बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

दंगामुक्त भारत के निर्माण






हमारे देश में जहां एक ओर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी शक्तियों की गतिविधियों में तेजी से वृद्धि हो रही है वहीं दूसरी ओर सरकार लगभग लकवाग्रस्त है और इन शक्तियों के खिलाफ कोई निर्णायक कदम उठाने में असमर्थ प्रतीत हो रही है। ऐसी स्थिति में हम बिना किसी संदेह के यह कह सकते हैं कि भारत में साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक राजनीति का बोलबाला अभी बना रहेगा। भारत में साम्प्रदायिक ताकतों की शक्ति में दिन ब दिन वृद्धि हो रही है। गुजरात के भयावह दंगों के बाद साम्प्रदायिक हिंसा में जो कमी परिलक्षित हो रही थी वह भी अब दिखलाई नहीं देती। साम्प्रदायिक दंगे फिर से होने लगे हैं और इनका स्वरूप राष्ट्रव्यापी है। गुजरात के बाद असम में व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा हुई और एक के बाद एक हो रहे दंगों से ऐसा लग रहा है मानो स्थिति वही हो गई है जिसे सन् 1980 के दशक में एम. जे. अकबर ने ‘दंगे के बाद दंगा‘ निरूपित किया था।
मुझे धर्मनिरपेक्ष ताकतों की प्रतिबद्धता पर तनिक भी संदेह नहीं है। साम्प्रदायिक दंगे उनकी चिंता का विषय हैं परंतु दंगा खत्म होते ही उनकी चिंता भी मानो समाप्त हो जाती है। ऐसे रवैये से काम चलने वाला नहीं है। आरएसएस के कार्यकर्ता अपने काम को मिशन बतौर करते हैं और बारहों महीने तीसों दिन पूरे जोशो खरोश से अपने काम में जुटे रहते हैं। वे समाज में साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। आरएसएस प्रचारकों की तुलना में धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं की संख्या न केवल बहुत कम है वरन् उनमें वह उत्साह और निष्ठा भी नहीं है, जो इतनी बड़ी लड़ाई के लिए जरूरी है।
जहां तक सरकारों का सवाल है- चाहे वे कांग्रेस की हों, मायावती की या मुलायम सिंह की- उनके बारे में कुछ कहना बेकार है। हां, वामपंथी सरकारांे और पहले लालू प्रसाद यादव और अब नीतीश कुमार ने कुछ हद तक साम्प्रदायिकता के दानव से निपटने में सफलता हासिल की है। भले ही लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अपनी राजनैतिक मजबूरियों के चलते, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ रहे हैं परंतु वे इस मोर्चे पर पूरी निष्ठा से डटे हुए हैं और उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई है। दोनों के बीच मुसलमानों के वोट हासिल करने की कड़ी होड़ है। जिस तरह बिहार और पश्चिम बंगाल लंबे समय तक दंगा-मुक्त रह सके हैं, उससे यह साफ है कि अगर सरकार चाहे तो दंगे नहीं होंगे।
यद्यपि विचारधारा की दृष्टि से कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है तथापि उसकी नीतियांे में हमेशा से एक दोगलापन रहा है और कांग्रेस-शासित राज्यों में साम्प्रदायिक हिंसा पर पूरी तरह रोक लग सके, इसके लिए कांग्रेस सरकारों ने कभी गंभीरता से प्रयास नहीं किए। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में भी कांग्रेस का रवैया काफी ढ़ुलमुल था। कांगे्रस ने बाबरी मस्जिद को ढह जाने दिया और देश को साम्प्रदायिक हिंसा के दावानल में झोंक दिया।
हमारे देश के अधिकांश राजनेता साम्प्रदायिक और जातिगत विभाजक रेखाओं को बनाए रखने और उन्हें और गहरा करने में रूचि रखते हैं क्योंकि इससे उन्हें वोट मिलने की उम्मीद होती है। जैसे-जैसे आर्थिक समस्याएं बढ़ती जाएंगी और महंगाई डायन का मुंह बड़ा, और बड़ा होता जाएगा वैसे-वैसे हमारे राजनीतिज्ञों के लिए पहचान की राजनीति की उपयोगिता बढ़ती जाएगी क्योंकि पहचान की राजनीति के जरिए भावनाएं भड़काकर वे जनता का ध्यान आर्थिक समस्याएं  सुलझाने में उनकी विफलता से हटा सकेंगे।
इस पृष्ठभूमि में साम्प्रदायिकता की समस्या का क्या हल हो सकता है? इसका कोई आसान हल नहीं है और न ही इसे रातों-रात सुलझाया जा सकता है। एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि इस समस्या के सुलझाव की किसी भी कोशिश में राजनीतिज्ञों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। प्रजातंत्र में हम राजनीतिज्ञों को दरकिनार नहीं कर सकते चाहे वे कितने ही अच्छे हों या कितने ही बुरे। प्रजातंत्र का कम से कम एक लाभ तो यह है कि सब नहीं तो कुछ राजनेता अल्पसंख्यकांे के वोटों के लालच में साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान में भागीदारी करने के लिए तैयार हो सकते हैं। गहन सोच विचार के पश्चात मंैने साम्प्रदायिकता की समस्या के स्थायी हल के लिए एक पांच सूत्रीय फार्मूला तैयार किया है। जाहिर है कि यह फार्मूला कोई जादू की छड़ी नहीं है और इससे अपेक्षित परिणाम तभी प्राप्त होंगे जब हम इस पर लंबे समय तक पूरी निष्ठा से अमल करेंगे।
इस फार्मूले का पहला बिन्दु है सभी स्कूली कक्षाआंे के पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन-विशेषकर उस हिस्से में जिसका संबंध मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास, स्वाधीनता संग्राम व देश के विभाजन से है। यह खेदजनक है कि आजादी के 65 साल बाद भी मध्यकालीन इतिहास को देखने-समझने के हमारे नजरिये में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया है। हम आज भी मध्यकालीन इतिहास का घोर सरलीकरण कर रहे हैं और इसका ही नतीजा है कि मंदिर-मस्जिद जैसे व्यर्थ के विवादों को सुलझाने में हमारे देश की ऊर्जा खर्च हो रही है।
इतिहास की इसी तोड़ी-मरोड़ी गई समझ के कारण रामजन्मभूमि आंदोलन को अभूतपूर्व सफलता मिली थी। हमारा मध्यकालीन इतिहास कहता है कि महमूद गजनी और औरंगजेब ने सैकड़ों मंदिर ढहाए। परंतु वह हमारी सांझी संस्कृति की चर्चा नहीं करता। वह उन सूफी संतों, लेखकों, कवियों और संगीतकारों के बारे में कुछ नहीं बताता जिन्होंने दोनों समुदायों के बीच संवाद के सेतु निर्मित करने में अहम भूमिका निभाई। बाबा फरीद, मोइनुद्दीन चिश्ती, मियां मीर, निजामउद्दीन औलिया, मिर्जा जानेजांना, दाराशिकोह और अन्य अनेक संगीतकारांे, वास्तुविदों, कवियों आदि की हमारा इतिहास चर्चा ही नहीं करता, जो दोनों समुदायांे को नजदीक लाए और जिनके प्रयासों से ढेर सारी विविधताओं के बावजूद, भारत एक राष्ट्र बन सका। इतिहास के विद्यार्थी इन लोगों के नाम तक नहीं जानते। यदि हमारी पाठ्यपुस्तकों में भारत की सांझा संस्कृति और उसे मजबूत करने वाली शक्तियों व व्यक्तित्वों के बारे में कम से कम एक अध्याय  शामिल हो तो इससे बहुत लाभ होगा। हमारे विद्यार्थियों को यह अहसास होगा कि हमारी सांझा संस्कृति कितनी समृद्ध है। उन्हें यह पता चलेगा कि दोनों समुदायों के बौद्धिक व धार्मिक नेता और कलाकार न केवल एक दूसरे के नजदीक थे वरन् उन्होंने हमारी मिलीजुली संस्कृति को धार्मिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक दृष्टि से कितना समृद्ध किया था।
दाराशिकोह ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘मजमा अल बहराईन‘ (दो महासागरों का मिलन)। इस पुस्तक में उन्होंने सफलतापूर्वक यह साबित किया था कि हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच कोई शत्रुता या वैमनस्य नहीं है बल्कि ये दोनों धर्म एक दूसरे के नजदीक हैं। इस तरह का साहित्य आज भी दोनों समुदायों के सदस्यों को एक-दूसरे के नजदीक लाने में मददगार सिद्ध हो सकता है। यह तथ्य कि हमारे पाठ्यक्रमों में इस तरह के व्यक्त्तिवों और साहित्य को कोई महत्व नहीं दिया गया है स्पष्ट दर्शाता है कि हमारी रूचि एकता में कम है विभाजन और वैमनस्यता में ज्यादा। हमें राजनीतिज्ञों पर दबाव डालना चाहिए कि हमारे इतिहास के इस पक्ष को न केवल पाठ्यपुस्तकों में आवश्यक रूप से शामिल किया जाए वरन् उसे पर्याप्त महत्व भी दिया जाए।
इसी तरह, आधुनिक इतिहास व स्वाधीनता संग्राम का भी हमारी पाठ्यपुस्तकों में अत्यंत पूर्वाग्रहपूर्ण विवरण है। स्वाधीनता संग्राम में अल्पसंख्यक समुदाय की भूमिका को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया है। मौलाना महमूदउल हसन, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबेदुल्ला सिन्धी, मौलाना हिफ्जउर्रहमान जैसी शख्सियतों की चर्चा भी नहीं है जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और जिन्हें अंग्रेज शासकों ने माल्टा, अंडमान निकोबार आदि में निर्वासित किया। इन्हींे में से कुछ ने ‘रेशमी रूमाल षड़यंत्र‘ में भाग लिया था जिसका उद्धेश्य स्वतंत्रता के संदेश को देशभर में पहुंचाना था और जिसकी उन्हें भारी कीमत अदा करनी पड़ी थी।
हमारी पाठ्पुस्तकों से यह भान भी होता है कि कुछ अपवादों को छोड़कर, सभी मुसलमान पाकिस्तान के पक्षधर थे जबकि सच इसके ठीक उलट है। अधिकांश मुसलमान देश के बंटवारे के खिलाफ थे और चाहते थे कि भारत एक बना रहे। आज भी मुसलमानों को देश के विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाता है और दंगे भड़काने के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल होता है। यह राष्ट्रहित में होगा कि हम स्वाधीनता संग्राम और उसमें मुसलमानों की हिस्सेदारी की सही तस्वीर से हमारी नई पीढ़ी को परिचित करवाएं।
2. इस सिलसिले में दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु है नैतिक शिक्षा। आज हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरा फोकस केवल और केवल कैरियर बनाने पर है। चरित्र निर्माण के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। हमारी शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों को ज्ञान और सूचना तो देती है परंतु नैतिक मूल्य नहीं। विद्यार्थियों को सच्चरित्र बनाना हमारी शिक्षा व्यवस्था की प्राथमिकताओं में कहीं नहीं है। मैं इसके कारणों पर यहां चर्चा नहीं करना चाहता परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि यह हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी त्रासदी है। इसके अतिरिक्त, हमारी शिक्षा प्रणाली जो बताया जा रहा है उसपर आंख मूंदकर विश्वास करना सिखाती है। हमारे विद्यार्थी सोचते नहीं हैं, केवल रटते हैं। उनके लिए शिक्षा केवल वह माध्यम है जिसके जरिये वे ऊँचे वेतन वाली नौकरियां हासिल कर भौतिक सुख-सुविधााओं से पूर्ण जीवन बिता सकें। हमारी शिक्षा व्यवस्था अल्पसंख्यकों, दलितों व आदिवासियों के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त मस्तिष्कों का उत्पादन कर रही है। स्कूल या कालेज से निकलने वाले हमारे विद्यार्थियों का दिलोदिमाग स्वस्थ व संतुलित नहीं होता। यदि हम अपनी शिक्षा प्रणाली मेें मूलभूत परिवर्तन ला सकें तो यह राष्ट्र हित में होगा। हमें ऐसे विद्यार्थी तैयार करने होंगे जिनके मन में विविधता के प्रति सम्मान हो और गरीब व कमजोरों के प्रति सहानुभूति व प्रेम। आज की शिक्षा व्यवस्था समस्या का भाग है। हमें उसे समाधान का हिस्सा बनाना होगा।
3. पुलिस व्यवस्था में सुधारः चूंकि हमारी पुलिस भी हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था की देन है अतः पुलिसकर्मी भी कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहते हैं। वे अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य कमजोर तबकों को जन्मजात अपराधी मानते हैं। हम तब तक देश में साम्प्रदायिक हिंसा का अंत नहीं कर सकते जब तक कि पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधार न हों। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दंगों को रोकने में पुलिस की अहम भूमिका होती है और पुलिस के सहयोग के बगैर दंगों के दोषियों को सजा दिलवाना असंभव है। हमारी पुलिस गहरे तक पूर्वाग्रहग्रस्त है। क्या हम लगभग हर दंगे के बाद यह नहीं सुनते कि पुलिस ने दंगो को रोकने की बजाए उन्हें और भड़काया?
मैंने सन् 1961 के जबलपुर दंगों से लेकर 2002 के गुजरात दंगों तक हर बड़े दंगे का गहन अध्ययन किया है। मैंने पुलिसकर्मियों के लिए 150 से अधिक शांति व सद्भाव कार्यशालाओं का संचालन भी किया है। मेरा यह अनुभव है कि शिक्षा व्यवस्था की तरह, पुलिस व्यवस्था भी समाधान नहीं बल्कि समस्या का हिस्सा है। उत्तरप्रदेश काॅडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय, जो वर्तमान में महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं, ने ‘साम्प्रदायिक दंगों मंे पुलिस की भूमिका‘ विषय पर उन दिनों शोध किया था जब वे राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक थे। उनके शोध का नतीजा यह था कि पुलिस का घोर साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है। उन्होंने इलाहबाद के दंगों पर हिन्दी में एक उपन्यास भी लिखा है जिसका शीर्षक है ‘शहर में कफ्र्यू‘। इस उपन्यास में उन्होंने इलाहबाद में दंगों के दौरान पुलिस की भूमिका का चित्रण किया है और यह बताया है कि किस तरह पुलिस, हिन्दू समुदाय का साथ देती है।
मेरा प्रस्ताव है कि पुलिसकर्मियों के भर्ती-पूर्व प्रशिक्षण में उन्हें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से परिचित कराया जाना चाहिए। जो पुलिसकर्मी सेवारत हैं उनके लिए रिफे्रशर कोर्स चलाए जा सकते हैं। मेरा अनुभव है कि इस तरह की कार्यशालाओं और पाठ्यक्रमों का पुलिसकर्मियों की मानसिकता पर गहरा असर पड़ता है। मैंने राष्ट्रीय पुलिस अकादमी और कई राज्यों की पुलिस अकादमियों में व्याख्यान दिए हैं और उनका चमत्कारिक परिणाम देखा है। अगर यह काम नियमित और आवश्यक रूप से किया जाएगा तो इसके बहुत अच्छे नतीजे निकलेंगे। हाल में महाराष्ट्र के धुले में दंगों के दौरान पुलिस ने, छःह मुस्लिम युवकों को  सीने व गर्दन पर गोली चलाकर मार डाला। यह पुलिस मैन्युअल का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन था। परंतु सरकार ने संबंधित पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। उन्हें निलंबित तक नहीं किया गया।
4. साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक का अधिनियमन: अगर यह विधेयक कानून बन जाता है तो इससे साम्प्रदायिक हिंसा रोकने में बहुत मदद मिलेगी क्योंकि यह कानून साम्प्रदायिक हिंसा के लिए अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करता है। इस बिल को  धर्मनिरपेक्ष कार्यकर्ताओं ने बहुत सावधानी से तैयार कर श्रीमती सोनिया गांधी को सौंपा था। बिल पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया जानने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाई। इस बैठक में अरूण जेटली और सुषमा स्वराज सहित अन्य भाजपा नेताओं ने विधेयक पर इतना तीखा हल्ला बोला कि सरकार घबरा गई और उसने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस बिल को तुरंत पुनर्जीवित किया जाना चाहिए और अगर जरूरी हो, तो कुछ संशोधनों के साथ, संसद से पारित करवाया जाना चाहिए। अगर इसके साथ-साथ पांचवे पुलिस आयोग की रपट को भी लागू कर दिया जाए तो साम्प्रदायिक दंगों की समस्या से निपटने में हमें काफी हद तक कामयाबी मिल सकती है। इस बिल में साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों के लिए मुआवजे व नुकसान की भरपाई की व्यवस्था भी है।
5. मिश्रित व कास्मोपालिटन रहवास: हर दंगे के बाद, हिन्दू और मुसलमान, मिश्रित आबादी वाले क्षेत्रों को छोड़कर अपने-अपने मोहल्लों में रहने चले जाते हैं। यह प्रवृत्ति समाज के एकीकरण में बड़ी बाधा है। जिस शहर में अलग-अलग धर्मों के लोग अलग-अलग मोहल्लों में रहते हैं वहां साम्प्रदायिक दुष्प्रचार और अफवाहें फैलाना आसान हो जाता है। सरकार को किसी भी ऐसी गृह निर्माण समिति को पंजीकृत नहीं करना चाहिए जिसमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, जैन व बौद्ध सदस्य न हों। हमारे देश में धर्म और जाति पर आधारित गृह निर्माण समितियां बहुत आम हैं। इसके विपरीत, सिंगापुर में ऐसा कानून है कि किसी गृह निर्माण समिति या एपार्टमेंट ब्लाक को सरकार तब तक आवश्यक अनुमति नहीं देती जब तक उसमें सभी धार्मिक व नस्लीय समूहों का प्रतिनिधित्व न हो।
ये वे पांच सुझाव है ंजो अगर स्वीकार कर लिए जाते हैं तो हमारे समाज में शांति व साम्प्रदायिक सद्भाव की स्थापना में काफी मदद मिलेगी। मैं जानता हूं कि सरकारों को इन सुझावों पर अमल करने के लिए राजी करना बहुत आसान नहीं है क्योंकि इन पर अमल से निहित स्वार्थों को चोट पहुंचेगी, विशेषकर राजनैतिक स्वार्थों को। आज हमारे देश में चुनाव लोगों को विभाजित करके जीते जाते हैं उन्हें एक करके नहीं। पहचान के मुद्दे की चुनावों में उन मसलों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका रहती है जिनका संबंध लोगों की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति से है। फिर भी, मैं कम से यह अपेक्षा तो कर ही सकता हूं कि इन मुद्दों पर चर्चा और बहस होगी।
 -डा. असगर अली इंजीनियर

2 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कड़े क़ानून शीघ्र बनना चाहिए,,,,

RECENT POST बदनसीबी,

Neetu Singhal ने कहा…

उत्पाद प्रयोग के हेतुक होता है विधि -अनुबंध क्रियान्वयन हेतु,
उत्पाद एवं विधि अनुबंध दोनों ही की गुणवत्ता का अनुमान लगाना
बिना उनके प्रयोग अथवा क्रियान्वयन के असंभव है.....

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