इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के समय में 31 दिसम्बर, 1600 को भारत में 'दि गर्वनर एण्ड कम्पनी ऑफ लन्दल ट्रेडिंग इन टू दि ईस्ट इंडीज' अर्थात् 'ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी'की स्थापना हुई। इस कम्पनी की स्थापना से पूर्व महारानी एलिजाबेथ ने पूर्व देशों से व्यापार करने के लिए चार्टर तथा एकाधिकार प्रदान किया। प्रारम्भ में यह अधिकार मात्र 15 वर्ष के लिए मिला था, किन्तु कालान्तर में इसे 20-20 वर्षों के लिए बढ़ाया जाने लगा। ईस्ट इंडिया कम्पनी में उस समय कुल क़रीब 217 साझीदार थे। कम्पनी का आरम्भिक उद्देश्य भू.भाग नहीं बल्कि व्यापार था।
हॉकिन्स और जहाँगीर की भेंट
भारत में व्यापारिक कोठियाँ खोलने के प्रयास के अन्तर्गत ही ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में कैप्टन विलियम हॉकिन्स को अपने राजदूत के रूप में मुग़ल सम्राट जहाँगीर के दरबार में भेजा। 1609 ई. में हॉकिन्स ने जहाँगीर से मिलकर सूरत में बसने की इजाजत मांगी, परन्तु पुर्तग़ालियों तथा सूरत के सौदागरों के विद्रोह के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिली। हांकिन्स फ़ारसी भाषा का बहुत अच्छा जानकार था। कैप्टन हॉकिन्स तीन वर्षों तक आगरा में रहा। जहाँगीर ने उससे प्रसन्न होकर 400 का मनसब तथा जागीर प्रदान कर दी। 1616 ई. में सम्राट जेम्स प्रथम ने सर टॉमस रो को अपना राजदूत बना कर जहाँगीर के पास भेजा। टॉमस रो का एकमात्र उदेश्य था. व्यापारिक संधि करना। यद्यपि उसका जहाँगीर से व्यापारिक समझौता नहीं हो सका, फिर भी उसे गुजरात के तत्कालीन सूबेदार खुर्रम;शहजादा शाहजहाँ से व्यापारिक कोठियों को खोलने के लिए फ़रमान प्राप्त हो गया।
व्यापारिक कोठियों की स्थापना
टॉमस रो के भारत से वापस जाने से पूर्व सूरत, आगरा, अहमदाबाद और भड़ौच में अंग्रेज़ों ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कर लीं। 1611 ई. में दक्षिण.पूर्वी समुद्र तट पर सर्वप्रथम अंग्रेज़ों ने मसुलीपट्टम में व्यापारिक कोठी की स्थापना की। यहाँ से वस्त्र का निर्यात होता था। 1632 ई. में गोलकुण्डा के सुल्तान ने एक सुनहरा फरमान जारी कर दिया, जिसके अनुसार 500 पगोड़ा सालाना कर देकर गोलकुण्डा राज्य के बन्दरगाहों से व्यापार करने की अनुमति मिल गयी। 1639 ई. में मद्रास में तथा 1651 ई. में हुगली में व्यापारिक कोठियाँ खोली गईं। 1661 ई. में इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तग़ाल की राजकुमारी कैथरीन से हुआ तथा चार्ल्स को बम्बई दहेज के रूप में प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने 1668 में दस पौण्ड वार्षिक किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। पूर्वी भारत में अंग्रेज़ों ने अपना पहला कारखाना उड़ीसा में 1633 ई. में खोला। शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने बंगाल, बिहार, पटना, बालासोर एवं ढाका में अपने कारखाने खोले। 1639 ई. में अंग्रेज़ों ने चंद्रगिरि के राजा से मद्रास को पट्टे पर लेकर कारखाने की स्थापना की तथा कारखाने की क़िलेबन्दी कर उसे फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज का नाम दिया। फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज शीघ्र ही कोरोमण्डल समुद्र तट पर अंग्रेज़़ी बस्तियों के मुख्यालय के रूप में मसुलीपट्टम से आगे निकल गया।
बंगाल में अंग्रेज़ी व्यापार
1651 ई. में बंगाल में सर्वप्रथम अंग्रेज़ों को व्यापारिक छूट प्राप्त हुईए जब ग्रेवियन वांटन, जो बंगाल के सूबेदार शाहशुजा के साथ दरबारी चिकित्सक के रूप में रहता था, कम्पनी के लिए एक फरमान प्राप्त करने में सफल हुआ। इस फरमान से कम्पनी को 3000 रुपया वार्षिक कर के बदले बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार करने की अनुमति मिल गयी। राजकुमार शुजा की अनुमति से अंग्रेज़ों ने बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651 ई. में हुगली में स्थापित की। ब्रिजमैन को 1651 ई.में हुगली में स्थापित अंग्रेज़ी फैक्ट्री का प्रधान नियुक्त किया गया गया। हुगली के बाद अंग्रेज़ों ने कासिम बाज़ार, पटना और राजमहल में अपने कारखाने खोले। 1656 ई.में दूसरा फरमान मंजूर किया गया। इसी प्रकार कम्पनी ने 1672 ई. में शाइस्ता ख़ाँ से तथा 1680 में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से व्यापारिक रियायतों के संबंध में फरमान प्राप्त किया।
मुग़ल राजनीति में हस्तक्षेप
धीरे.धीरे अंग्रेज़ों का मुग़ल राजनीति में हस्तक्षेप प्रारम्भ हो गया। 1686 ई. में हुगली को लूटने के बाद अंग्रेज़ और मुग़ल सेनाओं में संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कम्पनी को सूरत, मसुलीपट्टम, विशाखापत्तनम आदि के कारखानों से अपने अधिकार खोने पड़े, परन्तु अंग्रेज़ों द्वारा क्षमा याचना करने पर औरंगज़ेब ने उन्हें डेढ़ लाख रुपया मुआवजा देने के बदले पुनः व्यापार के अधिकार दे दिये और 1691 ई. में एक फरमान निकाला, जिसमें 3000 रुपये के निश्चित वार्षिक कर के बदले बंगाल में कमपनी को सीमा शुल्क देने से छूट दे दी गई। 1698 ई. में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार अजीमुश्शान द्वारा कम्पनी ने तीन गांव. 1700 ई. तक गोविन्दपुर की जमीदारी 12000 रुपये भुगतान कर प्राप्त कर ली। 1700 ई. तक जॉब चारनाक ने इसे विकसित कर कलकत्ता का रूप दिया। इस प्रकार कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम की स्थापना हुई। इसका पहला गर्वनर चार्ल्स आयर को बनाया गया।
बंगाल में सूबेदार शाहशुजा के फरमान के बाद भी अंग्रेज़ों को बंगाल में बलात चुंगियाँ अदा करनी पड़ती थी, जिसके कारण कम्पनी ने अपनी सुरक्षा खुद करने के उद्देश्य से थाना के मुग़ल क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1686 ई. में मुग़ल सेना ने अंग्रेज़ों को हुगली से पलायन करने एवं ज्वाग्रस्त फुल्टा द्वीप पर शरण लेने के लिए मजबूर किया। फ़रवरी, 1690 में एजेंट जॉब चारनाक को बादशाह औरंगज़ेब से क्षमा मांगनी पड़ी। बाद में कम्पनी को पुनः उसके अधिकार प्राप्त हो गए। लेकिन कम्पनी को क्षतिपूर्ति के लिए एक लाख पचास हज़ार रुपया हर्जाने के रूप में देना पड़ा।
फ़र्रुख़सियर का फरमान
1715 ई. में जॉन सर्मन के नेतृत्व में एक व्यापारिक मिशन तत्कालीन मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर से मिलने गया। इस व्यापारिक मिशन में एडवर्ड स्टीफ़ेंसन, विलियम हैमिल्टन ;सर्जन तथा ख़्वाजा सेहुर्द ;अर्मेनियाई द्विभाषिया शामिल थे। डॉक्टर विलियम हैमिल्टर, जिसने सम्राट फ़र्रुख़सियर को एक प्राण घातक फोड़े से निजात दिलाई थी, की सेवा से प्रसन्न होकर 1717 ई. में सम्राट फ़र्रुख़सियर ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए निम्नलिखित सुविधाओं वाला फरमान जारी किया.
बंगाल में कम्पनी को 3000 रुपये वार्षिक देने पर निःशुल्क व्यापार का अधिकार मिल गया।
कम्पनी को कलकत्ता के आस.पास की भूमि किराये पर लेने का अधिकार दिया गया।
बम्बई की टकसाल से जारी किये गये सिक्कों को कम्पनी के द्वारा मुग़ल साम्राज्य में मान्यता प्रदान की गई।
सूरत में 10,000 रुपये वार्षिक कर देने पर निःशुल्क व्यापार का अधिकार प्राप्त हो गया।
इतिहासकार ओम्र्स ने फर्रुखसियर द्वारा जारी किये गये इस फरमान को कम्पनी का महाधिकार पत्र कहा। 1669 से 1677 तक बम्बई का गर्वनर गोराल्ड औंगियार ही वास्तव में बम्बई का महातम संस्थापक था। 1687 तक बम्बई पश्चिमी तट का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बना रहा। गोराल्ड औंगियार ने बम्बई में किलेबन्दी के साथ ही गोदी का निर्माण् कराया तथा बम्बई नगर की स्थापना और एक न्यायालय और पुलिस दल की स्थापना की। गोराल्ड औंगियार ने बम्बई के गर्वनर के रूप में यहां से तांबे और चांदी के सिक्के ढालने के लिए टकसाल की स्थापना की। औंगियार के समय में बम्बई की जनसंख्या 60,000 थी। उसका उत्तराधिकारी रौल्ट हुआ।
बंगाल पर अंग्रेज़ी अधिपत्य
मुग़ल साम्राज्य के अन्तर्गत आने वाले प्रान्तों में बंगाल सर्वाधिक सम्पन्न था। अंग्रेज़ों ने बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651 ई में हुगली में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार शाहशुजा ;शाहजहाँ के दूसरे पुत्र की अनुमति से बनायी तथा बंगाल से शोरे, रेशम और चीनी का व्यापार आरम्भ किया। ये बंगाल के निर्यात की प्रमुख वस्तुऐं थी। उसी वर्ष एक राजवंश की स्त्री की डॉक्टर बौटन द्वारा चिकित्सा करने पर उसने अंग्रेज़ों को 3,000 रुपये वार्षिक में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति प्रदान की। शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने कासिम बाज़ार, पटना तथा अन्य स्थानों पर कोठियाँ बना लीं। 1658 में औरंगज़ेब ने मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। उसने अंग्रेज़ों के व्यापार पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया, परिणामस्वरूप 1658 से 1663 ई. तक अंग्रेज़ों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। किन्तु 1698 में सूबेदार अजीमुश्शान द्वारा अंग्रेज़ों को सूतानती, कालीघाट एवं गोविन्दपुर की जमींदारी दे दी गयी, जिससे अंग्रेज़ों को व्यापार करने में काफ़ी लाभ प्राप्त हुआ। 18वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दौर में यहाँ के सूबेदारों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर नवाब की उपाधि धारण की। मुर्शीदकुली ख़ाँ, जो औरंगज़ेब के समय में बंगाल का दीवान तथा मुर्शिदाबाद का फ़ौजदार था, बादशाह की मुत्यु के बाद 1717 में बंगाल का स्वतंत्र शासक बन गया। मुर्शीदकुली ख़ाँ ने बंगाल की राजधानी को ढाका से मुर्शिदाबाद हस्तांतरित कर दिया। उसके शासन काल में तीन विद्रोह हुए.
सीताराम राय, उदय नारायण तथा गुलाम मुहम्मद का विद्रोह।
शुजात ख़ाँ का विद्रोह।
नजात ख़ाँ का विद्रोह।
नजात ख़ाँ को हराने के बाद मुर्शीदकुली ख़ाँ ने उसकी जमीदारियों को अपने कृपापात्र रामजीवन को दे दिया। मुर्शीदकुली ख़ाँ ने नए सिरे से बंगाल के वित्तीय मामले का प्रबन्ध किया। उसने नए भूराजस्व बन्दोबस्त के जरिए जागीर भूमि के एक बड़े भाग को खालसा भूमि बना दिया इजारा व्यवस्था ;ठेके पर भूराजस्व वसूल करने की व्यवस्था आरम्भ की। 1732 ई. में बंगाल के नवाब द्वारा अलीवर्दी ख़ाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया गया। 1740 ई. में अलीवर्दी ख़ाँ ने बंगाल के नवाब शुजाउद्दीन के पुत्र सरफ़राज को घेरिया के युद्ध में परास्त कर बंगाल की सूबेदारी प्राप्त कर ली ओर वह अब बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सम्मिलित प्रदेश का नवाब बन गया। यही नहीं, इसने तत्कालीन मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह से 2 करोड़ रुपये नजराने के बदलें में स्वीकृति भी प्राप्त कर लिया। उसने लगभग 15 वर्ष तक मराठों से संघर्ष किया। अलीवर्दी ख़ाँ ने यूरोपियों की तुलना मधुमक्खियों से करते हुए कहा कि यदि उन्हें छेड़ा न जाय तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाय तो काट.काट कर मार डालेंगी।
1756 ई.में अलीवर्दी ख़ाँ के मरने के बाद उसके पौत्र सिराजुद्दौला ने गद्दी को ग्रहण किया। पूर्णिया का नवाब शौकतजंग ;सिराजुद्दौला की मौसी का लडका तथा घसीटी बेगम ;सिराजुद्दौला की मौसी, दोनों ही सिराजुद्दौला के प्रबल विरोधी थे। उसका सबसे प्रबल शत्रु बंगाल की सेना का सेनानायक और अलीवर्दी ख़ाँ का बहनाई मीर जाफ़र अली था। दूसरी ओर, चूंकि अंग्रेज़, फ़्राँसीसियों से भयभीत थे, अतः उन्होंने कलकत्ता की फ़ोर्ट विलियम कोठी की क़िलेबन्दी कर डाली। अंग्रेज़ों ने शौकत जंग एवं घसीटी बेगम का समर्थन किया। अंग्रेज़ों के इस कार्य से रुष्ट होकर सिराजुद्दौला ने 15 जून, 1756 को फ़ोर्ट विलियम का घेराव कर अंग्रेज़ों को आत्म.समर्पण के लिए मजबूर कर दिया। अन्ततः नवाब ने कलकत्ता मानिकचन्द्र को सौंप दिया और स्वयं मुर्शिदाबाद वापस आ गया।
प्रमुख यूरोपीय कम्पनी कंपनी स्थापना वर्ष
पुर्तग़ाली ईस्ट इण्डिया कंपनी ;इस्तादो द इण्डिया1498 ई.
अंग्रेज़ी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ;द गर्वनर एण्ड कम्पनी ऑफ़ मर्चण्ट्स ऑफ़ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज 1600 ई.
डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ;वेरीगंडे ओस्त इण्डिशें कंपनी 1602 ई.
डैनिश ईस्ट इण्डिया कंपनी 1616 ई.
फ़्राँसीसी ईस्ट इण्डिया कंपनी ;कंपनी इण्डेस ओरियंतलेस 1664 ई.
स्वीडिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी 1731 ई.
कलकत्ता की काल कोठरी
ऐसा माना जाता है कि बंगाल के नवाब ने 146 अंग्रेज़ बंदियों, जिनमें स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, को एक छोटे.से कमरे में बन्द कर दिया था। 20 जून, 1756 की रात को बंद करने के बाद जब 23 जून को प्रातः कोठरी को खोला गया तो उसमें 23 लोग ही जीवित पाये गये। जीवित रहने वालों में हॉलवैल भी था, जिसे इस घटना का रचयिता माना जाता है। इस घटना की विश्वसनीयता को इतिहासकारों ने संदिग्ध माना है और इतिहास में इस घटना का महत्व केवल इतना ही है कि अंग्रेज़ों ने इस घटना को आगे के आक्रामक युद्ध का कारण बनाये रखा।
प्लासी युद्ध की बुनियादइस प्रकार से कलकत्ता का पतन प्लासी युद्ध की पूर्व पीठिका माना जाता है। अंग्रेज़ अधिकारियों ने मद्रास से अपनी उस सेना को रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में कलकत्ता भेजा, जिसका गठन फ़्राँसीसियों से मुकाबलें के लिए किया गया था। इस सैन्य अभियान में एडमिरल वाटसन, क्लाइव का सहायक था। अंग्रज़ों द्वारा 2 जनवरी, 1757 को कलकत्ता पर अधिकार करने के बाद उन्होंने नवाब के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषण कर दी, परिणास्वरूप नवाब को क्लाइव के साथ 9 जनवरीए 1757 को अलीनगर की संधि नवाब द्वारा कलकत्ता को दिया गया नाम करनी पड़ी। संधि के अनुसार नवाब ने अंग्रेज़ों को वह अधिकार पुनः प्रदान किया, जो उन्हें सम्राट फ़र्रुख़सियर के फरमान द्वारा मिला हुआ था और इसके साथ ही तीन लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में दिया गया। अब रॉबर्ट क्लाइव ने कूटनीति के सहारे नवाब के उन अधिकारियों को अपनी ओर मिलाना चाहा, जो नवाब से असंतुष्ट थे। अपनी इस योजना के अन्तर्गत क्लाइव ने सेनापति मीर जाफर, साहूकार जगत सेठ, मानिक चन्द्र, कलकत्ता का व्यापारी राय दुलर्भ तथा अमीन चन्द्र से एक षडयंत्र कर सिराजुद्दौला को हटाने का प्रयत्न किया। इसी बीच मार्च, 1757 में अंग्रज़ों ने फ़्राँसीसियों से चन्द्रनगर के जीत लिया। अंग्रेज़ों के इन समस्त कृत्यों से नवाब का क्रोध सीमा से बाहर हो गया, जिसकी अन्तिम परिणति प्लासी के युद्ध में रूप में हुई।
डेनमार्क की ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना 1616 में हुई थी। इस कम्पनी ने 1620 में त्रैंकोवार ;तमिलनाडु तथा 1667 ई में सेरामपुर ;बंगाल में अपनी व्यापारिक कंपनियाँ स्थापित कर लीं। सेरामपुर डेनों का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। 1854 में डेन लोगों ने अपनी वाणिज्य कंपनी को अंग्रेज़ों को बेच दिया।
साभार :bharatdiscovery.org/
2 टिप्पणियां:
जानकारी देता आलेख,,,
recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
NICE POST
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