गुरुवार, 14 नवंबर 2013

लोक’ को गायब कर तंत्र की ही रक्षा


छत्तीसगढ़ के 18 सीटों पर करीब 67 प्रतिशत मतदान होने की खबर  है। जिसे भारत की मुख्य मीडिया, छत्तीसगढ़ सरकार व भारत का शासक वर्ग एक जीत के रूप में देख रहा है। सभी अखबारों में बुलेट पर भारी बैलट नामक शीर्षक से खबरें बनाई गई हैं। इसे लोकतंत्र की जीत माना जा रहा है और लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत के रूप में देखा जा रहा है। 27 सितम्बर, 2013 के सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद पहली बार देश में नोटा (उम्मीदवारों को नकारने का) बटन का प्रयोग किया गया है। क्या सचमुच यह लोकतंत्र में लोगों की जीत है या नोटा का प्रभाव है या सरकारी आंकड़ों का खेल है?
नोटा का प्रयोग
27 सितम्बर, 2013 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि सभी ईवीएम मशीन में गुलाबी रंग का नोटा बटन लगाया जाये और लोगों को इसके लिए जागरूक किया जाये। लेकिन सरकार ने इस काम को पूरा नहीं किया गया। दंतेवाड़ा के कट्टेकल्यान के मतदान अधिकारी मुन्ना रमयणम से जब बीबीसी संवादाता ने नोटा बटन में विषय बात की तो वे नोटा बटन को लेकर अनभिज्ञ थे। उन्होंने बताया कि जब इलेक्शन ड्यूटी की ट्रेनिंग दी जा रही थी उस समय भी नोटा को लेकर कुछ नहीं बताया गया।  मुन्ना रमायणम स्थानीय निवासी हैं और वो गोंडी भाषा के जानकार भी हैं वो अच्छे से बस्तर के आदिवासियों को गांेडी में समझा सकते थे जो कि बाहरी लोगों के लिए समझाना आसान काम नहीं है। लेकिन जब उनको ही नोटा के विषय में मालूम नहीं है तो वो कैसे बतायेंगे लोगों को? क्या यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का उल्लंघन नहीं है? क्या शासन-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मजाक नहीं उड़ा रहे हंै? क्या उन पर कोर्ट की अवमानना का केस हो सकता है?
माओवादी चुनाव बहिष्कार के साथ-साथ, गांव-गांव जाकर ईवीएम मशीन के द्वारा नोटा के बारे में बता रहे थे। इवीएम मशीन कम होने के कारण वे गत्ते का प्रयोग कर लोगों को नोटा के लिए जागरूक कर रहे थे। हो सकता है कि माओवादियों के इस रणनीति के तहत भी वोट का प्रतिशत बढ़ा हो।
लोकतंत्र में लोगों को अपने मन से चुनाव डालना होता है। लेकिन छत्तीसगढ़ के चुनाव में देखा गया कि किस तरह भारी फोर्स लगा कर चुनाव कराया गया आलम यह रहा कि अबूझमाड़ में बारह हजार मतदताओं के लिए बीस हजार जवानों को लगाया गया है। बस्तर व राजनन्दगांव में चुनाव के लिए सीआरपीएफ और राज्य सशस्त्र पुलिस की 560 कम्पनियां तैनात की जा रही है जबकि पहले से 33 सुरक्षा बलों का बटालियन तैनात है। 18 सीटों के ‘लोकतंत्र’ का महापंर्व सम्पन्न कराने के लिए लगभग 56 हजार हथियारंबद जवानों को उतारा गया है। इसके अलावा 19 हेलिकाप्टर को लगाया गया है। सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी और 10 राज्यों की आम्र्ड फोर्सेज के आला अधिकरियांे का ज्वांइट ग्रुप बनाया गया है, जो हर दो घंटे पर समीक्षा कर कर रहा है। क्या यह तैयारी किसी ‘लोकतंत्र’ के चुनाव जैसा है या लड़ाई जैसा?
इन जवानों को स्कूलों, हास्टलों व आश्रमों में ठहराया गया है। इन इलाकों में चुनाव होने तक स्कूल बंद रखने की घोषणा की गई है। यह सुप्रीम कोर्ट के 18 जनवरी, 2011 के आदेश के खिलाफ हैं जिसमें छत्तीसगढ़ सरकार से सुरक्षा बलों को स्कूलों, हाॅस्टलों और आश्रमों से हटाने को कहा गया था। पुलिस महानिदेशक रामनिवास के अनुसार ‘‘सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराने का निर्णय हमने चुनाव आयोग की सहमति के बाद लिया है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हमने केन्द्रिय चुनाव आयोग से इसके लिए अनुमति मांगी थी और उनकी सहमति के बाद ही हमने सुरक्षा बलों को स्कूलों में ठहराया है।’’ कानून के जानकारों के अनुसार यह सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है।
बीजापुर के 243 मतदान केन्द्रों में से 104 मतदान केन्द्रों को अतिसंवेदनशील तथा 139 मतदान केन्द्रों को संवेदनशील माना गया है। 167 मतदान केन्द्रों को भीतरी इलाके से यह कह कर हटा दिया गया कि वहां मतदानकर्मियों का पुहंचना मुश्किल है। अगर यहां के मतदाताओं को वोट डालना है तो उनको  40 से 60 किलोमीटर का सफर तय करके वोट डालना पड़ेगा। सवाल यह है कि जिस सरकार को जनता टैक्स देती है उसी जनता तक पहुंचने के लिए सरकार के पास संसाधन नहीं है। तो क्या वह गरीब मतदाता जो अपने जीविका के लिए जूझ रहा है इतनी दूर पहुंच कर अपने मतों का इस्तेमाल कर सकेगा? क्या लोगों को इस ‘लोकतंत्र’ में कोई जगह है? लोगों को इस तंत्र से दूर भगाने में सरकार की सभी मशीनरी शामिल है।
जनता हाशिये पर
संगीनों के साए में प्रचार हुआ और संगीनों के साए में मतदान भी हो गया। सड़कों पर चलना दूभर है जगह-जगह नाकाबंदी व चेकिंग की जा रही है। सड़कों से छोटे और बड़े वाहन भी गायब हैं सभी वाहनों को जब्त कर चुनाव कार्यों में लगा दिया गया है। जो भी गाडि़यां जब्त है उनके ड्राइवर एक तरह से बंधक बने हुए हैं। वे अपने वाहन मालिकों, घरों पर फोन से सम्पर्क नहीं कर सकते उनके पास खाने, रहने को कुछ नहीं है वे अपने गाडि़यों में ही बीस दिनों से सो रहे हैं। ड्राइवरों का कहना है कि उन्हें सीधे सड़क से पकड़ लिया गया। मालिक से मिलने का मौका ही नहीं मिला। यहां न एटीएम है न ही मोबईल का नेटवर्क और न ही यहां आया जा सकता है। प्रशासनिक अधिकारियों से खर्च मांगने पर कहते हैं कि वाहन मालिक से पैसा मांगों। मालिक भी पैसा भिजवाए तो कैसे, इस बिहड़ में पैसे लेकर कौन आएगा? ये ड्राइवर अपनी घडि़यांे तथा स्टेपनी (एक्सट्रा टायर) को बेच कर अपने खाने का जुगाड़ कर रहे हैं। इस बात को छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त ट्रांसपोर्ट कमिश्नर डी रविशंकर भी मान रहे हैं कि उनके विभाग के पास इस तरह की शिकायतें मिल रही है। उन्होंने कहा कि ‘‘हमने यह साफ निर्देश दिए हैं कि जिले के स्तर पर कलक्टर और एसपी इन ड्राइवरों के खाने-रहने और सुरक्षा की व्यवस्था करें। मगर इसके बावजूद हमें शिकायतें मिल रही है। हमने फिर प्रशासनिक अधिकारियों को लिखा है।’’
चुनावी मुद्दे
किसी भी संसदीय राजनीतिक पार्टियों के पास जनता का कोई मुद्दा नहीं रह गया है। जनता के जीविका के संसाधन जल-जंगल-जमीन की लूट, आपरेशन ग्रिन हंट, माओवादी बताकर फर्जी इनकांउटर व जेलों में बंद हजारों आदिवासियों को बंद रखना, महिलाओं के साथ जवानों द्वारा बलात्कार किसी भी पार्टी का चुनावी मुद्दा नहीं रहा है। खासकर दो राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां जो लोगों को बरगलाने के सिवा और कुछ नहीं कर रही हैं। जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने दर्भा घटना में मारे गये कांग्रेसी नेताओं को भुनाने की कोशिश की वहीं भाजपा के पास केन्द्र में कांग्रेस सरकार को कोसने के अलावा और कुछ नहीं बचा है। जिस सलवा जुडूम में दोनों पार्टियों की सहभागिता रही है और करीब 650 गांवों के करीब दो लाख आदिवासियों को उजाड़ दिया गया वह किसी भी पार्टी के लिए चुनावी मुद्दा ही नही बन पाया। वह आदिवासी कहां गये किस हालत में है उस पर आज तक न तो छत्तीसगढ़ सरकार, केन्द्र सरकार और न ही किसी संसदीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा खबर ली गई।
आंध्र प्रदेश के खम्म जिले में छत्तीसगढ़ से पलायन कर के आए मुरिया और माडि़या आदिवासियों की दो सौ से ज्यादा बस्तियां हैं। उनके प्रधान पदम पेंटा कहते हैं कि जब वे लोग सुकमा के सुदूर इलाकों में रहा करते थे तो वहां कभी कोई सरकारी अधिकारी या नेता उनका हाल-चाल पूछने उनके गांव नहीं आया और न ही यहां कभी कोई अधिकारी, मंत्री या नेता आये। वे कहते हैं कि वहां भी हमारा कोई नहीं था यहां भी हमारा कोई नहीं है। वह बताते हैं कि इस इलाके में पलायन करके आये लोगों की संख्या एक लाख से ज्यादा हो सकता है क्योंकि कोई सर्वे अभी तक नहीं हुआ है। गांव के बुर्जुगों का कहना है कि उनके बच्चों की शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने बच्चों को पढ़ाने के लिए पहल की तो आंध्र प्रदेश सरकार के फरमान से वह काम बंद  हो गया।

क्या इस तरह के  संगीनों के साये में ‘लोकतंत्र’ के महापर्व को मना कर हम लोगों को जोड़ पायेंगे या ‘लोक’ को गायब कर तंत्र की ही रक्षा करते रहेंगे? मतदान के प्रतिशत बढ़ने का कारण कुछ भी हो उससे क्या आम लोगों को लाभ मिलेगा? क्या स्कूल से वंचित बच्चों के शिक्षा पूरी हो पायेगी? क्या उन ट्रक चालकों को न्याय मिल पायेगा जो बीस दिन से भूखे-प्यासे सरकार की ड्यूटी बजा रहे हैं, क्या कोई न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग इनकी खोज-खबर करेगी?
 -सुनील कुमार

1 टिप्पणी:

शकुन्‍तला शर्मा ने कहा…

सुन्दर सटीक सामयिक संरचना । तंत्र अभेद्य होता जा रहा है और जन सर्वाधिक असुरक्षित होता जा रहा है । महंगाई बढती जा रही है पर प्रजा सबसे सस्ती हो चुकी है ।

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