यूपीए-1 व यूपीए-2 सरकारों द्वारा भारत के वंचित समूहों-विशेषकर धार्मिक अल्पसंख्यकों-को न्याय व समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए किए गए निर्णयों को ‘‘आधा कदम आगे, दो कदम पीछे’’ कहा जा सकता है। इन दोनों सरकारों ने अनेक बार आधा कदम उठाया और फिर हिम्मत खो बैठीं। बहुसंख्यक समुदाय के काल्पनिक ‘आक्रोश ’ के डर से न केवल इन सरकारों ने अपना आधा कदम पीछे खींचा वरन् दो कदम और पीछे खिसक गईं। नतीजा यह हुआ कि यूपीए सरकार के इन अप्रभावकारी, बल्कि नुकसान पहुंचाने वाले, आधे कदमों से अल्पसंख्यकों को तो कोई लाभ हुआ ही नहीं, उल्टे भाजपा और आरएसएस को सरकार पर अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने और बहुसंख्यक समुदाय के साथ ‘अन्याय’ करने का आरोप लगाने का मौका मिल गया। इससे अल्पसंख्यक और ज्यादा असुरक्षित महसूस करने लगे, उनका मनोबल गिरा और उनके साथ होने वाले भेदभाव में बढ़ोत्तरी हुई। केन्द्रीय मंत्रिमंडल का गत 20 फरवरी को ‘समान अवसर आयोग‘ गठित करने का निर्णय, इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।
सन् 2006 में संसद में प्रस्तुत की गई सच्चर समिति की रपट में समान अवसर आयोग गठित करने की अनुशंसा की गई थी। इसके बाद, 31 अगस्त 2007 को, प्रोफेसर आर. माधव मेनन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जिसे प्रस्तावित आयोग के ढांचे, कार्यक्षेत्र और कर्तव्यों का निर्धारण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। विशेषज्ञों के इस दल ने 28 फरवरी 2008 को अपनी सिफारिशै सरकार को सौंप दीं। भारतीय संविधान के प्रावधानों, देश के सामाजिक यथार्थ एवं अन्य प्रजातांत्रिक देशों के इस तरह के कानूनों का विस्तृत अध्ययन करने के बाद, दल ने अपनी सिफारिशों के साथ समान अवसर आयोग विधेयक का मसविदा भी सरकार को सौंपा। मसविदे में ऐसे प्रावधान प्रस्तावित थे, जिनसे समान अवसर आयोग स्वस्फूर्त कार्यवाही करने में सक्षम होता और उसकी स्वायत्ता सुनिष्चित होती। आयोग को किसी भी समूह के साथ हो रहे भेदभाव का अध्ययन करने, उसके संबंध में तथ्य इकट्ठे करने और इस अध्ययन को प्रकाशित करने का अधिकार दिया गया था। वह अनुसंधान और आंकड़ों के आधार पर, किसी भी ऐसे समूह, जिसके साथ भेदभाव हो रहा हो, के हित में काम करने में सक्षम होता। उसे विभिन्न कानूनों और नीतियों के प्रभाव का अध्ययन करने और उनके अमल का पर्यवेक्षण करने का अधिकार भी दिया गया था। वह सरकार के विभिन्न अंगों को सलाह देने का अधिकार रखता और लोगों की शिकायतों का निवारण भी करता। वह इस बात पर नजर रखता कि समाज में सभी वर्गों को समान अधिकार व अवसर उपलब्ध हैं या नहीं। वह जनमत के निर्माण में भी भूमिका निभाता।
अपनी इन जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए आयोग को सिविल अदालत की शक्तियां प्राप्त होतीं। उसे किसी भी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित होने के लिए समन जारी करने और किसी भी दस्तावेज को उपलब्ध करवाने का आदेष देने का अधिकार होता। उसे शपथ पर गवाही लेने, किसी जानकारी को प्राप्त करने के लिए आदेश व निर्देश देने और अभिलेखों का निरीक्षण करने का अधिकार भी होता। उसे यह भी अधिकार होता कि वह किसी शासकीय एजेंसी का इस्तेमाल जांच करने के लिए कर सके और शिकायतकर्ताओं को कानूनी सहायता उपलब्ध करवा सके। विधेयक के मसौदे में आयोग को यह अधिकार भी दिया गया था कि वह किसी भी ऐसी न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सके, जिसमें भेदभाव से संबंधित किसी मामले की सुनवाई हो रही हो। आयोग का मुख्य कार्य होता सभी संबंधितों से विचार-विमर्ष कर ‘गुड प्रैक्टिसिस कोड‘ (उŸाम प्रक्रिया संहिता) का निर्माण करना। वह शैक्षणिक संस्थाओं, नियोक्ताओं व अन्य संस्थाओं (उदाहरणार्थ गृह निर्माण समितियां) के लिए नियम और कार्यपद्धति का निर्धारण करता जिससे इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में पारदर्षिता आती और भेदभाव की संभावना समाप्त या कम होती। ‘गुड प्रैक्टिसिस कोड‘ का पालन करना सभी संस्थाओं के लिए अनिवार्य होता और उसका उल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान भी होता। ‘गुड प्रैक्टिसिस कोड‘ के लागू होने के दो वर्ष पष्चात, सभी संबंधितों से विचार-विमर्ष कर व कोड के अनुपालन में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन कर, आयोग, ‘ईक्वल ओपरच्यूनिटीज प्रैक्टिसिस कोड‘ (समान अवसर कार्यप्रणाली संहिता) तैयार करता। आयोग सामान्यतः व्यक्तिगत षिकायतों को नहीं सुनता सिवाए ऐसी परिस्थितियों के जब वे शिकायतें समूहगत भेदभाव की ओर संकेत करतीं। आयोग को यह अधिकार होता कि वह ‘ईक्वल ओपरच्यूनिटीज प्रैक्टिसिस कोड‘ का पालन सुनिष्चित करे और पालन न करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करे।
विधेयक के मसौदे की एक प्रमुख विशिष्टता यह थी कि आयोग का कार्यक्षेत्र केवल राज्य तक सीमित नहीं था बल्कि वह निजी उद्यमों और संस्थाओं, जिनमें औद्योगिक व व्यापारिक संस्थाएं भी शामिल हैं, के विरूद्ध भी कार्यवाही करने में सक्षम होता, यदि ये संस्थाएं रोजगार, षिक्षा व सरकार द्वारा निर्धारित अन्य क्षेत्रों में वंचित समूहों के साथ भेदभाव करती पाई जातीं। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में कहा गया है कि राज्य, नागरिकों की समानता सुनिष्चित करेगा और यह भी सुनिष्चित करेगा कि सभी नागरिकों को समान अवसर उपलब्ध हों। परंतु समान अवसर की यह संवैधानिक गारंटी, निजी संस्थाओं व व्यक्तियों पर लागू नहीं होती। हमारे देष में जो लोग नौकरियां कर रहे हैं, उनमें से मुष्किल से एक या दो प्रतिशत सरकार या सरकारी संस्थाओं की सेवा में हैं। अधिकांश लोग निजी संस्थाओं, जिनमें षैक्षणिक, औद्योगिक व व्यावसायिक संस्थाएं शामिल हैं, में कार्यरत हैं। हमारे देश में तेजी से निजीकरण हो रहा है और इससे सरकारी संस्थाओं में रोजगार के अवसरों में और कमी आ रही है। निजी संस्थाओं में नौकरियां करने वालों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है। इन संस्थाओं में वंचित समूहों के साथ कोई भेदभाव न हो, यह संवैधानिक प्रावधानों द्वारा सुनिष्चित नहीं किया जा सकता। समान अवसर आयोग इस बड़ी कमी को पूरा करता।
मसविदे की एक अन्य महत्वपूणर््ा विशेषता यह थी कि समान अवसर आयोग का कार्यक्षेत्र धर्म या भाषा के आधार पर परिभाषित किसी समुदाय विशेष तक सीमित नहीं होता। वह सभी वंचित समूहों के लिए काम करता जिनमें महिलाएं, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, समलैंगिक, विकलांग, एचआईवी-एड्स रोगी, उत्तरपूर्व निवासी व भेदभाव का शिकार कोई भी अन्य समूह,शामिल होता। यद्यपि अनुसूचित जातियों व जनजातियों को शैक्षणिक संस्थाओं व सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ कानून भी बनाए गए हैं, तथापि निजी संस्थाओं में नियोजन, आवास आदि के मामलों में उन्हें कोई विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं हैं। निजी संस्थाओं में दलितों व आदिवासियों के साथ भेदभाव आम है और कई आवासीय परिसरों में उन्हें मकान नहीं खरीदने दिए जाते हैं। समान अवसर आयोग विधेयक में इन सब समस्याआंे के निदान के प्रावधान थे। अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम इन वर्गों को अत्यचार से सुरक्षा देता है भेदभाव से नहीं। यह भेदभाव भी खुलकर नहीं किया जाता और इसे अदालतों में साबित करना लगभग असंभव होता है।
इस मसविदे की तीसरी बड़ी विशेषता यह थी कि वंचित समूहों के वे सदस्य, जो यह महसूस करते हों कि उनके साथ राज्य द्वारा भेदभाव किया जा रहा है, उच्च या उच्चतम न्यायालय में रिट याचिका दायर कर भेदभाव के खिलाफ आदेश प्राप्त कर सकते थे। भेदभाव साबित करने की जिम्मेदारी याचिकाकर्ता की होती। जो लोग भेदभाव करते हैं वे अक्सर उसे अच्छी तरह से छिपाते हैं और तकनीकी आधारों को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। समान अवसर आयोग को यह अधिकार था कि वह ऐसे समूहों की ओर से भेदभाव के सुबूत इकट्ठा कर उन्हें समान अवसर उपलब्ध करवाने के लिए उचित आदेष जारी करे।
एक समस्या यह थी कि समान अवसर आयोग को बंधनकारी आदेश जारी करने का अधिकार नहीं था और ना ही वह अपनी अवमानना के लिए किसी के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही कर सकता था। उसे उतने अधिकार नहीं थे जितने कि उसे दिए जाने चाहिए थे-विशेषकर इस तथ्य के प्रकाश में कि शांतिपूर्ण व समरस समाज के निर्माण के लिए समानता एक आवष्यक शर्त है और यह हमारे संविधान की मंशा भी है।
केबिनेट द्वारा स्वीकृत समान अवसर आयोग
लोकसभा चुनाव होने ही वाले हैं। ऐसे में अचानक यूपीए सरकार को याद आया कि उसने सच्चर समिति की समान अवसर आयोग के संबंध में सिफारिषों को लागू नहीं किया है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने तुरत-फुरत एक केबिनेट नोट तैयार कर समान अवसर आयोग की स्थापना की स्वीकृति प्राप्त कर ली। यह आयोग केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए समान अवसर सुनिष्चित करेगा। यह समझ से परे है कि आयोग को अन्य वंचित समूहों के साथ होने वाले भेदभाव के विरूद्ध कार्यवाही करने का अधिकार क्यों नहीं दिया गया। जिनके साथ भेदभाव हो रहा है, उनके बीच भेदभाव करने का अधिकार आयोग को नहीं होना चाहिए। ऐसा आयोग अपने आप में भेदभावपूर्ण होगा और उस पर यह आरोप लगना स्वाभाविक होगा कि वह मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहा है। इससे साम्प्रदायिक ताकतों को मुसलमानों का दानवीकरण करने का एक और मौका हाथ लग जाएगा।
धार्मिक अल्पसंख्यकों व अन्य वंचित समूहों के साथ निजी क्षेत्र में सबसे अधिक भेदभाव होता है। केबिनेट द्वारा मंजूर किए गए आयोग के कार्यक्षेत्र में निजी संस्थाएं नहीं होंगी।
इसके अतिरिक्त, यह आयोग केवल एक सलाहकार संस्था होगी और उसे किसी प्रकार की दंडात्मक कार्यवाही करने का अधिकार नहीं होगा। वह एक और ऐसा मंच हो जाएगा, पीडि़त लोग जिसके इस उम्मीद में चक्कर लगाते रहेंगे कि उन्हें न्याय मिलेगा परंतु वस्तुतः वह उन्हें न्याय दिलाने में सक्षम ही नहीं होगा। वह हाईकोर्टों के पूर्व न्यायाधीषों का एक और चारागाह बन जाएगा। हमें ऐसे आयोग को सिरे से नकार देना चाहिए। वह एक ऐसी खूंटी बन जाएगा जिस पर भेदभाव के पीडि़त हमेशा लटके रहेंगे।
क्यों महत्वपूूर्ण है समान अवसर आयोग?
हिन्दुत्व के पैरोकार भारत को पांच हजार साल पुराना ‘राष्ट्र‘ बताते हैं। ‘राष्ट्र‘ षब्द 19वीं सदी में अस्तित्व मंे आया और तभी से इसका प्रयोग शुरू हुआ। राष्ट्र एक ऐसा राजनैतिक समुदाय है, जिसकी समान भाषा, धर्म, संस्कृति, परंपराएं, रीति-रिवाज आदि हों, जो एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में निवास करता हो और जो एक राज्य के रूप में संगठित होकर राज्य द्वारा शासित होने का इच्छुक हो। यह राष्ट्र की कामचलाऊ परिभाषा है। यद्यपि सिंधु नदी और समुद्रों के बीच के भूभाग में राजनैतिक सीमाएं बनती-बिगड़ती रहीं परंतु ऊँचनीच पर आधारित जाति व्यवस्था स्थायी बनी रही। देश की आबादी के 85 प्रतिशत से अधिक हिस्से ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और इस व्यवस्था के हाथों कष्ट भोगे। उच्च जातियों की महिलाएं भी जाति व्यवस्था की शिकार हुईं। सामाजिक संस्थाएं व राज्य इस असमानता के संरक्षक बन गए। दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। यहां तक कि दलितों को गांव की सीमा के बाहर रहना पड़ता था। ब्रिटिश शासन के दौरान दलितों और महिलाओं के लिए अवसरों के कुछ द्वार खुले। स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न जातियों व क्षेत्रों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश शासन के विरूद्ध संघर्ष किया परंतु स्वाधीनता संग्राम भी लैंगिक व जातिगत ऊँचनीच को समाप्त नहीं कर सका। स्वाधीनता संग्राम के दौरान साम्प्रदायिक पार्टियों के बीच हमारे औपनिवेशिकशासकों द्वारा फेंके गए टुकड़ों को लूटने की होड़ मच गई जिसके कारण साम्प्रदायिक पहचान और साम्प्रदायिक विमर्ष गहरे और मजबूत हुए। सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘दूसरे‘ के विरूद्ध घृणा फैलाना और उसे दोषी ठहराना एक परंपरा सी बन गई। हिन्दुत्ववादी आज भी अल्पसंख्यकों के विरूद्ध घृणा फैलाने की परंपरा पर चल रहे हैं। दबे-छिपे ढंग से वे दलितों और आदिवासियों के विरूद्ध भी घृणा फैलाते हैं।
दलितों और आदिवासियों को आज भी समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं। अलग-अलग स्वरूपों में अछूत प्रथा आज भी कायम है। धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं में दलितों और आदिवासियों को नेतृत्व करने का मौका शायद ही मिल पाता हो। भारत एक राष्ट्र के रूप में तभी बना रह सकता है जब उसके नागरिक विविधता और बहुवाद को पूरे मन से स्वीकार करें और बराबरी-सबकी बराबरी-के संवैधानिक सिद्धांत में अडिग आस्था रखें। पर्याप्त शक्तियों व संसाधनों से लैस समान अवसर आयोग, समानता सुनिष्चित करने व विभिन्नता की रक्षा करने का एक महत्वपूर्ण जरिया बन सकता है। अगर हमें हमारे प्रजातंत्र को बचाए रखना है तो हमें ऐसी संस्थाओं का निर्माण करना होगा जो राज्य को अधिक जवाबदेह बनाएं।
-इरफान इंजीनियर
सन् 2006 में संसद में प्रस्तुत की गई सच्चर समिति की रपट में समान अवसर आयोग गठित करने की अनुशंसा की गई थी। इसके बाद, 31 अगस्त 2007 को, प्रोफेसर आर. माधव मेनन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जिसे प्रस्तावित आयोग के ढांचे, कार्यक्षेत्र और कर्तव्यों का निर्धारण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। विशेषज्ञों के इस दल ने 28 फरवरी 2008 को अपनी सिफारिशै सरकार को सौंप दीं। भारतीय संविधान के प्रावधानों, देश के सामाजिक यथार्थ एवं अन्य प्रजातांत्रिक देशों के इस तरह के कानूनों का विस्तृत अध्ययन करने के बाद, दल ने अपनी सिफारिशों के साथ समान अवसर आयोग विधेयक का मसविदा भी सरकार को सौंपा। मसविदे में ऐसे प्रावधान प्रस्तावित थे, जिनसे समान अवसर आयोग स्वस्फूर्त कार्यवाही करने में सक्षम होता और उसकी स्वायत्ता सुनिष्चित होती। आयोग को किसी भी समूह के साथ हो रहे भेदभाव का अध्ययन करने, उसके संबंध में तथ्य इकट्ठे करने और इस अध्ययन को प्रकाशित करने का अधिकार दिया गया था। वह अनुसंधान और आंकड़ों के आधार पर, किसी भी ऐसे समूह, जिसके साथ भेदभाव हो रहा हो, के हित में काम करने में सक्षम होता। उसे विभिन्न कानूनों और नीतियों के प्रभाव का अध्ययन करने और उनके अमल का पर्यवेक्षण करने का अधिकार भी दिया गया था। वह सरकार के विभिन्न अंगों को सलाह देने का अधिकार रखता और लोगों की शिकायतों का निवारण भी करता। वह इस बात पर नजर रखता कि समाज में सभी वर्गों को समान अधिकार व अवसर उपलब्ध हैं या नहीं। वह जनमत के निर्माण में भी भूमिका निभाता।
अपनी इन जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए आयोग को सिविल अदालत की शक्तियां प्राप्त होतीं। उसे किसी भी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित होने के लिए समन जारी करने और किसी भी दस्तावेज को उपलब्ध करवाने का आदेष देने का अधिकार होता। उसे शपथ पर गवाही लेने, किसी जानकारी को प्राप्त करने के लिए आदेश व निर्देश देने और अभिलेखों का निरीक्षण करने का अधिकार भी होता। उसे यह भी अधिकार होता कि वह किसी शासकीय एजेंसी का इस्तेमाल जांच करने के लिए कर सके और शिकायतकर्ताओं को कानूनी सहायता उपलब्ध करवा सके। विधेयक के मसौदे में आयोग को यह अधिकार भी दिया गया था कि वह किसी भी ऐसी न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सके, जिसमें भेदभाव से संबंधित किसी मामले की सुनवाई हो रही हो। आयोग का मुख्य कार्य होता सभी संबंधितों से विचार-विमर्ष कर ‘गुड प्रैक्टिसिस कोड‘ (उŸाम प्रक्रिया संहिता) का निर्माण करना। वह शैक्षणिक संस्थाओं, नियोक्ताओं व अन्य संस्थाओं (उदाहरणार्थ गृह निर्माण समितियां) के लिए नियम और कार्यपद्धति का निर्धारण करता जिससे इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में पारदर्षिता आती और भेदभाव की संभावना समाप्त या कम होती। ‘गुड प्रैक्टिसिस कोड‘ का पालन करना सभी संस्थाओं के लिए अनिवार्य होता और उसका उल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान भी होता। ‘गुड प्रैक्टिसिस कोड‘ के लागू होने के दो वर्ष पष्चात, सभी संबंधितों से विचार-विमर्ष कर व कोड के अनुपालन में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन कर, आयोग, ‘ईक्वल ओपरच्यूनिटीज प्रैक्टिसिस कोड‘ (समान अवसर कार्यप्रणाली संहिता) तैयार करता। आयोग सामान्यतः व्यक्तिगत षिकायतों को नहीं सुनता सिवाए ऐसी परिस्थितियों के जब वे शिकायतें समूहगत भेदभाव की ओर संकेत करतीं। आयोग को यह अधिकार होता कि वह ‘ईक्वल ओपरच्यूनिटीज प्रैक्टिसिस कोड‘ का पालन सुनिष्चित करे और पालन न करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करे।
विधेयक के मसौदे की एक प्रमुख विशिष्टता यह थी कि आयोग का कार्यक्षेत्र केवल राज्य तक सीमित नहीं था बल्कि वह निजी उद्यमों और संस्थाओं, जिनमें औद्योगिक व व्यापारिक संस्थाएं भी शामिल हैं, के विरूद्ध भी कार्यवाही करने में सक्षम होता, यदि ये संस्थाएं रोजगार, षिक्षा व सरकार द्वारा निर्धारित अन्य क्षेत्रों में वंचित समूहों के साथ भेदभाव करती पाई जातीं। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में कहा गया है कि राज्य, नागरिकों की समानता सुनिष्चित करेगा और यह भी सुनिष्चित करेगा कि सभी नागरिकों को समान अवसर उपलब्ध हों। परंतु समान अवसर की यह संवैधानिक गारंटी, निजी संस्थाओं व व्यक्तियों पर लागू नहीं होती। हमारे देष में जो लोग नौकरियां कर रहे हैं, उनमें से मुष्किल से एक या दो प्रतिशत सरकार या सरकारी संस्थाओं की सेवा में हैं। अधिकांश लोग निजी संस्थाओं, जिनमें षैक्षणिक, औद्योगिक व व्यावसायिक संस्थाएं शामिल हैं, में कार्यरत हैं। हमारे देश में तेजी से निजीकरण हो रहा है और इससे सरकारी संस्थाओं में रोजगार के अवसरों में और कमी आ रही है। निजी संस्थाओं में नौकरियां करने वालों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है। इन संस्थाओं में वंचित समूहों के साथ कोई भेदभाव न हो, यह संवैधानिक प्रावधानों द्वारा सुनिष्चित नहीं किया जा सकता। समान अवसर आयोग इस बड़ी कमी को पूरा करता।
मसविदे की एक अन्य महत्वपूणर््ा विशेषता यह थी कि समान अवसर आयोग का कार्यक्षेत्र धर्म या भाषा के आधार पर परिभाषित किसी समुदाय विशेष तक सीमित नहीं होता। वह सभी वंचित समूहों के लिए काम करता जिनमें महिलाएं, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, समलैंगिक, विकलांग, एचआईवी-एड्स रोगी, उत्तरपूर्व निवासी व भेदभाव का शिकार कोई भी अन्य समूह,शामिल होता। यद्यपि अनुसूचित जातियों व जनजातियों को शैक्षणिक संस्थाओं व सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ कानून भी बनाए गए हैं, तथापि निजी संस्थाओं में नियोजन, आवास आदि के मामलों में उन्हें कोई विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं हैं। निजी संस्थाओं में दलितों व आदिवासियों के साथ भेदभाव आम है और कई आवासीय परिसरों में उन्हें मकान नहीं खरीदने दिए जाते हैं। समान अवसर आयोग विधेयक में इन सब समस्याआंे के निदान के प्रावधान थे। अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम इन वर्गों को अत्यचार से सुरक्षा देता है भेदभाव से नहीं। यह भेदभाव भी खुलकर नहीं किया जाता और इसे अदालतों में साबित करना लगभग असंभव होता है।
इस मसविदे की तीसरी बड़ी विशेषता यह थी कि वंचित समूहों के वे सदस्य, जो यह महसूस करते हों कि उनके साथ राज्य द्वारा भेदभाव किया जा रहा है, उच्च या उच्चतम न्यायालय में रिट याचिका दायर कर भेदभाव के खिलाफ आदेश प्राप्त कर सकते थे। भेदभाव साबित करने की जिम्मेदारी याचिकाकर्ता की होती। जो लोग भेदभाव करते हैं वे अक्सर उसे अच्छी तरह से छिपाते हैं और तकनीकी आधारों को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। समान अवसर आयोग को यह अधिकार था कि वह ऐसे समूहों की ओर से भेदभाव के सुबूत इकट्ठा कर उन्हें समान अवसर उपलब्ध करवाने के लिए उचित आदेष जारी करे।
एक समस्या यह थी कि समान अवसर आयोग को बंधनकारी आदेश जारी करने का अधिकार नहीं था और ना ही वह अपनी अवमानना के लिए किसी के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही कर सकता था। उसे उतने अधिकार नहीं थे जितने कि उसे दिए जाने चाहिए थे-विशेषकर इस तथ्य के प्रकाश में कि शांतिपूर्ण व समरस समाज के निर्माण के लिए समानता एक आवष्यक शर्त है और यह हमारे संविधान की मंशा भी है।
केबिनेट द्वारा स्वीकृत समान अवसर आयोग
लोकसभा चुनाव होने ही वाले हैं। ऐसे में अचानक यूपीए सरकार को याद आया कि उसने सच्चर समिति की समान अवसर आयोग के संबंध में सिफारिषों को लागू नहीं किया है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने तुरत-फुरत एक केबिनेट नोट तैयार कर समान अवसर आयोग की स्थापना की स्वीकृति प्राप्त कर ली। यह आयोग केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए समान अवसर सुनिष्चित करेगा। यह समझ से परे है कि आयोग को अन्य वंचित समूहों के साथ होने वाले भेदभाव के विरूद्ध कार्यवाही करने का अधिकार क्यों नहीं दिया गया। जिनके साथ भेदभाव हो रहा है, उनके बीच भेदभाव करने का अधिकार आयोग को नहीं होना चाहिए। ऐसा आयोग अपने आप में भेदभावपूर्ण होगा और उस पर यह आरोप लगना स्वाभाविक होगा कि वह मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहा है। इससे साम्प्रदायिक ताकतों को मुसलमानों का दानवीकरण करने का एक और मौका हाथ लग जाएगा।
धार्मिक अल्पसंख्यकों व अन्य वंचित समूहों के साथ निजी क्षेत्र में सबसे अधिक भेदभाव होता है। केबिनेट द्वारा मंजूर किए गए आयोग के कार्यक्षेत्र में निजी संस्थाएं नहीं होंगी।
इसके अतिरिक्त, यह आयोग केवल एक सलाहकार संस्था होगी और उसे किसी प्रकार की दंडात्मक कार्यवाही करने का अधिकार नहीं होगा। वह एक और ऐसा मंच हो जाएगा, पीडि़त लोग जिसके इस उम्मीद में चक्कर लगाते रहेंगे कि उन्हें न्याय मिलेगा परंतु वस्तुतः वह उन्हें न्याय दिलाने में सक्षम ही नहीं होगा। वह हाईकोर्टों के पूर्व न्यायाधीषों का एक और चारागाह बन जाएगा। हमें ऐसे आयोग को सिरे से नकार देना चाहिए। वह एक ऐसी खूंटी बन जाएगा जिस पर भेदभाव के पीडि़त हमेशा लटके रहेंगे।
क्यों महत्वपूूर्ण है समान अवसर आयोग?
हिन्दुत्व के पैरोकार भारत को पांच हजार साल पुराना ‘राष्ट्र‘ बताते हैं। ‘राष्ट्र‘ षब्द 19वीं सदी में अस्तित्व मंे आया और तभी से इसका प्रयोग शुरू हुआ। राष्ट्र एक ऐसा राजनैतिक समुदाय है, जिसकी समान भाषा, धर्म, संस्कृति, परंपराएं, रीति-रिवाज आदि हों, जो एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में निवास करता हो और जो एक राज्य के रूप में संगठित होकर राज्य द्वारा शासित होने का इच्छुक हो। यह राष्ट्र की कामचलाऊ परिभाषा है। यद्यपि सिंधु नदी और समुद्रों के बीच के भूभाग में राजनैतिक सीमाएं बनती-बिगड़ती रहीं परंतु ऊँचनीच पर आधारित जाति व्यवस्था स्थायी बनी रही। देश की आबादी के 85 प्रतिशत से अधिक हिस्से ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और इस व्यवस्था के हाथों कष्ट भोगे। उच्च जातियों की महिलाएं भी जाति व्यवस्था की शिकार हुईं। सामाजिक संस्थाएं व राज्य इस असमानता के संरक्षक बन गए। दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त नहीं थे। यहां तक कि दलितों को गांव की सीमा के बाहर रहना पड़ता था। ब्रिटिश शासन के दौरान दलितों और महिलाओं के लिए अवसरों के कुछ द्वार खुले। स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न जातियों व क्षेत्रों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश शासन के विरूद्ध संघर्ष किया परंतु स्वाधीनता संग्राम भी लैंगिक व जातिगत ऊँचनीच को समाप्त नहीं कर सका। स्वाधीनता संग्राम के दौरान साम्प्रदायिक पार्टियों के बीच हमारे औपनिवेशिकशासकों द्वारा फेंके गए टुकड़ों को लूटने की होड़ मच गई जिसके कारण साम्प्रदायिक पहचान और साम्प्रदायिक विमर्ष गहरे और मजबूत हुए। सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘दूसरे‘ के विरूद्ध घृणा फैलाना और उसे दोषी ठहराना एक परंपरा सी बन गई। हिन्दुत्ववादी आज भी अल्पसंख्यकों के विरूद्ध घृणा फैलाने की परंपरा पर चल रहे हैं। दबे-छिपे ढंग से वे दलितों और आदिवासियों के विरूद्ध भी घृणा फैलाते हैं।
दलितों और आदिवासियों को आज भी समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं। अलग-अलग स्वरूपों में अछूत प्रथा आज भी कायम है। धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं में दलितों और आदिवासियों को नेतृत्व करने का मौका शायद ही मिल पाता हो। भारत एक राष्ट्र के रूप में तभी बना रह सकता है जब उसके नागरिक विविधता और बहुवाद को पूरे मन से स्वीकार करें और बराबरी-सबकी बराबरी-के संवैधानिक सिद्धांत में अडिग आस्था रखें। पर्याप्त शक्तियों व संसाधनों से लैस समान अवसर आयोग, समानता सुनिष्चित करने व विभिन्नता की रक्षा करने का एक महत्वपूर्ण जरिया बन सकता है। अगर हमें हमारे प्रजातंत्र को बचाए रखना है तो हमें ऐसी संस्थाओं का निर्माण करना होगा जो राज्य को अधिक जवाबदेह बनाएं।
-इरफान इंजीनियर
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