हिन्दी पट्टी बेरहम और कम गतिशील रही है। यह आरोप मैं बक रहा हूँ या म़ रहा हूँ और वह भी अपने पर तो यह एक सचेत तथा सजग आरोप है। साहित्य को पढ़ते-पढ़ाते, सुनते-गुनते लगातार साहित्य से ज्यादा साहित्यकार का जीवन और उसकी त्रासद स्थितियाँ कानों में बजती रहती हैं। जब तक व्यक्ति जीवित रहता है तब तक उसके मारने के तरहतरह के प्रयास यथा चुप्पी से लेकर चरित्र हनन तक अनवरत जारी रखते हैं और मरने के बाद 'रुदाली’ बनकर स्यापा करना शुरू कर देते हैं। महान घोषित करते हैं, मूर्तियाँ ग़ते हैं, किस्से ग़ते हैं, ऐसी चीखपुकार मचाते हैं जिसमें रचनाकार का मूल स्वर दब जाता है। 'होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे’। कबीर, निराला, मुक्ति बोध, गोरख पाण्डेय और न जाने कितने......।
नई बात सुनना, नई तरह से सोचना, विचार करना, रीतिरिवाजों में हेरफेर करना, बनी हुई लीक से बाहर जाना जैसे हमने सीखा ही नहीं। जिएँगे 21वीं शताब्दी में रोएँगे 14वीं शताब्दी के लिए। तेजी से बदलती दुनिया से 14वीं और 21वीं शताब्दी के बीच मेल बैठाकर पाखण्ड पूर्ण जीवनजीने की अद्भुत साधना हम हिन्दी वालों की महान कला है। ऐसे में जब कोई तनकर खड़ा होता है, पाखण्ड खण्डन करता हैं तो जीते जी तो हम स्वीकार नहीं करते और मरने के बाद उसकी मूर्ति बनाकर उसके विचारों को मारने के यत्न में जुट जाते हैं। सच में इस शोक काल में ओम प्रकाश बाल्मीकि के बारे में कुछ भी कहनेलिखने पर दिल और कलम काँप रहे हैं कि वही सब तो मैं भी लिख रहा हूँ या कर रहा हूँ जो मुझे कभी भी रास नहीं आया। लेकिन कामरेड सुमन का आग्रह... और रीति के अनुसार दो शब्द......।
ओम प्रकाश'बाल्मीकि’ से परिचय पहचान 1991 के आसपास हो गई थी। 199798 तक मराठी से लेकर हिन्दी दलित साहित्य से ठीक ठाक परिचय हो गया था। लखनऊ में उ0प्र0 हिन्दी संस्थान में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित पहली बड़ी गोष्ठी थी। जिसमें कामरेड विनोद मिश्रा भी थे। कँवल भारती, श्योराज सिंह "बेचैन’’ और मोहन नैमिष राय बोले! इसी बीच 'कफन’ कहानी की 'बाल्मीकि’ द्वारा समीक्षा आई और प्रगतिशील लोग चिल्ला उठे। प्रेमचन्द्र साहित्य संस्थान, गोरखपुर का मैं तब काम देख रहा था। सदानंद शाही से बातचीत हुई और एक बड़े सेमीनार की योजना बनी। ओम प्रकाश बाल्मीकि नहीं आ पाए थे। उद्घाटन भाषण और दूसरे सत्र के बीच से नामवर जी का चले जाना दलित लेखकों को खला, आयोजन समिति तथा संस्थान सचिव होने के नाते मुझे बोलना पड़ा। लेकिन ब्राह्मणवाद के गढ़ गोरखपुर वि0वि0 प्रेक्षागृह में जो चर्चा हुई वह अभूतपूर्व थी। जब पुस्तक आनी हुई तो 'कफन’ की समीक्षा पर सदानंद शाही ने जवाब लिखा। अनुपस्थित होते हुए भी बाल्मीकि का विश्लेषण सेमीनार में छाया रहा और तबसे गंगा में बहुत सारा पानी बह गया। 'जूठन’ आई चर्चा हुई। 'शदियों का संताप’ के कवि कहानीकार से परिचय ब़ा। कंवल भारती, श्योराज सिंह जी से थोड़ी निकटता भी बनी, बाद में किसानों के नाम से जुटा। अस्मिता विमशर से कन्नी काटा, लेकिन निर्मम समय ने.....पुनः एक बार दलित साहित्य तथा दलित लेखन के सौन्दर्य विधान के रचयिता बाल्मीकि का यूँ जाना.....। सर्वेश ने खबर दी थी कि वे ठीक हो गए हैं, देहरादून चले गए हैं....और अचानक......गुरूवर परमानन्द श्रीवास्तव के जाने के शोक में डूबा 'बिज्जी’ का आघात और फिर बाल्मीकि जी।
कहानियाँ, कविताएँ, आलेख और आत्मकथा ओम प्रकाश 'बाल्मीकि’ के सृजन कर्म के रूप विधान हैं। लेकिन सारे रूप में एक ही दिल धड़कता है। एक ही संतप्त रक्त धारा बहती है। ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था के पाखण्ड से उपजा दर्द का राग। दुःख की एक 'भावधारा’। कभी गालिब ने कहा था 'रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जो आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है। आँख से टपकने वाला लह़ू 'बाल्मीकि’ की सृजन का बीज भाव है। बे लौस सुलगती विचार पद्धति ने उन्हें प्रचलित साहित्य मीमांसा धारा के विरुद्ध अप्रतिम योद्धा बनाया। दलित साहित्य धारा का लगभग केन्द्रीय न सही अग्र पंक्ति का हिरावल बना दिया। उनकी रचनाओं के किसी गम्भीर विश्लेषण का यह न समय है, न अवसर। लेकिन प्रचलित धारा के विरुद्ध उनकी वैचारिकी, संवेदना और उनका सृजन धीरेधीरे और महत्वपूर्ण होगा। मेरी ऐसी समझदारी है। वर्णजाति के निर्ममढं।चे में जकड़े भारतीय समाज की संवेदना को एक बार 'बाल्मीकि’ ने आन्दोलित किया। आने वाले समय में जब भी हम इस निर्मम व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होंगेलड़ेंगे तो ॔बाल्मीकि’ की रचनाएँ हमारा हथियार होंगी। 'धारदार’ 'हथियार’।
-राजेश मल्ल
मो0 : 09919218089
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
नई बात सुनना, नई तरह से सोचना, विचार करना, रीतिरिवाजों में हेरफेर करना, बनी हुई लीक से बाहर जाना जैसे हमने सीखा ही नहीं। जिएँगे 21वीं शताब्दी में रोएँगे 14वीं शताब्दी के लिए। तेजी से बदलती दुनिया से 14वीं और 21वीं शताब्दी के बीच मेल बैठाकर पाखण्ड पूर्ण जीवनजीने की अद्भुत साधना हम हिन्दी वालों की महान कला है। ऐसे में जब कोई तनकर खड़ा होता है, पाखण्ड खण्डन करता हैं तो जीते जी तो हम स्वीकार नहीं करते और मरने के बाद उसकी मूर्ति बनाकर उसके विचारों को मारने के यत्न में जुट जाते हैं। सच में इस शोक काल में ओम प्रकाश बाल्मीकि के बारे में कुछ भी कहनेलिखने पर दिल और कलम काँप रहे हैं कि वही सब तो मैं भी लिख रहा हूँ या कर रहा हूँ जो मुझे कभी भी रास नहीं आया। लेकिन कामरेड सुमन का आग्रह... और रीति के अनुसार दो शब्द......।
ओम प्रकाश'बाल्मीकि’ से परिचय पहचान 1991 के आसपास हो गई थी। 199798 तक मराठी से लेकर हिन्दी दलित साहित्य से ठीक ठाक परिचय हो गया था। लखनऊ में उ0प्र0 हिन्दी संस्थान में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित पहली बड़ी गोष्ठी थी। जिसमें कामरेड विनोद मिश्रा भी थे। कँवल भारती, श्योराज सिंह "बेचैन’’ और मोहन नैमिष राय बोले! इसी बीच 'कफन’ कहानी की 'बाल्मीकि’ द्वारा समीक्षा आई और प्रगतिशील लोग चिल्ला उठे। प्रेमचन्द्र साहित्य संस्थान, गोरखपुर का मैं तब काम देख रहा था। सदानंद शाही से बातचीत हुई और एक बड़े सेमीनार की योजना बनी। ओम प्रकाश बाल्मीकि नहीं आ पाए थे। उद्घाटन भाषण और दूसरे सत्र के बीच से नामवर जी का चले जाना दलित लेखकों को खला, आयोजन समिति तथा संस्थान सचिव होने के नाते मुझे बोलना पड़ा। लेकिन ब्राह्मणवाद के गढ़ गोरखपुर वि0वि0 प्रेक्षागृह में जो चर्चा हुई वह अभूतपूर्व थी। जब पुस्तक आनी हुई तो 'कफन’ की समीक्षा पर सदानंद शाही ने जवाब लिखा। अनुपस्थित होते हुए भी बाल्मीकि का विश्लेषण सेमीनार में छाया रहा और तबसे गंगा में बहुत सारा पानी बह गया। 'जूठन’ आई चर्चा हुई। 'शदियों का संताप’ के कवि कहानीकार से परिचय ब़ा। कंवल भारती, श्योराज सिंह जी से थोड़ी निकटता भी बनी, बाद में किसानों के नाम से जुटा। अस्मिता विमशर से कन्नी काटा, लेकिन निर्मम समय ने.....पुनः एक बार दलित साहित्य तथा दलित लेखन के सौन्दर्य विधान के रचयिता बाल्मीकि का यूँ जाना.....। सर्वेश ने खबर दी थी कि वे ठीक हो गए हैं, देहरादून चले गए हैं....और अचानक......गुरूवर परमानन्द श्रीवास्तव के जाने के शोक में डूबा 'बिज्जी’ का आघात और फिर बाल्मीकि जी।
कहानियाँ, कविताएँ, आलेख और आत्मकथा ओम प्रकाश 'बाल्मीकि’ के सृजन कर्म के रूप विधान हैं। लेकिन सारे रूप में एक ही दिल धड़कता है। एक ही संतप्त रक्त धारा बहती है। ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था के पाखण्ड से उपजा दर्द का राग। दुःख की एक 'भावधारा’। कभी गालिब ने कहा था 'रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जो आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है। आँख से टपकने वाला लह़ू 'बाल्मीकि’ की सृजन का बीज भाव है। बे लौस सुलगती विचार पद्धति ने उन्हें प्रचलित साहित्य मीमांसा धारा के विरुद्ध अप्रतिम योद्धा बनाया। दलित साहित्य धारा का लगभग केन्द्रीय न सही अग्र पंक्ति का हिरावल बना दिया। उनकी रचनाओं के किसी गम्भीर विश्लेषण का यह न समय है, न अवसर। लेकिन प्रचलित धारा के विरुद्ध उनकी वैचारिकी, संवेदना और उनका सृजन धीरेधीरे और महत्वपूर्ण होगा। मेरी ऐसी समझदारी है। वर्णजाति के निर्ममढं।चे में जकड़े भारतीय समाज की संवेदना को एक बार 'बाल्मीकि’ ने आन्दोलित किया। आने वाले समय में जब भी हम इस निर्मम व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होंगेलड़ेंगे तो ॔बाल्मीकि’ की रचनाएँ हमारा हथियार होंगी। 'धारदार’ 'हथियार’।
-राजेश मल्ल
मो0 : 09919218089
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
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