सोमवार, 28 जनवरी 2013

ब्रिटिश राज के खिलाफ



भारत की बलात्कार संस्कृति शहरी या ग्रामीण

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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने फरमाया कि बलात्कार भारत में नहीं वरन् इंडिया में होते हैं। भागवत के लिए भारत पर्याय है ग्रामीण क्षेत्र का और इंडिया से उनका आशय है शहरी इलाके। उनके अनुसार, शहरी क्षेत्रों के लोगों ने पाश्चात्य जीवनशैली अपना ली है जिसके कारण महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं।
आप देश के गांवों और जंगलों में जाईये। वहां सामूहिक बलात्कार और सेक्स अपराध नहीं होते। उनके कहने का अर्थ यह है कि जहां शहरी क्षेत्रों में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है वहीं गांव भारतीय संस्कृति में रचे.बसे हैं। प्राचीन भारतीय पंरपरा में महिलाओं को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और इन्हीं प्राचीन भारतीय मूल्यों और परंपराओं के कारण गांव, आज भी महिलाओं के विरूद्ध अपराधों से मुक्त हैं।
आंकड़े और तथ्य भागवत के दावे को पूरी तरह गलत साबित करते हैं। नेशनल ला यूनिवर्सिटी, दिल्ली में शिक्षक मृणाल सतीश द्वारा किया गया बलात्कार की घटनाओं का सांख्यिकीय अध्ययन एक अलग ही कथा कहता है। वे अदालतों के आंकड़ों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत में बलात्कार की 75 प्रतिशत घटनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं। उनके निष्कर्ष 1983 से लेकर 2009 तक की अवधि के क्रिमिनल ला जर्नल में प्रकाशित आंकड़ों पर आधारित हैं।
खैरलांजी जैसे मामले और आदिवासी महिलाओं के साथ आए दिन होने वाले बलात्कारों की जानकारी शायद भागवत तक नहीं पहुंच सकी है। परंतु उनकी यह विभाजक रेखा उन लोगों के गले नहीं उतर सकती जो दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के बीच काम करते हैं। भागवत इस समस्या का अति सरलीकरण कर रहे हैं।
प्राचीन भारत में महिलाओं को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता थाए यह केवल एक मिथक है जिसे सघन प्रयास से गढ़ा गया है। प्राचीन भारत में समय.समय पर महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आते रहे हैं। घुमन्तु आर्य सभ्यता से लेकर बाद की कृषि आधारित सभ्यता.जब लोग एक स्थान पर रहने लगे थे.तक महिलाओं की स्थिति एक सी रही होगी यह मान्यता गलत है। घुमन्तु आर्य सभ्यता के काल में भी महिलाओं को अपने पति की मृत्यु के बाद सांकेतिक आत्मदाह करना पड़ता था। रामायण में भगवान राम अपनी गर्भवती पत्नी सीता को मात्र इसलिए अपने घर से बाहर निकाल देते हैं क्योंकि अयोध्या में उनके चरित्र को लेकर कुछ अफवाहें फैल गईं थीं। महाभारत में पांडव अपनी सांझी पत्नी द्रोपदी को किसी वस्तु की तरह इस्तेमाल करते हैं और उसे जुएं में इस तरह दांव पर लगा देते हैं मानो वह उनकी संपत्ति हो। पांडवों के भाई.बंधु भी पीछे नहीं रहते और द्रोपदी को भरी सभा में नग्न करने का प्रयास करते हैं। यह था प्राचीन भारत में महिलाओं का उच्च दर्जा!
इसके बाद के काल के मूल्यों को मनुस्मृत्ति प्रतिबिंबित करती हैए जिसमें महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने की स्पष्ट मनाही की गई है और जिसके अनुसार पति की सेवा और घर.गृहस्थी के काम करना ही महिलाओं की शिक्षा और उनकी नियति है। गुप्तकाल ;तीसरी से सातवीं ईसवी जो कि भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग बताया जाता हैए में भी शिक्षा तक महिलाओं की पहुंच बहुत सीमित थी।  मैत्रेयी और गार्गी जैसी कुछ महिलाएं इसका अपवाद थीं और उन्हीं का नाम बार.बार दुहराकर यह साबित करने का प्रयास किया जाता है कि उस काल में महिलाओं को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। तथ्य यह है कि अधिकांश महिलाएं शिक्षा से वंचित थीं और केवल चन्द महिलाएं ही ज्ञानार्जन कर पातीं थीं। यज्ञों में महिलाओं का स्थान दूसरे दर्जे के यजमान ;वह व्यक्ति जो यज्ञ करवाने के लिए पंडित को बुलाता है रहता था। यह दिलचस्प है कि यजमान शब्द का कोई स्त्रीलिंग नहीं है।
भागवत और उनके संघ परिवार के सदस्य वर्तमान भारत की सभी बुराईयों के लिए मुसलमानों के देश में आगमन को दोषी ठहराते हैं। यह दलितों और महिलाओं के आतंरिक दमन के लिए बाहरी कारकों को दोषी ठहराने की कुटिल चाल है। इतिहास के आधुनिक काल मेंए ब्रिटिश शासन के दौरान, धार्मिक मान्यता प्राप्त कई बुराईयों के विरूद्ध समाज सुधारकों को लंबी और कठिन लड़ाई पड़ी। भागवत परिवार आज भी सती जैसी भयावह धार्मिक.सामाजिक प्रथा को दबे स्वर में सही ठहराता है। रूपकंवर के सती हो जाने के बाद विजयाराजे सिंधिया ने सती.निरोधक कानून के विरूद्ध मोर्चा निकाला था। उनका कहना था कि सतीप्रथा न केवल एक गौरवशाली परंपरा है वरन् वह हिन्दू महिलाओं का अधिकार भी है।
राजा राममोहन राय को सती प्रथा के अपने विरोध के चलते क्या.क्या कष्ट झेलने पड़े थे, यह सब जानते हैं। बाल विवाह भी ऐसी ही एक कुप्रथा थी। ब्रिटिश सरकार बाल विवाह को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बनाना चाहती थी परंतु  हिन्दू धार्मिक नेता इसके विरोध में खड़े हो गए। यह कहा गया कि हिन्दू धर्म का यह तकाजा है कि लड़कियों का विवाह उनके पहले मासिकधर्म के पूर्व कर दिया जाना चाहिए। विधवा पुनर्विवाह, देवदासी प्रथा का उन्मूलन आदि के लिए समाज सुधारकों को जितना संघर्ष करना पड़ा और जो कष्ट झेलने पड़ेए उनसे ही यह साफ हो जाता है कि प्राचीन भारत मंे महिलाओं की असल में क्या स्थिति थी।
शिक्षा महिला सशक्तिकरण की कुंजी है और महिलाओं को पुरूषों के समकक्ष दर्जा दिलवाने का एक प्रभावी हथियार भी। परंतु महिलाओं को शिक्षा पाने का अधिकार दिलवाने के लिए सावित्रीबाई फुले को फातिमा शेख व उन जैसी अन्य महिलाओं के सहयोग से एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। ये महिलाएं सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी थीं और उनके प्रयासांे का विरोध जिन आधारों पर किया गयाए उनमें से एक यह भी था कि महिला शिक्षा धर्म.विरूद्ध है।
दरअसल, भागवत उस आधुनिकीकरण का विरोध कर रहे हैं, प्रजातंत्र जिसका अविष्कार है। महिला अपराधों का कारण आधुनिकता या प्रजातंत्र नहीं है। बल्कि इसके उलट जातिगत और लैंगिक समानता का संघर्ष, आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का अविभाज्य हिस्सा है। प्रजातंत्रीकरण समाज के औपचारिक समानता से वास्तविक समानता की ओर बढ़ने की प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया हर सामाजिक आंदोलन के एजेन्डे में होनी चाहिए। महिलाओं के दमन की एक महत्वपूर्ण वजह है पितृसत्तात्मक व्यवस्था। यह व्यवस्था उन प्राचीन और मध्यकालीन मूल्यों को संरक्षित रखना चाहती है जो सामंती समाज में विद्यमान थे। यह उन मूल्यों मंे विश्वास करती है जिनके अनुसार महिलाओं को घर की चहारदीवारी के भीतर और पुरूषों के अधीन रहना चाहिए। आज भी देश में विधवाओं की जो हालत है, वह उस महान प्राचीन परंपरा की याद दिलाती है जिसे भागवत पुनर्जीवित करना चाहते हैं। बल्कि शायद वे यह भी चाहते होंगे कि विधवाओं को उनके पतियों की चिता पर जिन्दा जला दिया जाए। भागवत और उनके साथीगण भारत को पीछे ढकेलना चाहते हैं। वे हमसे वह सब छीन लेना चाहते हैं जो हमने अपने लंबे स्वाधीनता संग्राम से हासिल किया है.उस संग्राम से जो ब्रिटिश राज के खिलाफ तो था ही साथ ही, जिसका लक्ष्य लैंगिक और जातिगत समानता स्थापित करना भी था
-राम पुनियानी

1 टिप्पणी:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

"भारत की बलात्कार संस्कृति शहरी या ग्रामीण"
सुमन जी, इस देश में यूं तोअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हरेक इंसान को हैं,वो नागरिक हो या फिर पाकिस्तानी ( कसाब भी मरने से पहले बहुत कुछ बोल गया था ) ये बात और है कि नंदी जैसे समाजशास्त्रियों को नहीं है किन्तु आपके इन कामरेड पुनयानी जी को काफी समय से पढता आया हूँ और आपसे विनम्र आगर्ह करूंगा कि इन महाशय तक यह सन्देश अवश्य पहुंचाए कि एक बुद्धिजीवी से लिखते वक्त शालीन भाषा की अपेक्षा की जाती है। सिर्फ वाह-वाही बटोरना ही ध्यॆय नहीं होना चाहिए !
कुछ कारणों से मैं भी मोहन भागवत का कटु आलोचक हूँ किन्तु साथ ही इन्हें (पुनयानी जी को) मेरा यह सवाल भी है की क्या यह हमने हासिल कर लिया जो आप कह रहे है? " वे हमसे वह सब छीन लेना चाहते हैं जो हमने अपने लंबे स्वाधीनता संग्राम से हासिल किया है.उस संग्राम से जो ब्रिटिश राज के खिलाफ तो था ही साथ ही, जिसका लक्ष्य लैंगिक और जातिगत समानता स्थापित करना भी था"

हाँ आप से भी विनम्र आग्रह है कि आप इस टिप्पनी के प्रत्युतर में आप मेरे ब्लॉग पर सिर्फ Nice लिखने न ही पहुंचे तो अति उत्तम :) बुरा मत मानियेगा , आप तो जानते ही है की मेरी मजाक की गंदी आदत है ! :)

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