हर क्षेत्र में,हर दृष्टि से नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग चल रही है। भाजपा और उसका समर्थन करने वाली ताकतों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, तो उसके लिए ब्रांडिंग जरूरी भी है। मोदी क्या हुए अलादीन का चिराग!
तरह-तरह से मोदी का फैशियल हो रहा है। अब विकास को ही लीजिए। विकास होगा तो सभी का फायदा होगा। पूर्वोत्तर का हो या कन्याकुमारी का। दंगे करने वाला हो या उसमें नुकसान उठाने वाला। अब विकास पर एतराज किसे होगा! लेकिन मोदी एक दिन अचानक ब्रांडिंग के चक्कर में फिसल गए। हाल में संपन्न, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वह ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ पर बोल पड़े।
मोदी ने कुछ संस्कृत और कुछ हिंदी में वेद, पुराण, संस्कृति एवं परंपराओं के सूत्र वाक्यों के माध्यम से अपना ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ रखा। संघ की चिंतन बैठकों या शाखाओं में कुछ भी कहा जा सकता है। प्राचीन काल के वैभव (यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि किस युग का, कैसा वैभव) की वापसी की इच्छा व्यक्त की जा सकती है, सनातन राष्ट्र की वंदना की जा सकती है या भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ का रूप देने की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं। लेकिन सार्वजनिक संज्ञान में बोलने के कुछ खतरे होते हैं। मोदी ने ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के बारे में जो भी कहा, वह आधुनिक भारतीय राज्य सत्ता के तकाजे पूरे नहीं करता।
26 जनवरी 1950 से लागू गणतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित है। इनमें एक है सेक्युलरिज्म। संघ वालों को आपत्ति रही है कि संविधान में इस शब्द का उल्लेख नहीं है। उस तर्क को मानें तो ब्रिटेन में संवैधानिक व्यवस्था ही नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उस देश में लिखित संविधान नहीं है। इंदिरा गांधी के शासन काल में जब 42 वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट शब्द का समावेश किया गया, तो सेक्युलरिज्म को भी शामिल किया जा सकता था। लेकिन यह नहीं किया गया क्योंकि इसकी जरूरत ही नहीं थी। सेक्युलर दर्शन हमारी संवैधानिक आस्था और जीवन पद्धति में इतना केंद्रीय स्थान जो प्राप्त कर चुका है। सेक्युलरिज्म एक नितांत आधुनिक अवधारणा है। मोदी जिस संघ के प्रचारक रहे हैं, वह सेक्युलरिज्म को नहीं मानता।
इस नकार के खतरों की ओर सबसे ज्यादा ध्यान दिलाया था जवाहर लाल नेहरू ने। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा हो रही थी। भारत में संघ और संघी मानसिकता
वाले कुछ कांग्रेसी भी मुसलमान भारतीयों पर पुनर्विचार का सुझाव दे रहे थे। उस माहौल
में नेहरू ने कहा, ‘‘कांग्रेस की सेक्युलर प्रतिबद्धता पर कोई समझौता नहीं हो सकता। जो निश्चित तौर पर खराब है, उसके साथ समझौता हमेशा खतरनाक होता है। संघ राष्ट्रवादी भारत के हर मूल्य को निशाना बनाता है। यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि आर.एस.एस. की पूरी मानसिकता फासिस्ट है। अगर खुल कर खेलने का मौका मिला तो सांप्रदायिकता देश को तोड़ डालेगी।’’
फिरकापरस्तों की राष्ट्र वंदना की मंशा क्या होती है? नेहरू ने आगाह किया था कि जब फिरकापरस्त राष्ट्रवाद और संस्कृति की बात करें तो सतर्क हो जाना चाहिए। नेहरू ने लिखा था, ‘‘जिन लोगों का भारत की आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था, वह अब राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़े घूम रहे हैं। देशभक्ति की आड़ में सांप्रदायिकता एक विध्वंसक और प्रतिक्रियावादी शक्ति होती है, वह कभी एकता नहीं स्थापित करती।’’
नेहरू की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। राष्ट्रवाद और राष्ट्र निर्माण की लफ्फाजी का वास्तविक अर्थ क्या है, यह हम 2002 में देख चुके हैं।
देश हित की चिंता नहीं, मात्र स्वांग, अगर खुदा गंजे को नाखून दे दे तो? अगर बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाए यानी भाजपा को किसी तरह अगली सरकार बनाने का मौका मिल जाए तो पड़ोसी देशों, खासतौर से बांग्लादेश के प्रति उसकी नीति क्या होगी? वह किस तरह की नीति अपनाएगी और भारत के दूरगामी हित में होना क्या चाहिए, इस पर विचार से पहले बांग्लादेश की मौजूदा स्थिति का लेखा-जोखा जरूरी है। 5 जनवरी के आम चुनाव में अवामी लीग को भारी-भरकम बहुमत मिल चुका है। 300 सदस्यों वाली संसद में उसके 154 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। ऐसा इसलिए हुआ कि अवामी लीग की कट्टर विरोधी, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया। भारत और कुछ अन्य देशों को छोड़ अधिकतर देश अब चुनाव परिणामों की विश्वसनीयता पर अँगुली उठा रहे हैं। अवामी लीग भारत की परंपरागत मित्र है, जबकि उसके ज्यादातर विरोधी भारत के प्रबल विरोधी हैं। विरोधियों में अग्रणी हैं बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और उसकी खास सहयोगी जमात-ए-इस्लामी, बांग्लादेश।
मनमोहन सिंह की सरकार ने मुख्यतः भारत के हितों को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश के साथ दो समझौते करने की कोशिश की-तीस्ता नदी के पानी के इस्तेमाल पर और भूवेष्ठित क्षेत्रों की अदलाबदली पर। भूवेष्ठित क्षेत्रों की अदला-बदली पर 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान में सहमति हुई थी। इंदिरा गांधी से बड़ा, राष्ट्रीय हितों का रखवाला कौन हो सकता है। इसलिए उनके फैसले पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन तब से परिस्थितियाँ ऐसी बनती रहीं कि सहमति को औपचारिक समझौते में नहीं बदला जा सका। बांग्लादेश में कई साल जियाउर्रहमान और इरशाद की फौजी सरकारें रहीं तो बेगम खालिदा की असैनिक सरकार। ये सभी भारत विरोधी थीं। इंदिरा गांधी के बाद बीच-बीच में भारत में गैरकांग्रेसी सरकारों की वजह से गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई।
मनमोहन सिंह की सरकार ने इस अधूरे ऐतिहासिक कार्य को पूरा करने की कोशिश की, तो भाजपा, उसकी वैचारिक सखा असमगण परिषद और तृणमूल कांग्रेस ने रोड़ा अटका दिया।
अब चुनाव को देखते हुए संघ परिवार का राष्ट्रवाद भड़क उठा है।
आर.एस.एस. के मुखपत्र ‘आर्गनायजर’ ने लिखा है, ‘‘अगर बांग्लादेश भारत में रह रहे अवैध मुस्लिम शरणार्थियों को वापस लेने को तैयार हो जाए तो सीमा समझौते का अनुमोदन कर दिया जाना चाहिए। आखिर यह शरणार्थी हमारे संसाधनों का दोहन कर रहे हैं और असम में इनकी मौजूदगी से असमी हिंदू भारतीय संघ के खिलाफ हो रहे हैं। इन्हें वापस लेने के लिए बांग्लादेश तैयार हो तो भारत उसे आर्थिक सहायता दे सकता है। 1993 में दिल्ली के विट्ठल भाई पटेल भवन में अवैध बांग्लादेशी आव्रजकों की समस्या पर एक गोष्ठी में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी भाग लिया था। गोष्ठी में बताया गया था कि बांग्लादेशियों पर 3000 करोड़ सालाना खर्च हो रहा है। आज के हिसाब से यह 20 हजार करोड़ सालाना हुआ।’’
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
तरह-तरह से मोदी का फैशियल हो रहा है। अब विकास को ही लीजिए। विकास होगा तो सभी का फायदा होगा। पूर्वोत्तर का हो या कन्याकुमारी का। दंगे करने वाला हो या उसमें नुकसान उठाने वाला। अब विकास पर एतराज किसे होगा! लेकिन मोदी एक दिन अचानक ब्रांडिंग के चक्कर में फिसल गए। हाल में संपन्न, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वह ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ पर बोल पड़े।
मोदी ने कुछ संस्कृत और कुछ हिंदी में वेद, पुराण, संस्कृति एवं परंपराओं के सूत्र वाक्यों के माध्यम से अपना ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ रखा। संघ की चिंतन बैठकों या शाखाओं में कुछ भी कहा जा सकता है। प्राचीन काल के वैभव (यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि किस युग का, कैसा वैभव) की वापसी की इच्छा व्यक्त की जा सकती है, सनातन राष्ट्र की वंदना की जा सकती है या भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ का रूप देने की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं। लेकिन सार्वजनिक संज्ञान में बोलने के कुछ खतरे होते हैं। मोदी ने ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के बारे में जो भी कहा, वह आधुनिक भारतीय राज्य सत्ता के तकाजे पूरे नहीं करता।
26 जनवरी 1950 से लागू गणतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित है। इनमें एक है सेक्युलरिज्म। संघ वालों को आपत्ति रही है कि संविधान में इस शब्द का उल्लेख नहीं है। उस तर्क को मानें तो ब्रिटेन में संवैधानिक व्यवस्था ही नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उस देश में लिखित संविधान नहीं है। इंदिरा गांधी के शासन काल में जब 42 वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट शब्द का समावेश किया गया, तो सेक्युलरिज्म को भी शामिल किया जा सकता था। लेकिन यह नहीं किया गया क्योंकि इसकी जरूरत ही नहीं थी। सेक्युलर दर्शन हमारी संवैधानिक आस्था और जीवन पद्धति में इतना केंद्रीय स्थान जो प्राप्त कर चुका है। सेक्युलरिज्म एक नितांत आधुनिक अवधारणा है। मोदी जिस संघ के प्रचारक रहे हैं, वह सेक्युलरिज्म को नहीं मानता।
इस नकार के खतरों की ओर सबसे ज्यादा ध्यान दिलाया था जवाहर लाल नेहरू ने। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा हो रही थी। भारत में संघ और संघी मानसिकता
वाले कुछ कांग्रेसी भी मुसलमान भारतीयों पर पुनर्विचार का सुझाव दे रहे थे। उस माहौल
में नेहरू ने कहा, ‘‘कांग्रेस की सेक्युलर प्रतिबद्धता पर कोई समझौता नहीं हो सकता। जो निश्चित तौर पर खराब है, उसके साथ समझौता हमेशा खतरनाक होता है। संघ राष्ट्रवादी भारत के हर मूल्य को निशाना बनाता है। यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि आर.एस.एस. की पूरी मानसिकता फासिस्ट है। अगर खुल कर खेलने का मौका मिला तो सांप्रदायिकता देश को तोड़ डालेगी।’’
फिरकापरस्तों की राष्ट्र वंदना की मंशा क्या होती है? नेहरू ने आगाह किया था कि जब फिरकापरस्त राष्ट्रवाद और संस्कृति की बात करें तो सतर्क हो जाना चाहिए। नेहरू ने लिखा था, ‘‘जिन लोगों का भारत की आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था, वह अब राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़े घूम रहे हैं। देशभक्ति की आड़ में सांप्रदायिकता एक विध्वंसक और प्रतिक्रियावादी शक्ति होती है, वह कभी एकता नहीं स्थापित करती।’’
नेहरू की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। राष्ट्रवाद और राष्ट्र निर्माण की लफ्फाजी का वास्तविक अर्थ क्या है, यह हम 2002 में देख चुके हैं।
देश हित की चिंता नहीं, मात्र स्वांग, अगर खुदा गंजे को नाखून दे दे तो? अगर बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाए यानी भाजपा को किसी तरह अगली सरकार बनाने का मौका मिल जाए तो पड़ोसी देशों, खासतौर से बांग्लादेश के प्रति उसकी नीति क्या होगी? वह किस तरह की नीति अपनाएगी और भारत के दूरगामी हित में होना क्या चाहिए, इस पर विचार से पहले बांग्लादेश की मौजूदा स्थिति का लेखा-जोखा जरूरी है। 5 जनवरी के आम चुनाव में अवामी लीग को भारी-भरकम बहुमत मिल चुका है। 300 सदस्यों वाली संसद में उसके 154 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। ऐसा इसलिए हुआ कि अवामी लीग की कट्टर विरोधी, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया। भारत और कुछ अन्य देशों को छोड़ अधिकतर देश अब चुनाव परिणामों की विश्वसनीयता पर अँगुली उठा रहे हैं। अवामी लीग भारत की परंपरागत मित्र है, जबकि उसके ज्यादातर विरोधी भारत के प्रबल विरोधी हैं। विरोधियों में अग्रणी हैं बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और उसकी खास सहयोगी जमात-ए-इस्लामी, बांग्लादेश।
मनमोहन सिंह की सरकार ने मुख्यतः भारत के हितों को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश के साथ दो समझौते करने की कोशिश की-तीस्ता नदी के पानी के इस्तेमाल पर और भूवेष्ठित क्षेत्रों की अदलाबदली पर। भूवेष्ठित क्षेत्रों की अदला-बदली पर 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान में सहमति हुई थी। इंदिरा गांधी से बड़ा, राष्ट्रीय हितों का रखवाला कौन हो सकता है। इसलिए उनके फैसले पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन तब से परिस्थितियाँ ऐसी बनती रहीं कि सहमति को औपचारिक समझौते में नहीं बदला जा सका। बांग्लादेश में कई साल जियाउर्रहमान और इरशाद की फौजी सरकारें रहीं तो बेगम खालिदा की असैनिक सरकार। ये सभी भारत विरोधी थीं। इंदिरा गांधी के बाद बीच-बीच में भारत में गैरकांग्रेसी सरकारों की वजह से गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई।
मनमोहन सिंह की सरकार ने इस अधूरे ऐतिहासिक कार्य को पूरा करने की कोशिश की, तो भाजपा, उसकी वैचारिक सखा असमगण परिषद और तृणमूल कांग्रेस ने रोड़ा अटका दिया।
अब चुनाव को देखते हुए संघ परिवार का राष्ट्रवाद भड़क उठा है।
आर.एस.एस. के मुखपत्र ‘आर्गनायजर’ ने लिखा है, ‘‘अगर बांग्लादेश भारत में रह रहे अवैध मुस्लिम शरणार्थियों को वापस लेने को तैयार हो जाए तो सीमा समझौते का अनुमोदन कर दिया जाना चाहिए। आखिर यह शरणार्थी हमारे संसाधनों का दोहन कर रहे हैं और असम में इनकी मौजूदगी से असमी हिंदू भारतीय संघ के खिलाफ हो रहे हैं। इन्हें वापस लेने के लिए बांग्लादेश तैयार हो तो भारत उसे आर्थिक सहायता दे सकता है। 1993 में दिल्ली के विट्ठल भाई पटेल भवन में अवैध बांग्लादेशी आव्रजकों की समस्या पर एक गोष्ठी में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी भाग लिया था। गोष्ठी में बताया गया था कि बांग्लादेशियों पर 3000 करोड़ सालाना खर्च हो रहा है। आज के हिसाब से यह 20 हजार करोड़ सालाना हुआ।’’
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
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