संदीप पाण्डेय
(
हाल ही में लियाकत शाह के मामले से साफ हो गया है कि किस तरह पुलिस श्रेय
लेने के लिये आत्मसमर्पण किये हुये उग्रवादियों को फर्जी मामलों में फँसा
कर आतंकवादी के रूप में पेश करती है। यदि जम्मू-कश्मीर पुलिस और मुख्य
मन्त्री उमर अब्दुल्लाह ने खुल कर लियाकत के पक्ष में भूमिका नहीं ली होती
तो सारा देश यही मानता कि लियाकत होली के समय दिल्ली में विस्फोट करने आया
था। यह भी सवाल उठता है कि पुरानी दिल्ली में बरामद हथियार-बारूद किसने रखे
थे ? हमारा मानना है कि अफजल गुरु का मामला लियाकत जैसा ही था। एस.टी.एफ.
और दिल्ली पुलिस के विशेष सेल ने उसे बलि का बकरा बना दिया। इस देश में
पुलिस अपनी अक्षमता को छिपाने के लिये अन्य मामलों में भी निर्दोष लोगों को
फँसाती रही है।
-सं. पा.)
अफजल गुरु को फाँसी हो गयी। अफजल
को फाँसी की सजा इसलिये दी गयी थी कि राष्ट्र की सामूहिक चेतना संतुष्ट हो
सके। राष्ट्र की सामूहिक चेतना संतुष्ट हो गयी होगी। राष्ट्रवादी लोगों ने
नाच-गा कर, एक-दूसरे को मिठाई खिला कर, पटाखे चला कर खुशियां मनायीं। शायद
सजा सुनाने के पीछे उद्देश्य भी यही था कि एक अध्याय पूरा हो।किन्तु एक सवाल अनुत्तरित रह जाता है। संसद् पर हमले की साजिश आखिर रची किसने थी? जो पाँच कड़ी सुरक्षा भेद कर संसद् भवन तक पहुँच गये थे वे तो मौके पर ही मारे गये। जाँच एजेंसियों के अनुसार साजिशकर्ता हैं मसूद अज़हर, गाजी बाबा और तारिक अहमद जो पाकिस्तान में हैं। जाहिर है कि इन्हें अभी तक गिरफ्तार नहीं किया जा सका है।
फिर अफजल कौन था और संसद् हमले में उसकी क्या भूमिका थी? आइये देखें उसका और उसकी पत्नी का पक्ष जो पत्र रूप में उसकी सजा से पहले सार्वजनिक हो चुका था।
अफजल गुरु को फाँसी की सजा हुयी मात्र उस इकबालिया बयान के आधार पर जो उसने विशेष पुलिस सहायक पुलिस आयुक्त राजबीर सिंह के दबाव में मीडिया के सामने दिया। उसे यह धमकी दी गयी थी कि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसके परिणाम उसकी पत्नी और बच्चों के लिये सही नहीं होंगे।
अफजल गुरु जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की ओर 1990 में आकर्षित हुआ और प्रशिक्षण के लिये पाकिस्तान गया। किन्तु तीन माह ही रहने के बाद वह लौट आया क्योंकि उसे इन संगठन के नेताओं की बातें, खासकर पाकिस्तान के पक्ष में, पसन्द नहीं आयीं। उसने लौटकर सीमा सुरक्षा बल के सामने आत्मसमर्पण किया। उसे जल्दी ही समझ में आया कि आत्मसमर्पित उग्रवादी के रूप में रहना आसान नहीं। उसे समय समय पर सेना, बी.एस.एफ. व एस.टी.एफ. जैसी सुरक्षा एजेंसियाँ परेशान करती रहती थीं। उसका परिवार सुरक्षित रहे इसलिये अफजल गुरु जैसे आत्मसमर्पण किये हुये उग्रवादी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा बताये गये सही या गलत काम करने को मजबूर थे। जो पैसे दे सकते थे उन्हें परेशान नहीं किया जाता। यानी यहाँ भी भ्रष्टाचार। एक बार पारमपोर पुलिस स्टेशन के पुलिसकर्मी अकबर ने उससे पाँच हजार रुपये माँगे थे और फिरौती न मिलने की सूरत में उसे नकली दवायें व चिकित्सीय उपकरण बेचने के आरोप में गिरफ्तार किये जाने की धमकी दी गयी। अफजल के मुदकमे के दौरान अकबर भी गवाह के रूप में न्यायालय में पेश हुआ और अफजल के खिलाफ बयान दिया। अफजल ने 1997-98 में दवाओं और उपकरणों का व्यापार कमीशन के आधार पर शुरू किया था चूँकि आत्मसमर्पित उग्रवादियों को नौकरी नहीं मिल सकती थी। इससे अफजल की चार-पाँच हजार प्रति माह की कमाई हो जाती थी। वर्ना एस.टी.एफ. के साथ विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में काम करना पड़ता जिसमें आतंकवादियों के हाथ मारे जाने का खतरा रहता था। अफजल को एस.पी.ओ. को भी 300-500 रुपये घूस देनी पड़ती थी ताकि वे उसे परेशान न करें।
दौर चलता रहा। एस.टी.एफ. उससे रुपयों की माँग कर रही थी जिसके लिये उसे अन्ततः उसे अपनी पत्नी के जेवर बेचने पड़े। कुल मिलाकर 80 हजार रुपये नकद और अपने नये स्कूटर से उसे हाथ धोना पड़ा। हर एक प्रताड़ना के बाद स्थिति ये होती थी कि कई दिनों तक इलाज कराना पड़ता था।
1990 से 1996 के दौरान अफजल ने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी और उस दौरान ट्यूशन भी पढ़ाता था। बड़गाम के एस.एस.पी. अशफाक हुसैन के साले अल्ताफ हुसैन ने उसे अपने दो बच्चों को पढ़ाने के लिये कहा। एक दिल अल्ताफ अफजल को डी.एस.पी. दरविंदर सिंह के पास ले गया। उससे कहा गया कि उसे मोहम्मद नामक एक आदमी, जो गैर-कश्मीरी था, को दिल्ली ले जाना है और उसे वहाँ किराये का घर दिलवाना है। वहाँ कार खरीदवाने से लेकर उसने मोहम्मद की सभी प्रकार से मदद की। एक दिन मोहम्मद ने उसे पैंतीस हजार रुपये देकर कश्मीर वापस जाने के लिये मुक्त कर दिया। इस बीच अफजल ने दिल्ली में आकर अपनी पत्नी और चार वर्ष के बेटे गालिब के साथ रहने के फैसले के साथ एक कमरा भी इन्दिरा विहार में किराये पर ले लिया। उसने चाभियाँ मकान मालकिन को सौंपते हुये उनसे कहा कि वह शीघ्र परिवार के साथ लौटेगा।
संसद् हमले के बाद कश्मीर पहुँच कर जब अगले दिन वह सोपोर की बस पकड़ने के लिये बस स्टैण्ड पर खड़ा था तो श्रीनगर पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और पारमपोरा पुलिस थाने ले गयी। उससे पैंतीस हजार रुपये ले लिये गये। एस.टी.एफ. मुख्यालय ले गये। वहाँ से दिल्ली ले जाया गया। विशेष सेल ने यहाँ उसको प्रताड़ित करना शुरू किया।
विशेष सेल द्वारा आयोजित प्रेस वार्ता में जब उसने यह कह दिया कि सैयद अब्दुर रहमान गिलानी निर्दोष हैं तो ए.सी.पी. राजबीर सिंह मीडिया के सामने उस पर बहुत नाराज हुये और मीडिया को उस बयान को न दिखाने या छापने का आग्रह किया।
अफजल को यह समझाया गया कि एस.टी.एफ. का सहयोग करने में ही उसकी भलाई है। दिल्ली में उसे उन जगहों पर ले जाया गया जहाँ से मोहम्मद ने तमाम चीजें खरीदी थीं। फिर उसे कश्मीर ले गये और वहाँ से वापस दिल्ली। उससे कई सादे कागजों पर हस्ताक्षर करयेए गये।
अफजल को न्यायालय में अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला। न्यायाधीश ने उससे कहा कि अन्त में उसे मौका दिया जायेगा लेकिन अदालत ने उसके बयान दर्ज नहीं किये और न ही दर्ज किये बयानों को उसे दिखाया गया। यदि सिर्फ उसे किये गये फोन कॉल का ही रिकॉर्ड निकाला जाता तो पता चल जाता कि एस.टी.एफ. ने उसे कितने फोन किये। उच्च न्यायालय का फैसला आने तक उसके मुकदमे की कैसी सुनवाई हो रही है उसे इसका कोई अँदाजा ही नहीं था।
हो सकता है अफजल ने अपने को बचाने के लिये उपर्यक्त बात कही हों। किन्तु यदि ये बातें सही हैं तो बड़ी गम्भीर हैं। एक तो अफजल का संसद् हमले से सिर्फ इतना सम्बंध था कि उसने मोहम्मद नामक एक आदमी की मदद की जिसकी कोई भूमिका संसद् हमले में प्रतीत होती है। यह मोहम्म्द कौन है? सबसे गम्भीर बात यह है कि उसने मोहम्मद की मदद एस.टी.एफ. के कहने पर की जिस बात को न्यायालय ने नहीं माना। क्या यह न्यायोचित नहीं है कि यदि अफजल ने यह बात कही है तो इस कोण की भी जाँच हो कि संसद् हमले में एस.टी.एफ. की कोई भूमिका थी या नहीं? एस.टी.एफ. की भी जिम्मेदारी है कि एक निष्पक्ष जाँच के उपरान्त अपनी भूमिका साफ करे।
यदि हम ऐसा नहीं करते तो संसद् हमले की साजिश की तह तक कभी नहीं पहुचेंगे और इस तरह के हमलों का खतरा बना रहेगा। अपनी सुरक्षा के लिये यह सच पता लगाना जरूरी है कि संसद् पर हमले की साजिश किसने की?
-संदीप पाण्डेय, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और मेगसेसे पुरस्कार विजेता हैं
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