शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

क्या सांप्रदायिक हिंसा विधेयक संसद में प्रस्तुत होगा?

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव, जिनके नतीजे ८ दिसंबर २०१३ को घोषित किए गए, में कांग्रेस की हार के बाद यह कहना मुश्किल है कि सांप्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक २०१३ का क्या होगा। यह विधेयक यूपीए.२ सरकार के कार्यकाल के संसद के आखिरी शीलकालीन सत्र में प्रस्तुत किया जाना था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने २००४ के अपने चुनाव घोषणापत्र में यह वायदा किया था किए कांग्रेस सांप्रदायिक शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने और बनाए रखने के लिए सभी संभव उपाय करेगी, विशेषकर संवेदनशील इलाकों में। वह सभी प्रकार की सामाजिक हिंसा की रोकथाम के लिए एक नया व्यापक कानून बनाएगी, जिसमें केन्द्रीय एजेंसी द्वारा जांच, विशेष अदालतों में अभियोजन और जीवनए सम्मान व संपत्ति के नुकसान के लिए समान दर पर मुआवजे संबंधी प्रावधान होंगे। इस वायदे की पूर्ति के लिए यूपीए.१ सरकार ने सन् २००५ में एक विधेयक प्रस्तावित किया परंतु इसे नागरिक समाज और मानवाधिकार संगठनों ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि इसके प्रावधान जरूरत से ज्यादा सख्त हैं।
सन् २००९ के चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने अपने वायदे को दोहराते हुए कहाए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यह विश्वास है कि सांप्रदायिक, नस्लीय व जातीय हिंसा के शिकार सभी लोगों को एक न्यूनतम स्तर के मुआवजे और पुनर्वसन का अधिकार है और इस स्तर का मुआवजा देना और पुनर्वसन करना, प्रत्येक सरकार का आवश्यक कर्तव्य है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक ऐसा कानून बनाएगी जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सांप्रदायिक व जातिगत हिंसा के सभी मामलों की जांच और अभियोजन की निगरानी करने का अधिकार होगा। जाहिर है कि दोनों घोषणापत्रों में दंगा निरोधक कानून के संबंध में महत्वपूर्ण अंतर थे। पहला यह कि सामाजिक हिंसा शब्द को ष्सांप्रदायिक, नस्लीय व जातीय हिंसा के रूप में परिभाषित किया गया। सन् २००९ के घोषणापत्र में पीडि़तों के मुआवजा पाने और पुनर्वसन के अधिकार पर जोर दिया गया। जहां सन् २००४ के घोषणापत्र में केन्द्रीय एजेंसी द्वारा जांच की बात कही गई थी वहीं २००९ के घोषणापत्र में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सांप्रदायिक व जातीय हिंसा के सभी मामलों की जांच व अभियोजन की निगरानी करने के अधिकार देने की बात कही गई है।
सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने शांति कार्यकर्ताओं और कानूनविदों से परामर्श कर २०११ में कानून का एक मसविदा तैयार किया। कुछ कमियों के बावजूद, २०११ का मसविदा सही दिशा में एक कदम था। शांति और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करने वाले अधिकांश संगठनों ने विधेयक का समर्थन किया।
दूसरी ओरए भाजपा और हिन्दुत्व विचारधारा वाले पत्रकारों और लेखकों ने विधेयक के विरूद्ध एक कुटिल दुष्प्रचार अभियान छेड़ दिया। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को गैर.संवैधानिक संस्था बताकर उसकी आलोचना की गई। यद्यपि इस परिषद ने पहले भी अनेक विधेयकों का मसविदा तैयार किया था परंतु उस पर पहली बार हमला बोला गया। बिल की इस आधार पर भी आलोचना की गई कि वह बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ है और उसके प्रावधानों का इस्तेमाल केवल तभी किया जा सकेगा जब अल्पसंख्यक हमले के शिकार हों। आलोचना का तीसरा बिंदु यह था कि विधेयक भारत की संघीय व्यवस्था पर चोट करता है और राज्य सरकारों की शक्तियों पर अतिक्रमण। इस आलोचना का उद्देश्य गैर कांग्रेस दलों की राज्य सरकारों को भड़काना था।
भाजपा की चिंता
भाजपा और संघ परिवार, सांप्रदायिक दंगों के बाद होने वाले ध्रुवीकरण से हमेशा लाभान्वित होते रहे हैं। गुजरात में सन् २००२ के दंगों ने मोदी की सत्ता को मजबूत किया। अधिकतर लोगों का यह मानना है कि इस साल मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण, अगले साल होने वाले आमचुनाव में भाजपा,उत्तरप्रदेश से ज्यादा सीटें जीतेगी। प्रस्तावित विधेयक, शासकीय सेवकों को कर्तव्यपालन में लापरवाही बरतने और अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करने या प्रयोग न करने के कारण होने वाली सांप्रदायिक हिंसा के लिए सजा का प्रावधान करता है। उदाहरणार्थ, अगर यह कानून लागू हो गया होता तो सांप्रदायिक तनाव से ग्रस्त मुजफ्फरनगर में हथियारों से लैस लाखों लोगों को जाट महापंचायत में जुटने की इजाजत देने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की जा सकती थी। इसी तरह, वे सभी पुलिस अधिकारी दंड के भागी होते जिन्होंने गुजरात २००२ के दंगों के पहलेए कारसेवकों की लाशें विहिप नेताओं को सौंपी ताकि वे उन्हें जुलूस में गोधरा से अहमदाबाद ले जा सकें।
कोई भी ऐसा कानून जो सरकारी अधिकारियों को दंगों को रोकने या उन्हें नियंत्रित करने में असफल रहने पर जवाबदेह बनाता है और उन्हें मजबूर करता है कि वे दोषियों को सजा दिलवाएं और जो पीडि़तों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखता है.ऐसे किसी भी कानून के बनने से दंगे करवाना मुश्किल और जोखिम भरा हो जाएगा। यही भाजपा की असली चिंता है। जिन आधारों पर भाजपा इस विधेयक का विरोध कर रही है वे मात्र बहाने हैं। पार्टी की असली चिंता कुछ और ही है। आइए, हम भाजपा द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों का परीक्षण करें।
संघीय व्यवस्था का उल्लंघन
राज्यों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप का आरोप लगाने का एक आधार यह था कि मसौदे में पहले राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सांप्रदायिक सद्भाव, न्याय व क्षतिपूर्ति अधिकरण स्थापित किए जाने का प्रस्ताव था। अब ताजा मसविदे में इस अधिकरण के कार्य राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोगों को सौंपे गए हैं। शायद इस परिवर्तन का उद्देश्य यह है कि यह आरोप न लगाया जा सके कि नए कानून के जरिए केन्द्र सरकार, राज्यों के अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है। परंतु यह महत्वपूर्ण है कि प्रस्तावित अधिकरण के अधिकार भी सलाह देने और सिफारिश करने तक सीमित थे। कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था कि अधिकरण को पुलिस के अधिकार होंगे या वह दंड प्रक्रिया संहिता के तहत जांच एजेंसी का काम करेगा। यह काम पहले की ही तरह,देश के आम कानूनों के तहत,पुलिस ही करेगी। ऐसा कोई प्रावधान भी प्रस्तावित विधेयक में नहीं था कि अधिकरण की सलाह या सिफारिशें सरकार पर बंधनकारी होंगी। संघ परिवार राज्य सरकारों और क्षेत्रीय पार्टियों को अकारण डराने का प्रयास कर रहा है।
वैसे भीए संविधान का अनुच्छेद ३५५ कहता है कि संघ का यह कर्तव्य है कि वह ब्राह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करे। सांप्रदायिक दंगे,आंतरिक अशांति की श्रेणी में आते हैं क्योंकि दंगाग्रस्त क्षेत्र के सभी रहवासियों, विशेषकर अल्पसंख्यकों का जीवन व स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाते हैं। इस तरह की परिस्थितियों में अक्सर संघीय सशस्त्रबलों की तैनाती की जाती है और संघ का यह कर्तव्य होता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्य की सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चलाई जा रही है।
जब कथित तौर पर आतंकवाद से निपटने के लिए टाडा और पोटा जैसे भयावह कानून बनाए जाते हैं, जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया जाता है या जब नजरबंदी संबंधी कानून बनाए जाते हैंए तब भाजपा उनका समर्थन करती है। भाजपा ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी के गठन का विरोध नहीं किया जबकि उसे आपराधिक मामलों की जांच करने और अदालतों में आरोपपत्र प्रस्तुत करने का अधिकार है। दंगा निरोधक कानून के अंतर्गत जिस अधिकरण के गठन की बात कही गई थी, उसे ये अधिकार नहीं थे। टाडा और पोटा ने कई नए अपराध परिभाषित किए और इन कानूनों के अंतर्गत की जाने वाली कार्यवाही के संबंध में ऐसे प्रावधान किए गए जिससे ढीली ढाली जांच या झूठे सुबूतों के आधार पर भी आरोपियों को दोषी ठहराना आसान हो गया। भाजपा ने इन कानूनों को कभी राज्यों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप या देश के संघीय ढांचे पर चोट करने वाला नहीं बताया। सच यह है कि ये सभी कानून सार्वजनिक व्यवस्था के बारे में हैं और इन सभी ने संवैधानिक चुनौतियों की बाधा पार कर ली है।
हिन्दू विरोधी कानून
ऐसा समझा जाता है कि २०१३ के नए विधेयक में सांप्रदायिक व लक्षित हिंसा के स्थान पर  सांप्रदायिक हिंसा शब्दों का प्रयोग किया जाएगा। विधेयक का जो मसविदा २०११ में तैयार किया गया था, उसके अंतर्गत इस कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल बलात्कार व अन्य सेक्स अपराधों, किसी समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने,संगठित सांप्रदायिक या लक्षित हिंसा या कानून के अंतर्गत अपराध घोषित किसी भी गतिविधि के लिए आर्थिक या किसी अन्य प्रकार की सहायता देने की स्थिति में भी किया जा सकता था। उसी तरहए इस कानून का इस्तेमाल तब भी हो सकता था जब धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकोंए अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के विरूद्ध लक्षित हिंसा की जाती। यह प्रावधान इसलिए किया गया था क्योंकि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक व अनुसूचित जातियों व जनजातियों के सदस्य अक्सर निशाने पर रहते हैं।
बहुसंख्यक समुदाय ;चाहे वह किसी भी धर्म का हो की उच्च जातियों के सदस्यों की सत्ता प्रतिष्ठानों में पैठ होती है और इसलिए उनकी जाति, धर्म या भाषा के आधार पर उन्हें हिंसा का निशाना बनाए जाने की कम संभावना रहती है। सन् २०११ के विधेयक के प्रावधानों का इस्तेमाल, मुसलमानों या हिन्दुओं.किसी को भी.लक्षित हिंसा का शिकार बनाए जाने पर किया जा सकता था। इसका इस्तेमाल तब भी हो सकता था जब भाषाई अल्पसंख्यक या अनुसूचित जातियों या जनजातियों के सदस्य ;चाहे वे किसी भी धर्म के हों के विरूद्ध हिंसा हो। विधेयक में ऐसा कहीं नहीं कहा गया था कि सांप्रदायिक व लक्षित हिंसा करने वाले समूह किसी धर्म विशेष के ही होने चाहिए। परंतु हिन्दुत्ववादियों ने यह दुष्प्रचार किया कि यह विधेयक हिन्दुओं के विरूद्ध है और उसके अंतर्गत केवल हिन्दुओं को सांप्रदायिक हिंसा करने वाले समूह के रूप में चिन्हित किया गया है। यद्यपि २०१३ के विधेयक में लक्षित हिंसा की बात नहीं कही गई है और किसी भी धर्म के व्यक्ति के विरूद्ध हिंसा को अपराध ठहराया गया है परंतु यह प्रचार जारी है कि विधेयक हिन्दू विरोधी है। न तो २०११ का विधेयक हिन्दू विरोधी था और ना ही २०१३ का है। दोनों ही विधेयक सांप्रदायिक हिंसा करने वालों के विरूद्ध थे जो शांतिए सौहार्द और सार्वजनिक व्यवस्था भंग करना चाहते हैं व दंगों के बाद होने वाले ध्रुवीकरण से लाभ उठाते हैं। ये दोनों ही मसविदे ऐसे लोगों के खिलाफ भी थे जो दंगों में हिंसा करने के बाद भी कानून के पंजे से बचे रहते हैं।
संसद में प्रस्तुत होने वाले प्रस्तावित विधेयक में यह प्रावधान है कि राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोग सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुई हिंसा से संबंधित मुकदमों की कार्यवाही पर नजर रखेंगे। न्यायिक कार्यवाही को भी पीडि़तों के लिए आसान बनाया गया हैए जैसे इसमे यह प्रावधान है कि एफ.आई.आर. राहत शिविरों में दर्ज की जाएगीं और सरकारी वकीलों की नियुक्तियों में पीडि़तों की राय को महत्व दिया जाएगा। यह व्यवस्था भी है कि मुकदमे, जिस जिले में दंगे हुए हैंए उसके अतिरिक्त किसी दूसरे जिले में चलाए जा सकेंगे।
निष्कर्ष
यूपीए.२ को सांप्रदायिक ताकतों की चुनौती को स्वीकार करना चाहिए और बिना किसी देरी के नया कानून बनाने के लिए त्वरित कदम उठाने चाहिए। दंगा निरोधक कानून प्रजातंत्र की जड़ों को गहरा करेगा और शांति व सौहार्द की शक्तियों को मजबूती देगा।
निःसंदेह यह विधेयक मूल प्रस्तावित कानून से बहुत कमजोर है और समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा इसके दुरूपयोग की संभावना बनी रहेगी।
चिंता का एक अन्य विषय यह है कि राष्ट्रीय वा राज्य अधिकरणों का कार्य राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोगों को सौंपा जा रहा है। कई मानवाधिकार संगठनों की यह शिकायत है कि ये आयोग अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं। उनके पास लंबित मामलों की संख्या बहुत हो गई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सन् २००२ के गुजरात दंगों के मामले में प्रशंसनीय कार्यवाही की परंतु उसके बाद से उसने दंगों के संबंध में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए।
.-इरफान इंजीनियर

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |