बुधवार, 12 मार्च 2014

असफाक को फांसी


डॉ. मो. मजीद मिया
असफ़ाकुल्ला खाँ का जन्म 1900 ईव को शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश के एक इज्जतदार घराने मे हुआ था। उनके पिता का नाम सफीकुल्ला खाँ एवं माँ का नाम मझरुनिशा बेगम थी। अस्फ़ाकुल के परिवार के ज्यादा से ज्यादा लोग अँग्रेजों के ऊंचे पदों पर आसीन थे। असफाक अपने चार भाइयों मे सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई रियासतुल्ला खाँ, राम प्रसाद बिस्मिल के सहपाठी थे। वह असफाक को अक्सर बिस्मिल की शायरी और आजादी के लड़ाई के किस्से सुनाया करते थे। जिससे असफाक के दिल में बिस्मिल से मिलने की ख्वाइस होने लगी थी।
असफाक बचपन से ही क्रांतिकारियों से काफी प्रभावित थे। उनमे उम्र के साथ.साथ देश भक्ति की भावना भी बढ़ती गई और 20 वर्ष की कम उम्र मे पहुँचकर अपने देश को अँग्रेजी शासन से मुक्त कराने और देश के लिए मर.मिटने को भी तैयार हो चुके थे। इस जुनून को पूरा करने के लिए जल्द ही वह बिस्मिल से जा मिले और उनके साथ मिलकर आजादी की लड़ाई मे सरीख हो गए। जिस समय मौलाना मोहम्मद अली जौहर खिलाफत आंदोलन चला रहे थेए जिसने आगे चलकर असहयोग आंदोलन का रूप ले लिया, तब बिस्मिल एवं दूसरे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर असफाक भी आंदोलन के बारे मे लोगो को जागृत करने मे लग गए। धीरे.धीरे इन कार्यों के कारण असफाक भी अंग्रेजों की आँखों मे खटकने लगे।
1922 ईव मे असहयोग आंदोलन के समय चौरी.-चौरा के हत्या कांड की वजह से गांधीजी ने खिलाफत आन्दोलन के समापन की घोषना कर दी। असहयोग आन्दोलन के समाप्त होने से क्रांतिकारियों मे खलबली सी मच जाती है। गांधीजी के इस फैसले के कारण असफाक एवं उनके साथी नरम दल का साथ छोडकर गर्म दल के साथ हो जाते है।
क्रांतिकारियों ने समझा कि आजादी की लड़ाई को आगे चलाने के लिए हथियारों की जरूरत पड़ेगी और हथियारों के लिए रूपय की और इसके लिए क्रांतिकारियों ने फैसला किया कि अँग्रेजी सरकार पिछले कई वर्षों से भारत को लूट रही है तो क्यों न हम यह रूपय अंग्रेजों से लूट लें। इस मकसद से क्रांतिकारियों ने 8 अगस्त 1925 को काकोरी के नजदीक सरकारी खजाना ले जा रही ट्रेन को रोककर खजाना लूट लेते हैं। इस सभी कारवाई मे असफाक ने अकेले ही छेनी और हथौड़ी की मदद से सरकारी तिजौरियों को तोड़ने मे कामयाब होता है। इस कांड को इतिहास में एक बड़ी घटना के रूप मे याद किया जाता है। काकोरी की यह घटना अंग्रेजों की शक्ति एवं घमंड पर एक तमाचे की तरह ही था, जिससे अँग्रेजी हुकूमत तिलमिला जाती है। अँग्रेजी सरकार द्वारा इस घटना की जांच की जाती है और गुप्तचर विभाग ने महीने भर इस कांड मे सामील क्रांतिकारियों को शाहजहानपुर से गिरफ्तार कर लेते हैं और असफाक वहाँ से भागने मे कामयाब हो जाता है। बनारस पहुँचकर वह एक इंजीनियरिंग कालेज मे काम करने लगते हैं पर वहाँ भी वह चैन से नहीं बैठ पाता है। वह हमेशा इस फिराक मे रहता है कि किस प्रकार देश के बाहर जा कर लाला हरदयाल से मिलकर आजादी की इस लड़ाई को आगे बढ़ाए।
लाला हरदयाल उन दिनो अमेरिका मे रहते थे। असफाक हरदयाल से मिलकर उन्हे आजादी की लड़ाई मे शामिल करना चाहते थे। उन्ही से मिलने के लिए असफाक बनारस से दिल्ली आते हैं ताकि वह जल्द ही अमेरिका जा सके। लेकिन जिन गद्दारों ने अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेजों से जा मिले थे वह भी इसी ताक मे थे कि असफाक कब दिल्ली आए। असफाक के एक करीबी मित्र ने अंग्रेजों के साथ मिलकर असफाक को पकड़वा देते हैं। अंग्रेज़ असफाक को पड़क कर फैजावाद जेल भेज देते हैंए जहां उनके खिलाफ कत्ल,डकैती और सरकार के खिलाफ षड्यंत्र का मुकदमा चलाया जाता है और असफाक को सजा -ए- मौत की सजा सुनाई जाती है।
काकोरी शाजिस के द्वारा अँग्रेजी सरकार ने असफाक,बिस्मिल राजेंद्र लहरी और ठाकुर दर्शन सिंह को सजा -ए- मौत और बाकी सोलह क्रांतिकारियों मे से चार को उम्र कैद और बाकी को चार वर्ष की सजा सुनाई जाती है। मुकदमे के समय अंग्रेजों ने असफाक को गवाही देने के लिए मान जाए, इसके लिए अंग्रेजों ने पुलिस इंस्पेक्टर तसदीक हुसैन को असफाक के पास भेजते हैं, जो असफाक को मजहब का वास्ता देकर कहते हैं 'तुम कैसे मुसलमान हो जो एक हिन्दू का साथ दे रहे हो',' जो इस मुल्क को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है'। इसके जवाब मे असफाक कहते हैं 'बिस्मिल का हिन्दू राष्ट्र आपके अँग्रेजी सरकार से बेहतर ही होगा'।
जो लोग जेल मे असफाक के करीबी थे उनका कहना है जेल मे भी वह अंग्रेज़ो की चाल मे नहीं आए और सरकारी गवाह बनने की बात को हमेशा ठुकड़ा दिया करते थे। 19 दिसम्बर को असफाक को फांसी देने का दिन जब आता है। कुछ लोगों का कहना है फांसी के दिन असफाक दुगनी गति से फंदे की ओर बढ़ता गया और फांसी की जगह पहुँचकर फंदे को चूम लेता है, कुछ देर तक दुआ मांगता है और फंदा कस जाता है
- डॉ. मो. मजीद मिया

09733153487

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