(
कसाब की फांसी के बाद, अफ़ज़ल को भी जल्दी ही फांसी की मांग उठाए जाने की
पृष्ठभूमि में यह आलेख पढ़ने को मिला. 13 दिसम्बर, संसद पर हमले की तारीख़
की आमद के मद्देनज़र अरुंधति रॉय के इस आलेख को गंभीरता से पढ़ा जाना और आम
किया जाना और भी मौज़ूं हो उठता है. हिंदी में यह अभी नेट पर उपलब्ध नहीं
है, इसीलिए इसे यहां प्रस्तुत करना आवश्यक लग रहा है. आलेख लंबा है अतः
व्यक्तिगत टाइपिंग की सीमाओं के बरअक्स यह कुछ भागों में प्रस्तुत किया
जाएगा.
अरुंधति आलेख के अंत में कहती हैं, ‘यह
जाने बग़ैर कि दरअसल क्या हुआ था, अफ़ज़ल को फांसी पर चढ़ाना ऐसा दुष्कर्म
होगा जो आसानी से भुलाया नहीं जा पायेगा। न माफ़ किया जा सकेगा। किया भी
नहीं जाना चाहिए।’ इसी परिप्रेक्ष्य में अफ़ज़ल की कहानी और भारतीय संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान से बावस्ता होने का जिगर टटोलिए. )
और उसकी ज़िंदगी का चिराग़ बुझना ही चाहिए
भारतीय संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान ( चौथा भाग )
०अरुंधति रॉय ( अनुवाद – जितेन्द्र कुमार )
( तीसरे भाग से लगातार…) त्वरित-सुनवाई अदालत में कार्रवाई मई, 2002 में शुरू हुई। हमें उस माहौल को नहीं भूलना चाहिए जिसमें मुक़दमा शुरू हुआ।
9/11 हमले से उपजा उन्माद अभी बरक़रार था। अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में अपनी
जीत की ख़ुशी मना रहा था। गुजरात साम्प्रदायिक आक्रोश में कांप रहा था। कुछ
महीने पहले ही साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे नम्बर एस-6 को आग लगा दी गयी
थी और उसके भीतर मौजूद 58 हिंदू तीर्थयात्री ज़िंदा जल गये थे। ‘प्रतिशोध’
में किये गये सुनियोजित जनसंहार में 2000 से ज़्यादा मुसलमानों की सरेआम
बर्बर हत्या कर दी गयी थी और डेढ़ लाख से ज़्यादा मुसलमानों को उनके घर से
भगा दिया था।
अफ़ज़ल के लिए हर वो चीज़ जो ग़लत हो सकती थी, ग़लत हुई।
उसे उच्च सुरक्षा वाली जेल के सुपुर्द कर दिया गया। बाहरी दुनिया तक उसकी
कोई पहुंच नहीं थी और न ही उसके पास अपने लिए कोई पेशेवर वकील करने का पैसा
था। मुक़दमें के तीन सप्ताह बाद अदालत द्वारा नियुक्त महिला वकील ने इस केस से हटा दिये जाने की इजाज़त
मांगी, क्योंकि अब उसे एस.ए.आर. गिलानी के बचाव के लिए गठित वकीलों की
टोली में पेशेवराना तौर पर शामिलकर लिया गया था। अदालत ने अफ़ज़ल के लिए
उसी के जूनियर, बहुत कम अनुभव वाले एक वकील को नियुक्त कर
दिया। अपने मुवक्किल से बात करने के लिए वह एक बार भी जेल में उसने मिलने
नहीं गया। उसने अफ़ज़ल के बचाव में एक भी गवाह प्रस्तुत नहीं किया और
अभियोजन पक्ष के गवाहों से भी ज़्यादा सवाल-जवाब नहीं किये। उसकी नियुक्ति
के पांच दिन बाद 8 जुलाई को अफ़ज़ल ने अदालत से दूसरा वकील दिये जाने की दरख़्वास्त की और अदालत को वकीलों की एक सूची दी – इस उम्मीद के साथ कि अदालत उनमें से किसी को नियुक्त करेगी। उनमें से हर एक ने इन्कार कर दिया।
( मीडिया में आक्रोश-भरे प्रचार को देखते हुए, यह ज़रा भी हैरानी की बात
नहीं थी। मुक़दमें के दौरान आगे चलकर जब वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी ने
गिलानी की ओर से मुक़दमें में पेश होना स्वीकार किया, तो शिवसेना की भीड़
ने उनके मुम्बई के दफ़्तर में तोड़-फोड़ की।)27 न्यायाधीश ने इस मामले में कुछ भी कर पाने में असमर्थता जतायी और अफ़ज़ल को गवाहों से सवाल-जवाब करने का अधिकार दे दिया। न्यायाधीश का यह उम्मीद करना भी हैरानी की बात है कि एक आपराधिक मुक़दमें में एक अनाड़ी नाजानकार आदमी
गवाहों से सवाल-जवाब कर सकेगा। ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए यह असंभव काम
था जो कुछ ही समय पहले बने ‘पोटा’ के साथ-साथ पुराने ‘साक्ष्य अधिनियम’ और
‘टेलिग्राफ़ क़ानून’ में किये गये संशोधनों और फ़ौजदारी क़ानून की गहरी समझ
न रखता हो। यहां तक कि अनुभवी वकीलों को भी क़ानूनों के मामले में नवीनतम
जानकारियों के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी।
अफ़ज़ल के ख़िलाफ़ निचली अदालत में अभियोजन
के लगभग 80 गवाहों के बयानों की ताक़त पर मामला बनाया गया : इन गवाहों में
मकान मालिक, दुकानदार, सेलफ़ोन कंपनियों के टेक्नीशियन और ख़ुद पुलिस
शामिल थी। यह मुक़दमें का नाज़ुक दौर था, जब मामले की क़ानूनी बुनियाद रखी
जा रही थी। इसमें सूक्ष्म और सतर्क और कड़ी क़ानूनी मेहनत की ज़रूरत थी,
जिसमें ज़रूरी सबूतों को जुटाकर उन्हें दर्ज किया जाना था, बचाव-पक्ष के
गवाहों को तलब किया जाना था और अभियोजन पक्ष के गवाहों से उनके बयानों पर
जिरह करनी थी। अगर निचली अदालत का फ़ैसला अभियुक्त के ख़िलाफ़ चला ही जाता (
निचली अदालतें अपनी रूढ़िवादिता के लिए कुख्यात हैं ) तो भी वकील ऊपर की
अदालतों में साक्ष्य पर काम कर सकते थे। इस बेहद महत्त्वपूर्ण अवधि के दौरान अफ़ज़ल की ओर से किसी ने पैरवी नहीं की। इसी चरण में यह हुआ कि उसके मामले की बुनियाद खिसक गयी और उसके गले में फंदा कस गया।
इसके बावजूद, मुक़दमें के दौरान स्पेशल सेल की पोल बड़े पैमाने पर शर्मनाक ढंग से खुलने
लगी। यह साफ़ हो गया कि झूठों, जालसाजियों, जाली काग़ज़ात और प्रक्रिया
में गंभीर लापरवाहियों का सिलसिला तफ़्तीश के पहले दिन से ही शुरू हो गया
था। जहां उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों ने इन चीज़ों को चिह्नित किया है, वहीं उन्होंने पुलिस को सिर्फ़ डपटने के अंदाज़ में उंगली भर दिखाय़ी है या कभी-कभी इसे ‘बेचैन करने वाला पहलू’
बताया है, जो अपने आप में एक बेचैन कर देने वाला पहलू है। मुक़दमें के
दौरान किसी भी दौर में पुलिस को गंभीर फटकार नहीं लगायी गयी, सज़ा देने की
तो ख़ैर, बात ही छोड़िये। सच तो यह है कि हर क़दम पर स्पेशल सेल ने प्रक्रिया के नियमों की घनघोर अवहेलना की।
जिस निर्लज्ज लापरवाही से तफ़्तीश की गयी उससे उनका यह चिंताजनक विश्वास
उजागर होता है कि उन्हें कभी ‘पकड़ा’ नहीं जा सकेगा और अगर वे पकड़ में आ
भी गये तो इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लगता है उनका विश्वास ग़लत भी
नहीं था।
तफ़्तीश के लगभग हर हिस्से में घालमेल किया गया है।28
गिरफ़्तारियों और बरामदगियों के समय और स्थान पर ग़ौर करें :
दिल्ली पुलिस ने कहा कि गिरफ़्तारी के बाद गिलानी द्वारा दी गयी सूचनाओं
के आधार पर अफ़ज़ल और शौकत को श्रीनगर में पकड़ा गया। अदालत का रिकार्ड
बताता है कि अफ़ज़ल और शौकत को तलाश करने का संदेश श्रीनगर पुलिस को 15
दिसम्बर की सुबह 5.45 पर भेजा गया। लेकिन दिल्ली पुलिस के रिकार्ड के
मुताबिक़ गिलानी को दिल्ली में 15 दिसम्बर की सुबह 10 बजे गिरफ़्तार किया
गया था – श्रीनगर में अफ़ज़ल और शौकत की तलाश शुरू करने के चार घंटे के
बाद। वे इस घपले के बारे में कुछ नहीं बता पाये हैं। उच्च न्यायालय का फ़ैसला यह बात दर्ज करता है कि पुलिस के विवरण में ‘महत्त्वपूर्ण अन्तर्विरोध’ हैं और उसे सही नहीं माना जा सकता। इसे बतौर एक ‘बेचैन करने वाला पहलू’ ( डिस्टर्बिंग फ़ीचर ) दर्ज किया गया है। दिल्ली पुलिस को झूठ बोलने की ज़रूरत क्यों पड़ी? यह सवाल न पूछा गया और न इसका जवाब दिया गया।
पुलिस जब किसी को गिरफ़्तार करती है, तो
प्रक्रिया के तहत उसे गिरफ़्तारी के लिए सार्वजनिक गवाह रखने होते हैं जो
पुलिस द्वारा बरामद किये गये सामान, नक़दी, कागज़ात या और किसी चीज़ के लिए
‘गिरफ़्तारी मेमो’ और ‘ज़ब्ती मेमो’ पर दस्तख़त करते हैं। पुलिस यह दावा
करती है कि उसने अफ़ज़ल और शौकत को श्रीनगर में एक साथ 15 दिसम्बर को सुबह
11 बजे पकड़ा था। उसका कहना है कि दोनों जिस ट्रक में भाग रहे थे ( वह शौकत
की बीवी के नाम पर रजिस्टर्ड था ) उसे पुलिस ने ‘कब्ज़े’ में ले लिया था।
वह यह भी कहती है कि उसने अफ़ज़ल से एक नोकिया मोबाइल फ़ोन, एक लैपटॉप और
10 लाख रुपये बरामद किये। बतौर अभियुक्त अपने बयान में अफ़ज़ल का कहना है
कि उसे श्रीनगर में एक बस स्टॉप से पकड़ा गया और उससे कोई मोबाइल फ़ोन या
पैसा बरामद नहीं किया गया।
हद तो यह है कि अफ़ज़ल और शौकत दोनों की गिरफ़्तारी से संबंधित मेमो पर गिलानी के छोटे भाई बिस्मिल्लाह के दस्तख़त हैं, जो उस वक़्त लोधी रोड़ पुलिस स्टेशन में ग़ैरक़ानूनी हिरासत में था। इसके अलावा जिन दो गवाहों ने फ़ोन, लैपटॉप और 10 लाख रुपये के ज़ब्ती मेमो पर दस्तख़त किये थे, वे दोनों ही जम्मू-कश्मीर पुलिस
के थे। उनमें से एक हैड कॉन्स्टेबल मोहम्मद अकबर ( अभियोजन का गवाह संख्या
62 ) है जो – जैसा कि हम बाद में देखेंगे – मोहम्मद अफ़ज़ल के लिए कोई
अजनबी नहीं है, और न ही वह कोई आम पुलिसवाला है जो संयोगवश उधर से गुज़र
रहा था। जम्मू-कश्मीर पुलिस की अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार भी उन्होंने
अफ़ज़ल और शौकत को पहली बार परिमपुरा फल मंड़ी में देखा था। पुलिस इस बात
का कोई कारण नहीं बताती है कि उसने उन्हें वहीं क्यों नहीं गिरफ़्तार किया।
पुलिस का कहना है कि उसने अपेक्षाकृत कम सार्वजनिक जगह तक उनका पीछा किया –
जहां कोई सार्वजनिक गवाह नहीं थे।
लिहाज़ा, यह अभियोजन के मामले में एक और गम्भीर अन्तर्विरोध है। इसके बारे में उच्च न्यायालय का फ़ैसला कहता है, ‘अभियुक्तों की गिरफ़्तारी के समय में गहरी शिकनें पड़ी हुई हैं।’ हैरान करने वाली बात यह है कि गिरफ़्तारी के इसी विवादित समय और जगह पर ही पुलिस षड्यंत्र में अफ़ज़ल को फंसाने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण सबूत
बरामद करने का दावा करती है : यानि मोबाइल और लैपटॉप। एक बार फिर,
गिरफ़्तारी के दिन और समय के मामले में और अपराधी ठहराने वाले लैपटॉप और 10
लाख रुपये की कथित बरामदगी के मामले में हमारे पास एक ‘आतंकवादी’ के बयान
के बरअक्स सिर्फ़ पुलिस का ही बयान है।
बरामदगियां जारी रहीं :
पुलिस का कहना है कि बरामद लैपटॉप में वे फ़ाइलें थी जिनसे गृह मंत्रालय
के प्रवेश-पत्र और नक़ली पहचान-पत्र बनाये गये। उसमें कोई और उपयोगी
जानकारी नहीं थी। उन्होंने दावा किया कि अफ़ज़ल उसे ग़ाज़ी बाबा को लौटाने
श्रीनगर ले जा रहा था। जांच कर रहे अफ़सर एसीपी राजवीर सिंह ने कहा कि
कम्प्यूटर की हार्डडिस्क को 16 जनवरी, 2002 को सील कर दिया गया था (
क़ब्ज़े में लेने के पूरे एक महीने बाद )। लेकिन कंप्यूटर दिखाता है कि उसके बाद भी उसे खोला गया। अदालतों ने इस पर विचार तो किया है, लेकिन इसका कोई संज्ञान नहीं लिया।
( अगर थोड़ी अटकल का सहारा लें तो क्या यह
हैरान करने वाली बात नहीं है कि कम्प्यूटर में अपराध साबित करने वाली
एकमात्र सूचना नक़ली प्रवेश-पत्र और पहचान-पत्र बनाने के लिए इस्तेमाल की
गयी फ़ाइलें थी? और संसद की इमारत दिखाने वाली ज़ी टीवी की एक फ़िल्म का
टुकड़ा। अगर अपराध साबित करने वाली दूसरी सूचनाओं को मिटा दिया गया था, तो
फिर इसे क्यों छोड़ा गया? और एक अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन के मुखिया ग़ाज़ी बाबा को ऐसे लैपटॉप की इतनी क्या ज़रूरत थी जिसमें सिर्फ़ एक घटिया सचित्र सामग्री थी? )
मोबाइल फ़ोन कॉलों के रिकॉर्ड को देखिये : लम्बे समय तक ग़ौर से देखने पर, स्पेशल सेल द्वारा पेश किये गये कई ‘पक्के सबूत’ संदिग्ध
दिखने लगते हैं। अभियोजन की ओर से मामले की रीढ़ का संबंध मोबाइल फ़ोन,
सिमकार्ड, कम्प्यूटरीकृत कॉल रिकॉर्ड और सेलफ़ोन कम्पनियों के अधिकारियों
और उन दुकानदारों के बयानों से है जिन्होंने अफ़ज़ल और उसके साथियों को
फ़ोन और सिमकार्ड बेचे थे। यह दिखाने के लिये कि शौकत, अफ़ज़ल, गिलानी और
मोहम्मद ( मारे गये आतंकवादियों में से एक ) हमले के समय के बहुत पास
एक-दूसरे के सम्पर्क में थे, जिन कॉल रिकॉर्डों को पेश किया गया, वे ग़ैर-सत्यापित कम्प्यूटर प्रिंट आउट थे, मूल काग़ज़ात की प्रतिलिपी नहीं थे।
वे टेक्स्ट फ़ाइल के रूप में स्टोर किये गये बिलिंग सिस्टम के आउटपुट थे
जिनसे किसी भी समय आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती थी। उदाहरण के लिए, पेश
किये गये कॉल रिकॉर्ड दिखाते हैं कि एक ही सिमकार्ड से एक ही समय में दो
कॉल किये गये, लेकिन ये अलग-अलग हैंडसेट और आई.एम.ई.आई. नम्बर से किये गये
थे। इसका अर्थ यह है कि या तो सिमकार्डों का क्लोन ( जुड़वां ) बना लिया
गया था या कॉल रिकार्ड से छेड़छाड़ की गयी थी।
सिमकार्ड का मामला लें :
अपनी कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने के लिए अभियोजन एक ख़ास नम्बर
9811489429 पर अत्यधिक निर्भर है। पुलिस का कहना है कि यह अफ़ज़ल का नम्बर
है – वह नम्बर जो अफ़ज़ल को ( मारे गये आतंकवादी ) मोहम्मद से, अफ़ज़ल को
शौकत से और शौकत को गिलानी से जोड़ता है। पुलिस का यह भी कहना है कि यह
नम्बर मारे गये आतंकवादियों से मिले पहचान-पत्रों के पीछे लिखा हुआ था। कितना सुविधाजनक है ! बिल्ली का बच्चा खो गया है ! मम्मी को 9811489429 पर कॉल करो।
यहां यह बात बताने लायक़ है कि सामान्य प्रक्रिया के तहत अपराध की जगह से लिये गये सबूतों को सील करने की ज़रूरत होती है। पहचान-पत्रों को कभी सील नहीं किया गया और वे पुलिस के क़ब्ज़े में रहे और उनसे किसी भी समय छेड़छाड़ की गयी हो सकती थी।
पुलिस के पास एकमात्र सबूत कि 9811489429
नम्बर सचमुच अफ़ज़ल ही का नम्बर है, सिर्फ़ अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति है, जो,
जैसा कि हम देख चुके हैं, कोई सबूत ही नहीं है। सिमकार्ड
कभी नहीं मिला। पुलिस ने अभियोजन पक्ष की ओर से गवाह के रूप में कमल किशोर
को ज़रूर पेश किया, जिसने अफ़ज़ल की पहचान की और बताया कि उसने 4 दिसम्बर,
2001 को एक मोटरोला फ़ोन और एक सिमकार्ड बेचा था। लेकिन अभियोजन पक्ष जिस
कॉल रिकॉर्ड पर निर्भर था, वह दिखाता है है कि वह ख़ास सिमकार्ड 6 नवम्बर
से काम में लाया जा रहा था, अफ़ज़ल द्वारा उसकी फ़र्ज़िया ख़रीद से पूरे एक महीने पहले से।
यानी या तो गवाह झूठ बोल रहा है या फिर कॉल रिकॉर्ड ही ग़लत हैं। उच्च
न्यायालय ने इस गड़बड़ की लीपा-पोती यह कहते हुए करता है कि कमल किशोर ने
सिर्फ़ यह कहा था कि उसने अफ़ज़ल को एक सिमकार्ड बेचा था, न कि यही वाला
सिमकार्ड। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला बड़ी ऊंचाई से कहता है, ‘अफ़ज़ल को
सिमकार्ड अनिवार्य रूप से 4 दिसम्बर, 2001 से पहले बेचा गया होना चाहिए।’
अभियुक्तों की पहचान को लें :
अभियोजन पक्ष की ओर से कई गवाहों ने, जिनमें से ज़्यादातर दुकानदार हैं,
अफ़ज़ल की शिनाख़्त ऐसे व्यक्ति के रूप में की है, जिसे उन्होंने कई चीज़ें
बेची थीं : अमोनियम नाइट्रेट, अल्यूमीनियम पाउडर, गंधक, सुजाता
मिक्सी-ग्राइंडर, मेवों का पैकेट इत्यादि। सामान्य प्रक्रिया के तहत ज़रूरी
है कि पहचान परेड हो जिसमें शामिल कई लोगों में से दुकानदार अफ़ज़ल को
चुनें। ऐसा नहीं हुआ। बल्कि उनके द्वारा अफ़ज़ल की पहचान
तब की गयी जब पुलिस की हिरासत में रहते हुए वह पुलिस को इन दुकानों में
‘ले’ गया और जब उसका संसद पर हमले के अभियुक्त के रूप में परिचय करवाया गया
( क्या हमें यह अंदाज़ा लगाने की छूट है कि दुकानों में पुलिस को वह ले
गया या पुलिस उसे ले गयी? आख़िरकार, वह अब भी पुलिस की हिरासत में था, अब
भी यातना के आगे बेबस था। अगर इन परिस्थितियों में उसका इक़बालियां बयान
क़ानूनी तौर पर शंकास्पद हो जाता है, तो बाकी सब क्यों नहीं हो सकता? )।
जजों ने प्रक्रिया से संबंधित नियमों की इन अवहेलना पर विचार तो किया, लेकिन इसे उन्होंने पूरी गम्भीरता
से नहीं लिया। उनका कहना था कि उन्हें यह नहीं समझ आता कि समाज के आम लोग
एक निरपराध व्यक्ति को व्यर्थ ही क्यों दोषी ठहराएंगे। लेकिन क्या यह बात
लागू हो सकती है, इस मामले में ख़ासतौर पर, जिसमें आम नागरिकों को भीषण
मीडिया प्रचार का शिकार बनाया गया था? क्या यह बात इस बात को ध्यान में
रखते हुए भी लागू हो सकती है कि सामान्त दुकानदार, ख़ासकर वे जो ‘ग्रे
मार्केट’ में बिना रसीदों के सामान बेचते हैं, पूरी दिल्ली पुलिस के शिकंजे
में होते हैं?
मैंने अब तक जिन अनियमितताओं
की बात की है उनमें से कोई भी मेरी ओर से किसी बेमिसाल जासूसी का परिणाम
नहीं है। इनमें से बहुत कुछ निर्मलांशु मुखर्जी द्वारा लिखी गयी एक शानदार
किताब ‘दिसम्बर 13 : टेरर ओवर डेमोक्रेसी’ और पीपुल्स
यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित दो रिपोर्टों (
ट्रायल ऑफ़ एरर्स और बेलेंसिंग एक्ट ) और इन सबमें सबसे महत्त्वपूर्ण –
निचली अदालत, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों के – तीन मोटे
ग्रन्थों में दर्ज हैं।29
ये सभी सार्वजनिक दस्तावेज़ हैं, जो मेरी मेज़ पर रखे हुए हैं। ऐसा क्यों
है कि जब यह पूरा-का-पूरा धुंधला ब्रह्मांड उजागर किये जाने को बेताब है,
हमारे टीवी चैनल नाजानकार लोगों और लालची नेताओं के बीच खोखली बहसें आयोजित
करवा रहे हैं? ऐसा क्यों है कि कुछ स्वतंत्र टिप्पणीकारों के अलावा हमारे
अख़वार अपने मुखपृष्ठों पर ऐसी फ़ालतू ख़बरें छाप रहे हैं कि जल्लाद कौन
होगा और मोहम्मद अफ़ज़ल को फांसी देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रस्सी
की लंबाई ( 60 मीटर ) और उसके वज़न ( 3.75 किलो ) के बारे में बीभत्स
ब्योरे परोस रहे हैं? ( इंडियन एक्सप्रेस, 16 अक्टूबर, 2006 )30
क्या हम अपने आज़ाद प्रेस की स्तुति करने के लिए क्षण भर रुकें?
प्रस्तुति – रवि कुमार
2 टिप्पणियां:
नव वर्ष मंगलमय हो,. सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
AAP TO KHUD BHI TERRORISTS K VAKIL HAIN. AP Q NAHI APPEAL KARTE AFZAL GURU KI TARAF SE
एक टिप्पणी भेजें