विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और विश्व के विकसित देशों द्वारा समर्थित नई वैश्विक व्यवस्था की खुले व्यापार की नीति सभी देशों पर एक समान रुप से लागू हो गई है। इस वैश्विक व्यवस्था के साथ पूरे विश्व मंे एक सूचना क्रांति भी हो रही है। इसके फलस्वरुप पूरे विश्व में उत्पादक से उपभोक्ता समाज तक नये-नये अविष्कारों और माॅडल की चर्चा होती रहती है।
हमारी इस दुनिया में एक और ऐसी दुनिया भी है जिसमें एक नयी समाज व्यवस्था आकार ले रही है। इस समाज व्यवस्था का इस मीडिया की मुख्यधारा में कोई विशेष उल्लेख नहीं होता है। इसका एक प्रमुख कारण यही है कि यह नयी समाजव्यवस्था साम्राज्यवाद के विरोध की विचारधारा पर आधारित है। यह वैश्वीकरण को उपनिवेशवाद का नया चेहरा मानती है।
महात्मा गांधी ने ‘हिन्द-स्वराज’ का बीजमंत्र दक्षिण आफ्रीका मंे खोजा और भारत में विकसित किया था। भारत में ‘हिन्द-स्वराज’ का शताब्दी-समारोह सम्पन्न हो चुका है। भारत से बहुत दूर स्थित देशों में ‘हिन्द-स्वराज’ की भावना आन्दोलन और परिवर्तन जमीनी आकार ले रहे हैं।
वैश्विक सूचना क्रांति का अपना एक लोक-लुभावन चेहरा है। विश्व के विकसित देशों के संदर्भों से भरपूर यह सूचना-क्रांति ललचाती भी है, डराती भी है। उत्पादन के आंकड़ों, विकास दर, प्रति व्यक्ति आय, मुद्रा का मूल्य आदि की शब्दाबली के साथ इसके आकलन चमकीले, चिकने और फिसलन भरे होते हैं।
इस सूचना क्रांति के कुछ लघु एवं सुन्दर प्रकाशन हमे आश्वस्त करते हैं। देश की लघु पत्रिकाएं भरोसा देती हैं कि ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ और ‘विचार का अन्त’ कभी नहीं होता है। यह खतरनाक समय ही विचार की शुरुआत की जमीन बनाता है। ऐसे समय मंे कभी वाराणसी और दिल्ली से ‘सामयिक-वार्ता’ का प्रकाशन होता था। आजकल यह मासिक पत्रिका मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर इटारसी से संपादित और प्रकाशित हो रही है। इसका ‘लातीनी अमरीका’ पर केन्द्रित अंक नई जमीन तोड़ता है। इस जमीन पर कई नये विचार फूट रहे हैं।
आज से पांच सौ वर्ष पूर्व स्पेन से कोलम्बस अपनी समुद्री यात्रा पर निकला था। उसका लक्ष्य सोने की चिडि़या कहलाने वाला इंडिया था। कोलम्बस इंडिया की खोज में अमरीका पहंुच गया। उसने अमरीका को ही इंडिया समझा इसलिए आज भी अमरीका के मूल निवासी ‘रेड-इंडियन’ कहलाते हैं।
कोलम्बस की इस खोज के साथ ही दुनिया के तथाकथित सभ्य देशों द्वारा साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का क्रूरतम खेल शुरु हो गया था। दक्षिण अमरीका के देशों में लैटिन परिवार की स्पानी, पुर्तगाली और फ्रांसीसी भाषा वाले देशों के उपनिवेशों के कारण दक्षिण अमरीका को लातीनी-अमरीका कहा जाने लगा।
लातीनी अमरीका में क्यूबा, ब्राजील, अर्जन्तीना, चिली, वेनेजुएला, निकारागुआ, बोलिविया आदि 33 देश स्थित हैं। इन देशों का इतिहास इनकी प्राचीन सभ्यताओं माया, इन्का, एजटेक से जुड़ा है। यूरोप के आक्रमणकारियों ने न केवल इनकी प्राचीन सभ्यताओं को नष्ट किया वरन् इनके समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट भी की। लातीनी अमरीकी देश बहुमूल्य धातुओं और औद्योगिक कच्चे माल के निर्यात और उपभोक्ता वस्तुओं के आयात की मंडी बनकर रह गये थे। लातीनी अमरीका के अधिकांश देश उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप की अधीनता मंे आजाद हो गए थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शेष देशों को भी उपनिवेशवादी शासन से स्वतंत्रता मिली। परन्तु तानाशाही और कठपुतली सरकारों का दौर भी लम्बे समय तक प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए चला। अभी भी कई देशों में प्रजातंत्र के भेष में सैनिक तानाशाही अपना सर उठाती रहती है।
लातीनी अमरीकी देशों मंे प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए कई सामाजिक आन्दोलन चल रहे हैं। आजकल खनन, भूमि अधिग्र्रहण के विरुद्ध व्यापक हड़तालें और आन्दोलन हो रहे हैं। इन देशों में जनता ऐसे नेताओं को चुन रही है जो वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।
लातीनी अमरीकी देशों में विदेशी ताकतों की कठपुतली सरकारों को हटाकर राष्ट्रहित में काम करने वाली सरकारों की स्थापना का दौर चल रहा है। बोलिविया के दो नगरों में पानी के निजीकरण के विरुद्ध जन-आन्दोलन बहुचर्चित है। बोलिविया 1982 से गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था। विश्व बैंक ने कर्ज के साथ निजीकरण की शर्तें भी लगाई। रेल्वे, वायुसेना, संचार, गैस, बिजली के बाद पानी का भी निजीकरण कर दिया गया।
विदेशी कंपनियों ने पानी का दाम दुगुना और तिगुना कर दिया। यह एलान भी कर दिया गया जो भी बिल नहीं चुकाएगा, उसका पानी का कनेक्शन काट दिया जायेगा। लोग सड़कों पर उतर आए। जन आन्दोलन तेज होने और सेना से भी नहीं दबने के कारण विदेशी कंपनी को देश छोड़कर जाना पड़ा।
इस आन्दोलन का राजनैतिक असर भी पड़ा। जनता ने अपनी ताकत पहचानी और विदेशी ताकतों की कठपुतली सरकार को हटाकर अपनी सरकार बनाई। पहली बार एक मूलनिवासी और पानी आन्दोलन के कार्यकर्ता को राष्ट्रपति चुना गया। इसी तरह वेनेजुएला में 1998 में उगो चावेज बहुमत से जीतकर राष्ट्रपति बने। चावेज ने दक्षिण अमरीका के स्वतंत्रता सेनानी साईमन बोलीवार के प्रजातांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित संविधान देश मंे लागू किया। इस संविधान के तहत हुए 2002 के चुनावों ंमंे उगो चावेज पुनः देश के राष्ट्रपति बने। इसके बाद 2006 और 2012 मंे भी चावेज बहुमत से चुनाव जीते। इस जीत के बाद जनवरी 2013 में वे राष्ट्रपति शपथ लेते पर कैन्सरग्रस्त होने से नहीं ले सके और 8 मार्च 2013 को उनका निधन हो गया।
उगो चावेज ने देश के पेट्रोलियम उद्योग पर सरकार का नियंत्रण बढ़ा दिया था। उन्होंने पेट्रोल से प्राप्त आमदनी का उपयोग जनता को मुफ्त शिक्षा, मुफ्त इलाज, सस्ता अनाज और रोजगार उपलब्ध कराने में किया। चावेज ने बड़ी-बड़ी जागीरों को तोड़कर जमीन को भूमिहीनों और सहकारी संस्थाओं मंे बांट दिया। चावेज के इस निर्णय से देश का कृषि उत्पादन तेजी से बढ़ा।
वेनेजुएला मंे आंगनबाड़ी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक मुफ्त शिक्षा दी जा रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी वेनुजुएला के पूर्ण साक्षर राष्ट्र बन जाने की पुष्टि की है। इस देश में कारखानों को मजदूरों द्वारा चलाने के भी प्रयोग हुए हैं। लातीनी अमरीका में ब्राजील, अर्जन्तीना, चिली, पेरु, उरुग्वे, निकारागुआ और हैती आदि देशों मंे जनता की लोकप्रिय सरकारें स्थापित हो रही हैं।
अर्जन्तीना के अर्थशास्त्री राउल प्रेनिश ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को विकास का गलत माध्यम बताया है। उन्होंने आयात की जगह लेने वाले औद्योगीकरण पर बल दिया है। चिली के अर्थशास्त्री आन्द्रे गुन्दर फ्रेंक ने ‘पिछड़ेपन का विकास’ सिद्धांत दिया है। उनके अनुसार देशों का पिछड़ापन पूंजीवाद के विकास का परिणाम है।
इस समय उरुग्वे के लेखक एदुआर्दो गालेआनो सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं। सन् 1971 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘लातीनी अमरीका की खुली धमनियां’ मंे कोलबंस के ‘वंशजों’ के दमन, लूट और विनाश का हृदयविदारक वर्णन है। गालेआनो की एक और किताब ‘उलटबांसियां: उल्टी दुनिया की पाठशाला’ (1998) है।
‘सामयिक-वार्ता’ के इस अंक मंे गालेआनो के एक निबंधों के महत्वपूर्ण अंश ‘शब्द एक शस्त्र है’ छपा है जो कबीर और महात्मा गांधी को लातीनी अमरीका की भूमि पर खड़ा करता लगता है। लातीनी अमरीका की और खुलने वाली यह छोटी सी खिड़की ज्ञान का एक नया दरवाजा भी खुलने की संभावना बनाती है।
- कश्मीर उप्पल
फोन - 09425040457
हमारी इस दुनिया में एक और ऐसी दुनिया भी है जिसमें एक नयी समाज व्यवस्था आकार ले रही है। इस समाज व्यवस्था का इस मीडिया की मुख्यधारा में कोई विशेष उल्लेख नहीं होता है। इसका एक प्रमुख कारण यही है कि यह नयी समाजव्यवस्था साम्राज्यवाद के विरोध की विचारधारा पर आधारित है। यह वैश्वीकरण को उपनिवेशवाद का नया चेहरा मानती है।
महात्मा गांधी ने ‘हिन्द-स्वराज’ का बीजमंत्र दक्षिण आफ्रीका मंे खोजा और भारत में विकसित किया था। भारत में ‘हिन्द-स्वराज’ का शताब्दी-समारोह सम्पन्न हो चुका है। भारत से बहुत दूर स्थित देशों में ‘हिन्द-स्वराज’ की भावना आन्दोलन और परिवर्तन जमीनी आकार ले रहे हैं।
वैश्विक सूचना क्रांति का अपना एक लोक-लुभावन चेहरा है। विश्व के विकसित देशों के संदर्भों से भरपूर यह सूचना-क्रांति ललचाती भी है, डराती भी है। उत्पादन के आंकड़ों, विकास दर, प्रति व्यक्ति आय, मुद्रा का मूल्य आदि की शब्दाबली के साथ इसके आकलन चमकीले, चिकने और फिसलन भरे होते हैं।
इस सूचना क्रांति के कुछ लघु एवं सुन्दर प्रकाशन हमे आश्वस्त करते हैं। देश की लघु पत्रिकाएं भरोसा देती हैं कि ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ और ‘विचार का अन्त’ कभी नहीं होता है। यह खतरनाक समय ही विचार की शुरुआत की जमीन बनाता है। ऐसे समय मंे कभी वाराणसी और दिल्ली से ‘सामयिक-वार्ता’ का प्रकाशन होता था। आजकल यह मासिक पत्रिका मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर इटारसी से संपादित और प्रकाशित हो रही है। इसका ‘लातीनी अमरीका’ पर केन्द्रित अंक नई जमीन तोड़ता है। इस जमीन पर कई नये विचार फूट रहे हैं।
आज से पांच सौ वर्ष पूर्व स्पेन से कोलम्बस अपनी समुद्री यात्रा पर निकला था। उसका लक्ष्य सोने की चिडि़या कहलाने वाला इंडिया था। कोलम्बस इंडिया की खोज में अमरीका पहंुच गया। उसने अमरीका को ही इंडिया समझा इसलिए आज भी अमरीका के मूल निवासी ‘रेड-इंडियन’ कहलाते हैं।
कोलम्बस की इस खोज के साथ ही दुनिया के तथाकथित सभ्य देशों द्वारा साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का क्रूरतम खेल शुरु हो गया था। दक्षिण अमरीका के देशों में लैटिन परिवार की स्पानी, पुर्तगाली और फ्रांसीसी भाषा वाले देशों के उपनिवेशों के कारण दक्षिण अमरीका को लातीनी-अमरीका कहा जाने लगा।
लातीनी अमरीका में क्यूबा, ब्राजील, अर्जन्तीना, चिली, वेनेजुएला, निकारागुआ, बोलिविया आदि 33 देश स्थित हैं। इन देशों का इतिहास इनकी प्राचीन सभ्यताओं माया, इन्का, एजटेक से जुड़ा है। यूरोप के आक्रमणकारियों ने न केवल इनकी प्राचीन सभ्यताओं को नष्ट किया वरन् इनके समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट भी की। लातीनी अमरीकी देश बहुमूल्य धातुओं और औद्योगिक कच्चे माल के निर्यात और उपभोक्ता वस्तुओं के आयात की मंडी बनकर रह गये थे। लातीनी अमरीका के अधिकांश देश उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप की अधीनता मंे आजाद हो गए थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शेष देशों को भी उपनिवेशवादी शासन से स्वतंत्रता मिली। परन्तु तानाशाही और कठपुतली सरकारों का दौर भी लम्बे समय तक प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए चला। अभी भी कई देशों में प्रजातंत्र के भेष में सैनिक तानाशाही अपना सर उठाती रहती है।
लातीनी अमरीकी देशों मंे प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए कई सामाजिक आन्दोलन चल रहे हैं। आजकल खनन, भूमि अधिग्र्रहण के विरुद्ध व्यापक हड़तालें और आन्दोलन हो रहे हैं। इन देशों में जनता ऐसे नेताओं को चुन रही है जो वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।
लातीनी अमरीकी देशों में विदेशी ताकतों की कठपुतली सरकारों को हटाकर राष्ट्रहित में काम करने वाली सरकारों की स्थापना का दौर चल रहा है। बोलिविया के दो नगरों में पानी के निजीकरण के विरुद्ध जन-आन्दोलन बहुचर्चित है। बोलिविया 1982 से गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था। विश्व बैंक ने कर्ज के साथ निजीकरण की शर्तें भी लगाई। रेल्वे, वायुसेना, संचार, गैस, बिजली के बाद पानी का भी निजीकरण कर दिया गया।
विदेशी कंपनियों ने पानी का दाम दुगुना और तिगुना कर दिया। यह एलान भी कर दिया गया जो भी बिल नहीं चुकाएगा, उसका पानी का कनेक्शन काट दिया जायेगा। लोग सड़कों पर उतर आए। जन आन्दोलन तेज होने और सेना से भी नहीं दबने के कारण विदेशी कंपनी को देश छोड़कर जाना पड़ा।
इस आन्दोलन का राजनैतिक असर भी पड़ा। जनता ने अपनी ताकत पहचानी और विदेशी ताकतों की कठपुतली सरकार को हटाकर अपनी सरकार बनाई। पहली बार एक मूलनिवासी और पानी आन्दोलन के कार्यकर्ता को राष्ट्रपति चुना गया। इसी तरह वेनेजुएला में 1998 में उगो चावेज बहुमत से जीतकर राष्ट्रपति बने। चावेज ने दक्षिण अमरीका के स्वतंत्रता सेनानी साईमन बोलीवार के प्रजातांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित संविधान देश मंे लागू किया। इस संविधान के तहत हुए 2002 के चुनावों ंमंे उगो चावेज पुनः देश के राष्ट्रपति बने। इसके बाद 2006 और 2012 मंे भी चावेज बहुमत से चुनाव जीते। इस जीत के बाद जनवरी 2013 में वे राष्ट्रपति शपथ लेते पर कैन्सरग्रस्त होने से नहीं ले सके और 8 मार्च 2013 को उनका निधन हो गया।
उगो चावेज ने देश के पेट्रोलियम उद्योग पर सरकार का नियंत्रण बढ़ा दिया था। उन्होंने पेट्रोल से प्राप्त आमदनी का उपयोग जनता को मुफ्त शिक्षा, मुफ्त इलाज, सस्ता अनाज और रोजगार उपलब्ध कराने में किया। चावेज ने बड़ी-बड़ी जागीरों को तोड़कर जमीन को भूमिहीनों और सहकारी संस्थाओं मंे बांट दिया। चावेज के इस निर्णय से देश का कृषि उत्पादन तेजी से बढ़ा।
वेनेजुएला मंे आंगनबाड़ी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक मुफ्त शिक्षा दी जा रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी वेनुजुएला के पूर्ण साक्षर राष्ट्र बन जाने की पुष्टि की है। इस देश में कारखानों को मजदूरों द्वारा चलाने के भी प्रयोग हुए हैं। लातीनी अमरीका में ब्राजील, अर्जन्तीना, चिली, पेरु, उरुग्वे, निकारागुआ और हैती आदि देशों मंे जनता की लोकप्रिय सरकारें स्थापित हो रही हैं।
अर्जन्तीना के अर्थशास्त्री राउल प्रेनिश ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को विकास का गलत माध्यम बताया है। उन्होंने आयात की जगह लेने वाले औद्योगीकरण पर बल दिया है। चिली के अर्थशास्त्री आन्द्रे गुन्दर फ्रेंक ने ‘पिछड़ेपन का विकास’ सिद्धांत दिया है। उनके अनुसार देशों का पिछड़ापन पूंजीवाद के विकास का परिणाम है।
इस समय उरुग्वे के लेखक एदुआर्दो गालेआनो सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं। सन् 1971 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘लातीनी अमरीका की खुली धमनियां’ मंे कोलबंस के ‘वंशजों’ के दमन, लूट और विनाश का हृदयविदारक वर्णन है। गालेआनो की एक और किताब ‘उलटबांसियां: उल्टी दुनिया की पाठशाला’ (1998) है।
‘सामयिक-वार्ता’ के इस अंक मंे गालेआनो के एक निबंधों के महत्वपूर्ण अंश ‘शब्द एक शस्त्र है’ छपा है जो कबीर और महात्मा गांधी को लातीनी अमरीका की भूमि पर खड़ा करता लगता है। लातीनी अमरीका की और खुलने वाली यह छोटी सी खिड़की ज्ञान का एक नया दरवाजा भी खुलने की संभावना बनाती है।
- कश्मीर उप्पल
फोन - 09425040457
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें