पिछले हफ्ते (मार्च 2014) राहुल गांधी ने एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा कि, ‘‘आरएसएस के लोगों ने गांधीजी को मारा और अब उनके लोग और भाजपा, गांधीजी की बात करते हैं...उन्होंने सरदार पटेल और गांधीजी का हमेशा विरोध किया‘‘। आरएसएस ने राहुल गांधी के इस भाषण के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज की है। यह पहली बार नहीं है कि राहुल गांधी ने ऐसा वक्तव्य दिया हो। वे पहले भी यही बात कह चुके हैं।
गांधीजी की हत्या का सच क्या है? क्या, बतौर एक संगठन, आरएसएस की इसमें कोई भूमिका थी? गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस के समर्थकों की क्या प्रतिक्रिया थी? इस कायराना हरकत के संबंध में तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल के क्या विचार थे?
इन मुद्दों पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं, कई नाटक खेले जा चुके हैं और कई फिल्में बनाई जा चुकी हैं। इन विषयों से संबंधित लेखों की तो भरमार है। जहां तक घटना, उसकी जांच के लिए नियुक्त किए गए न्यायिक आयोगों की रपटों और मुकदमे के निर्णय का सवाल है, वे सबके सामन हैं। परंतु गांधीजी की हत्या के पीछे के असली और गहरे कारणों पर पर्याप्त बहस नहीं हुई है। दो राष्ट्रवादों के टकराव का समुचित विष्लेषण नहीं हुआ है। आज यह आवष्यक है कि हम गांधीजी की हत्या की घटना के साथ-साथ, उसके पीछे के विचारधारात्मक कारणों की भी विवेचना करें-उन कारणों की जिनका आधार थीं राष्ट्रवाद की दो अलग-अलग परिकल्पनाएं। पहला था भारतीय राष्ट्रवाद, जिसके प्रवक्ता और पुरोधा गांधी थे और दूसरा था हिन्दू राष्ट्रवाद, जो गांधीजी के हत्यारे गोडसे का प्रेरणास्त्रोत था। यह दिलचस्प है कि आरएसएस की राजनैतिक षाखा भाजपा के प्रधानमंत्री पद के वर्तमान उम्मीदवार भी अपने राष्ट्रवाद को हिन्दू बताते नहीं थकते। इसलिए आज के राजनैतिक संदर्भों मंे यह बहस और प्रासंगिक व महत्वपूर्ण बन गई है।
महात्मा की हत्या के बाद, आरएसएस ने आधिकारिक रूप से यही कहा कि उसका हत्या से कोई लेनादेना नहीं है और गोडसे, आरएसएस का सदस्य नहीं है। आरएसएस यह दावा इतनी आसानी से इसलिए कर सका क्योंकि आरएसएस में सदस्यों का औपचारिक रिकार्ड रखे जाने की परंपरा ही नहीं है। इस कारण, कानूनी तौर पर संघ गोडसे से स्वयं को अलग करने मंे सफल रहा। तथ्य यह है कि गोडसे ने सन् 1930 में आरएसएस की सदस्यता ली थी और जल्दी ही उसे बौद्धिक प्रचारक के रूप में नियुक्त कर दिया गया था। ‘‘हिन्दुओं की उन्नति के लिए काम करने के बाद मुझे इस बात की जरूरत महसूस हुई कि मैं हिन्दुओं के न्यायपूर्ण अधिकारों की रक्षा के लिए देश की राजनैतिक गतिविधियों में भाग लूं। इसलिए मैंने संघ को छोड़ दिया और हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली‘‘, (गोडसे, व्हाय आय एसेसीनेटिड महात्मा गांधी, 1993, पृष्ठ 102)। गोडसे, महात्मा गांधी को मुसलमानों के तुष्टिकरण व इस कारण हुए पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार मानता था। उसने तत्समय की एकमात्र हिन्दुत्वववादी पार्टी हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली और उसकी पुणे शाखा का महासचिव बन गया। आगे चलकर उसने एक समाचारपत्र निकाला, जिसका शीर्षक था ‘अग्रणी या हिन्दू राष्ट्र‘। गोडसे इस अखबार का संस्थापक संपादक था।
‘द टाईम्स आॅफ इंडिया‘ (25 जनवरी 1998) को दिए गए अपने साक्षात्कार में नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे, जोकि हत्या में सह-अपराधी था, ने नाथूराम की आरएसएस की सदस्यता और गांधीजी की हत्या करने के पीछे के कारणों पर रोशनी डालते हुए कहा, ‘‘उनकी (गांधी) नीति तुष्टिकरण की थी और उन्होंने अपनी इस नीति को सभी कांग्रेस सरकारों पर थोपा। नतीजे में मुस्लिम अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहन मिला और अंततः पाकिस्तान बना...।‘‘ तकनीकी और सैद्धांतिक दृष्टि से वे (नाथूराम) सदस्य (आरएसएस के) थे परंतु बाद मंे उन्होंने उसके लिए काम करना बंद कर दिया था। उन्होंने अदालत में यह बयान इसलिए दिया कि उन्हांेने आरएसएस को छोड़ दिया था, ताकि उन आरएसएस कार्यकर्र्ताओं की रक्षा हो सके, जिन्हें हत्या के बाद जेल में डाल दिया जाएगा। जब उन्हें लगा कि अगर वे स्वयं को आरएसएस से अलग कर लें तो उससे उन्हें (आरएसएस स्वयंसेवकों) को लाभ होगा, तो उन्होंने खुशी -खुशी यह किया‘‘।
गांधीजी की हत्या के बाद, आरएसएस के समर्थकों ने मिठाई बांटकर खुशियां मनाईं। सरदार पटेल ने लिखा, ‘‘उसके (आरएसएस) नेताओं के भाषण साम्प्रदायिक जहर से लबरेज रहते थे। इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि ऐसा जहरीला वातावरण बन गया, जिसमें इस तरह की वीभत्स त्रासदी (गांधीजी की हत्या) संभव हो सकी। आरएसएस के लोगों ने गांधीजी की मौत के बाद अपनी खुशी का इजहार किया और मिठाईयां बांटी।‘‘ (सरदार पटेल के एमएस गोलवलकर और एसपी मुकर्जी को लिखे गए पत्रों के अंश , आउटलुक, 27 अप्रैल 1998)। हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व, गांधीजी के विरूद्ध जिस तरह का जहर उगल रहे थे, महात्मा की हत्या उसका तर्कसंगत परिणाम थी। एक तरह से गांधीजी की हत्या, हिन्दुत्व की राजनीति का भारतीय राष्ट्रवाद पर पहला बड़ा हमला था, जिसने और बड़े खतरों को जन्म दिया। ये खतरे आज हमारे समक्ष हिन्दुत्ववादी राजनीति के रूप मंे खड़े हैं।
गोडसे के इस दावे के विपरीत कि हत्या की योजना उसने बनाई थी, विभिन्न जांच आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिन्दू महासभा-आरएसएस विचारधारा के कई समर्थकों ने मिलकर महात्मा की हत्या की साजिश रची थी क्योंकि एक हिन्दू होने के बावजूद, वे इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की राह मंे सबसे बड़ी बाधा थे। सरदार पटेल ने लिखा है कि ‘‘हिन्दू महासभा का एक कट्टरवादी धड़ा, जो सावरकर के नेतृत्व में काम कर रहा था, ने इस साजिश को रचा और अंजाम दिया...। उनकी हत्या का आरएसएस और हिन्दू महासभा ने स्वागत किया क्योंकि वे गांधीजी के सोचने के तरीके और उनकी नीतियों के विरूद्ध थे...‘‘ (सरदार पटेल, जस्टिस कपूर रपट के अध्याय 1 पृष्ठ 43 में उद्वत)। जस्टिस जीवनलाल कपूर भी इस निश्कर्ष पर पहुंचे कि ‘‘...सभी तथ्यों को समग्र रूप से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सावरकर और उनके समूह के अतिरिक्त और किसी ने हत्या की साजिश रची हो, इसकी संभावना नहीं है‘‘।
यही हिन्दुत्व, हिन्दू महासभा और आरएसएस की राजनीति का आधार बना। गांधी जी एक सच्चे हिन्दू थे परंतु वे हिन्दू राष्ट्र के सिंद्धातः खिलाफ थे। इसी तरह, मौलाना अबुल कलाम आजाद एक सच्चे मुसलमान थे परंतु उन्होंने कभी मुस्लिम राष्ट्र (पाकिस्तान) के विचार का समर्थन नहीं किया। गांधीजी ने पूरे देश को धर्मनिरपेक्ष आधारों पर एक किया। उन्होंने रहवास के क्षेत्र, धर्म और जाति से ऊपर उठकर भारतीयों में एकता कायम की। वे अत्यंत धार्मिक व्यक्ति थे परंतु वे धर्म के राजनैतिक हितसाधन के लिए प्रयोग के खिलाफ थे। ‘‘...उस भारत, जिसके निर्माण के लिए मैंने जीवन भर काम किया है, में प्रत्येक व्यक्ति का दर्जा एकसमान होगा, भले ही उसका धर्म कुछ भी हो। राज्य पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष होगा’’ (हरिजन, 31 अगस्त 1947) और ‘‘धर्म हर व्यक्ति का निजी मामला है और उसका राजनीति या राष्ट्रीय मुद्दों में घालमेल नहीं होना चाहिए।’’ हिन्दु महासभा और आरएसएस की मान्यता थी कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, जहां अल्पसंख्यकों को हिन्दुओं के अधीन रहना होगा। इन दोनों संगठनों के सदस्यों ने ब्रिटिश-विरोधी आंदोलनों और संघर्षों में भाग नहीं लिया। उदाहरणार्थ, सावरकर, जो अपने जीवन की शुरूआत में ब्रिटिश-विरोधी क्रांतिकारी थे, ने अंडमान जेल से अपनी रिहाई के बाद न तो राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी की और ना ही किसी ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष में। हेडगेवार को छोड़कर, जिन्होंने यदाकदा स्वाधीनता संघर्ष में हिस्सेदारी की, आरएसएस के किसी नेता या समर्थक ने आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया। उनका मुख्य जोर मुस्लिम सम्प्रदायवादियों को परास्त करने पर था। वे अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थे।
जहां तक गांधीजी की हत्या के पीछे 55 करोड़ रूपए के मुद्दे का प्रश्न है, वह एक बहाना मात्र था। तथ्य यह है कि यह धनराषि अविभाजित भारत के खजाने में पाकिस्तान का हिस्सा थी। पाकिस्तान के हिस्से की पहली किश्त चुकाई जा चुकी और 55 करोड़ रूपए बकाया थे। इस बीच पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। इस हमले के बाद, भारत सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपए का भुगतान रोक दिया। उस समय कश्मीर एक स्वतंत्र राज्य था और राजनीति में अपने उच्च नैतिक मूल्यों से समझौता न करने वाले गांधी जी ने सरकार से कहा कि कश्मीर पर हमले को, बकाया धनराशि के भुगतान से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
यह मुद्दा एक बहाना मात्र था, यह इससे भी स्पष्ट है कि 55 करोड़ रूपए की बात करने के पहले भी गांधीजी पर चार जानलेवा हमले जो चुके थे जिनमें से कुछ में गोडसे भी शामिल था। जगदीश फडनीस ने अपनी पुस्तक ‘‘महात्मयाचि अखेर’’ (लोकवांग्यमय गृह, 1994) में ठीक ही लिखा है कि गांधी जी की हत्या उस कारण नहीं की गई, जिसका प्रचार वे लोग करते हैं (देश का विभाजन और पाकिस्तान को बकाया 55 करोड़ चुकाने पर जोर) बल्कि वह इसलिए की गई क्योंकि हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों और गांधी जी की राजनीति में मूल अंतर थे। ये दोनों कारण तो मात्र बहाने थे। हमें यह समझना होगा कि जब भाजपा और उसके साथी राष्ट्रवाद की बात करते हैं, तब उनका मतलब भारतीय राष्ट्रवाद से नहीं बल्कि हिन्दू राष्ट्रवाद से होता है, जो कि उनके राजनीतिक एजेण्डे का हिस्सा है।
इस समय हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर जो हमले हो रहे हैं, वे भी महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास के समकक्ष हैं। इसलिए, गांधीजी की हत्या के पीछे के असली कारणों पर चर्चा तब तक प्रासंगिक रहेगी जब तक कि देश के धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक मूल्यों पर हमला जारी रहेगा।
-राम पुनियानी
गांधीजी की हत्या का सच क्या है? क्या, बतौर एक संगठन, आरएसएस की इसमें कोई भूमिका थी? गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस के समर्थकों की क्या प्रतिक्रिया थी? इस कायराना हरकत के संबंध में तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल के क्या विचार थे?
इन मुद्दों पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं, कई नाटक खेले जा चुके हैं और कई फिल्में बनाई जा चुकी हैं। इन विषयों से संबंधित लेखों की तो भरमार है। जहां तक घटना, उसकी जांच के लिए नियुक्त किए गए न्यायिक आयोगों की रपटों और मुकदमे के निर्णय का सवाल है, वे सबके सामन हैं। परंतु गांधीजी की हत्या के पीछे के असली और गहरे कारणों पर पर्याप्त बहस नहीं हुई है। दो राष्ट्रवादों के टकराव का समुचित विष्लेषण नहीं हुआ है। आज यह आवष्यक है कि हम गांधीजी की हत्या की घटना के साथ-साथ, उसके पीछे के विचारधारात्मक कारणों की भी विवेचना करें-उन कारणों की जिनका आधार थीं राष्ट्रवाद की दो अलग-अलग परिकल्पनाएं। पहला था भारतीय राष्ट्रवाद, जिसके प्रवक्ता और पुरोधा गांधी थे और दूसरा था हिन्दू राष्ट्रवाद, जो गांधीजी के हत्यारे गोडसे का प्रेरणास्त्रोत था। यह दिलचस्प है कि आरएसएस की राजनैतिक षाखा भाजपा के प्रधानमंत्री पद के वर्तमान उम्मीदवार भी अपने राष्ट्रवाद को हिन्दू बताते नहीं थकते। इसलिए आज के राजनैतिक संदर्भों मंे यह बहस और प्रासंगिक व महत्वपूर्ण बन गई है।
महात्मा की हत्या के बाद, आरएसएस ने आधिकारिक रूप से यही कहा कि उसका हत्या से कोई लेनादेना नहीं है और गोडसे, आरएसएस का सदस्य नहीं है। आरएसएस यह दावा इतनी आसानी से इसलिए कर सका क्योंकि आरएसएस में सदस्यों का औपचारिक रिकार्ड रखे जाने की परंपरा ही नहीं है। इस कारण, कानूनी तौर पर संघ गोडसे से स्वयं को अलग करने मंे सफल रहा। तथ्य यह है कि गोडसे ने सन् 1930 में आरएसएस की सदस्यता ली थी और जल्दी ही उसे बौद्धिक प्रचारक के रूप में नियुक्त कर दिया गया था। ‘‘हिन्दुओं की उन्नति के लिए काम करने के बाद मुझे इस बात की जरूरत महसूस हुई कि मैं हिन्दुओं के न्यायपूर्ण अधिकारों की रक्षा के लिए देश की राजनैतिक गतिविधियों में भाग लूं। इसलिए मैंने संघ को छोड़ दिया और हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली‘‘, (गोडसे, व्हाय आय एसेसीनेटिड महात्मा गांधी, 1993, पृष्ठ 102)। गोडसे, महात्मा गांधी को मुसलमानों के तुष्टिकरण व इस कारण हुए पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार मानता था। उसने तत्समय की एकमात्र हिन्दुत्वववादी पार्टी हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली और उसकी पुणे शाखा का महासचिव बन गया। आगे चलकर उसने एक समाचारपत्र निकाला, जिसका शीर्षक था ‘अग्रणी या हिन्दू राष्ट्र‘। गोडसे इस अखबार का संस्थापक संपादक था।
‘द टाईम्स आॅफ इंडिया‘ (25 जनवरी 1998) को दिए गए अपने साक्षात्कार में नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे, जोकि हत्या में सह-अपराधी था, ने नाथूराम की आरएसएस की सदस्यता और गांधीजी की हत्या करने के पीछे के कारणों पर रोशनी डालते हुए कहा, ‘‘उनकी (गांधी) नीति तुष्टिकरण की थी और उन्होंने अपनी इस नीति को सभी कांग्रेस सरकारों पर थोपा। नतीजे में मुस्लिम अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहन मिला और अंततः पाकिस्तान बना...।‘‘ तकनीकी और सैद्धांतिक दृष्टि से वे (नाथूराम) सदस्य (आरएसएस के) थे परंतु बाद मंे उन्होंने उसके लिए काम करना बंद कर दिया था। उन्होंने अदालत में यह बयान इसलिए दिया कि उन्हांेने आरएसएस को छोड़ दिया था, ताकि उन आरएसएस कार्यकर्र्ताओं की रक्षा हो सके, जिन्हें हत्या के बाद जेल में डाल दिया जाएगा। जब उन्हें लगा कि अगर वे स्वयं को आरएसएस से अलग कर लें तो उससे उन्हें (आरएसएस स्वयंसेवकों) को लाभ होगा, तो उन्होंने खुशी -खुशी यह किया‘‘।
गांधीजी की हत्या के बाद, आरएसएस के समर्थकों ने मिठाई बांटकर खुशियां मनाईं। सरदार पटेल ने लिखा, ‘‘उसके (आरएसएस) नेताओं के भाषण साम्प्रदायिक जहर से लबरेज रहते थे। इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि ऐसा जहरीला वातावरण बन गया, जिसमें इस तरह की वीभत्स त्रासदी (गांधीजी की हत्या) संभव हो सकी। आरएसएस के लोगों ने गांधीजी की मौत के बाद अपनी खुशी का इजहार किया और मिठाईयां बांटी।‘‘ (सरदार पटेल के एमएस गोलवलकर और एसपी मुकर्जी को लिखे गए पत्रों के अंश , आउटलुक, 27 अप्रैल 1998)। हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व, गांधीजी के विरूद्ध जिस तरह का जहर उगल रहे थे, महात्मा की हत्या उसका तर्कसंगत परिणाम थी। एक तरह से गांधीजी की हत्या, हिन्दुत्व की राजनीति का भारतीय राष्ट्रवाद पर पहला बड़ा हमला था, जिसने और बड़े खतरों को जन्म दिया। ये खतरे आज हमारे समक्ष हिन्दुत्ववादी राजनीति के रूप मंे खड़े हैं।
गोडसे के इस दावे के विपरीत कि हत्या की योजना उसने बनाई थी, विभिन्न जांच आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिन्दू महासभा-आरएसएस विचारधारा के कई समर्थकों ने मिलकर महात्मा की हत्या की साजिश रची थी क्योंकि एक हिन्दू होने के बावजूद, वे इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की राह मंे सबसे बड़ी बाधा थे। सरदार पटेल ने लिखा है कि ‘‘हिन्दू महासभा का एक कट्टरवादी धड़ा, जो सावरकर के नेतृत्व में काम कर रहा था, ने इस साजिश को रचा और अंजाम दिया...। उनकी हत्या का आरएसएस और हिन्दू महासभा ने स्वागत किया क्योंकि वे गांधीजी के सोचने के तरीके और उनकी नीतियों के विरूद्ध थे...‘‘ (सरदार पटेल, जस्टिस कपूर रपट के अध्याय 1 पृष्ठ 43 में उद्वत)। जस्टिस जीवनलाल कपूर भी इस निश्कर्ष पर पहुंचे कि ‘‘...सभी तथ्यों को समग्र रूप से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सावरकर और उनके समूह के अतिरिक्त और किसी ने हत्या की साजिश रची हो, इसकी संभावना नहीं है‘‘।
यही हिन्दुत्व, हिन्दू महासभा और आरएसएस की राजनीति का आधार बना। गांधी जी एक सच्चे हिन्दू थे परंतु वे हिन्दू राष्ट्र के सिंद्धातः खिलाफ थे। इसी तरह, मौलाना अबुल कलाम आजाद एक सच्चे मुसलमान थे परंतु उन्होंने कभी मुस्लिम राष्ट्र (पाकिस्तान) के विचार का समर्थन नहीं किया। गांधीजी ने पूरे देश को धर्मनिरपेक्ष आधारों पर एक किया। उन्होंने रहवास के क्षेत्र, धर्म और जाति से ऊपर उठकर भारतीयों में एकता कायम की। वे अत्यंत धार्मिक व्यक्ति थे परंतु वे धर्म के राजनैतिक हितसाधन के लिए प्रयोग के खिलाफ थे। ‘‘...उस भारत, जिसके निर्माण के लिए मैंने जीवन भर काम किया है, में प्रत्येक व्यक्ति का दर्जा एकसमान होगा, भले ही उसका धर्म कुछ भी हो। राज्य पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष होगा’’ (हरिजन, 31 अगस्त 1947) और ‘‘धर्म हर व्यक्ति का निजी मामला है और उसका राजनीति या राष्ट्रीय मुद्दों में घालमेल नहीं होना चाहिए।’’ हिन्दु महासभा और आरएसएस की मान्यता थी कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, जहां अल्पसंख्यकों को हिन्दुओं के अधीन रहना होगा। इन दोनों संगठनों के सदस्यों ने ब्रिटिश-विरोधी आंदोलनों और संघर्षों में भाग नहीं लिया। उदाहरणार्थ, सावरकर, जो अपने जीवन की शुरूआत में ब्रिटिश-विरोधी क्रांतिकारी थे, ने अंडमान जेल से अपनी रिहाई के बाद न तो राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी की और ना ही किसी ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष में। हेडगेवार को छोड़कर, जिन्होंने यदाकदा स्वाधीनता संघर्ष में हिस्सेदारी की, आरएसएस के किसी नेता या समर्थक ने आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया। उनका मुख्य जोर मुस्लिम सम्प्रदायवादियों को परास्त करने पर था। वे अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थे।
जहां तक गांधीजी की हत्या के पीछे 55 करोड़ रूपए के मुद्दे का प्रश्न है, वह एक बहाना मात्र था। तथ्य यह है कि यह धनराषि अविभाजित भारत के खजाने में पाकिस्तान का हिस्सा थी। पाकिस्तान के हिस्से की पहली किश्त चुकाई जा चुकी और 55 करोड़ रूपए बकाया थे। इस बीच पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। इस हमले के बाद, भारत सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपए का भुगतान रोक दिया। उस समय कश्मीर एक स्वतंत्र राज्य था और राजनीति में अपने उच्च नैतिक मूल्यों से समझौता न करने वाले गांधी जी ने सरकार से कहा कि कश्मीर पर हमले को, बकाया धनराशि के भुगतान से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
यह मुद्दा एक बहाना मात्र था, यह इससे भी स्पष्ट है कि 55 करोड़ रूपए की बात करने के पहले भी गांधीजी पर चार जानलेवा हमले जो चुके थे जिनमें से कुछ में गोडसे भी शामिल था। जगदीश फडनीस ने अपनी पुस्तक ‘‘महात्मयाचि अखेर’’ (लोकवांग्यमय गृह, 1994) में ठीक ही लिखा है कि गांधी जी की हत्या उस कारण नहीं की गई, जिसका प्रचार वे लोग करते हैं (देश का विभाजन और पाकिस्तान को बकाया 55 करोड़ चुकाने पर जोर) बल्कि वह इसलिए की गई क्योंकि हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों और गांधी जी की राजनीति में मूल अंतर थे। ये दोनों कारण तो मात्र बहाने थे। हमें यह समझना होगा कि जब भाजपा और उसके साथी राष्ट्रवाद की बात करते हैं, तब उनका मतलब भारतीय राष्ट्रवाद से नहीं बल्कि हिन्दू राष्ट्रवाद से होता है, जो कि उनके राजनीतिक एजेण्डे का हिस्सा है।
इस समय हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर जो हमले हो रहे हैं, वे भी महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास के समकक्ष हैं। इसलिए, गांधीजी की हत्या के पीछे के असली कारणों पर चर्चा तब तक प्रासंगिक रहेगी जब तक कि देश के धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक मूल्यों पर हमला जारी रहेगा।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
कल 13/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
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