वितमंत्री पी चिदंम्बरम द्वारा पेश बजट के संबंध में प्रमुखता से कहा जा रहा है कि यह ‘न आह भरने वाला है, न वाह कहने वाला है’। इस बजट से न तो मंहगाई कम होगी, न आम जनता को राहत मिलेगी, न राजकोषीय घाटा कम होगा और चाहे जितने दावे किये जायें, इससे विकास दर भी बढ़ने वाला नहीं है। यह भी कहा जा रहा कि अगले साल चुनाव है, यह उसे ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। कुलमिला कर यह यथास्थितिवादी बजट है। जब हम कहते हैं कि इससे यथस्थिति बनी रहेगी तो इसका तात्पर्य यही है कि ‘काॅरपोरेट को छूट तथा , पर बोझ’ की नीति जारी रहेगी।
वैसे सरकार के अधिकांश आर्थिक फैसले बजट के हिस्से नहीं बनते हैं। वह कैबिनेट के स्तर पर लिये जाते हैं। यहां तक कि उनके लिए संसद की मंजूरी ली जाय, यह जरूरत भी नहीं समझी जाती है। जैसे बजट के पहले रेल भाड़ा में बढ़ोतरी की गई। इसके लिए डीजल की कीमत में आई वृद्धि को आधार बनाया गया। रेलमंत्री पवन बंसल द्वारा संसद में पेश रेल बजट तो बस उसका पूरक सा लगता है। यही नीति पेट्रेलियम पदार्थों की कीमतों के संबंध में अपनाई जा रही है। इधर वितमंत्री ने बजट पेश किया। दूसरे दिन तेल कंपनियों द्वारा पेट्रोल की कीमत बढ़ा दी गई।
सरकार कह रही है कि यह कंपनियों का फैसला है। इससे उसका लेना देना नहीं है। लेकिन भुगतना तो देश की जनता को पड़ रहा है, फिर इससे वह अपना मुंह कैसे मोड़ सकती है। एक पखवारे में दूसरी बार पेट्रोल की कीमत बढ़ाई गई। इन दोनांे बढ़ोतरी को मिला दिया जाय तो अब प्रति लीटर पेट्रोल के लिए उपभोक्ता को रुपये 3.66 ज्यादा खर्च करने पड़े रहे हैं। सरकार ने तेल कंपनियों को कीमत तय करने का अधिकार 26 जून 2010 को दिया था। उस वक्त पेट्रोल की कीमत 55 रुपये प्रति लीटर थी जबकि करीब ढ़ाई साल बाद आज की तारीख में पेट्रोल 76.20 रुपये प्रति लीटर हो गया है। कीमत में वृद्धि की यह दर 38.5 प्रतिशत है। इसी तरह साल 2010 में डीजल सैŸाीस रुपये प्रति लीटर था जो आज 51.32 रुपये प्रति लीटर हो गया है। यह बढ़ोतरी 38.7 प्रतिशत है।
जहां पेट्रोल की कीमतों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखा गया था, वहीं डीजल की कीमतों का निर्धारण सरकार द्वारा किया जाता रहा है। तेल कंपनियों का अरसे से सरकार पर इस बात का दबाव था कि वह पेट्रोल की तरह डीजल को भी अपने नियंत्रण से मुक्त करे। आखिरकार तेल कंपनियों के लिए वह सुनहरा दिन आ ही गया जब डीजल को बाजार के हवाले कर दिया गया। इस साल 17 जनवरी को सरकार ने यह नीतिगत फैसला लिया कि वह डीजल के मूल्य निर्धारण को अपने नियंत्रण से मुक्त करेगी और चरणबद्ध तरीके से डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी समाप्त की जाएगी। सरकार का तर्क रहा है कि वह प्रति लीटर 9 रुपये की सहायता देती है। अब नये फार्मूले के तहत प्रति माह डीजल की कीमत में पचास पैसे की वृद्धि की जाएगी। इस तरह अगले साल जून के बाद सरकार को डीजल के मद में आगे कोई सहायता नहीं देनी पड़ेगी। अपने इस फैसले से उसने जनता पर ‘जोर का झटका धीरे से’ लगाया है।
सरकार के इस फैसले पर तेल कंपनियों द्वारा खूब जश्न मनाया गया। इंडियन आॅयल काॅरपोरेशन ;आई0 ओ0 सी0 के सीएमडी आर एस बुटोला की ओर से दिल्ली के पाच सितारा होटल क्लैरिजेज में आर्थिक जगत तथा बाजार की मदद करने वाले पत्रकारों व मीडियाकर्मियों को दावतें दी गईं जिन्होंने पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी को राजकोषीय घाटे व अर्थव्यवस्था की दुर्गति के लिए मुख्य कारक के रूप में प्रचारित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। यह तेल कंपनियों के साथ इनकी भी जीत थी। इस जीत के जश्न में इनके शराब के प्याले खूब टकराये।
हम देखते हैं कि सरकार बार बार इस बात का रोना रोती है कि उसे पेट्रोलियम पदार्थों के लिए भारी विŸाीय सहायता देनी पड़ती है। इसकी वजह से उसे राजकोषीय घाटा उठाना पड़ रहा है। इससे आमदनी व खर्च के बीच असंतुलन कायम हो गया है। सरकार सब्सिडी का बोझ नहीं उठा सकती। सवाल है कि आखिर राजकोषीय घाटे के नाम पर सब्सिडी खत्म करने वाली जो पेट्रो पालिसी अपनाई जा रही है, क्या यही एकमात्र विकल्प है या यह कितना जायज है ? इसका दूसरा विकल्प क्या यह नहीं है कि आमदनी बढ़ाई जाय ? लेकिन देखा जा रहा है कि आमदनी बढ़ाने के उपाय पर सरकार का नजरिया टालने का है। जनरल एंटी एवायडेंस रुल ;गारद्ध जैसे आमदनी के संभावित बड़े श्रोत के संबंध में सरकार का ऐसा ही नजरिया सामने आया है। मान लिया जाय कि पेट्रोलियम पदार्थों पर सरकार द्वारा दिया जाने वाला धन ‘बोझ’ है, लेकिन आमदनी बढ़ाने वाले जनरल एंटी एवायडेंस रुल ;गार को 2016 तक के लिए वितमंत्री द्वारा टाल देना क्या आमदनी के बड़े श्रोत को रोक देना नहीं है ?
गौर करने की बात है कि एक तरफ सरकार द्वारा डीजल को बाजार के हवाले करने का फैसला लिया गया, उसी वक्त एसोचैम के दबाव में सरकार ने गार को टालने का भी फैसला लिया। गार ऐसा नियम है जिसके तहत उन कंपनियों को टैक्स अदा करना होगा जो भारत में कारोबार करती हैं, भले ही वे कहीं भी पंजीकृत हों। देखने में आया है कि दर्जनों कंपनियां ऐसे कारोबार के माध्यम से भारी टैक्स की चोरी कर रही हैं। सवाल है कि जिस टैक्स कानून से सरकार को भारी आमदनी होती, उसे किसके हित में टाल दिया गया ? इसके पीछे सरकार का तर्क है कि इससे देशी विदेशी निवेशक नाराज हो जायेंगे। सवाल है कि क्या उनकी नाराजगी को ध्यान में रखकर टैक्स की चोरी को रोकने वाले कानून को टालना कहां तक जायज है ? साफ है कि एक तरफ सब्सिडी में कटौती और दूसरी तरफ गार को टालना, इसके पीछे सरकार किसका हित साधने में लगी है ?
सरकार इस पर भी विचार करने को तैयार नहीं है कि वह देश के उद्दयोगपतियों को टैक्स के मद में हर साल लाखों करोड़ की छूट देती है। 2008 में मंदी के नाम पर कंपनियों को बेल आऊट का बड़ा पैकेज दिया गया था जिसके तहत उन्हें टैक्स में राहत, कर्ज में छूट दी गई थी। इस पर आज पुनर्विचार की जरूरत है। इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार का काम है कि वह कंपनियों के हितों को देखे तथा यह सुनिश्चित करे कि वे कानून के दायरे में काम करें, वहीं जनता की जीवन दशा को उन्नत करना, उन्हें राहत प्रदान करना तथा उन पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े, यह देखना भी सरकार का कार्यभार है। लेकिन आज कंपनियों को छूट देना और जनता पर बोझ लादना यही सरकार की दिशा व नीति है। इसी नीति का परिणाम है कि जहां कंपनियों को खुश करने के लिए टैक्स की चोरी करने वाले कानून ‘गार’ को टाल दिया गया, वहीं बजट से सब्सिडी के बोझ को कम करने के लिए डीजल को बाजार के हवाले कर दिया गया। अर्थात् लोक हार गया और काॅरपोरेट जीत गया।
-कौशल किशोर
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्वतंत्र पत्रकार हैं
वैसे सरकार के अधिकांश आर्थिक फैसले बजट के हिस्से नहीं बनते हैं। वह कैबिनेट के स्तर पर लिये जाते हैं। यहां तक कि उनके लिए संसद की मंजूरी ली जाय, यह जरूरत भी नहीं समझी जाती है। जैसे बजट के पहले रेल भाड़ा में बढ़ोतरी की गई। इसके लिए डीजल की कीमत में आई वृद्धि को आधार बनाया गया। रेलमंत्री पवन बंसल द्वारा संसद में पेश रेल बजट तो बस उसका पूरक सा लगता है। यही नीति पेट्रेलियम पदार्थों की कीमतों के संबंध में अपनाई जा रही है। इधर वितमंत्री ने बजट पेश किया। दूसरे दिन तेल कंपनियों द्वारा पेट्रोल की कीमत बढ़ा दी गई।
सरकार कह रही है कि यह कंपनियों का फैसला है। इससे उसका लेना देना नहीं है। लेकिन भुगतना तो देश की जनता को पड़ रहा है, फिर इससे वह अपना मुंह कैसे मोड़ सकती है। एक पखवारे में दूसरी बार पेट्रोल की कीमत बढ़ाई गई। इन दोनांे बढ़ोतरी को मिला दिया जाय तो अब प्रति लीटर पेट्रोल के लिए उपभोक्ता को रुपये 3.66 ज्यादा खर्च करने पड़े रहे हैं। सरकार ने तेल कंपनियों को कीमत तय करने का अधिकार 26 जून 2010 को दिया था। उस वक्त पेट्रोल की कीमत 55 रुपये प्रति लीटर थी जबकि करीब ढ़ाई साल बाद आज की तारीख में पेट्रोल 76.20 रुपये प्रति लीटर हो गया है। कीमत में वृद्धि की यह दर 38.5 प्रतिशत है। इसी तरह साल 2010 में डीजल सैŸाीस रुपये प्रति लीटर था जो आज 51.32 रुपये प्रति लीटर हो गया है। यह बढ़ोतरी 38.7 प्रतिशत है।
जहां पेट्रोल की कीमतों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखा गया था, वहीं डीजल की कीमतों का निर्धारण सरकार द्वारा किया जाता रहा है। तेल कंपनियों का अरसे से सरकार पर इस बात का दबाव था कि वह पेट्रोल की तरह डीजल को भी अपने नियंत्रण से मुक्त करे। आखिरकार तेल कंपनियों के लिए वह सुनहरा दिन आ ही गया जब डीजल को बाजार के हवाले कर दिया गया। इस साल 17 जनवरी को सरकार ने यह नीतिगत फैसला लिया कि वह डीजल के मूल्य निर्धारण को अपने नियंत्रण से मुक्त करेगी और चरणबद्ध तरीके से डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी समाप्त की जाएगी। सरकार का तर्क रहा है कि वह प्रति लीटर 9 रुपये की सहायता देती है। अब नये फार्मूले के तहत प्रति माह डीजल की कीमत में पचास पैसे की वृद्धि की जाएगी। इस तरह अगले साल जून के बाद सरकार को डीजल के मद में आगे कोई सहायता नहीं देनी पड़ेगी। अपने इस फैसले से उसने जनता पर ‘जोर का झटका धीरे से’ लगाया है।
सरकार के इस फैसले पर तेल कंपनियों द्वारा खूब जश्न मनाया गया। इंडियन आॅयल काॅरपोरेशन ;आई0 ओ0 सी0 के सीएमडी आर एस बुटोला की ओर से दिल्ली के पाच सितारा होटल क्लैरिजेज में आर्थिक जगत तथा बाजार की मदद करने वाले पत्रकारों व मीडियाकर्मियों को दावतें दी गईं जिन्होंने पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी को राजकोषीय घाटे व अर्थव्यवस्था की दुर्गति के लिए मुख्य कारक के रूप में प्रचारित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। यह तेल कंपनियों के साथ इनकी भी जीत थी। इस जीत के जश्न में इनके शराब के प्याले खूब टकराये।
हम देखते हैं कि सरकार बार बार इस बात का रोना रोती है कि उसे पेट्रोलियम पदार्थों के लिए भारी विŸाीय सहायता देनी पड़ती है। इसकी वजह से उसे राजकोषीय घाटा उठाना पड़ रहा है। इससे आमदनी व खर्च के बीच असंतुलन कायम हो गया है। सरकार सब्सिडी का बोझ नहीं उठा सकती। सवाल है कि आखिर राजकोषीय घाटे के नाम पर सब्सिडी खत्म करने वाली जो पेट्रो पालिसी अपनाई जा रही है, क्या यही एकमात्र विकल्प है या यह कितना जायज है ? इसका दूसरा विकल्प क्या यह नहीं है कि आमदनी बढ़ाई जाय ? लेकिन देखा जा रहा है कि आमदनी बढ़ाने के उपाय पर सरकार का नजरिया टालने का है। जनरल एंटी एवायडेंस रुल ;गारद्ध जैसे आमदनी के संभावित बड़े श्रोत के संबंध में सरकार का ऐसा ही नजरिया सामने आया है। मान लिया जाय कि पेट्रोलियम पदार्थों पर सरकार द्वारा दिया जाने वाला धन ‘बोझ’ है, लेकिन आमदनी बढ़ाने वाले जनरल एंटी एवायडेंस रुल ;गार को 2016 तक के लिए वितमंत्री द्वारा टाल देना क्या आमदनी के बड़े श्रोत को रोक देना नहीं है ?
गौर करने की बात है कि एक तरफ सरकार द्वारा डीजल को बाजार के हवाले करने का फैसला लिया गया, उसी वक्त एसोचैम के दबाव में सरकार ने गार को टालने का भी फैसला लिया। गार ऐसा नियम है जिसके तहत उन कंपनियों को टैक्स अदा करना होगा जो भारत में कारोबार करती हैं, भले ही वे कहीं भी पंजीकृत हों। देखने में आया है कि दर्जनों कंपनियां ऐसे कारोबार के माध्यम से भारी टैक्स की चोरी कर रही हैं। सवाल है कि जिस टैक्स कानून से सरकार को भारी आमदनी होती, उसे किसके हित में टाल दिया गया ? इसके पीछे सरकार का तर्क है कि इससे देशी विदेशी निवेशक नाराज हो जायेंगे। सवाल है कि क्या उनकी नाराजगी को ध्यान में रखकर टैक्स की चोरी को रोकने वाले कानून को टालना कहां तक जायज है ? साफ है कि एक तरफ सब्सिडी में कटौती और दूसरी तरफ गार को टालना, इसके पीछे सरकार किसका हित साधने में लगी है ?
सरकार इस पर भी विचार करने को तैयार नहीं है कि वह देश के उद्दयोगपतियों को टैक्स के मद में हर साल लाखों करोड़ की छूट देती है। 2008 में मंदी के नाम पर कंपनियों को बेल आऊट का बड़ा पैकेज दिया गया था जिसके तहत उन्हें टैक्स में राहत, कर्ज में छूट दी गई थी। इस पर आज पुनर्विचार की जरूरत है। इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार का काम है कि वह कंपनियों के हितों को देखे तथा यह सुनिश्चित करे कि वे कानून के दायरे में काम करें, वहीं जनता की जीवन दशा को उन्नत करना, उन्हें राहत प्रदान करना तथा उन पर कोई अतिरिक्त बोझ न पड़े, यह देखना भी सरकार का कार्यभार है। लेकिन आज कंपनियों को छूट देना और जनता पर बोझ लादना यही सरकार की दिशा व नीति है। इसी नीति का परिणाम है कि जहां कंपनियों को खुश करने के लिए टैक्स की चोरी करने वाले कानून ‘गार’ को टाल दिया गया, वहीं बजट से सब्सिडी के बोझ को कम करने के लिए डीजल को बाजार के हवाले कर दिया गया। अर्थात् लोक हार गया और काॅरपोरेट जीत गया।
-कौशल किशोर
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्वतंत्र पत्रकार हैं
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