फ्रायड का जोर सेक्स की सहजवृत्ति के दमन और उसके परिणामों पर था। फ्रायड के सेक्स संबंधी सिद्घांत चाहे सही हों या गलत, मैं जिन व्यक्तियों की बात कर रहा हूं वे सत्ता के प्रति मोह से इतने अधिक ग्रस्त रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ से फिसलने के बाद वे अपना आपा खो बैठते हैं। वे जहर उगलने लगते हैं। उनका अपनी जुबान पर नियंत्रण नहीं रह जाता। वे साम्प्रदायिक घृणा फैलाते हैं। और इस सबका कारण है उनकी यह मान्यता कि राजनैतिक सत्ता उनकी बपौती है। कई बार इस तरह के व्यक्ति्तवों का दारूण अंत भी होता है।
मोदी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। सन 2002 के चुनावों के पूर्व उन्हें यह आशंका थी कि वे सत्ता खो सकते हैं व इसलिए उन्होंने इस सदी के अब तक के सबसे भयावह साम्प्रदायिक जुनून को हवा दी और दिसम्बर 2002 में सत्ता पाने में सफल हो गए। इस जुनून ने हजारों लोगों की जानें लीं और लाखों लोग अपने घरबार खो बैठे। कई स्थानों पर एक साथ दफनाए गए लोगों की कब्रें मिलीं। एक गर्भवती महिला का पेट फाड़कर उसके गर्भस्थ शिशु तक की हत्या कर दी गई।
क्या सत्ता हासिल करने के लिए इस तरह का पागलपन किसी को भी संतुष्टि दे सकता है? क्या यह भी एक तरह का न्यूरोसिस नहीं है, सत्ता की लिप्सा का न्यूरोसिस। फ्रायड का जोर व्यक्तियों में उपजने वाले न्यूरोसिस पर था, जिसका खामियाजा केवल संबंधित व्यक्ति या अधिक से अधिक उसके परिजन भुगतते हैं। परंतु बाल ठाकरे और मोदी जैसे लोग सामूहिक न्यूरोसिस पैदा करते हैं। इससे होने वाला नुकसान कहीं अधिक व्यापक होता है। इससे भी बुरी बात यह है कि वोट की राजनीति की खातिर, धर्मनिरपेक्ष राज्य भी ऐसे व्यक्तियों को सम्मान देने पर मजबूर हो जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ॔॔धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस॔॔ की महाराष्ट्र सरकार ने बाल ठाकरे की अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ करने का निर्णय लिया।
कुल मिलाकर, आधुनिक सभ्यता पूरी दुनिया में असंतुष्टताओं को जन्म दे रही है। सत्ता और संपदा की अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए शासक वर्ग आम लोगों में अधिकतम असंतुष्टताएं उत्पन्न कर रहा है। वे जितनी असंतुष्टताएं फैलाते जाते हैं उनकी ताकत उतनी ही ब़ती जाती है। अमेरिका आज अगर विश्व शक्ति है तो इसका कारण यह नहीं है कि वह दुनिया का सबसे मानवीय देश है या महानतम प्रजातंत्र है बल्कि यह है कि उसके पास हथियारों का इतना बड़ा जखीरा है कि वह उन सबको नेस्तोनाबूद करने में सक्षम है जो उसकी सत्ता को चुनौती देने का साहस दिखाते हैं।
-डॉ. असगर अली इंजीनियर
चूँकि फ्रायड 'साईकोएनालिस्ट’ (मनोविश्लेषक) थे इसलिए सेमीनार में अनेक मनोविश्लेषकों को आमंत्रित किया गया था। इनमें शामिल थे सुधीर कक्कड़, जिन्होंने मुख्य शोधपत्र प्रस्तुत किया। मनोविश्लेषकों, मनोवैज्ञानिकों व शिक्षाविदों के अतिरिक्त, सेमीनार में लेखकों व समाजविश्लेषकों को भी आमंत्रित किया गया था। मैं भी मुख्य वक्ताओं में से एक था।
इस लेख का उद्देश्य, सेमीनार की कार्यवाही का विवरण देना नहीं है और ना ही यह बताना है कि वहाँ किसने क्या कहा। इतना कहना पर्याप्त होगा कि सेमीनार काफी विचारोत्तजक था और वहाँ हुए विचारों के आदानप्रदान से सभी प्रतिभागी संतुष्ट व प्रसन्न थे। सेमीनार के संयोजक, प्रतिभागियों व शोधपत्रों के विषयों के चुनाव के लिए बधाई के पात्र हैं। मैं यहाँ असंतुष्टताओं की प्रकृति व उनके कारणों का विश्लेषण करना चाहूंगा।
मैंने सेमीनार में प्रस्तुत अपने शोधपत्र में कहा कि असंतुष्टताओं के मुख्यतः दो स्त्रोत होते हैं। पहला पशुवत सहजवृत्ति, जिसका सभ्य समाज में हमें दमन और परिष्कार करना होता है और दूसराआनंदप्राप्ति की इच्छा या उपभोक्तावाद। आखिर सभ्यता है क्या? सभ्यता है उन पशुवत सहजवृत्तियों पर नियंत्रण पाने का प्रयास, जो हमें पशु से मनुष्य बनने की प्रक्रिया में विरासत में प्राप्त हुई हैं। ये सहजवृत्तियाँ हैं आक्रामकता, क्रोध, सेक्स, लोभ व लालच। नि:संदेह फ्रायड ने सबसे अधिक महत्व सेक्स को दिया और उनके अनुसार, सेक्स की सहजवृत्ति का दमन करने से विभिन्न तरह के 'न्यूरोसिस’ (विक्षिप्तताएं) उत्पन्न होती हैं।
हम इस विषय पर समकालीन भारतीय सभ्यता के संदर्भ में चर्चा करेंगें, जिसकी निरंतर विकसित व विस्तारित हो रही उदार, वैश्विक अर्थव्यवस्था है। उपभोक्तावाद इस अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है। और यही उपभोक्तावाद, असंतुष्टताओं का प्रमुख स्त्रोत है। यहाँ उपभोक्तावाद से मेरा आशय, लोभ लालच की मानवीय प्रवृत्तियों से है।
गाँधीजी का कहना था कि किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास की असली कसौटी यह है कि उस विकास से सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति के जीवन पर क्या असर पड़ रहा है। परंतु हम तो महात्माओं का पूजन करने में विश्वास रखते हैं, उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने में नहीं। अगर हम अपने महात्माओं की सीखों को गंभीरता से लेते होते तो क्या हम अपनी लिप्सा पर नियंत्रण नहीं पा लेते? क्या हम अपनी असंतुष्टताओं को घटा नही लेते?
आज उपभोक्तावाद हमारी असंतुष्टताओं का मुख्य स्त्रोत बन गया है। हम इसे उपभोक्तावाद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी जरूरी व असली आवश्यकताओं पर आधारित नहीं है। इसका आधार है हमारी कृत्रिम जरूरतें, जो कि आकर्षक विज्ञापनों से उपजती हैं। गाँधीजी इसी के खिलाफ थे। उनकी मान्यता थी कि अर्थव्यवस्था, आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए, लिप्सा पर नहीं। लिप्साआधारित अर्थव्यवस्था जन्म देती है असंतुष्टों को और असंतुष्टों की ब़ती संख्या से अंततः उपजती है हिंसा।
यहाँ मैं असंतुष्टताओं के मनोवैज्ञानिक कारणों की विवेचना नहीं करना चाहता। मैं केवल असंतुष्टताओं के भौतिक पक्ष तक स्वयं को सीमित रखना चाहूंगा, जो कि हमारे समाज में हिंसा की जनक बनती हैं। सांप्रदायिक हिंसा इसी का एक विशिष्ट स्वरूप है। मध्यकालीन भारत में सांप्रदायिक हिंसा का नामोनिशान नहीं था परंतु आधुनिक, समकालीन समाज में यह एक नासूर बन गई है। पिछली सदी में यूरोप ने एक फासीवादी (मुसोलिनी) व एक नाजीवादी (हिटलर) को जन्म दिया। उनके समकालीनों ने पहले उनका महिमामंडन किया और बाद में कटु निंदा।
हमारे भारत में ऐसे कई नेता हैं जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू व मुसलमानके बीच नफरत पैदा कर सत्ता पाना चाहते हैं। मध्यकाल में जब हम 'दकियानूसी॔' थे, 'आधुनिक' नहीं, तब हमारे देश में अनेक महान धार्मिक चिन्तक हुए। इनमें शामिल हैं अबुल फजल, फैज़ी, अकबर, दाराशिकोह, बाबा फरीद, निजामुद्दीन औलिया और मोइनउद्दीन चिश्ती। इन सभी ने दोनों धर्मों के बीच प्रेम और सद्भाव के सेतु बनाये और उन्हें दोनों समुदायों के लोगों का सम्मान प्राप्त हुआ।
यह महत्वपूर्ण है कि यद्यपि मध्यकाल में सम्प्रदाय के आधार पर हिंसा नहीं होती थी तथापि सत्ता पाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाना आम था। सांप्रदायिक इतिहासविद चाहे जो कहें, परन्तु सच यही है कि मध्यकाल में हिंसा के पीछे साम्प्रदायिकता नहीं वरन गद्दी पर काबिज होने का संघर्ष होता था। शासक वर्ग में भाई, भाई को मार देता था और पिता को अपने पुत्र का कत्ल करने में जरा भी संकोच नहीं होता था।
अब हमारे देश में प्रजांतात्रिक व्यवस्था है। सत्ता पाने के लिए सभी को चुनाव की राह पर चलना होता है और यह दावा भी किया जाता है कि सत्ता का उद्देश्य लोगों की सेवा करना और उनकी समस्याओं को सुलझाना है। परन्तु यह सिर्फ एक परदा है। असल में सत्ता पाने के लिए धर्म, जाति, भाषा व नस्ल जैसे संकीर्ण मुद्दों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है। धर्म का बेजा इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है क्योंकि भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय, धार्मिक है। जिस तरह से पूँजीपति विज्ञापन का इस्तेमाल कर हममें असन्तुष्टता का भाव उत्पन्न करते हैं और हमें उन चीजों को खरीदने के लिए बाध्य करते हैं जिनकी असल में हमें कोई जरूरत ही नहीं है : उसी तरह साम्प्रदायिक राजनेता, धर्म का इस्तेमाल उस घृणा को भड़काने के लिए करते हैं, जिसका असल में कोई अस्तित्व ही नहीं होता। जिस तरह पूँजीपति विज्ञापन के बल पर कृत्रिम आवश्यकताएं पैदा कर धन कमाते हैं उसी तरह राजनेता, कृत्रिम घृणा पैदा कर सत्ता हासिल करते हैं। जिस तरह पूँजीपति अपने उत्पाद बेचने के लिए हर तरह के झूठे दावों और आकर्षक विज्ञापनों का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह राजनेता, धर्म और जाति के मुद्दों पर झूठे दावों और आकर्षक वायदों के जरिए सम्मान और सत्ता पाते हैं।
इस तरह के राजनेताओं का उदाहरण हैं श्री बाल ठाकरे और श्री नरेन्द्र मोदी। दोनों ने अत्यंत भड़काऊ धार्मिक दुष्प्रचार का इस्तेमाल कर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की खाई खोदी और अपनेअपने राज्यों में निर्दोषों का खून बहाया।
महाराष्ट्र और गुजरात में दंगों में हजारों मासूमों ने अपनी जानें गवाईं परन्तु इन साम्प्रदायिक व क्षेत्रीय नेताओं का, जो इस खूनखराबे के लिए जिम्मेदार थे, कुछ नहीं बिगड़ा। उलटे, उन्हें सम्मान और सत्ता दोनों हासिल हुए। यह सचमुच विडम्बनापूर्ण है कि हमारे राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग उनका प्रशंसक बन गया। यह इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने खुल्लमखुल्ला हमारे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया। उन्हें कोई सजा तो मिली ही नहीं बल्कि उन्हें राष्ट्रनायक और ना जाने क्याक्या कहा जाने लगा।
हाल में श्री ठाकरे की मृत्यु के बाद उनकी शवयात्रा में लाखों लोग शामिल हुए। इनमें चोटी के बॉलीवुड फिल्मस्टार, उद्योग जगत की जानीमानी हस्तियां और कई प्रमुख राजनेता शामिल थे। श्री ठाकरे को ऐसी श्रद्घांजलि दी गई मानो देश ने कोई महान नेता खो दिया हो। क्या हम सचमुच सभ्य हैं? हम सब को यह प्रश्न अपने आप से करना चाहिए। बाल ठाकरे जैसे नेताओं ने देश में कितना असंतोष, कितना दुःख फैलाया था। यही बात नरेन्द्र मोदी के बारे में भी सही है, जिन्हें उनकी पार्टी और उद्योगपतियों का एक तबका प्रधानमंत्री पद का दावेदार बता रहा है।
इस सबसे से उन लाखों लोगों के दिल कितने दुखे होंगे जिन्हें इन नेताओं के कारण अपने घरगाँव छोड़ने पड़े और जिनके प्रियजन हमेशा के लिये उनसे बिछुड़ गये। असली सभ्य व्यक्ति वह होता है जो दूसरों की दुःख तकलीफों के प्रति संवेदनशील हो। सच्ची सभ्यता वह होती है जो प्रेम, न्याय व सहृदयता जैसे मानवीय मूल्यों ंपर आधारित हो। यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ता की अपनी कभी न पूरी होने वाली लिप्सा की खातिर, जिन लोगों ने हमारे समाज में घोर असंतुष्टताएँ पैदा कीं, उन्हें ही आज देश के सभ्य नेता और भविष्य के प्रधानमंत्री जैसी उपाधियों से नवाजा जा रहा है।
वे कितने सभ्य थे, यह हमें उनकी कथनी नहीं बल्कि उनकी करनी से आँकना चाहिये। बाल ठाकरे और नरेन्द्र मोदी उस सभ्यता के प्रतिनिधि हैं जो अधिकतम असंतुष्टताएँ पैदा करती है। यह नतीजा होता है सत्ता के प्रति प्रेम का। एक सच्ची सभ्यता में सत्ता के प्रति प्रेम नहीं होता वरन प्रेम की सत्ता होती है। आप सत्ता से जितना अधिक प्रेम करेंगे, उतने ही अधिक लोगों को आप असंतुष्ट बनायेंगे। आप प्रेम की सत्ता का जितना अधिक इस्तेमाल करेंगे, उतने ही अधिक लोगों को आप संतुष्टि देंगे।
फ्रायड के अनुसार, मूल मानवीय सहजवृत्तियों का दमन करने से ॔॔न्यूरोसिस’’ (विक्षिप्तताएँ) उपजती हैं। फ्रायड का मानना है कि दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो ॔न्यूरोसिस॔ से पूर्णतः मुक्त हो। अंतर सिर्फ न्यूरोसिस की गंभीरता का होता है। जैसा कि हम सब जानते हैं, फ्रायड का जोर सेक्स की सहजवृत्ति के दमन और उसके परिणामों पर था। फ्रायड के सेक्स संबंधी सिद्घांत चाहे सही हों या गलत, मैं जिन व्यक्तियों की बात कर रहा हूं वे सत्ता के प्रति मोह से इतने अधिक ग्रस्त रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ से फिसलने के बाद वे अपना आपा खो बैठते हैं। वे जहर उगलने लगते हैं। उनका अपनी जुबान पर नियंत्रण नहीं रह जाता। वे साम्प्रदायिक घृणा फैलाते हैं। और इस सबका कारण है उनकी यह मान्यता कि राजनैतिक सत्ता उनकी बपौती है। कई बार इस तरह के व्यक्ति्तवों का दारूण अंत भी होता है।
मोदी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। सन 2002 के चुनावों के पूर्व उन्हें यह आशंका थी कि वे सत्ता खो सकते हैं व इसलिए उन्होंने इस सदी के अब तक के सबसे भयावह साम्प्रदायिक जुनून को हवा दी और दिसम्बर 2002 में सत्ता पाने में सफल हो गए। इस जुनून ने हजारों लोगों की जानें लीं और लाखों लोग अपने घरबार खो बैठे। कई स्थानों पर एक साथ दफनाए गए लोगों की कब्रें मिलीं। एक गर्भवती महिला का पेट फाड़कर उसके गर्भस्थ शिशु तक की हत्या कर दी गई।
क्या सत्ता हासिल करने के लिए इस तरह का पागलपन किसी को भी संतुष्टि दे सकता है? क्या यह भी एक तरह का न्यूरोसिस नहीं है, सत्ता की लिप्सा का न्यूरोसिस। फ्रायड का जोर व्यक्तियों में उपजने वाले न्यूरोसिस पर था, जिसका खामियाजा केवल संबंधित व्यक्ति या अधिक से अधिक उसके परिजन भुगतते हैं। परंतु बाल ठाकरे और मोदी जैसे लोग सामूहिक न्यूरोसिस पैदा करते हैं। इससे होने वाला नुकसान कहीं अधिक व्यापक होता है। इससे भी बुरी बात यह है कि वोट की राजनीति की खातिर, धर्मनिरपेक्ष राज्य भी ऐसे व्यक्तियों को सम्मान देने पर मजबूर हो जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ॔॔धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस॔॔ की महाराष्ट्र सरकार ने बाल ठाकरे की अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ करने का निर्णय लिया।
कुल मिलाकर, आधुनिक सभ्यता पूरी दुनिया में असंतुष्टताओं को जन्म दे रही है। सत्ता और संपदा की अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए शासक वर्ग आम लोगों में अधिकतम असंतुष्टताएं उत्पन्न कर रहा है। वे जितनी असंतुष्टताएं फैलाते जाते हैं उनकी ताकत उतनी ही ब़ती जाती है। अमेरिका आज अगर विश्व शक्ति है तो इसका कारण यह नहीं है कि वह दुनिया का सबसे मानवीय देश है या महानतम प्रजातंत्र है बल्कि यह है कि उसके पास हथियारों का इतना बड़ा जखीरा है कि वह उन सबको नेस्तोनाबूद करने में सक्षम है जो उसकी सत्ता को चुनौती देने का साहस दिखाते हैं।
-डॉ. असगर अली इंजीनियर
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