पहाड़ खासकर उत्तरकाशी में आम आदमी की आवाज को मुखरित करने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता,प्रख्यात पर्वतारोही एवं पर्यावरणवादी कामरेड कमला राम नौटियाल का देहरादून में निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे।कामरेड नौटियाल इलाहाबाद में अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के साथ जुड़ गये थे और छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने एक पर्वतारोही की भूमिका निभाते हुए हिमालय के तमाम ग्लेशियरों को खोजा और उनका नामकरण किया। उन्होंने एक पर्यावरणवादी की भूमिका निभाते हुए हिमालय पर पेड़ों की कटान के खिलाफ व्यापक आन्दोलन किया जो बाद में चिपको आन्दोलन के नाम से विख्यात हुआ। वे चौदह वर्षों तक उत्तरकाशी नगर पालिका के चेयरमैन चुने जाते रहे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के वर्षों तक सदस्य रहे। उत्तराखण्ड आन्दोलन के वे अगुवा नेताओं में से एक थे। ज्ञातव्य हो कि भाकपा ने राज्य के गठन के पूर्व ही अपनी उत्तराखण्ड कमेटी का गठन कर दिया थाए जिसके वे कई सालों तक संयोजक रहे। उनकी लोकप्रियता पहाड़ों के दूरदराज गांवों तक फैली थी।80 वर्षीय कामरेड नौटियाल कई सालों से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके निधन से वामपंथी आन्दोलन ही नहीं उत्तराखण्ड की जनता को भी भारी क्षति पहुंची है जिसके लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहे। क्षेत्र के विभिन्न जन आंदोलनों का नेतृत्व करने के साथ उत्तरकाशी के आधुनिक स्वरूप की नींव रखने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। वर्ष 2002 और फिर 2007 में कामरेड नौटियाल ने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा। 2002 में वे कांग्रेस प्रत्याशी विजयपाल सजवाण से मामूली अंतर से पराजित हो गएए लेकिन उनसे जननेता का ताज कोई नहीं छीन सका।
गिरदा का निधन हुआ तो मैं यहीं कोलकाता में था। भगतदाज्यू नहीं रहे। निर्मल चले गये। विपिन चचा, श्रीठीदत्त, लंबी सूची है। कुछ दिनों पहले जाजल में कुंवर प्रसून के बाद प्रताप शिकर भी चल बसे। पहाड़ की अस्मिता और पहचान से जुड़े एकक एक चेहरे का अवसान हो रहा है इसी तरह। यह उम्र बढ़ते जाने का लक्षण भी है। विद्यासागर नौटियालल और शैलेश मटियानी के निधन के बाद उत्तराखंढ के साहित्यिक सांस्कृतिक जगत में जो शून्यता पैदा हुई, गिरदा के चले जाने के बाद पहाड़ में प्रतिरोध के स्वर ने जैसे धार खो दी, उसी तरह कामरेड नौटियाल के अवसान के बाद बहाड़ में बढ़ते भूमाफिया और कारपोरेट राज के खिलाफ बेहद जरूरी लड़ाई का नेतृत्व ही विकलांग हो गया। जब सत्ता के गलियारे में आजीवन रहे कृष्णचंद्र पंत जैसे को पहाड़ इतनी आसानी से भूल गया, तो कामरेड नौटियाल को गैरसैन राजधानी की भावुकता में सारे बुनियादी मुद्दे और सामाजिक औगोलिक यथार्थ भुला देने वाली नय़ी उत्तराखंडी भूमंडलीय उपभोक्तावादी चेतना से कामरेड नौटियाल की स्मृति के प्रति न्याय की उम्मीद कैसे करें?
भागीरथी के उत्स पर भूस्खलन हो जाने से अवरुद्ध हिमालयी जलधारा ने १९७८ में गंगासागर तक को प्लावित कर जो कड़ी चेतावनी दी थीए कामरेड नौटियाल के निधन से वह फिर दीवार पर लिखी इबारत की तरह जिंदा हो गयी।उस हादसे के वक्त डीएसबी में मैं एम .ए. प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था। शेखर पाठक और गिरदा आकाशवाणी से खबर पाते ही गंगोत्री की तरफ कूच कर गये थे। तब हम लोग नैनीताल समाचार से जुड़े थे। उन दोनों के लौटते ही मैं निकल पड़ा। टिहरी से बसयात्रा बार बार अवरुद्ध हो रही थी भूस्खलन और बाढ़ के कारण। तब टिहरी बांध बना नहीं था। पुरानी टिहरी अपने शानदार घंटाघर और चहल पहलवाली बाजार के साथ मौजूद थी।
भवानी भाई के यहां सुंदर लाल बहुगुणा तक पहुंचाने के लिए लाउडस्पीकर कंधे पर लादे टिहरी से निकलकर बार बार पैदल पगडंडियों से चलते हुए शाम तलक उत्तरकाशी पहुंचा था।तब आज के विख्यात पत्रकार और जीआईसी में हमारे पुराने सहपाठी गोविंद राजू उत्तरकाशी में थे। गंगोरी में जहां सुंदर लाल बहुगुणा डेरा डाले हुए थे, वहां बाढपीड़ितों में राजू के अपने लोग भी शामिल थे। उत्तरकाशी और गंगोरीके बीच एक कवि, सर्वोदयी मद्यनिषेध, पशुबलि विरोधी आंदोलनों और चिपको आंदोलन में लोककवि घनश्याम सैलानी, जिसे पहाड़ शायद कभी भूल पाये, का घर था।कवि के साथ वह अंतरंग आलाप चरम दुर्योग के मध्य! उजेली में सर्वोदय का आश्रम था। मनेरी घाटी तक गोविंद हमारे साथ साथ चले थे। बस, वहीं तक। फिर हमारे रास्ते अलग अलग हो गये।
आज लोककवि शेरदा अनपढ़ भी नहीं रहे। गिरदा की तरह वे भी अब अतीत के पन्नों में विलीन हो गये।
गंगोत्री की ओर कूच करने से पहले और वापसी के रास्ते दो दो बार कामरेड नौटियाल से हिमालय की सेहत और पहाड़ की अस्मिता और अस्तित्व पर लंबी बातें हुई थीं। तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और माकपा दोनों टिहरी बांध के पक्ष में थीं, क्योकि वहां सोवियत पूंजी लग रही थी। टिहरी में बच्चीराम कौंसवाल और जाजल घाटी के कामरेडों से भी इस सिलसिले में कापी गरमागरम बहसें होती रही थीं। पर कामरेड नौटियाल पर्यावरण कीस्रवोच्च प्राथमिकता समझते थे।
मैं पहली बार गढ़वाल गया था तब। लेकिन उस प्रलयंकर संकट में टिहरी और उत्तरकाशी के गांव गांव में भूस्खलन के बीच पगडंडी पगडंडी गांवों से गुजरते हुए बरसात और अंधेरे में बीच जंगल चलते हुए लोगों से जो गर्मजोशीभरा व्यहार मिला, तब उत्तरकाशी नगरपालिक के अध्यक्ष कामरेड नौटियाल के यहां उसी का घनत्व ही देखा। कम उम्र के एक छात्र से मित्रवत बर्ताव करके बाकायदा विमर्श करते हुए उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई।
बंगाल में कामरेडों से नंदीग्राम और सिंगुर से पहले सर्वोच्च स्तर पर संवाद के अनुभव से महसूस करता हूं कि
वैचारिक मतभेद के बावजूद कोई कामरेड कैसे मुद्दों को टालने में नहीं सीधे उनके मुखातिब होकर संबोधित करने की हिम्मत रखता है।
आज पहाड़ को ही नहीं, बल्कि देश को ऐसे कम्युनिस्ट नेतृत्व की बेहद जरुरत है, जिसका प्रतिनिधित्व करते थे कामरेड नौटियाल।
फिर जब मैं दैनिक जागरण में था, साल याद नहीं है, १९८८.८९ में होगा, तब एकबार टिहरी होकर उत्तरकाशी गया। टिहरी डाम प्रोजेक्ट में तब सविता के बड़े बाई सत्यदा काम करते थे, जो हाल ही में रिटायर हुए हैं। नय़ी टिहरी आकार ले रही थी और आहिस्ते आहिस्ते डूब में गायब हो रही थी पुरानी टिहरी। लेकिन टिहरी वजूद में थी बाकायदा। मैं जाजल घाटी कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर और धूम सिंह नेगी से मिलने चला गया तो टिहरी बांध कालोनी में अपने मामा के घर खेलते हुए टुसु जख्मी होगया, तो डूबते हुए टिहरी शहर में उसका इलाज हुआ।
उस वक्त हम अपने मूर्धन्य कवि , मित्र कहें कि परिचित, अब दुविधा में हूंए मंगलेश डबराल के पहाड़ में लालटेन का दर्शन करने उनके गांव तक गया। प्रमोद कौंसवाल के घर गया, जो बच्चीराम कौंसवाल के सुपुत्र, मंगलेश दाज्यू के भांजे होने के अलावा हिंदी के महत्वपूर्ण कवि और पत्रकार भी हैं। तब प्रमोद मेरठ से चंडीगढ़ जनसत्ता में चले गये थे। वे मेरठ में अमर उजाला में थे। उत्तरकाशी गये तो फिर नौटियाल जी से मुलाकातें हुईं।
फिर भूकंप, भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं से घिरी उत्तरकाशी तक पहुंचाने वाली स्विट्जरलैंड जैसी सुंदर भागीरथी घाटी ही टिहरी डूब में पुरानी टिहरी की तरह शामिल हो गयी।
इस बीच पहल में मेरी लंबी कहानी ृनयी टिहरी पुरानी टिहरी आयी तो पहाड़ के कामरेडों की तीखी प्रतिक्रिया मिलती रहीं। बड़ी इच्छा थी कि कामरेड नौटियाल से इस बारे में बैठकर बतियायें।पर इसी बीच साहित्येतर ृअमेरिका से सावधान जारी रखने की मजबूरी के अलावा साहित्य से भी हमारा कोई लेना देना नहीं रहा। पत्रकारिता में किसी प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रानिक मीडिया में मेरे होने का सवाल नहीं है। हालांकि कहने को हिंदी के सर्वश्रेष्ष्ठ अखबार मैं हूं।
इस बीच अलग उत्तराखंड राज्य बनकर समूचा पहाड़ देवभूमि नाम को सार्थक बनाते हुए केशरिया रंग से सराबोर हो गया। ग्लोबीकरण से ग्लेशियर तक पिघलने लगे। भूकंप के खतरों और यथार्थ के बीच टिहरी बांध परमाणु बम की तरह दहकने लगा। पर्यटन और विकास के नाम पर पहाड़ में भूमाफिया और कारपोरेट राज हो गया। उत्तराकंडी पहचान खत्म हो चली। उपभोक्ता संस्कृति यथावत जारी है। जारी है पलायन। हालांकि कैश स्थानांतरण के डिजिटल माध्यम हो जाने से मानीआर्डर इकोनामी नहीं कह सकते।
पहाड़ अब ऊर्जा प्रदेश हैं। पहाड़ और मैदानों के बीच अलंघ्य दीवारें खड़ी हो गयी हैं। साम्राज्यवाद के खिलाफ संगर्ष की निरंतरता के लिए जिस गढ़वाल की पहचान है, उसकी अस्मिता अब गढ़वाल रेजीमेंट तक सीमाबद्ध है। उसीतरह कुंमाऊ रेजीमेंट कुंमायूं की पहचान।
कच्चामाल और रंगरुट के अलावा और जो भी कुछ पहाड़ से मैदानों में सप्लाई होता है, कामरेड नौटियाल की स्मृति में लिखे जा रहे इस आलेख में उसका उल्लेख भी नहीं किया जा सकता। ऐसे में कामरेड नौटियाल का होना कितना जरुरी था, इसका हिसाब तो पहाड़ के लोग लगायें क्योंकि अब तो हम पहाड़ का कुछ भी नहीं हुए। न नैनीताल समाचार और न पहाड़ में हमारे लिए कोई जगह बची है।
क्या कामरेड नौटियाल के लिए थी?
हमने वह दौर देखा है , जब बड़ी से बड़ी घटना के लिए दिल्ली और लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अखबारों में सूचना भर देखने को तरस जाते थे। अब तो पहाड़ मीडिया के अंतर्जाल में पूरीतरह गिरफ्तार है और बाकी देश की तरह इस मीडिया को कामरेड नौटियाल जैसे लोग सेलिब्रिटी तो नजर नहीं आयेंगे!
तराई की खबर लिखने पर जगन्नाथ मिश्रा जैसे लोगों को सरेआम गोली मार दी जाती थी। हमारे अपने इलाके में घुसने में पाबंदी थी। गिरदा को हमारी पंतनगर गोलीकांड वाली रपट नैनीताल समाचार में छपने के बाद रूद्रपुर में बस से उतारकर धुन दिया गया था। तराई में बचाव के लिए केवल कृष्ण ढल के साथ हमभी रंगरूट की तरह बाल कटवाते थे। दाढी कटवाने को मजबूर होते थे ताकि मौके से भागने में व्यवधान न हो।
-पलाश विश्वास
2 टिप्पणियां:
कामरेड कमला राम नौटियाल जी की जीवन वृत प्रस्तुति के लिए आभार।।
अपना जीवन लोकहित में समर्पण करने वाले विरले होते हैं ....
इश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।।।
Comrade Nautiyal Ko Lal Salaam
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