सोमवार, 10 मार्च 2014

अपशब्दों के इस हमाम में सब नंगे हैं



संसद और विधानभाओं में माननीय सदस्यों द्वारा आपस में गाली-गलौच, मार-पीट की घटनाएं कई बार सामने आने के बाद, ऐसा लगता है कि इन दिनों देश के राजनैतिक परिदृश्य में अपशब्दों और गालियों की बौछार का मौसम सा चल रहा है। अभी कुछ दिन पहले ही, केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेसी नेता सलमान
खुर्शीद ने उत्तर प्रदेश में अपने संसदीय क्षेत्र फरूर्खाबाद में एक जनसभा के दौरान नरेन्द्र मोदी को 2002 के गुजरात दंगों को रोकने में नाकाम रहने के लिए नपंुसक कह डाला। उनके इस अपशब्द पर मचा बवाल अभी शांत भी नहीं हुआ था कि, कुछ ही देर बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष क नेता व बसपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य ने नरेन्द्र मोदी को ’हैवान’ और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को ’सियासी भूखा भेडि़या’ तक कह डाला। आम आदमी पार्टी के बारे में उन्होंने यह भी कहा कि वह ’न पिद्दी न पिद्दी का शोरबा’ जैसी है। इसके बाद जिस राजनैतिक दल के शब्दकोश में जो भी आलोचनात्मक शब्द रेकार्ड में थे, सब खंगाल डाले गये। यही नहीं, इस घटना के बाद कई नेताओं के चरित्र प्रमाणपत्र बयां करते पोस्टर दिल्ली की
सड़कों पर बहुतायत नजर आने लगे।
                                                                         वैसे भी, नरेन्द्र मोदी के विरोध में विपक्षी नेताओं द्वारा इस्तेमाल की गयी आपत्तिजनक भाषा का यह कोई पहला मामला नहीं है। विरोधी नेताओं की आलोचना में अपशब्दों की भरमार के कई शर्मनाक उदाहरण पहले भी मिले हैं। सलमान खुर्शीद के अलावा दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर और जयराम रमेश नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विवादित और आपत्तिजनक बयानबाजी करते रहे हैं। कभी अय्यर ने मोदी को कांग्रेस मुख्यालय में चाय की गुमटी लगाने के लिए कहा, तो जयराम रमेश ने मोदी को ’भस्मासुर’ तक कह डाला। बेनी प्रसाद वर्मा मोदी को ’गुजरात का आदमखोर’ बता चुके हैं। दिग्विजय सिंह मोदी को ’फासिस्ट’ की पदवी से नवाज चुके हैं। रेणुका चैधरी मोदी को ’मेकैम्बो’ तो राशिद अल्वी उन्हें ’यमराज’ तक कह चुके हैं।
                                                          राजनीतिक बयानबाजी में अपशब्दों का महायुद्ध यहीं खत्म नहीं होता। मोदी के अपमान से तिलमिलाई भाजपा ने कांग्रेस पर पोस्टर वार शुरू करवा दिया। मोदी पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी के विरोध में दिल्ली की एक संस्था ’भगत सिंह क्रान्ति सेना’ नेे पूरी दिल्ली में एक पोस्टर लगा दिया है जिसमें, कांग्रेस के दागदार नेताओं को लेकर सलमान खुर्शीद से कई सवाल किए गए है।
पोस्टर में यौन शोषण में फंसे कांग्रेसी नेताओं को लपेटा गया है। हरियाणा से कांग्रेसी नेता गोपाल कांडा, हाल ही में दिल्ली में यौन शोषण के बाद एफआईआर का सामना कर रहे उत्तराखंड के मंत्री हरक सिंह रावत, राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा और सीडी कांड में फंसे अभिषेक मनु सिंघवी की तस्वीरें भी पोस्टर पर दी गई हैं।
                                                 गौरतलब है कि कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति इस किस्म की राजनीति को कतई प्रात्साहित नहीं करेगा, और राहुल गांधी ने सार्वजनिक तौर पर सलमान खुशीद के बयान पर घोर आपत्ति जाहिर कर यह बता भी दिया कि आलोचनाओं में शालीन भाषा का ही इस्तेमाल होना चाहिए। लेकिन, हालात बताते हैं कि अभी सब कुछ इतनी जल्दी बदलने नहीं जा रहा है। यह कटु सत्य है कि इस तरह की शब्दावली अब भारतीय राजनीति का एक सामान्य चरित्र सा बनती जा रही है। देश की राजनैतिक पतनशीलता का पहिया, जो पहले बड़ी धीमी गति से घूमता हुआ पतन के गर्त में जा रहा था, इन दिनों बड़ी तेजी से पतन का मैराथन कर रहा है।
                                                  बहरहाल, यह सब देश के राजनैतिक ताने-बाने के लिए कतई शुभ लक्षण नही है,   लेकिन किसी एक दल को इस भाषायी पतनशीलता के लिए जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता। अपशब्दों के इस महाभारत में तकरीबन सारे दलों के बीच गाली-गलौच युक्त भाषा के विशेषज्ञ बैठे हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? तथा आने वाले आम चुनाव में इन सबका आम आदमी तथा अभावग्रस्त बहुसंख्यक आवाम की बेहतरी के सवालों पर होने वाली बहसों पर
क्या असर पड़ेगा?
                                       राजनीतिक परिदृश्य के लिए यह बेहद निराशाजनक है कि देश के तकरीबन समस्त राजनैतिक दल आम आदमी के सवालों, उसकी बेहतरी, शिक्षा, रोजी, चिकित्सा पर बहस करने के बजाय अब व्यक्ति और जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द केन्द्रित हंै। लोकसभा के आम चुनाव सामने हैं और राजनैतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का जो दौर चल रहा है, उससे यह साबित होता है, कि किसी भी
दल के पास आम आदमी और उसकी बेहतरी का कोई विजन ही नही है। वे सम्लित रूप से यह चाहते हैं कि आवाम की बेहतरी के असली सवाल किसी भी तरह से राजनीति की सतह पर आने ही न पाएं क्योंकि, उनका जवाब देश के किसी भी राजनेता के पास नही है। और इस तरह से राजनीति ने आपसी सहमति से गैर-प्रासंगिक सवालों का एक जाल सा बुन डाला है। यह स्तरहीन बातें और घटिया किस्म की आलोचना-प्रत्यालोचना केवल इसी जाल की एक छोटी सी प्रतिकृति है।
                                                      दरअसल राजनीतिक परिदृश्य में कोई भी चीज अचानक उपस्थित नही होती। राजनेताओं में भाषायी गिरावट की सामान्य वजहों में देश की उदारीकृत अर्थव्यवस्था और उससे उपजी लूट की संस्कृति, काले धन का समाज पर बढ़ता प्रभाव तथा राजनीति का तेजी से बढ़ता आराधीकरण जिम्मेदार है। यह कटु सत्य है कि आज देश के तकरीबन समस्त राजनैतिक दलों ने जन सेवा के आभाषी चोले का निर्ममता से परित्याग कर दिया है। विशुद्ध लाभ की राजनीति में जनसरोकार के सवाल गायब हो चुके हैं। उनकी देश, समाज और मतदाता के प्रति जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है। और इसके बाद राजनीति में केवल नेताओं के खुद के लाभ के लिए अधिकतम अराजकता और अपराध का माहौल ही शेष बचता है। यह अराजकता भाषा और कृत्य में अब साफ-साफ देखी जा सकती है।
                                                         गौरतलब है कि उदारीकरण के बाद लागू हुई नयी आर्थिक नीतियों ने जहां पूंजीपति-नेता-नौकरशाही के गठजोड़ को मजबूत कर लूट की एक नयी संस्कृति का  जन्म दिया, वहीं राजनीतिक सिपहसलारों में देश की आवाम का जिम्मेदार प्रतिनिधि बनने की लालसा का खात्मा भी कर दिया। अब नेताओं के सारे कृत्य रुपया कमाने और किसी भी तरह संपत्ति अर्जन के इर्द गिर्द घूमने लगे हैं।
इस गठजोड़ से उपजी संस्कृति ने सबसे पहले नेताओं में भाषायी शालीनता का गला घोंटा। जो इस नये परिदृश्य में अडजस्ट नहीं हो सके वे व्यवस्था द्वारा खुद ही नेपथ्य में कर दिये गये। इसके बाद जो दौर आया उसमें, नेता कुछ भी बोल सकते हैं, कर सकते हैं। आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त अराजकता राजनीति में प्रतिबिंबित हो चुकी थी और नेताओं के शब्दों द्वारा वह आम जनमानस में भी दिखाई पड़ने लगी। आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त अराजकता से  ही सामाजिक क्षेत्र में अराजकता फैलती है और वह व्यक्तियों के सामान्य कृत्य में दिखने लगती है। जो आर्थिक ढांचे में जितना ऊपर है उसकी अराजकता उतनी ही ज्यादा दिखाई देती है। उदारीकरण के बाद आ रही अनियंत्रित पूंजी और व्यक्तिगत लाभ की राजनीति से बने गठजोड़ ने स्थिति को भयावह बना दिया है।
                                            अब सवाल यह है कि क्या इस भाषाई अराजकता को रोका जा सकता है? वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में, जहां केवल खुद के लाभ के लिए नेता चुनाव लड़ते हों, सारे राजनैतिक काम करते हों, उन्हें ऐसी अराजकता से कैसे रोका जा सकता है। आज राजीनिति में अपराधियों और गुंडे किस्म के नेताओं का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है। इन नेताओं की सामान्य भाषा ही अशालीन होती है। संभलकर बोलना इनके लिए काफी असहज होता है। अशालीन भाषा ही इनकी स्वाभाविक
भाषा है। फिर इसे बोलने से इन्हे कैसे रोका जा सकता है? कुल मिलाकर अब हमें नेताओं की इन अशालीन भाषाओं को स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि इनकी भाषायी अराजकता का मूल अर्थव्यस्था की खामियां और अधिकतम लूट की स्थापित हो चुकी संस्कृति है। बिना इसे बदले इनसे शालीनता की आशा व्यर्थ है। लेकिन अफसोस यह है कि इस संस्कृति को बदलने का कोई जमीनी आंदोलन नहीं चल रहा है। देश का लोकतंत्र सिसक रहा है लेकिन नेताओं को इसकी परवाह ही कहां है?

-हरे राम मिश्र
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार

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