शनिवार, 16 मार्च 2013

नारी



"उठ नारी , वह मृतक है जिसके पाशर्व में तू लेटी है |उठ और इस नवोदित को वर ,उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर |"
.
मैं नारी हूँ -भारतीय नारी |मेरी कहानी अभिशप्त की है |इस कहानी के प्रसार पर वेदना का विस्तार है ,रक्त का रंग उस पर चढा है , दुर्भाग्य के कीचड़ में वह सनी है |
मैं नारी हूँ , पितृसत्ताक युग से पूर्व मातृसत्ताक -युग की भारतीय नारी , जिसने वनों का शासन किया ,जनों का निग्रह किया |तब मैं निसंतान नग्नावस्था में गिरी -शिखरों पर कुलांच भरती थी , गुहा -गह्वरो में शयन करती थी ,वन -वृक्षों को आपाद -मस्तक नाप लेती थी ,तीव्रगतिका नदियों का अवगाहन करती थी |
शक्ति -परिचायक मेरे अंगो में तब भारी स्फूर्ति थी ,शशक की गति का मैं परिहास करती थी ,मृग की कुलांच का तिरस्कार |सूअर को मैं अपने भाले पर तौल लेती थी और सिंह की लटो से मैं बच्चो के झूले बांधती थी | सिंहवाहिनी थी तब मैं ,काल्पनिक दुर्गा नही , प्रयोग -सिद्ध चण्डी |आज सिंह का गर्जन आतंक का प्रतीक है |तब मेरी हुंकार वन के मार्ग को प्राणहीन कर देती थी |सिंह और सूअर मेरी राह छोड़ हट जाते , हाथी मस्तक झुका लेते , गैंडे मुग्ध मुझे देखते रह जाते |__और पुरुष ?

पुरुष मेरा दास था , मेरे श्रम से उपार्जित आहार का आश्रित | मेरे अंग -अंग में शक्ति बसती थी ,रोम -रोम में स्पन्दन था |शिराए , रज्जू की भाति स्कन्ध पर , वक्ष पर भुजाओं पर , जानुओं के विस्तार में जैसी उलझी खिची रहती |शिकार से लौट कंधो पर मृग और सूअर लाद जब मैं उछलती -कूदती पसीने से लथपथ उपत्यका में उतरती तब मेरा परिवार मुझे घेर लेता , मेरा गृहस्थ नर ,मेरी शक्ति -मण्डित बालक -बालिकाए |........
नर तब मेरा मुँह ताकता , मेरी भाव -भगिमा देखता , मेरे तेवरों से काँप उठता |तब मैं जब चाहती ,उसे बदल सकती थी |उसके कालभुक्त जर्जर गात से मेरी अभितृप्त जब ना होती , मैं तत्काल उसे उसके भाग्य पर छोड़ अन्यत्र चली जाती ,तरुणायत पुत्र को उसका स्थानापन्न करती और अपनी स्थिति कमजोर देखते ही शक्तिमुखी कन्या के मार्ग से हट जाती -पर हट आसानी से न जाती |कन्या स्वाभाविक उत्तराधिकारिणी थी |मेरे प्रोढ़ मासल तन को वह अपलक देखती -"क्या इस शक्ति -परिचय का अन्त न होगा ?"

वह मेरी शक्ति के मध्याह्न के बाद अपराह्न था और मैं अपनी शक्तिमुखी कन्या के विचारों को आंकती -समझती |माँ के प्रौढ़ मांसल तन को कभी मैंने भी इसी आँख से देखा -निहारा था |अक्सर तब मेरा अन्त संघर्ष में होता , माँ -बेटी के संघर्ष में |
उस काल यदि कोइ अभागा था तो वह नर -दास जिसके लिए इस बदलते शक्ति -शासन में कोइ अपनापन न था |उसका गृहालू जीवन जैसा पहले कार्यबहुल था ,वैसा ही अब भी बना रहा -दब्बू महत्वहीन ,आकाक्षारहित ,भविष्यहीन |...

सहस्त्राब्दियो बाद ......
जीवन बदल गया था , वन बदल गये थे , पर्वत और जल -स्रोत बदल गये थे | मैं स्वंय अपने को पहचान न सकी | मैं अब उसकी गुलाम थी जो कभी मेरा गुलाम रह चुका था ...
उस कभी के दब्बू , महत्वहीन ,आकांक्षा रहित , भविष्यहीन नर की | -अब वह भविष्यहीन नही था |सूर्य की भांति अब वह पूर्व क्षितिज पर आरूढ़ था और उसकी शक्ति की अरुणाभ उषा कब की पुर्वाकाश में नाच चूकि थी |अब उसकी शक्ति गगन की मूर्धा की ओर अत्यंत तीव्र गति से उठ चली थी |
दयनीय वह नही , दयनीय मैं थी |अब युग माँतृसत्ताक नही पितृसत्ताक था |नर अब साभिमान गृह का शासन करता था |अब एक गृह था , गृहों में कुल का निवास था ,कुलो का एक ग्राम था , और मैं सबकी चेरी थी , गृह की , कुल की ग्राम की |
परन्तु अभी भी मैं अविवाहित थी , रखेली | रख ली जाती थी और रख लेना ही मेरी शक्ति की नाप थी |हाँ , कभी -कभी मैं अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती , अपनी मायाविनी भीषण शक्ति का और तब शक्तिमान नर के आश्रय में भाग जाती -दृढतर वृक्ष की घनी छाया में विश्राम करती |
अब अनेक कबीले थे , अनेक जन |इस कबीलों में , जानो में , युद्ध होता -मेरे लिए ,चरागाहो के लिए , खेतो के लिए |युद्ध होता -साधारण युद्ध नही , ऐसा जो गाँव के गाँव नष्ट कर देता |
दबे पाँव , रात के अँधेरे में कबीले वाले आते |नर जो अब अपने को मर्द कहने लगे थे -चोर , छिप कर चोट करने वाले मर्द |
मुझे याद है , मैंने अपने पूर्व के शक्तिपुंज -जीवन में कभी इस प्रकार की चौरवृत्ति न अपनाई थी | मर्द आते , रात के अँधेरे में | हमला करते , गाँव का गाँव उजड़ जाता , लूट जाता भस्म हो जाता |हार कर जीवित रहना तब संभव न था |लड़ाई शेर और सूअर की थी जो लड़ कर मर जाते है |मर्द मर जाते , गाँव के बाहर आग की लपटे आसमान चूमने लगती , और विजेता वृद्धो और बालको को उन लपेटो में स्वाहा कर देते |यदि कोइ बच पाती तो मुझ जैसी |
नारी बच ही नही जाती , बचाई जाती थी , उसी प्रकार जैसे पशु |
मर्द का यह शासन था , उसी का न्याय था और उसके न्याय में जीवन नही मृत्यु थी , शान्ति नही , अनुपात था |.....

नारी की उसे आवश्यकता थी ,अतीव आवश्यकता थी और वह उसे बचाता था |जैसे वह शत्रु के पशुओं को बचाता था , वैसे ही वह उसे बचाता था , नारी को |
पशुओं के श्रम की , उनके दूध की , उनके शावको की उसे आवश्यकता थी |मर्द उन्हें पकड ले जाता था | नारियो के श्रम की उनके दूध की , उनके शावको की भी ,अगले युद्धों के लिए , उसे आवश्यकता थी |मर्द उन्हें भी पकड ले जाता था +
मर्द का काम अब एक से न चलता था , उसकी परितृप्ति का साधन अब अनेक नारियो को बनना पड़ता था |और उसके समूह में जो प्रधान होता , मुख्य अरे वह तो दैत्य था ---- उसकी अतृप्ति की सीमा न थी | नारी का अनवरत श्रृखला उसके भोग की परिधि बाँधने का प्रयत्न करती और कड़ी -कड़ी ही रहती ,पर उसका प्रयास निष्फल होता |उसकी तृष्णा का अब असीम उदय हो चला था जिसका उसके उत्तरकालीन "महापुरुषों " ने अनंत घटाटोप बांधा |
वह नर का परिवार न था , वास्तव में वह तब नारी का परिवार था , उसकी संख्या की अनेकता का , उसके अश्रुसिक्त व्यवसाय का उसके घृणित अवांछित व्यभिचार -व्यापार का |उसकी 'इहा 'का न कोइ अर्थ था , न अनिच्छा की कोइ परवाह थी |वह नर की वासना की अभितृप्तिमात्र करती |
परन्तु इसकी भी एक सीमा थी |नर के अलसित अर्द्ध -निमीलित क्षणिक स्वप्लिन स्नेह की भाजन भी वह अपने शरीर के सम्मोहक व्यापार से ही बन सकती थी |और इस शरीर के सम्मोहक व्यापार की भी परिधि होती है |काल का परिमाण उसमे विशेष भाग पाता है |रूप -रस -गंध का विलास जब तक उस शरीर से सधता , तभी तक वह क्षणभंगुर सुख -व्यंग भी प्राप्य होता , वरण फिर उसकी गति भी निदुर्ग्धा गो की हो जाती |अन्तर केवल इतना रह जाता की गाय बिना काम किए खेत पर घास खाती या मैदान में चरती परन्तु मैं तब केवल श्रम करती करती , जर्जर शरीर से |
मैं उपेक्षिता , सर्वहारा ,निरादृता , नारी !

मैंने एक कदम और लिया |खन्दक की गहराइया नीचे खुलती जा रही थी |उनमे ताल न था और मैं अधो-मुखी हो चली थी |फिर भी कुछ नवीनताओ के इस स्थिति में दर्शन हुए |
एक नये श्रमिक का मेरे क्षेत्र -वृत्त में पादुर्भाव हुआ |वह नर था -मर्द , पर उसमे नरत्व या मर्दानगी का कोइ चिंह न था |शायद पहले कभी वह नर रहा हो ,मर्द भी रहा हो , पर अब उसमे और पशु में कोइ अन्तर न था |
मेरी प्रसंशा इसमें थी की नर-देवता के विलास में अविराम अंग -संचालन से रस घोलू ,उस नराकृत मर्द वैभव इसमें था की श्रम में वह पशु को नीचा दिखा दे |पीठ पर कोड़े का प्रभाव कितना क्षणिक है ,यदि वह पशु की भाति त्वचा कपा कर दिखा देता और व्यवस्थित कर्म में रत हो जाता तो उसका स्थान निश्चय स्वविधो में आगे था |
इस नवागन्तुक को अपने परिवार में आया देख कुछ अभितृप्ति हुई | वह दो कारणों से |एक तो यह की उसने गृहकार्य में हाथ बटाया और दूसरे यह की झेलने की परम्परा में एक और प्राणी की वृद्धि हुई |
यह वृद्धि कैसे हुई ?
अब कबीला या जन गाँव पर आक्रमण कर उसके जनबल को सर्वथा नष्ट कर देता था |वृद्ध और बालक तो बाहर होते थे |वृद्ध तो सर्वथा और बालक को खिला -पिला कर बछड़े की भाति बड़ा करना पड़ता था |इससे उनको भी आग की लपटों में डाल दिया जाता था |परन्तु युद्ध के तरुण बचा लिए जाते और श्रृखला में बंध कर वे विजेता जन के दास बनते |और हमारे प्रहार का भी जब -तब वे ही आधार बनते |
अभी मेरा विवाह नही होता था ,फिर भी मैं प्राय:एक ही व्यक्ति की अभितृप्ति का साधन बनती |और अब एक और विपत्ति का सामना करना पडा | एक नयी जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया |उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था |वह अपने को 'आर्य 'कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी |परन्तु उसका व्यवहार मैंने अपनी आँखों से देखा , उसने हमारे अच्छे-बुरे मर्दों की सभ्यता तोड़ दी |
समय की प्रगति ने हमारे पुरुषो को मेधा दी थी और उन्होंने सुन्दर नगरो के निर्माण से एक सभ्यता को जन्म दिया , परन्तु नवागन्तुको ने उसे कुचल डाला |वे नितांत रिक्त -हस्त आये थे |उनका तो गान भी यही थी -खुले हाथ आये है ,खुले हाथ जायेंगे |
निश्चय ही वे दरिद्र थे |घोड़े की पीठ पर अपना घर लिए आये और हमारे पुरुषो पर उन्होंने बाणो की वर्षा की ,अपने भयावह दाढो वाले कुत्तो को ललकारा |हमने स्वंय उनकी सेनाओं का सामना किया परन्तु उनकी शक्ति ,उनका पौरुष ,उनका युद्ध कौशल ,सभी हमारे पुरुषो से कही बढ़ कर थे और उन्होंने हमारी सभ्यता नष्ट कर अपनी सभ्यता उसके स्थान पर खड़ी की |
वस्तुत:मुझे इसका अफ़सोस नही की कौन हारा , कौन जीता ,क्योंकि मेरे लिए दोनों ही प्रभु थे , स्वामी |फिर भी आगन्तुको के व्यवहार से मेरा दिल हिल गया ,रोम -रोम काप उठा |मेरे लिए वे विध्वंस का प्रतीक होकर आये |
अब तक मैं पिसती थी ,दिन -रात श्रम की श्रृखला में बंधी रहती थी |फिर भी जीवन इतना सशंय में न था |उसका मूल्य तो निश्चय कुछ न था ,परन्तु वह साधाराणत: चल जाया करता था |श्रम की मात्रा बढा देने के साथ -साथ कुछ जीवन की आसानिया भी हासिल हो जाती थी , उसका कडवापन कुछ कम भी हो जाता था ,पर नवागन्तुको ने एक नयी सूरत पैदा कर दी |
वे नितान्त मनस्वी थे , गर्वीले |वे सह न सकते थे की उनकी भोगी हुई नारी कोई और भोगे |उनका एक विधान था -पुरुष भोगी है स्त्री भोग्या और भोगी के जीवन के बाद भोग्या को तन रखने का कोइ अधिकार नही |.

इसके बाद जो ललाट -लेखा मेरे सामने आई उसे मनुष्य चुपचाप नही सुन सकता ,विक्षिप्त हो जाएगा |जब उस नयी आर्य जाति का नर मरने लगा ,तब उसकी चिता पर उसकी नारियो को भी जलना पड़ता था |
जीवन में उसकी अनेक नारिया थी और वह संभव न था की उसकी मृत्यु के बाद उन्हें कोइ और भोगे |फिर उनका मृत्यु के बाद का भी एक ससार था -जीवित विलास का ,जिसे वे स्वर्ग कहते थे ,जहा उनका देवता इंद्र अनेक वेश्याओं के साथ विहार करता था |वही उनको भी जाना था और वे अपने विलास के सारे साधन अपने साथ ले जाना चाहते थे |
भारत आते समय वे उन सभ्यताओं की राह होकर निकले थे जहा यह परम्परा और गहरी थी और उन्होंने अपनी नारी या नारियो को अपने मर जाने के बाद भी जीवित न छोड़ा |उन्हें अपनी चिरसंगिनी बनाया , लपटों में उन्हें स्वाहा किया |
मैं अकेली ही तो उसकी नारी न थी |मेरी जैसी उनकी अनेक थी और उन हतभागिनियो को एक साथ जल मरना होता था |
और वे 'ऋषि 'कहलाते थे ,सत्य का दर्शन करते थे ,मन्त्रो का उच्चारण |
अभी शायद उनमे विवाह परम्परा न थी |इससे मेरा जीवन और संकटमय हो गया |
मेरे पहले के पुरुषो में तो कम से कम यह बात थी कि उनकी अनेक नारिया होने के कारण जब तब मुझे उस घृणित 'हरिणीखुर -वृति से अवकाश भी मिल जाता , परन्तु इस नयी दुनिया में तो एक नई दशा भी झेलनी पड़ी | मैं एक सर्वथा न थी जिसकी कही जाती थी ,उसकी भी सर्वथा नही |उसके सामने ही लोग मुझे बारी -बारी से उठा ले जाते |
यह एक नया अनुभव था |अनेक में से एक होना कुछ विशेष न खटका ,पर यह तो अदभुत था कि कोइ आये और उठा ले जाए |
एक दिन चुपचाप बैठी थी |ऋषि ब्रहाचारियो को पढ़ा रहे थे |दुसरा ऋषि आया |मेरे अपने कहलाने वाले के देखते ही देखते उसने मुझे उठा लिया और पास कि अमराइयो में चला गया |उसके बाद कि कथा पाशविक है , नितान्त घृणा से भरी |
जीवन -जिसमे मुझसे कुछ न पूछा जाए , मेरी चित्त -वृत्ति का अनुमान तक न किया जाए ,मेरी रूचि -अरुचि भी न पूछी जाए और मेरी कोमल भावनाओं को सर्वथा कुचल दिया जाए |मुझसे अच्छी तो वे बाबुल की मेरी बहने थी जिन्हें देवी के नाम पर जीवन के केवल एक बार ही तो अपरिचित के साथ वेश्यावृति करनी पड़ती थी |
अब जो ऋषि को क्षोभ आया तो उसने मेरा विधान कर दिया , वैवाहिक विधान |अब मुझे धार्मिक कृत्यों से एक पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करना पड़ता , एक ही के सात जीना -मरना होता |
अभी कुछ कह नही सकती कि भविष्य में क्या बड़ा है |भोग कर ही कहूंगी |मेरी कथा का अभी अन्त कहा ?..


आर्य प्रगति ने भारत में एक दूसरा रूप धारण किया |मेरा विवाह हो गया |अनेक क्रियाऔ -प्रक्रियाओ से मेरा विवाह होता |अनेक प्रकार के आशीर्वाद से मेरा अंग -अंग प्रफुल्ल होने लगा |
मैं गृह की स्वामिनी कही जाने लगी ,ससुर की साम्राज्ञी , सास की साम्राज्ञी , देवर -ननदों की साम्राज्ञी ,नौकर -दासो की साम्राज्ञी |
कुछ अधिकार भी मिले |पिता के धन में नाममात्र को भाग मिलने लगा |वास्तव में वह भाग मेरे विवाह का कौतुक था |मेरा अधिकार तो केवल उन सम्बन्धियों द्वारा भेट की हुई वस्तुओं पर हुआ जिनकी संज्ञा कालान्तर में 'स्त्री -धन 'हुई |
फिर भी मैं सिद्धांतत: पति के पर्याय निकट थी |उसके साथ ही , उसी के आसन पर बैठने वाली | मैं अपना पति आप चुनती थी |अनेकाश में मैं उसकी प्रेयसी थी |इससे भी बढ़ कर उसके पुत्रो की माता -साधारण नही दस -दस पुत्रो की माता |
मैं अपनी बाबुली बहिन से अब अच्छी थी |कोइ मुझे वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य नही करता था |मेरी इज्जत मेरा पति जान देकर बचाता |
मैं कुछ पढ़ती -लिखती थी , शक्तिशालिनी थी , रथ दौडाती पति के साथ युद्ध में जाती |
एक बार मैं विपशला के रूप में जन्मी और युद्ध में पैर कट जाने के कारण मैंने लोहे का पैर धारण किया |उसी काल में कय देश में जन्मी और कोशल के राजा दशरथ की रानी हुई |पति साथ मैं रण में गयी और जब रथ के चक्र की धुरी ने जबाब दे दिया , पहिया गिरने लगा और शत्रुओं ने जोर से हमला किया , तब मैंने धुरी में हाथ डाल उससे पहिये को संभाल पति के मान और शक्ति की रक्षा की |
आह ,तभी मेरा जन्म सीता के रूप में हुआ |मुझे जो पति मिला , वह मानवो में आदर्श था , शक्ति का पुंज |उसे संसार ने पुरुषोत्तम कहा और मुझे भी कालान्तर में जगदम्बा कह कर पूजा |परन्तु मैं भी क्या ?वह वस्तु जो हरण की जा सकती थी |
पौल्स्त्यकुलीय रावण नामक ब्राम्हण ने मुझे हर लिया |एक लम्बे काल तक मुझे उसके यहा रहना पडा , उसकी कैद भोगनी पड़ी |हां , इतना और कहू दू कि मेरे सम्बन्ध में उसका व्यवहार अत्यंत उदार हुआ |मैं उसे कहते नही भूलती कि जब मेरे पिता ने स्वंयवर रचा था |तब वह असाधारण योद्धा भी वहा आया था |परन्तु मैं पड़ी अपने यशस्वी पति राम के हिस्से |
इस एकपत्नीव्रत राम ने अपने पूर्वजो कि परम्परा तोड़ मुझे अकेनी पत्नी अगीकार किया और वे साधारण मानव कि भांति मेरे अभाव में दर -दर फिरते और बिलखते रहे |परन्तु आश्चर्य , उन्होंने जब मुझे रावण के बन्धन से छुडाया , तब मेरी अग्नि -परीक्षा करके स्वीकार किया |
मिनट -मिनट मैंने वर्ष कि भांति काटे थे उनकी याद में , पर -पुरुष की छाया ने मेरे मस्तिष्क या दृष्टि -पथ का स्पर्श न किया था यद्धपि इस प्रकार के उपपति का स्वीकरण नारी के लिए उन दिनों कुछ अजब न था |कौन -सी औरत थी ,जिसका कोई उपपति न था ?कौन -सा वह पुरुष था ,जिसकी कोइ उपपत्नी न थी ?मेरे समकालीन ऋचा-साहित्य में 'जार 'शब्द भरा पडा है |
परन्तु हां , यदि इस प्रगति के कई अपवाद थे तो पुरुषो में राम और स्त्रियों में मैं, राम के भाई उनकी पत्निया , परन्तु राम ने फिर भी मेरी अग्नि -परीक्षा कर मुझे अंगीकार किया |और वह अंगीकरण भी कितना बड़ा व्यंग्य था |तब शासन जनता के हाथ से निकल कर राजन्य -वंशो में कुलागत हो चला था |राजा अपने व्यवहार से प्रजा को यह दिखाना चाहता था कि एक का शासन अनेक के शासन से कही सुब्दर ,कही न्यायप्रिय , कही सुखद है |परन्तु वास्तव में तो उद्देश्य स्वेच्छाचारिता थी,अनियंत्रित निरकुश्ता, सो उसका अभिशाप मुझे ही सहना पडा |
किसी धोबी ने मेरा उपहास किया और राम ने मेरा परित्याग कर दिया |और तब मेरी दशा क्या थी ?राम का तेज़ मेरी कोख में था |मैं एकनिष्ठा से अव्यभिचारणी भक्ति से , उस तेज़ को वहन कर रही थी |
सौमित्र ने मुझे वाल्मीकि के आश्रम की राह दिखा कर उस भयंकर वन में छोड़ दिया |ससार विश्रुत कवि कालिदास ने मेरे मुह में रखकर मुझसे लक्ष्मण द्वारा पहले तो कहलाया -वाच्यस्त्वया मद्दचनात्स राजा - मेरे शब्दों में जाकर उस राम से कहो |फिर कहलाया -राम का दोष नही , मेरे पूर्व कर्मो का है |
पहला तो सही -मैं कहती , मैं आज उसका नाम लेने को तैयार नही |उसने राजा ,केवल राजा मनुष्येतर शक्ति -लोलुप ,यश -लोलुप राजा का आचरण किया |उसके साथ आत्मीयता का कोइ सलूक नही हो सकता |सो तो सही , मैं कहती कहना उस राजा से मेरे कर्मो का विपाक है यह , ऐसा मैं हरगिज नही कहती |वह कालिदास का अपना है |मैं कुछ और कहती , अपना कहती , कालिदास का नही |
और मैंने कहा , जिसे कोई सुन न सका उस भीषण वन में - न लक्ष्मण , न वाल्मीकि न कालिदास |मैंने कहा -उस राजा से कहो - मैं उसके समक्ष नागरिका तक नही ,इन्द्रियतृप्त का साधन मात्र हूँ और तुम में लोकापवाद की भीरुता है ,न्यायपथ पर आरूढ़ रहने का साहस नही !
पर राम का आचरण लोकानुकुल था |अनेक पत्नीक राजाओं कि परम्परा में जन्म लेने और बसने का युक्त परिणाम था |नारी कि अवस्था फिर दयनीय -घृणित हो चली थी |कारण कि इस नये देश में अब पत्नियों की कमी न थी |स्पत्निया अनेक होती |स्वंय इन्द्राणी-शची -पौलोमी तक को इसका रोना था |अपनी सपत्नियों पर विजय पाने के लिए वे पुतलियो का डाह करती थी , पति के प्रेम को स्वायत्त करने के लिए औषधि -विशेष का मंतर साधती थी , स्पत्नियो की ओर से पति का मन उचाटने के लिए टोना -टोटका करती थी ....

शत्रु की सेना से ,शत्रुओं के घर से , इतनी बहिनों की उपलब्धी हुई थी कि उपलब्धियों का दल का दल घर में झूमता था |राजा अब गायो और दासो कि भांति मेरी बहिनों को भी रथ भर -भर कर पुरोहितो और प्रसादलब्ध को दान करने लगे थे |
परन्तु उस युग की एक बात निश्चय सराहनीय है |उन्होंने अपनी पुरानी प्रथा 'सती ' का प्रचलन रोक दिया |बाद में वह फिर चली , पहले भी थी ,परन्तु इस काल निश्चय अवरोध हुआ और आग में जलकर मरने का जो नित्य मेरे मन में खटका लगा रहता था उसका कुछ काल के लिए अन्त हुआ |
अब पति के मरने पर मुझे अपना बलिदान न करना होता , वरण दूसरा का ग्रहण शव के साथ एक बार लेटना अवश्य होता , परन्तु शीघ्र देवर -छोटा वर -जिसके लिए विवाह के समय ही मेरी संज्ञा 'देवृकामा '--देवर की कामना करने वाली --पड़ी हाथ पकड़ कर नव -संस्कृति की ओर संकेत करता और पुरोहित कहता "उठ नारी , वह मृतक है जिसके पाशर्व में तू पड़ी है |उठ और इस नवोदित को वर ,इसको जो तेरे विगत पति के धनुष के साथ ही तेरा पाणी-ग्रहण करता है |उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर |"
सुन्दर , पर यह संतान की कामना के लिए सारा आडम्बर था , मेरे दारुण कष्ट के लिए नही |
एक नये योग की प्रथा चली ---नियोग की --- जिससे क्लीव पति के स्थान पर उसका भाई , पुरोहित अथवा कुल का कोइ मुझ से पुत्र उत्पन्न करने लगा |सही , मेरा स्वाभाविक ताप जब -तब समाज शास्त्री को साधुवाद कह उठता , परन्तु यदि यह मेरी मनोवृत्ति को द्रव करने की बजाए पुत्रोत्पत्ति का साधन था , तो मैं प्राय:आश्चर्य करती --इसका सुख कृत्रिम पिता को क्या था ?
इस प्रकार के आचरण की तो परम्परा बन गयी |इसी काल के अन्त में होने वाली मेरी सगनियो ने समय -असमी इच्छानुसार स्वतंत्रता का लाभ उठाया |सत्यवती ने कुमार्यावस्था में पराशर से उस ऋषि -पुंगव व्यास को उत्पन्न किया जिसने वेदों का सम्पादन किया , महाभारत और पुराण रचे , और अपनी उत्पत्ति -परम्परा का विस्तार किया |इसी नियोग -विधि द्वारा विचित्रवीर्य की विधवाओं -अम्बिका और अम्बालिका ---ध्रतराष्ट और पांडू उत्पन्न हुए और दासी से विदुर |कुन्ती और माद्री का एक भी पुत्र औरस न था |
कुन्ती ने तो कुमारिकवस्था में ही कर्ण का प्रसव किया |युधिष्ठिर , भीम , अर्जुन , नकुल ,सहदेव सभी एक से एक धुरंधर हुए |और इनकी उत्पत्ति हुई देवताओं से |
हां , उसकी क्या कहू -वह मेरा रहस्य है ,गोप्य | और ये मंदोदरी ,तारा , अहिल्या कुन्ती द्रोपदी प्रात:स्मरणीय पंचकन्याए हुई |प्रात:स्मरणीय , क्योंकि उन्होंने समर्थो के कार्य साधे थे _समाज के छिपे रुस्तम सूर्य , इंद्र , वायु , अश्वनीकुमार समर्थो के---जिन्हें दुषकृत्या का दोष नही लगता |
द्रोपदी की याद एक और प्रसंग खड़ा कर देती है |बहुपतिका का |इस देश में मेरा भाग्य अब तक दूसरी तरह का रहा था |मैं पति की चेरी अनेको के साथ रही थी , परन्तु मेरे पति की संख्या सदा एक रही थी , स्पत्नियो की चाहे जितनी रही हो |परन्तु अब एक और इकाई इस सामाजिक परम्परा में आ जुडी |
वह इकाई थी अनेक पतिका की |मैंने वह दिन देखा था जब अनेको के बीच मैं उपेक्षित -सी हो गयी थी , परन्तु फिर भी शरीर और स्वास्थ्य मेरे थे |परन्तु अब मैं जीवित नरक में पड़ी , जब अनेक पतियों को मुझे एक -साथ संभालना पडा |
पतिव्रत का कैसे स्वांग रच सकती , कैसे कोइ नारी पांच पतियों को अव्यभीचारणी मिष्ठा से एक साथ स्वीकार कर सक्तिहाई ?
अर्जुन मुझे वर्ण, पराक्रम ,और बुद्धि तीनो से स्वाभाविक ही पसंद था और मैंने उसके लिए टन , मन ,प्राण कुछ भी आदी न रखा , परन्तु इसका भोग मुझे भोगना पडा |
हिमालय की बर्फीली छोटी पर जब मेरा देहावसान हुआ तब भीम के पूछने पर धर्मराज -सत्य कथन के कारण भूमि से हाथ भर ऊँचे हवा में दौड़ते रथ पर बैठने वाले सत्यधन युधिष्टिर ने कहा ,'यह इसलिए सदेह स्वर्ग जाने के पहले ही राह में गिर गयी कि इसने हम सबसे अधिक अर्जुन को चाहा था ""
इसी ऋगवैदिक काल के अन्त में त्रेता -द्वापर के बाद मेरा बचा -खुचा स्वत्व भी नष्ट हो गया |मैं पति कि अर्धांगिनी थी ,इससे विधि क्रियाओं का उसके साझे में सम्पन्न करना अनिवार्य हो गया |अश्वमेघ की जो परम्परा चली तो मारी गयी मैं |अब तक मेरा जीवन चाहे जितना भी क्षुद्र ,जितना भी दारुण , जितना भी घृणित क्यों न रहा हो , मानुषिक ही था परन्तु अब सर्वथा पाशविक हो गया |
नारी मनुष्य के साथ कुछ भी कर सकती है , परन्तु पशु के साथ -अश्व के साथ .....
सायण-महीधर कैसे उसकी व्याख्या कर सके , ऐतरेय ब्राह्मण में कैसे उसे सम्मिलित किया जा सका ?जनमेजयका वह अश्वमेध .....पुरोहित तुरकावशेष के अश्व का वह आक्रमण ......
हाय किसे मैं गाली दूँ ----अश्वमेधयायियो को या ऋत्विक पुरोहितो को ?

उस वैदिक युग में भी पति की छाया मात्र थी मैं |चाहे सीता चाहे द्रोपदी ,चाहे विविध देविया ---सब रूपों में मैं पति की छाया मात्र थी |
उपनिषदतकाल का जीवन मुझे और नीचे ले चला |माना , मैं गार्गी और मैत्रेयी थी -ब्राह्नवादिनी -परन्तु कात्यायनी भी तो मैं ही थी |
इतने मेधावी महर्षि की पत्नी होकर भी मैं निरक्षर कैसे रह सकी ?जो पुरुष पत्नी को अर्धांग मानता है वह स्वंय व्युत्पन्न और विचक्षण अपने अर्धांग को मुर्ख रखकर स्वंय कैसे मेधावी हो सकता है ? संस्कृति का आलोक तो अपने चतुर्दिक प्रकाश फैलाता है , निकट के अन्धकार को हरता है |फिर इतने युग -प्रवर्तक आत्मवादी की पत्नी होकर भी मेरा अज्ञान दूर क्यों न हुआ ?और एक बात पुछू ?यह त्यागी ,अप्रमादी ,ब्रम्हवादी,विदेह जनक-गुरु , निरीह ,इन्द्रिय-निग्रही याज्ञवल्क्य भी एकपत्नीक न बन सका ?उसने भी मेरे अभ्युदय में सपत्नी की श्रृखला डाल दी |
और तभी मैं महर्षि सत्यकाम जाबाल की माता के रूप में भी अवतरित हुई |उससे जब गुरु ने पूछा कि तुम्हारा पिता कौन है -ब्राहम्ण या क्षत्रिय ,तो क्या कहे वह सीधा बालक सिवा मुझसे पूछने के ?और मैं ही क्या बताऊ उसे अपना वह अकथनीय गुप्त रहस्य -और अपना वह नितांत घृणित अमानुषिक पारव्श्य आचरण -पिता के घर अनेक अतिथियों का आगमन ,उनको देवतुल्य मानने कि परम्परा , उनको विमुख न करने कि परिपाटी और उन तृषित रुक्ष अप्रत्यक्ष एकांत विलासियो का एकैक परिभोग !
भला मुझे ही क्या पता ,किसका है वह निवर्ण जाबाल ?

आगे का जीवन अत्यंत क्लेश का जीवन था |मैं अपने लिए नही ,ओरो के लिए जीने लगी |पहले मेरा विवाह तन के पुष्ट हो जाने पर हुआ करता था , अब आठ -आठ दस -दस वर्ष की आयु में होने लगा |सारे अधिकार भी छीन गये |अधिकार पहले ही कितने थे , परन्तु अब तो कुछ भी न रहे |पहले कम -से - कम जनन -कार्य सशक्त होने पर करना पड़ता था:अब माँ जाने पर भी शिशुता को झलक न जाती |
भूमि , जायदाद सभी पति आदि के थे |पति के मरने पर दूर -दूर के सम्बन्धी यहा तक कि उसके गुरुभाई तक उसमे हिस्सा पाते , परन्तु मेरा पति की जायदाद पर कोई अधिकार न था |
मेरी संज्ञा 'अबला 'हई |मैं कुमार्यावस्था में पिता द्वारा , यौवन में पति द्वारा बृद्धावस्था में पुत्रो द्वारा नियंत्रित मानी जाने लगी |
वैदिक काल में इंद्र ने कहा था ---"नारी का हृदय वृक (भेडिये )का हृदय है कभी विश्सनीय नही "|
अब एक ओर तो सूत्रों ने अल्पायु -विवाह की व्यवस्था दी , जायदाद से मेरा नाम काट दिया |
मनु ने एक ओर तो , "नारीरत्न सुदुष्कुलाद्पी " का मन्त्र दिया , दूसरी ओर उसके पूजे जाने की व्यवस्था दी , तीसरी ओर उसका पुनर्विवाह वर्जित कर दिया |
इसके बाद दुसरा धर्मशास्त्री जो उठा तो उसने मुझे नौकरों , दासो , चाण्डालो, की पंक्ति में ला बिठाया |उन्हें वेद पढने का अधिकार न था , वेद सुनने का भी नही |मेरी भी व्यवस्था इस सम्बन्ध में वही हुई जो उनकी थी |
वेदों की निर्माता कभी मैं रह चूकि थी , पर अब यदि मैं कभी उनका मंत्राश सुन लेती तो शुद्रो -चाण्डालो की भांति मुझे भी पिघला राँगा अपने कानो में लेना होता |निश्चय , अब मैं इन्द्राणी अथवा वाचवन्वी न थी जो ललकार उठती -अह रुद्राय धनुरातनोमी ब्रहाद्दिणे शरवे हन्तवाऊ |"
अब मैं बाहर न निकल सकती थी , न किसी से मिल सकती थी |एक बार पति के घर जाकर पिता के घर लौटना असम्भव था |पर्दा का घटाघोप अब मुझे घेर चला |
जितने भी दुःख मुझे अगले युगों में भोगने पड़े , उनकी शिलाभित्ति इसी काल , धर्म -सूत्रों और धर्म -शास्त्रों के इसी युग में प्रस्तुती हुई थी |भावी हिन्दू समाज की आधार -वेदी उन्ही विधान -ग्रंथो ने निर्मित की थी और उसके नेपथ्य -पूजन में पहला बलिदान मेरा ही हुआ |मुझ विधवा -बालविधवा --की दशा नितांत करूं हो गयी |मैं अपने पति को किसी अवस्था में न त्याग सकती थी |वह मुझे जब चाहता , छोड़ सकता था ,और उससे बुरी बात तो यह है कि जब चाहता मेरी छाती पर मूंग दलने के लिए सौतेला बिठाता |
अत्यंत प्राचीन काल से और उपाय न देख अपने तन कि रक्षा के लिए मैं अपना शरीर चाँदी के टुकडो पर बेचती आ रही थी |लिच्छवियो ,में ,कोसलो में ,मालवो में ,सर्वत्र मेरी पूछ थी |विधवा के लिए समाज में जो सुख था , सती के लिए जो भूख थी , उससे चकलो का बसना स्वाभाविक ही था |और मेरे उस प्रकोष्ठ पर अनेक धर्म -धुरंधर आते |
वेश्या , रुजिवा ,वारांगना ,पण्य-स्त्री आदि मेरी संज्ञाए हुई |कौटिल्य ने हमारे उपर टैक्स लगाकर हमारा व्यवसाय और बढाने का प्रबंध कर दिया |पांच -पांच सौ मुद्रा प्रति रात्री मेरा शुल्क हुआ |
मैं और करती भी क्या ?चार रास्ते थे -घर में विधवा बने रहने या सती हो जाने का , वेश्या बन जाने का , अथवा बौद्ध संघो में भिक्षुणी कि दीक्षा ले लेने का |

भगवान तथागत ने अत्यंत कृपा से संघ की हजार वर्ष के बजाए ,अगर मेरा सम्पर्क हो गया तो पांच सौ वर्षो कि आयु ही आंकी थी |इससे महास्थविर वहा भी भरसक मेरी पैठ न होने देते ,यद्दपि मेरी उनको आवश्यकता थी ---आवश्यकता तो ऐसी थी कि उसके कारण जो मुझ पर बीती ,वह क्या कहू संघ का व्यवसाय भी चलता रहा ,तथागत की भविष्यवाणी भी असिद्ध हुई |पांच सौ वर्ष बाद संघ न टूटा ,और मेरी वजह से उसके भिक्षुओं की संख्यका में नित्य वृद्धि होती गयी |

धर्मसुत्रो और धर्मशास्त्रों की मार सह कर भी मैं ज़िंदा रह गयी |नन्द -शुद्रो के उत्कर्ष के साथ मैंने सोचा कि संभवत: मेरा भी अभ्युदय होगा |परन्तु नही ,इस सम्बन्ध में ब्राह्मण -शुद्र एक -से थे |सुद्रो ने ,निश्चय बर्दास्त की अति हो जाने पर जोर लगाकर क्रान्ति कर दी ,परन्तु उसे सह कौन सकता था |क्षत्रियो को नीचा दिखाने के लिए तो उसका उपयोग ब्राहमण ही कर सकता था , जैसा किया भी उसने |कात्यायन और राक्षस दोनों ने'सर्वक्षत्राक ' महापद्मनन्द का साचिव्य किया |परन्तु चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की पीठ ठोक ब्राह्मण -क्षत्रिय के संयुक्त बल से उसका नाश कर दिया |फिर धर्मसूत्रों और शास्त्रों का आतंक जमा |
चाणक्य , चन्द्रगुप्त , अशोक आये |अर्थशास्त्र ने अनेक व्यवस्थाये दी ,अशोक ने दलितों के उद्धार के लिए धर्मध्वजाए खड़ी की ,पर मेरे लिए उनमे कही कुछ न था-- मैं फिर भी अपाहिज ही बनी रही |
मैं इस लोक की समझी ही नही जाती थी ,मेरे धर्माधिकारी की कुछ चर्चा जब -तब अवश्य हो जाती थी स्त्र्याध्यक्ष -महापात्र मुझे दान की महिमा जरुर समझा जाते थे और विधानों की श्रखला मेरे तन पर कसती जाती थी |
मैं अपने नैमित्तिक मार्ग पर चुपचाप चल रही थी |मेरी राह और बनाते थे ,मुझे बस चलना ही चलना था |विधायक स्वंय क्रूर थे , कायर थे ,और परिस्थितियों ने उसकी कायरता प्रदर्शित कर दी थी |
बलख से देमित्रियस आया , सीधा पाटलिपुत्र पहुच गया |उसके सामने मौर्य न टिक सके |नागरिक नगर छोड़ ग्रीको के सामने गंगा पार या राजगिरी की गुफाओं में सिधारे ,पर मेरे हाथो में हथकडिया पड़ी थी ,पैरो में बेडिया थी -न तो लाद सकती थी ,न भाग कर रक्षा कर सकती थी |मैं शिकार हो गयी |
मेरा अपना क्या था जो जाता ?अपना तो कर्मो के विपाक से सर्वस्व चला ही गया था , चला ही जा रहा था |मुझे अपनापा का बोद्ध क्योंकर होता जब अपना कुछ था ही नही ?मैं तो अपनी थी ही नही ,और की थी; और जब औरो की थी तब जैसी एक की वैसी दूसरे की |रुप्जिविका का और सिद्धांत ही क्या होता है ?सो मैं पाटलिपुत्र के उस विराट नगर में देमित्रियस के सैनिको की हुई |
परन्तु इससे भी बढ़कर भयंकर मार मुझ पर कुछ काल बाद पड़ी तभी जब शायद प्रसिद्ध विक्रमादित्य अवन्ती का नाम मालव सार्थक कर रहे थे |लोहिताक्ष शक अम्लाट आया और उत्तरापथ को कुचलता मगध आ पहुचापाटलिपुत्र के नरो को भागने तक का अवसर न मिला ,अम्लाट ने सारे पुरुषो को तलवार के घाट उतार दिया |
कही कोई पुरुष दिखाई न पड़ता था और मुझे उन क्रूरकरमा , गंदे ,भीषण शको के चोगो में अपना मुँह छिपाना पडा |सडको पर रक्त प्रवाहित हो रहा था और उन्ही रक्त बहाने वालो को मुझे तृप्त करना पड़ता |संयोगवश शव शीघ्र चले गये ,मुझे सांस लेने का अवकाश मिला |
अवकाश क्या मिला ,नितान्त चुप्पी थी |पुरुष नगर में थे नही ,मैंने नगर का शासन संभाला , हल की हत्थी अपने हाथो पकड़ी और नगर की व्यवस्था की |बीस -बीस पचीस -पचीस की संख्या में मैं एक पुरुष के साथ श्वास करती |फिर भी , इतना देख लेने पर भी उसकी अनुपस्थिति में मैंने जो बुद्धि का परिचय दिया था उसे समझ की भी उसने मेरा तिरस्कार ही किया और जब वह सभला तब मुझे अपने विधानों से उसने और जकड़ दिया |उसकी शक्ति मेरे ही सामने जाग उठती थी ,विदेशियों के सामने नही |
क्रमश:

प्रस्तुती 
सुनील दत्ता
 साभार ----''इतिहास के पन्नो पर खून के छीटे ''
 लेखक .......... भागवत शरण उपाध्याय

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |