अधिकांश समुदायों के युवाओं की आँखें भविष्य पर टिकी रहती हैं, विशेषकर उनके कैरियर पर। वे कड़ी मेहनत से अपने लिए एक गरिमापूर्ण और उनकी इच्छाओं को पूरा करने वाले भविष्य का निर्माण करना चाहते हैं। यद्यपि सभी समुदायों के युवाओं को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है परन्तु भेदभाव के शिकार और समाज के हाशिए पर ढकेल दिए गए समुदायों के युवाओं के लिए जीवन संघर्ष कहीं अधिक कठिन होता है।
हाल में, लोकप्रिय लेखक चेतन भगत, जो अब काॅलमिस्ट बन गए हैं, ने एक जानेमाने दैनिक अखबार के जरिए, मुस्लिम युवाओं को उनके भविष्य और उन्हें उपलब्ध विकल्पों के बारे में बिन मांगे सलाह दी। यह सलाह, एक लेख के रूप में है, जिसका शीर्षक है, ‘‘लेटर फ्राम ए मुस्लिम यूथ’’। चेतन भगत का यह लेख, मुस्लिम युवाओं की स्थिति के प्रति उनकी संवेदनहीनता को उद्घाटित करता है। यह लेख मुसलमानों की बदहाली के लिए उन्हें ही दोषी करार देता है और दबी जुबान से उन्हें यह सलाह देता है कि वे नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं का पल्ला थाम लें। मोदी का नाम लेख में नहीं लिया गया है परन्तु चेतन भगत का इशारा क्या और किस तरफ है, यह साफ है।
मुस्लिम युवाओं को लेख की भाषा और उसमें कही गई बातें अपमानजनक लगीं और उन्होंने स्वयं को आहत महसूस किया। उनमें से कुछ ने इस लेख पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है, जो इन्टरनेट पर बहुत रूचि से पढ़ी जा रही है। इस प्रतिक्रिया में मुस्लिम समुदाय, और विशेषकर मुस्लिम युवाओं, के हालात का वर्णन किया गया है और लेख से उनकी भावनाओं को पहुंची चोट की अभिव्यक्ति भी की गई है। मुस्लिम युवाओं को लगा गहरा धक्का और उनके अन्दर भरा हुआ गुस्सा, इस प्रतिक्रिया के पोर-पोर से झलक रहा है। इस प्रतिक्रिया को प्रस्तुत किया है ‘साय आॅफ मुस्लिम यूथ’ (मुस्लिम युवाओं की आह) नामक एक संगठन ने, जिसके सदस्यों को भी कई मुश्किलातों से गुजरना पड़ रहा है। इन मुस्लिम युवाओं ने हमारे प्रजातंत्र पर प्रश्न उठाया है। ‘‘अगर हमारा देश सचमुच प्रजातंत्र होता तो केवल देश की सामूहिक अन्र्तात्मा को संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू को फांसी पर नहीं लटकाया जाता। मुस्लिम युवाओं को अपराधी ठहराकर मारा जा रहा है और उनके हत्यारों को वीरता पदक मिल रहे हैं।’’ इस प्रतिक्रिया में इस आम धारणा का भी जोरदार खण्डन किया गया है कि मुसलमान, मौलानाओं के प्रभाव में है और यह कि वे एकराय होकर वोट देते हैं।
यह लेख भगत जैसे लेखकों द्वारा प्रचारित की जा रही मिथ्या धारणाओं का प्रभावी प्रत्युत्तर है। परंतु भगत ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो मुस्लिम युवाआंे की पीड़ा को नहीं समझते। हमारे देश का एक अच्छा खासा तबका उसी किस्म की बेहूदा बातों पर यकीन करता है, जिन्हें भगत ने अपने लेख में दोहराया है। सच यह है कि पिछले तीन दशकों में, मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थिति में जो गिरावट आई है, वह इससे पहले शायद ही कभी आई हो। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें शामिल हैं भारतीय मुसलमानों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विभाजन की त्रासदी, कच्चे तेल के स्त्रोतों पर कब्जा करने की अमेरिकी कोशिश से उपजा आतंकवाद और पश्चिमी मीडिया द्वारा गढ़ी गयी ‘इस्लामिक आतंकवाद’ की अवधारणा। इसके अतिरिक्त, साम्प्रदायिक राजनीति के उदय, धार्मिक पहचान की राजनीति और राज्यतंत्र के साम्प्रदायिकीकरण ने भी इसमें भूमिका निभाई है।
आज के भारतीय मुसलमानों में से अधिकांश के पूर्वज शूद्र थे, जिन्होंने सूफी संतों के प्रभाव में आकर इस्लाम को अपनाया। वे वर्ण और जाति व्यवस्था के अन्यायपूर्ण और दमनकारी ढांचे से बाहर आना चाहते थे। ब्रिटिश राज में गरीब मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि 1857 की क्रांति के बाद, अंग्रेजों ने अन्य समुदायों की तुलना में, मुसलमानों का अधिक दमन किया क्योंकि उनका मानना था कि इस क्रांति में मुसलमानों की भूमिका सबसे बड़ी थी। शनैः शनैः मुस्लिम समुदाय ने दमन और बदहाली के दौर से उबरना शुरू किया। कुछ लोगों ने आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया, जिसके नतीजे में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया। परन्तु ये सभी प्रयास केवल मुसलमानों के श्रेष्ठि तबके, जिन्हें अशरफ कहा जाता है, तक सीमित रहे और अरजल नाम से जाने जाने वाले नीची जातियों के मुसलमानों की जिंदगी वैसी ही बनी रही जैसी सदियों से थी। अधिकांश मुसलमानों ने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक अपीलों को दरकिनार करते हुए, स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। मुस्लिम लीग की स्थापना जमींदारों और नवाबों के एक तबके ने की थी परंतु बाद में उसे सुशिक्षित व श्रेष्ठि वर्ग का समर्थन भी मिलने लगा। देश के विभाजन के बाद, शिक्षित व्यवसायी और सरकारी नौकरियों में उच्च पदस्थ मुसलमान, पाकिस्तान चले गए। गरीब मुसलमानों में से बहुसंख्यक भारत में ही रह गए।
देश के विभाजन के समय मुसलमानों और दलितों की स्थिति लगभग एक सी थी। परंतु इसके बाद से इन दोनों समुदायों ने अलग-अलग राहें पकड़ लीं। डाॅक्टर अम्बेडकर के संघर्ष के कारण दलितों को शनैः-शनैः समाज में सम्मान मिलने लगा। उन्हें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का लाभ भी मिला। इस सबसे दलित इस देश के समान नागरिक बनने की दिशा में काफी आगे बढ़ गए। परंतु मुसलमानों के भाग्य में यह सब नहीं था। उन्हंे विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाने लगा, उन्हें ‘दूसरा‘ बताकर नीची निगाहों से देखा जाने लगा और सरकारी सेवाओं में उनका प्रवेश लगभग असंभव हो गया। धीरे-धीरे सरकारी सेवाओं में उनकी उपस्थिति, उनकी आबादी के मान से बहुत कम हो गई। इस भेदभाव का एक प्रभाव यह हुआ कि समुदाय के युवाओं मंे पढ़ाई-लिखाई के प्रति आकर्षण समाप्त हो गया। उनकी मुसीबतों को और बढ़ाया साम्प्रदायिक हिंसा ने, जिसके कारण वे स्वयं को अत्यंत असुरक्षित महसूस करने लगे। देश की आबादी का 13-14 प्रतिशत होने के बावजूद, साम्प्रदायिक हिंसा में मरने वालों में उनका प्रतिशत 90 के आसपास पहुंच गया।
शाहबानो मामले और उसके बाद आक्रामक राममंदिर आंदोलन के साथ साम्प्रदायिक राजनीति परवान चढ़ने लगी और उसने मुस्लिम समुदाय को समाज के हाशिए पर फेक दिया। लोकसभा और विधानसभाओं में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में तेजी से गिरावट आई। राममंदिर आंदोलन और उसके बाद हुई हिंसा ने समुदाय के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं, आतंकवाद के उदय से समुदाय की यंत्रणा का एक नया दौर शुरू हुआ। अल्कायदा के जन्म, उसकी कश्मीर घाटी में घुसपैठ और 11/9/2001 से शुरू हुए मुसलमानों के दानवीकरण ने उनकी मुसीबतों मंे और इजाफा किया। अगर कहीं भी बम विस्फोट या आतंकी हमला हुआ है तो वह मुसलमानों ने किया होगा-यह जांच एजेन्सियों का एक प्रिय फार्मूला बन गया। इसका नतीजा यह हुआ कि हर बम विस्फोट के बाद, सैकड़ों मुस्लिम युवकों को हिरासत में ले लिया जाता और जब तक वे निर्दोष साबित होते, तब तक उनका भविष्य नष्ट हो चुका होता और उनके माथे पर आतंकवादी होने का स्थायी लेबिल चस्पा हो जाता। बाटला हाउस और इशरत जहां जैसी मुठभेड़ों ने मुसलमानों, विशेषकर युवाओं, की छवि को और धूमिल किया।
समाज में तो मुसलमान अपमान और भेदभाव का सामना कर ही रहे थे, राज्य, पुलिसतंत्र और नौकरशाही मंे भी उनके प्रति पूर्वाग्रहों ने गहरी जड़ें जमा लीं। हालत यह हो गई कि वे अपने मोहल्लों तक सीमित होने पर मजबूर हो गए और मिश्रित आबादी वाली कालोनियों में मकान खरीदना उनके लिए असंभव हो गया।
इन सारी मुसीबतों से लड़ते हुए मुस्लिम युवाओं के एक बड़े हिस्से ने कड़ी मेहनत और दृढ़ निश्चय से सूचना प्रौद्योगिकी और अन्य ऐसे व्यवसायों में अपना स्थान बनाया है जहां वे राज्य के संरक्षण के बिना भी आगे बढ़ सकते थे। कई ने फिल्मों और खेल की दुनिया में नाम कमाया। यह दिलचस्प है कि अमेरिका में भी दमित अफ्रीकी-अमेरिकियों का फिल्मों, संगीत और खेल में प्रदर्शन श्वेतों से बेहतर रहा है। भारत में भी इन्हीं क्षेत्रों में मुसलमानों की खासी उपस्थिति भी यह संकेत देती है कि वे भेदभाव के शिकार हैं।
इन हालातों में चेतन भगत जैसे लोग, जो मुसलमानों के हितचिंतक होने का दावा करते हैं परंतु हैं उनके शत्रु, उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि मुसलमान अपनी बदहाली के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं। जब किसी लड़की के साथ बलात्कार होता है तो ऐसे ही लोग उसके लिए लड़की को दोषी ठहराते हैं। ‘‘उसमें कुछ न कुछ कमी रही होगी, उसने कुछ न कुछ गलत किया होगा‘‘, वे फरमाते हैं। पीडि़त को दोषी ठहराना, प्रतिगामी व संकीर्ण विचारधाराओं की विशेषता रही है। चेतन भगत के लेख से यह जाहिर है कि वे भी इन्हीं ताकतों के प्रतिनिधि हैं।
-राम पुनियानी
हाल में, लोकप्रिय लेखक चेतन भगत, जो अब काॅलमिस्ट बन गए हैं, ने एक जानेमाने दैनिक अखबार के जरिए, मुस्लिम युवाओं को उनके भविष्य और उन्हें उपलब्ध विकल्पों के बारे में बिन मांगे सलाह दी। यह सलाह, एक लेख के रूप में है, जिसका शीर्षक है, ‘‘लेटर फ्राम ए मुस्लिम यूथ’’। चेतन भगत का यह लेख, मुस्लिम युवाओं की स्थिति के प्रति उनकी संवेदनहीनता को उद्घाटित करता है। यह लेख मुसलमानों की बदहाली के लिए उन्हें ही दोषी करार देता है और दबी जुबान से उन्हें यह सलाह देता है कि वे नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं का पल्ला थाम लें। मोदी का नाम लेख में नहीं लिया गया है परन्तु चेतन भगत का इशारा क्या और किस तरफ है, यह साफ है।
मुस्लिम युवाओं को लेख की भाषा और उसमें कही गई बातें अपमानजनक लगीं और उन्होंने स्वयं को आहत महसूस किया। उनमें से कुछ ने इस लेख पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है, जो इन्टरनेट पर बहुत रूचि से पढ़ी जा रही है। इस प्रतिक्रिया में मुस्लिम समुदाय, और विशेषकर मुस्लिम युवाओं, के हालात का वर्णन किया गया है और लेख से उनकी भावनाओं को पहुंची चोट की अभिव्यक्ति भी की गई है। मुस्लिम युवाओं को लगा गहरा धक्का और उनके अन्दर भरा हुआ गुस्सा, इस प्रतिक्रिया के पोर-पोर से झलक रहा है। इस प्रतिक्रिया को प्रस्तुत किया है ‘साय आॅफ मुस्लिम यूथ’ (मुस्लिम युवाओं की आह) नामक एक संगठन ने, जिसके सदस्यों को भी कई मुश्किलातों से गुजरना पड़ रहा है। इन मुस्लिम युवाओं ने हमारे प्रजातंत्र पर प्रश्न उठाया है। ‘‘अगर हमारा देश सचमुच प्रजातंत्र होता तो केवल देश की सामूहिक अन्र्तात्मा को संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू को फांसी पर नहीं लटकाया जाता। मुस्लिम युवाओं को अपराधी ठहराकर मारा जा रहा है और उनके हत्यारों को वीरता पदक मिल रहे हैं।’’ इस प्रतिक्रिया में इस आम धारणा का भी जोरदार खण्डन किया गया है कि मुसलमान, मौलानाओं के प्रभाव में है और यह कि वे एकराय होकर वोट देते हैं।
यह लेख भगत जैसे लेखकों द्वारा प्रचारित की जा रही मिथ्या धारणाओं का प्रभावी प्रत्युत्तर है। परंतु भगत ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो मुस्लिम युवाआंे की पीड़ा को नहीं समझते। हमारे देश का एक अच्छा खासा तबका उसी किस्म की बेहूदा बातों पर यकीन करता है, जिन्हें भगत ने अपने लेख में दोहराया है। सच यह है कि पिछले तीन दशकों में, मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थिति में जो गिरावट आई है, वह इससे पहले शायद ही कभी आई हो। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें शामिल हैं भारतीय मुसलमानों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विभाजन की त्रासदी, कच्चे तेल के स्त्रोतों पर कब्जा करने की अमेरिकी कोशिश से उपजा आतंकवाद और पश्चिमी मीडिया द्वारा गढ़ी गयी ‘इस्लामिक आतंकवाद’ की अवधारणा। इसके अतिरिक्त, साम्प्रदायिक राजनीति के उदय, धार्मिक पहचान की राजनीति और राज्यतंत्र के साम्प्रदायिकीकरण ने भी इसमें भूमिका निभाई है।
आज के भारतीय मुसलमानों में से अधिकांश के पूर्वज शूद्र थे, जिन्होंने सूफी संतों के प्रभाव में आकर इस्लाम को अपनाया। वे वर्ण और जाति व्यवस्था के अन्यायपूर्ण और दमनकारी ढांचे से बाहर आना चाहते थे। ब्रिटिश राज में गरीब मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि 1857 की क्रांति के बाद, अंग्रेजों ने अन्य समुदायों की तुलना में, मुसलमानों का अधिक दमन किया क्योंकि उनका मानना था कि इस क्रांति में मुसलमानों की भूमिका सबसे बड़ी थी। शनैः शनैः मुस्लिम समुदाय ने दमन और बदहाली के दौर से उबरना शुरू किया। कुछ लोगों ने आधुनिक शिक्षा पर जोर दिया, जिसके नतीजे में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया। परन्तु ये सभी प्रयास केवल मुसलमानों के श्रेष्ठि तबके, जिन्हें अशरफ कहा जाता है, तक सीमित रहे और अरजल नाम से जाने जाने वाले नीची जातियों के मुसलमानों की जिंदगी वैसी ही बनी रही जैसी सदियों से थी। अधिकांश मुसलमानों ने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक अपीलों को दरकिनार करते हुए, स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। मुस्लिम लीग की स्थापना जमींदारों और नवाबों के एक तबके ने की थी परंतु बाद में उसे सुशिक्षित व श्रेष्ठि वर्ग का समर्थन भी मिलने लगा। देश के विभाजन के बाद, शिक्षित व्यवसायी और सरकारी नौकरियों में उच्च पदस्थ मुसलमान, पाकिस्तान चले गए। गरीब मुसलमानों में से बहुसंख्यक भारत में ही रह गए।
देश के विभाजन के समय मुसलमानों और दलितों की स्थिति लगभग एक सी थी। परंतु इसके बाद से इन दोनों समुदायों ने अलग-अलग राहें पकड़ लीं। डाॅक्टर अम्बेडकर के संघर्ष के कारण दलितों को शनैः-शनैः समाज में सम्मान मिलने लगा। उन्हें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का लाभ भी मिला। इस सबसे दलित इस देश के समान नागरिक बनने की दिशा में काफी आगे बढ़ गए। परंतु मुसलमानों के भाग्य में यह सब नहीं था। उन्हंे विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाने लगा, उन्हें ‘दूसरा‘ बताकर नीची निगाहों से देखा जाने लगा और सरकारी सेवाओं में उनका प्रवेश लगभग असंभव हो गया। धीरे-धीरे सरकारी सेवाओं में उनकी उपस्थिति, उनकी आबादी के मान से बहुत कम हो गई। इस भेदभाव का एक प्रभाव यह हुआ कि समुदाय के युवाओं मंे पढ़ाई-लिखाई के प्रति आकर्षण समाप्त हो गया। उनकी मुसीबतों को और बढ़ाया साम्प्रदायिक हिंसा ने, जिसके कारण वे स्वयं को अत्यंत असुरक्षित महसूस करने लगे। देश की आबादी का 13-14 प्रतिशत होने के बावजूद, साम्प्रदायिक हिंसा में मरने वालों में उनका प्रतिशत 90 के आसपास पहुंच गया।
शाहबानो मामले और उसके बाद आक्रामक राममंदिर आंदोलन के साथ साम्प्रदायिक राजनीति परवान चढ़ने लगी और उसने मुस्लिम समुदाय को समाज के हाशिए पर फेक दिया। लोकसभा और विधानसभाओं में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में तेजी से गिरावट आई। राममंदिर आंदोलन और उसके बाद हुई हिंसा ने समुदाय के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं, आतंकवाद के उदय से समुदाय की यंत्रणा का एक नया दौर शुरू हुआ। अल्कायदा के जन्म, उसकी कश्मीर घाटी में घुसपैठ और 11/9/2001 से शुरू हुए मुसलमानों के दानवीकरण ने उनकी मुसीबतों मंे और इजाफा किया। अगर कहीं भी बम विस्फोट या आतंकी हमला हुआ है तो वह मुसलमानों ने किया होगा-यह जांच एजेन्सियों का एक प्रिय फार्मूला बन गया। इसका नतीजा यह हुआ कि हर बम विस्फोट के बाद, सैकड़ों मुस्लिम युवकों को हिरासत में ले लिया जाता और जब तक वे निर्दोष साबित होते, तब तक उनका भविष्य नष्ट हो चुका होता और उनके माथे पर आतंकवादी होने का स्थायी लेबिल चस्पा हो जाता। बाटला हाउस और इशरत जहां जैसी मुठभेड़ों ने मुसलमानों, विशेषकर युवाओं, की छवि को और धूमिल किया।
समाज में तो मुसलमान अपमान और भेदभाव का सामना कर ही रहे थे, राज्य, पुलिसतंत्र और नौकरशाही मंे भी उनके प्रति पूर्वाग्रहों ने गहरी जड़ें जमा लीं। हालत यह हो गई कि वे अपने मोहल्लों तक सीमित होने पर मजबूर हो गए और मिश्रित आबादी वाली कालोनियों में मकान खरीदना उनके लिए असंभव हो गया।
इन सारी मुसीबतों से लड़ते हुए मुस्लिम युवाओं के एक बड़े हिस्से ने कड़ी मेहनत और दृढ़ निश्चय से सूचना प्रौद्योगिकी और अन्य ऐसे व्यवसायों में अपना स्थान बनाया है जहां वे राज्य के संरक्षण के बिना भी आगे बढ़ सकते थे। कई ने फिल्मों और खेल की दुनिया में नाम कमाया। यह दिलचस्प है कि अमेरिका में भी दमित अफ्रीकी-अमेरिकियों का फिल्मों, संगीत और खेल में प्रदर्शन श्वेतों से बेहतर रहा है। भारत में भी इन्हीं क्षेत्रों में मुसलमानों की खासी उपस्थिति भी यह संकेत देती है कि वे भेदभाव के शिकार हैं।
इन हालातों में चेतन भगत जैसे लोग, जो मुसलमानों के हितचिंतक होने का दावा करते हैं परंतु हैं उनके शत्रु, उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि मुसलमान अपनी बदहाली के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं। जब किसी लड़की के साथ बलात्कार होता है तो ऐसे ही लोग उसके लिए लड़की को दोषी ठहराते हैं। ‘‘उसमें कुछ न कुछ कमी रही होगी, उसने कुछ न कुछ गलत किया होगा‘‘, वे फरमाते हैं। पीडि़त को दोषी ठहराना, प्रतिगामी व संकीर्ण विचारधाराओं की विशेषता रही है। चेतन भगत के लेख से यह जाहिर है कि वे भी इन्हीं ताकतों के प्रतिनिधि हैं।
-राम पुनियानी
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