मन्टो पर लिखने में एक बड़ी दुशवारी यह सामने आती है कि बात कहाँ से शुरू की जाए इसलिए नहीं कि बाज़ लोगों की निगाह में वह बहुत मुतानाजा अफ़साना निगार हैं या जिन्सी मौज़्ाुआत का जि़क्र उनके यहाँ अक्सर ऐसा अन्दाज़ अख्तियार कर गया है जिसे आम एख़लाक़ी व तहज़ीबी कदरें क़ुबूल नहीं कर पातीं। मन्टो, इसमें शक नहीं कि जिन्स के बयान में ज़्यादा बेबाक हो जाते हैं लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि अफ़सानानिगारी के फ़न और बयानिया पर कुदरत रखने वाले वह ऐसे फ़नकार हैं कि जिनके अफसानों के इतने अबयाद हैं कि इनके बारे में आसानी से कोई राय नहीं कायम की जा सकती है।
आम अफ़साना निगारांे की दुनिया हमारी ख़ाक व आब की दुनिया की तरह महदूद होती है इसलिए इनका तजजि़या वाक़्या, किरदार, जब़ान और इज़हार के अहाते में आसानी से हो जाता है लेकिन मन्टो मुख्तलिफ तरह के फनकार हैं। इनके लिए तन्क़ीद कुछ और उसअते फि़क्र ओ नज़र का मतालबा करती है।
मन्टो 1912 में पैदा हुए। आस्कर वाइल्ड के ड्रामे, विक्टर हियूगो के नावेल और रूसी व फ्ऱान्सीसी अफ़सानों के तरज़ुमों से अदब के दरवाज़े पर दस्तक दी। कब वह इसमे दाखिल हो गए और किस तरह वह इस पर छा गए ये महसूस भी नहीं हुआ। 1932 में उर्दू फ़साने की तारीख़ में एक तहलका मचा जब ‘अंगारे’ शाया हुई, जिसने सदियों में मुरŸाब हुए एख़लाकी ज़ाब्तो को हिला दिया। किताब ज़्ाब्त हो गई लेकिन ज़हनों में एक बेचैनी छोड़ गई। इसका हवाला यूँ आ गया कि उसी के आस-पास मन्टो ने अफ़साने लिखने शुरू किए लेकिन इतने बड़े अदबी धमाके का इन पर कोई असर नज़र नहीं आता। इनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ क़रार दिया जाता है जो उस वक्त के इनके अदबी व नज़रयाती रहनुमा या दोस्त कामरेडबारी के रिसाले ‘ख़ल्क’ में शाया हुआ। ये पहला अफ़साना फ़न्नी एतबार से जैसा भी हो लेकिन उस वक़्त के एक बहुत हस्सास मौंज़्ाू पर है जो मन्टो के अन्दर इंसानियत और ज़्ाुल्म के खि़लाफ एहतजाज का पहला तहरीरी इज़्ाहार है, यानी जलियाँ वाला बाग, का क़त्ले आम। इसके अलावा जब 1936 में इनके अफ़सानों का पहला मजमूआ, ‘आतिश पारे’, शाया हुआ जिसमें सिर्फ़ आठ अफ़साने थे और ये अफ़साने आम अन्दाज़्ा के अफ़साने थे। इसमें कोई अफ़साना ऐसा नहीं जिस पर उरियाँ नवीसी का इल्ज़ाम आयद किया जा सके। लेकिन इसके बाद 1940 में शाया होने वाले इनके मजमूए ‘मन्टो के अफ़साने’ में दो तब्दीलियाँ नज़र आती हैं अव्वल मजमूए का नाम जो इनके अन्दर छुपी हुई नरगिसियत का अहसास दिलाता है। दूसरे इन अफ़सानों में इनका लहजा बदला हुआ महसूस होता है। इज़हार पर इनकी गिरफ्त और कहानी के अन्दर पोशीदा तन्ज़ के साथ ‘जिन्स के बारे में इनके खुले हुए रवय्ये के अंकुर फूटते नज़र आते हैं। इस मजमून में 22 अफ़साने हैं जिसमें तीन अफ़सानों को आप इनके जिन्सी रवय्ये के सिलसिले में नामज़द कर सकते हैं। पहला ब्लाउज़, दूसरा फाफा और तीसरा शोशो। इसके अलावा इस किताब के इन्तसाब से यह भी ज़ाहिर होता है कि अपने इन इब्तदाई 30 अफ़सानों से ही क़ारयीन का एक तबक़ा इनके खिलाफ रज़म आरा हो गया था। इन्होंने तन्ज़न उसे ‘दीन दुनिया’ अख़बार के नाम मानून किया जो इनके बारे में सबसे ज्यादा गालिया छापता रहता था।
मतालए मन्टो में पहला वक़्फ़ा यहीं पर आता है कि आखि़र क्या वजह है कि शुरू ही से मन्टो की मुख़ालिफ़त होने लगी थी। इस मुख़ालिफ़त को उभारने और हवा देने में ख़ुद मन्टो का अपना कितना दख़ल था। मन्टो के जि़न्दगी नामे पर अगर एक निगाह डालें तो अन्दाज़ा होगा कि मन्टो इब्तदा से जिन्दगी के आखिर हिस्से तक नरगिसियत या खुद नज़री का शिकार रहे। और घरेलू मामलात की वजह से हमेशा माशी तंग दस्ती का शिकार रहे यही वजह है कि इब्तदा से ही इन्होंने तर्जुमा करने और उससे अपने अख़राजात निकालने की कोशिश शुरू कर दी थी। माली और जिस्मानी दोनांे सूरतों में वह अपने भाइयों के मुक़ाबले में कमतर थे। तालीम में भी आगे नहीं बढ़ सके। जिसने क़लम में तन्ज़ और तज़हीक की चुभन पैदा कर दी। इसका अन्दाज़ा इससे भी किया जा सकता है कि अदब में इनकी एक जगह बन जाने के बाद जब इन्हें ‘हल्का’, अरबाब ज़्ाौक का रुक्न, नामज़द करने को कहा गया तो इनका ये रद्देअमल था:-
‘‘यार मेरी वजह से किसी के एज़ाज़ में इज़ाफा होता है तो फिर मुझे क्यों एतराज़ हो? जाहिर है कि हल्का का मेम्बर बनना मेरे लिए तो बाइसे इफि़्तख़ार नहीं। अगर मैं हल्का का मेम्बर बन जाता हूँ और मेरे मेम्बर बनने से हल्के का मर्तबा बढ जाता है तो फिर मुझे एतराज़ नहीं होना चाहिए।’’ मन्टो मेरा दोस्त बहवाला अफ़साने मन्टो के (डाॅ0 खालिद अशरफ़ सफा-153)
मैं समझता हूँ कि इसी नरगिसियत ने इनसे अपनी क़ब्र का कुतबा लिखवाया और इनके अफ़सानों में पाई जाने वाली बेचैनी में भी इस नरगिसियत का एक हिस्सा है।
लेकिन इस नफि़्सयाती उलझन का सबब क्या था। वे पैदाइशी तौर पर न जिस्मानी मरीज थे और न नफ़्सियाती। लेकिन ऐसा महसूस होता है कि बचपन ही से वे अपने ख़ानदानी हालात से मुतमइन नहीं थे और इसकी जड़ें इनके अन्दर कहीं बहुत गहराई में पैबस्त हो गई थीं। इनके बचपन के बारे में कहीं मालूमात नहीं हासिल हुईं, सिवाय इसके कि वे एक अच्छे बाइज्जत, मुतमव्विल ख़ानदान से तअल्लुक़ रखते थे और अपने वालिद की दूसरी बीबी की औलाद थे। इनके तीन सौतेले बड़े भाई बहुत आला तालीम हासिल कर रहे थे। बचपन में वालिद, भाइयों और अहले ख़ानदान का रवैया कैसा था कि मन्टो घर, अइज्जा, भाई और तालीम हर चीज से एक तरह से बाग़ी नज़र आते हैं। घर से भाग जाना, स्कूल न जाना, आवारागर्दी करना, ग़लत लोगों की सोहबत में बैठना, जुआ खेलना सारी बातें मुझे जि़द में की गई बगा़वत महसूस होती हैं। जिसका कोई अन्दरूनी सबब ज़रूर है। वरना इनके वालिद ने अपने बड़े बेटों की तरह ही इनको भी अच्छी तालीम दिलाने की कोशिश की लेकिन अपनी आवारगी में वे इण्टर में फेल हो गए। घर से भाग गए, जुआ और नशे में अपने को बरबाद करने की कोशिश की। इस तरह का जज़्बा उन्हीं लोगों में होता है जो अपने माहौल या ख़ानदानी हालात से मुतमुइन नहीं होते। मन्टो ने जान बूझकर अपने को हर तरह ख़राब करने की कोशिश की, वह तालीम के लिए अलीगढ़ भेज दिए गए कि शायद वहाँ
सुधर जाएँ। यहाँ उन्हें मजाज़, सरदार, सिब्ते हसन, अख्तर हुसैन रायपुरी वगैरह का साथ मिला लेकिन इन पर कोई अस़र नहीं हुआ, कुछ दिनों में बीमार हो गए डाक्टरों ने दिक़ का मजऱ् तशखीश किया और उन्हें बरोत (कश्मीर) इलाज के लिए भेज दिया गया।
अज़ीम रूसी और फ्ऱांसीसी अफ़साना निगारों के तर्जुमे करने की वजह से कि़स्सागोई से एक तअल्लुक़ तो पैदा हो ही चुका था। कश्मीर की खूबसूरत फि़जा, बरोत के खूबसूरत पहाड़ और सरबुलन्द दीवार से शाम होते ही हवाओं की सहर अंगेज, आवाज़ें आने लगतीं तो एक अजीब सा समा पैदा हो जाता है इसी फि़ज़ा में मन्टो की अफ़साना निगारी की इब्तदा हुई; और फिर आखि़र, वक़्त तक इनके क़लम की नश्तरियत ने किसी को माफ नहीं किया। मन्टो बेहद बल्कि जरूरत से ज्यादा हस्सास और ज़्ाूद रंज इन्सान थे। मुझे मालूम नहीं क्यों ये लगता है कि इनके ज़हनी इरतक़ा इनके बागि़याना रवैये शिद्दते एहसास और इनके अन्दर कहीं छुपी हुई बुज़दिली में इनके साथ ख़ानदान के रवैये का ज़रूर द़ख़ल था जिसके असरात इनकी पूरी जि़न्दगी पर छाए रहे हैं।
मन्टो का एक मसला और है इनकी तंगदस्ती और माली परेशानी का, बचपन से आखि़र तक इनकी जि़न्दगी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसमें मन्टो माली परेशानियाँ का शिकार रहे और ये परेशानियाँ मामूली नहीं थीं, चालीस रूपये महीने की मुलाज़मत जिसमें दफ्तर में सोने का किराया कट जाता था। इसके अलावा ये भी यक़ीनी नहीं था कि ये 38 रूपये हर महीने मिल ही जाएँगे। मन्टो बेहद अच्छे और मकबूल फि़ल्मी सहाफ़ी थे बहुत अच्छे अफ़साना निगार थे लेकिन हमेशा एक रिसाले के दफ्तर से किसी फि़ल्म स्टूडियो में या वहाँ से फिर किसी रिसाले के दफ्तर में या आॅल इण्डिया रेडियो में और फिर यहाँ की सियासत से परेशान, होकर मुम्बई। मुस्तकिल एक बेचैनी और परेशानी, न कोई बाक़ायदा ज़रिए आमदनी न कोई बाक़ायदा मुलाज़मत, रेडियो में नौकरी मिली भी तो चला न सके। 1938 में शादी हो गई इस वक़्त चालीस रूपये महीने के मुलाजि़म थे और 9 रूपये महीने पर एक बहुत ग़लीज़ किस्म की खोली ले ली थी जिसमें दुल्हन को लाने का एहतमाम था। इसलिए मन्टो के मआशी मसायल और नफ़्सियाती मसायल दोनों पर निगाह रखने के बाद ही इनके अफ़साने के बारे में कोई गुफ़्तगू हो सकती है।
मन्टो पर हमेशा से इल्जाम रहा कि इनके यहाँ जिन्सी मसायल का इज़हार उरियाँ निगारी की हदों में पहुँच जाता है। इन पर फ़ोहश निगारी के मुक़दमे भी चले और अपने कलम की वजह से जो इनका ज़रिया मआश था, बहुत सी परेशानियाँ उठानी पड़ीं। ख़ुद तरक़्की पसन्द हल्क़ो में भी एक गिरोह ऐसा था जो मन्टो की बाज़ तहरीरों को गै़र तरक़्क़ी पसन्दाना क़रार देता था। सवाल इसका नहीं है कि इस वक़्त तरक़्क़ी पसन्द मुसन्नफीन का रद्देअमल क्या था? या मज़हबी मुबल्लग़ीन क्या कहते थे सवाल इसका है कि हमारे अफ़सानों में उस वक़्त जिन्स का मौज़्ाू जिस तरह पेश किया गया उसका मक़सद क्या है? क्या इसका मक़सद समाजी हक़ीक़त का इज़हार है? या सिर्फ लज़्ज़त अन्दोज़ी, इनफ़रादी कजरवी या एक बीमारी?
जिन्स का गै़र मुतवाज़न इज़हार एक ज़माने में हमारे अदब में बड़ी शिद्दत से दर आया था और उसका सारा इल्ज़ाम तरक़्क़ी पसन्द तहरीक पर आया, हालाँकि जिन लोगों ने इसे फ़रोग दिया उनका तरक़्क़ी पसन्दी से दूर का तअल्लुक भी नहीं था लेकिन एक हद तक इन्हें बढ़ावा तरक़्क़ी पसन्द मुसन्नफ़ीन की इस तरह की तहरीरों से मिला जिसकी वजह से बाज़ लोगों को जिन्स के मौज़्ाू को अपनी तिजारत के फ़रोग के लिए इस्तेमाल का मौका मिला ‘वही वहाँनवी’ के नाम से गुज़श्ता सदी की चैथी दहाई में कितने ही ऐसे ‘नावेल शाया हो गए जो समाज को जिन्स ज़दगी और बेहयाई में मुबतला करने वाले थे। कहा जाता है कि इस फ़र्जी नाम के पीछे इस वक्त के बाज पेशेवर मुसन्नफ़ीन का क़लम था जिसका बहरहाल कोई सुबूत अब नहीं है। तरक़्क़ी पसन्द मुसन्नफ़ीन जिन्स के समाजी मसले या नफ़सियाती पेचीदगियों से समाज पर पड़ने वाले असरात के इज़हार के खिलाफ कभी नहीं थे। हैदराबाद कान्फ्ऱेन्स में जिन्स के इज़हार के खि़लाफ तजवीज़ का वापस लिया जाना ख़ुद इसका सुबूत है।
मन्टो ने इस मौज़्ाू पर जो अफ़साने लिखे उनमें सारे अफ़सानों को अच्छे अफ़सानों में शुमार नहीं किया जा सकता। इनके कई नाक़दीन ने इन पर फ़ोहाशी या इनके लिखे हुए जिन्सी इज़हार पर एतराज़ किया है। जिन्सी इज़हार में इनका रवैय्या किसी हद तक बेदर्द ज़रूर क़रार दिया जा सकता है। अज़ीज़ अहमद, मन्टो और इस्मत दोनों के सख्त तरीन नाकि़द है इनका कहना है किः-
‘‘हक़ीक़त निगारी जो जि़न्दगी को मजऱ् में तब्दील कर दे किस काम की है’’
वह इनकी तहरीर को तरक़्क़ी पसन्द अदब का हिस्सा नहीं मानते थे इनका ख़याल है कि मन्टो और इस्मत दोनों के यहाँ जिन्सी मसायल का इज़हार इब्तज़ाल की हद तक बढ़ गया है। जिन्स के मामले में ये बात खुद मुतनाजे़ है। बाज़ लोगों का ख़याल है इसका बहुत कुछ इनहिसार ख़ुदक़ारी की अपनी सोच और रवैय्ये पर मुनहसर है।
मन्टो का अपना रवैय्या इन एतराज़ात के बारे में बिल्कुल अलग है। आप इनसे इत्तेफ़ाक़ करें या न करें लेकिन तख़लीक कार ख़ुद अपने हालात को जितना समझता है या अदब और इज़हार के बारे में जो इसके नज़रियात हैं उन्हें नज़र अन्दाज़ कर देना भी नाइंसाफ़ी होगी। नाकि़द एक व्नज ैपकमत की हैसियत से इन तहरीरों को पढ़ता है और दरून पर्दा चीज़ों को अपने तयीं मुन्कशिफ़ करने की कोशिश करता है। जो मुसन्निफ़ के मुक़ाबले में हक़ीकत से एक फ़ासले पर होता है। मन्टो अपनी तहरीर और अपने अन्दर पाई जाने वाली बुराइयों का इल्ज़ाम ज़माने पर रखते हैं इनका कहना है कि:-
‘‘अगर आप मेरे अफ़सानों को बर्दाश्त नही ंकर सकते तो इसका मतलब यह है कि ये ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है। मुझमे जो बुराइयाँ हैं वे इस अहद की बुराइयाँ हैं जिस नुक़्स को आप मेरे नाम मनसूब करते है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है’’ (मन्टो जदीद अदब बहवाला मुमताज़ शीरीं)
मन्टो का फ़लसफ़ा ये है कि जब से दुनिया का वजूद हुआ इन्सान दो तरह की भूख का शिकार है जिसमें एक जिस्मानी भूख है और एक जिन्सी भूख। दुनिया के सारे मसायल इन्हीं दो के गिर्द घूमते हैं इसलिए इनका किसी न किसी तरह से इज़हार होता रहता है। मन्टो ने इस इज़हार पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं की और जो कुछ जिस तरह देखा या इनके तर्जुबे में आया उसको उसी तरह बयान कर दिया। जाहिर है कि इसमें ऐसी बातें भी थीं जिनका बे महाबा इज़हार मुनासिब नहीं था। आज मन्टो की वफ़ात के तक़रीबन 60 साल बाद समाज में जिस तरह की बरहनगी राह पा चुकी है और जिसकी निगाहें एक हदतक आदी हो चुकी हैं इसके बावजूद अगर इसके पस पर्दा होने वाली सारी बातों को उसी तरह ज़ब्ते तहरीर में ले आया जाये तो तहज़ीब और क़ानून दोनों की निगाह में क़ाबिले एतराज़ हो सकता है। इसलिए कहीं पर एक हद तो कायम करनी होगी।
लेकिन इनके वह तमाम अफ़साने जिनका मौज़ू जिन्स है इन्हें फ़ोहश कहकर रद नहीं किया जा सकता। इनमें बाज़ अफ़साने अपने मौज़्ाू फ़न और टेकनिक के लिहाज़ से ऐसे अफ़साने है जिन्हें दूसरी ज़बानों के अफ़सानों के बराबर रखा जा सकता है। लेकिन इस तरह के अफ़सानों से मन्टो को एक नुक़सान ज़रूर हुआ हर एक की निगाह उन्हीं अफ़सानों पर ठहर गई और असल मन्टो नजर अन्दाज हो गया।
मन्टो ने दो सौ से ज़ायद अफ़साने लिखे हैं ज़ाहिर है कि इसमें इनके कमज़ोर अफ़साने भी होंगे। हर अफ़साना एक मेयार का नहीं हो सकता लेकिन मन्टो की एक बड़ी ख़ूबी यह है कि इनका हर अफ़साना आपको सोचने पर मजबूर करता है इनका कमज़ोर अफ़साना भी फ़न और टेकनिक के लिहाज़ से अच्छा अफ़साना क़रार पाएगा और अपने एख्तताम तक क़ारी के ज़ेहन में कई सवाल छोड़ जाएगा। इन्हें इन्सानी नफ़सियात पर क़ुदरत हासिल थी। शायद जितनी तरह के (अच्छे बुरें) लोगों से वह मिले थे और जिस तरह की जि़न्दगी खुद उन्होंने गुज़ारी थी उस तरह की जि़न्दगी किसी दूसरे क़लमकार ने नहीं गुज़ारी होगी। इसीलिए हर बात इनके ज़ाती मुशाहदे और तजुर्बे की दलालत करती है ऐसा लगता है कि इनके अफ़सानों में सिर्फ एक किरदार है ओर वह किरदार मन्टो है कहीं वह ज़ाहिर हो जाता है और कहीं वह किसी ओट के पीछे से होने वाली हर बात का मुशाहिदा कर रहा होता है।
-शारिब रुदौलवी
मोबाइल: 09839009226
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