अरविंद केजरीवाल पर मीडिया के लट्टू होने की वजह धीरे धारे साफ़ होती जा रही हैं। साथ ही नव्य उदार आर्थिक नीतियों के हिमायती युवाओं के उसके प्रति आकर्षण के वैचारिक कारण भी सामने आने लगे हैं । हमें यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि केजरीवाल सिस्टम में परिवर्तन करने के लिए राजनीति में आए हैं । वे भी यह नहीं मानते ।
"We are not against capitalism, we are against crony capitalism", ( बिज़नेस स्टैंडर्ड, 17फरवरी 2014)
यह भी कहा 'हम ग़लती कर सकते हैं लेकिन हमारी मंशाएँ भ्रष्ट नहीं हैं।'
केजरीवाल की मंशाएँ साफ़ हैं और लक्ष्य भी साफ़ हैं। पहलीबार केजरीवाल ने आर्थिक नीतियों के सवाल पर अपना नज़रिया व्यक्त करते हुए जो कुछ कहा है वह संकेत है कि आख़िरकार वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ?
केजरीवाल पर बातें करते समय उनके आम आदमी पार्टी के गठन के पहले के बयानों और कामों के साथ मौजूदा दौर में दिए जा रहे बयानों का गहरा संबंध है फिर भी हमें राजनेता केजरीवाल और सामाजिकनेता केजरीवाल में अंतर करना होगा ।
आम आदमी पार्टी के गठन के बाद केजरीवाल यह पहला महत्वपूर्ण नीतिगत बयान है। यह बयान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उनके दल के साथ सोशलिस्टों, अतिवामपंथी, उदार देशभक्त और जानेमाने वामपंथी विचारधारा के लोग भी शामिल हैं। ये सब वे लोग हैं जो कल तक विभिन्न मंचों से अपने जो विचार रख रहे थे उनसे केजरीवाल के आर्थिक विचारों का मेल बिठाने में असुविधाएं हो सकती हैं ।
केजरीवाल ने साफ़ शब्दों में अपने नज़रिए की बुनियादी धारणा पेश की है , उन्होंने कहा है
"Time has come to define what is the government's role," Kejriwal said, adding the government has no business to be in business, which is best left to private players.
He said whatever the form of government, it has three primary tasks - providing security, justice and a corruption-free administration."
यानी केजरीवाल चाहते हैं सरकार या राज्यसत्ता की बाज़ार के नियमन में कोई भूमिका न हो । वे चाहते हैं सरकार का काम है सिर्फ़ प्रशासन चलाना ।व्यापार के काम को निजी क्षेत्र के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाय।
नव्य उदार आर्थिक नीति की भी यही माँग रही है। इसी माँग की पूर्ति के लिए कांग्रेस काम करती रही है और बाज़ार की शक्तियाँ ही तय करती रही हैं कि व्यापार में क्या हो?
यह अचानक नहीं है कि केजरीवाल 48दिन दिल्ली में सरकार में रहे लेकिन उन्होंने महँगाई नियंत्रण के लिए कोई क़दम नहीं उठाया । यहाँ तक कि व्यापारियों की लूट -खसोट के ख़िलाफ़ कोई बयान तक नहीं दिया।
केजरीवाल ने अपने बयान में मूलत: मुक्त बाज़ार की धारणाओं की हिमायत की है और जो फ़ार्मूला सुझाया है वह विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष विगत कई दशकों से सुझाता रहा है । यह नीति लगातार सभी देशों में पिटती रही है यहाँ तक कि अमेरिका में भी पिटी है।
मुक्त बाज़ार का मतलब भारत जैसे देश के लिए आत्मघाती है। इसका यह भी अर्थ है कि मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा जो जनविरोधी आर्थिक नीतियाँ लागू होती रही हैं उनको लेकर बुनियादी तौर पर केजरीवाल का कोई बुनियादी सैद्धांतिक मतभेद नहीं है। केजरीवाल की मनमोहन सिंह के बारे में जो धारणा है वह जानें,कहा है,
"The world's best economic expert is our Prime Minister Manmohan Singh. During the last 10 years of UPA tenure, you saw best economic policies but the biggest drawback was lack of honest politics. As there was no honest politics, those economic policies could not be implemented,"
यानी मनमोहन सिंह की नीतियाँ सही हैं लेकिन संकट है तो ईमानदार राजनीति का । ईमानदार राजनीति हो और मनमोहन सिंह की नीतियाँ रहें तो बस सोने में सुहागा समझो !
ईमानदार राजनीति का जनहितकारी नीतियों से गहरा संबंध है। मनमोहन सिंह की जनविरोधी नीतियों का भ्रष्ट राजनीति से गहरा संबंध है । मनमोहन सिंह की नीतियाँ " लंपट पूँजीवाद" की जनक हैं। समस्या ईमानदार नेता और बेईमान नेता में से चुनने की नहीं है ।
समस्या यह है मनमोहन सिंह की नीतियाँ रहें या जाएँ ? क्या केजरीवाल के पास मनमोहन सिंह की सुझायी और लागू की गयी नीतियों का कोई विकल्प है ? केजरीवाल के बयान से लगता है उनके पास मनमोहन सिंह की नीतियों का कोई विकल्प नहीं है। नीति मनमोहन सिंह की और राजनीति केजरीवाल की !
केजरीवाल का यह कहना कि सरकार का काम है प्रशासन चलाना और व्यापार के काम से सरकार को बाहर रहना चाहिए । इसका क्या अर्थ लें ?
केजरीवाल के अनुसार व्यापार के नियम व्यापारी बनाएँ , सरकार उस काम में हस्तक्षेप न करे। यानी वे व्यापारियों को मनमानी करने का अबाधित हक़ देना चाहते हैं। बाज़ार को सरकारी चंगुल से पूरी तरह मुक्त करते हुए वे क्या करना चाहते हैं इस पर साफ़तौर पर कुछ नहीं कहा ।
मसलन केजरीवाल से पूछा जाना चाहिए कि रेडियो तरंगों का मालिक कौन रहेगा ? सरकार रहेगी या निजी क्षेत्र ? क्या रेडियो तरंगों के बाजिव दाम मिल जाएँगे तो रेडियो तरंगों को निजी क्षेत्र को बेच दिया जाय ?
यह सच है केन्द्र सरकार ने रेडियो तरंगें निजी क्षेत्र को बेचकर राष्ट्र को भारी क्षति पहुँचायी है । रेडियो तरंगों को किसी भी क़ीमत पर निजी क्षेत्र को बेचना राष्ट्रहित में नहीं है। ये तरंगें राष्ट्र के लिए आवंटित हैं और राष्ट्र की संपदा हैं। इसी तरह मुनाफ़ा देने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों के निजीकरण के प्रयासों को देखा जाना चाहिए ।
आम आदमी पार्टी का सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों और संस्थानों को लेकर क्या नज़रिया है ? इस पर केजरीवाल चुप रहे ? लेकिन उनकी मुक्तबाजार की धारणा साफ़ बता रही है कि वे सार्वजनिक क्षेत्र के पक्ष में नहीं हैं ।
यानी केजरीवाल को मौक़ा मिलेगा तो वे सार्वजनिक क्षेत्र को तेज़ी से निजी हाथों में सौंपेंगे ।
असल में अरविंद केजरीवाल का 'लंपट पूँजीवाद' का विरोध भी नक़ली है । वे चालाकी से इस बात को छिपा रहे हैं कि 'लंपट पूँजीवाद' तो पूँजीवाद के स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया के गर्भ से पैदा हुआ है ।
अमेरिका को 'लंपट पूँजीवाद' का जनक माना जाता है और वहाँ पर बड़े पैमाने पर इसके दुष्परिणाम जनता को भोगने पड़े हैं । मुक्त बाज़ार का सिद्धांत अंततः 'लंपट पूँजीवाद' में जाकर ही शरण लेता है ।
'लंपट पूँजीवाद' के आदर्श नायकों का जनक नव्य आर्थिक उदारीकरण है । केजरीवाल से लेकर मेधा पाटकर तक किसी को इसे लेकर समस्या नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि स्वयंसेवी संगठनों का जो नेटवर्क विगत 25 सालों में पैदा हुआ था उसका बहुत बड़ा हिस्सा इनदिनों आम आदमी पार्टी में समाहित हो चुका है । इसमें वे लोग भी हैं जो कल तक नव्य आर्थिक पूँजीवाद का विरोध कर रहे थे ,ज़मीनी संघर्ष चला रहे थे । लेकिन केजरीवाल के सीआईआई में दिए गए बयान ने साफ़ कर दिया है कि इन सभी रंगत के सामाजिक संगठनों का नव्य आर्थिक उदारीकरण का विरोध तात्कालिक और अवसरवादी था ।
केजरीवाल के द्वारा 'मुक्त व्यापार' की हिमायत करने को एक बड़ी राजनीतिक सफलता के रुप में भी देख सकते हैं । कम से कम केजरीवाल के ज़रिए वे तमाम संगठन जो कल तक मेधा पाटकर से लेकर लिंगराज के नेतृत्व में नव्य आर्थिक पूँजीवादी नीतियों का विरोध कर रहे थे , वे अब खुलकर मुक्त व्यापार के पक्ष में आ गए हैं। यह एनजीओ मार्का परिवर्तनकामी राजनीति में आया नया परिवर्तन है और त्रासद परिवर्तन है ।
केजरीवाल का मुक्त व्यापार की हिमायत में दिया गया बयान माओवादी,नव्य वामपंथियों और दिल्ली के फ़ैशनेबुल सोशलिस्टों के अब तक के नीतिगत बयानों का अतिक्रमण करता है ।
सवाल यह है क्या ये लोग अब भी केजरीवाल के मुक्त बाज़ार ,मुक्त व्यापार और राज्य की भूमिका को लेकर दिए गए बयान से सहमत हैं ? और साथ रहना चाहते हैं ? क्या मुक्त व्यापार का नारा सिस्टम को बदल सकता है ? क्या मुक्त व्यापार की नीतियों से आम जनता के हितों की रक्षा संभव है ? क्या मुक्त व्यापार की नीतियों के चलते 'लंपट पूँजीवाद' से बचना संभव है ? राज्य को व्यापार से पूरी तरह मुक्त करके केजरीवाल किन वर्गों की सेवा करना चाहते हैं ?
केजरीवाल जिस मुक्त व्यापार की हिमायत कर रहे हैं उसकी एक ज़माने में स्वतंत्र पार्टी और संगठन कांग्रेस ने जमकर हिमायत की थी और देश की संसद ने मुक्त व्यापार के सिद्धांत को अनेकबार ठुकराया है। 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' का रास्ता मुक्त व्यापार के ख़िलाफ़ विचारधारात्मक संघर्ष के क्रम में ही जन्मा था ।
मनमोहन सिंह ने विगत २० सालों में मुक्त व्यापार की हिमायत करते हुए बार बार सार्वजनिक क्षेत्र पर हमला किया है और दूरसंचार से लेकर बिजली तक सभी क्षेत्रों में निजी क्षेत्र के हाथों औने-पौने दामों पर सरकारी संपत्ति को बेचा है । विनिमयन के नाम पर मुक्त बाज़ार और बाज़ार की शक्तियों को अबाध अधिकार दिए हैं । केजरीवाल की नज़र में यह सब जायज़ दाम वसूली का मामला मात्र है । मसलन् रेडियो तरंगें हों या कोयला खदानें उनको यदि जायज़ दामों पर बेच दिया जाता तो उनको कोई आपत्ति नहीं होती । समस्या यहीं पर है।
राज्य की संपदा को निजी क्षेत्र को क्यों बेचें ? क्या सरकार संपदा का प्रबंधन सही तरीक़ों और कौशलपूर्ण ढंग से नहीं कर सकती ? क्या सरकारी प्रबंधन और संचालन की नई नीति नहीं बनायी जा सकती ?
केजरीवाल का मानना है सरकार का काम ख़ाली प्रशासन चलाना है ।व्यापार करना नहीं है । नौकरी देना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है वह तो निजी क्षेत्र की ज़िम्मेदारी है । इस तरह के कल्पना विलासी नेता से तो जनता के हितों की रक्षा करना संभव नहीं लगता ।
मुक्त बाज़ार और मुक्त व्यापार की हिमायत मूलत: जनतंत्र का विलोम है। मुक्त व्यापार में जनतंत्र तो अमीरों की रखैल है।
अमेरिका में मुक्त व्यापार है और वहाँ लोकतंत्र के नाम पर धनतंत्र है। आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। भारत में अभी भी लोकतंत्र में ग़रीब को ताक़त हासिल है और उसके बिना आप कुछ नहीं कर सकते ।
मुक्त व्यापार में लोकतांत्रिक संरचनाएँ मनमाने नियमों के तहत काम करती हैं। याद करें अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के पहले राष्ट्रपति चुनाव परिणामों को वहाँ मतपत्रों की गिनती पूरी किए बिना ही उनको राष्ट्रपति बना दिया गया , हमारे देश में यह संभव नहीं है। मुक्त व्यापार के जगत में नीतियों का फ़ैसला सीधे कारपोरेट घराने लेंगे और वह स्थिति भारत के लिए बेहद ख़तरनाक हो सकती है ।
केजरीवाल अपनी भाषणकला के ज़रिए नीतिगत सवालों से कन्नी काटते रहे हैं और घूम फिरकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चले आते हैं। भ्रष्टाचार से लड़ना ज़रुरी है लेकिन अन्य समस्याओं से भी लड़ना ज़रुरी है।
आम आदमी पार्टी को सोचना होगा कि वे मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों पर चुप क्यों रहे ? वे गुजरात के दंगों या सिख दंगों पर बोलते हैं लेकिन मुज़फ़्फ़र नगर के दंगों पर चुप रहते हैं,यह नहीं चलेगा।दंगों में से चुनने का सवाल नहीं है । उसी तरह मोदी की साम्प्रदायिकता पर हमले करें लेकिन दिल्ली में एक जाति विशेष के लोगों या हरियाणा में जाति विशेष के लोगों द्वारा फैलाए जा रहे ज़हर का वोटबैंक की राजनीति के दबाव के कारण विरोध ही न करना ग़लत है ।
भारत में मुक्त व्यापार की हिमायत कल्पना विलास है और इससे जनता की मौजूदा बदहाली को ख़त्म नहीं किया जा सकता । केजरीवाल के पास अभी भी समय है और सोचें कि देश की आर्थिक उन्नति के लिए उनके पास नया क्या है ? मुक्त व्यापार की हिमायत तो नई बोतल में पुरानी शराब ही है और भारत की जनता यह शराब बार बार ठुकरा चुकी है ।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन क्या होता है काली बिल्ली के रास्ता काटने का मतलब - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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