संघ परिवार के ‘‘राष्ट्रवादी’’ आख्यान में कश्मीर का सदैव महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसका केंद्र बिंदु यह है कि जवाहर लाल नेहरू की वजह से कश्मीर समस्या पैदा हुई और संघ परिवार एवं उसके नायकों की चलती तो यह मसला कब का हल हो चुका होता। सच यह है कि नेहरू का सेक्युलर-लोकतांत्रिक नेतृत्व न होता, तो कश्मीर भारत में होता ही नहीं। मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर-यह भी याद रखें, उस समय जम्मू में 61 प्रतिशत मुसलमान था और कश्मीर में हिंदुओं की आबादी सिर्फ 7.8 फीसदी थी-नई दिल्ली में किसी गैर सेक्युलर, मुस्लिम विरोधी सरकार के साथ विलय का समझौता करता ही नहीं।
संघ परिवार इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने में उस्तादों का उस्ताद है, फिर भी कुछ सच ऐसे होते हैं, जिन पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। यह जानना जरूरी है कि कश्मीर के सर्वमान्य और निर्विवाद नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने नेहरू की कठिनाइयों और भारत में विलय की स्थितियों का किस प्रकार वर्णन किया। 10 जुलाई 1950 को नेहरू के नाम पत्र में शेख ने लिखा, ‘‘यह स्पष्ट है कि आप की कश्मीर नीति और भारतीय संघ को वास्तविक सेक्युलर राज्य बनाने के आप के आदर्श से असहमत शक्तिशाली तत्व भारत में सक्रिय हैं। यह तत्व आप को कमजोर करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं और इसे हासिल करने लिए वे यह जरूरी मानते हैं कि आप के प्रति निष्ठावान लोगों को धराशाई कर दिया जाए। मैं आप के लिए अपने को कुर्बान करने को तैयार हूँ, लेकिन 40 लाख कश्मीरियों के संरक्षक के नाते मैं उनके अधिकारों का सौदा नहीं कर सकता।’’
पत्र का अगला भाग बड़ा मार्मिक है। शेख ने लिखा, ‘‘मैं कई बार कह चुका हूँ कि हमने भारत में कश्मीर का विलय किया, क्योंकि हमने गांधी जी और आप के रूप में आशा और आकांक्षा के दो चमकते सितारे देखे। पाकिस्तान के साथ कई नजदीकियों के बावजूद हम उसके साथ नहीं गए, क्योंकि हमारे कार्यक्रम उसकी नीतियों में फिट नहीं बैठते थे। लेकिन मैं नतीजा निकाल रहा हूँ कि हम अपनी मेधा के अनुरूप राज्य का निर्माण नहीं कर सकते। मैं अपने अवाम को क्या जवाब दूँ?’’
शेख अब्दुल्ला का मोह भंग होने की शुरुआत हो चुकी थी। कारण क्या था? कारण था संघ की सहधर्मिणी संस्था, प्रजा परिषद का जम्मू में शुरू किया गया आंदोलन। नेहरू ने अपने मित्र और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय को पत्र में लिखा, ‘‘कश्मीर घाटी के लोग जम्मू और शेष भारत के सांप्रदायिक तत्वों से भयभीत हैं। आज हालत यह है कि जनमतसंग्रह हो तो कश्मीरी मुसलमानों का भारी बहुमत हमारे खिलाफ जाएगा। प्रजा परिषद के आंदोलन का लक्ष्य भारत में कश्मीर का अधिकाधिक एकीकरण है, लेकिन हो रहा है उल्टा। प्रजा परिषद के आंदोलन के कारण हम कश्मीर घाटी को खो बैठने के कगार पर पहुँच चुके हैं। यह सब प्रजा परिषद के आंदोलन की वजह से हुआ है।’’
1 जनवरी 1952 को कोलकाता में एक सभा में नेहरू ने चेतावनी दी, ‘‘अगर कल शेख अब्दुल्ला यह तय कर लें कि कश्मीर को पाकिस्तान के साथ जाना है, न तो मैं और न भारत की पूरी ताकत इसे रोक पाएँगे क्योंकि अगर नेता ऐसा चाहता है तो यह होकर रहेगा। इसलिए जनसंघ और आर.एस.एस. पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं। जरा कल्पना करें, अगर जनसंघ या अन्य किसी सांप्रदायिक पार्टी का भारत में राज होता तो कश्मीर में क्या होता। कश्मीर के लोग कह रहे हैं कि वे इस फिरकापरस्ती से आजिज आ चुके हैं। जिस देश में जनसंघ और आर.एस.एस. उन्हें लगातार परेशान कर रहे हों, वहाँ वह क्यों रहना चाहेंगे?’’
नेहरू की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। छह दशक से अधिक समय में भारत में कश्मीर का विलय बेशक मजबूत हुआ है, लेकिन संघ परिवार की खतरनाक सांप्रदायिक नीतियाँ यथावत हैं। आज जब भाजपा के नेता कश्मीर को लेकर कांग्रेस को कोसते हैं, तो यह खतरा और रेखांकित हो जाता है। कांग्रेस को कोसने के पीछे दरअसल वही पुराना सांप्रदायिक एजेंडा है।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
संघ परिवार इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने में उस्तादों का उस्ताद है, फिर भी कुछ सच ऐसे होते हैं, जिन पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। यह जानना जरूरी है कि कश्मीर के सर्वमान्य और निर्विवाद नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने नेहरू की कठिनाइयों और भारत में विलय की स्थितियों का किस प्रकार वर्णन किया। 10 जुलाई 1950 को नेहरू के नाम पत्र में शेख ने लिखा, ‘‘यह स्पष्ट है कि आप की कश्मीर नीति और भारतीय संघ को वास्तविक सेक्युलर राज्य बनाने के आप के आदर्श से असहमत शक्तिशाली तत्व भारत में सक्रिय हैं। यह तत्व आप को कमजोर करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं और इसे हासिल करने लिए वे यह जरूरी मानते हैं कि आप के प्रति निष्ठावान लोगों को धराशाई कर दिया जाए। मैं आप के लिए अपने को कुर्बान करने को तैयार हूँ, लेकिन 40 लाख कश्मीरियों के संरक्षक के नाते मैं उनके अधिकारों का सौदा नहीं कर सकता।’’
पत्र का अगला भाग बड़ा मार्मिक है। शेख ने लिखा, ‘‘मैं कई बार कह चुका हूँ कि हमने भारत में कश्मीर का विलय किया, क्योंकि हमने गांधी जी और आप के रूप में आशा और आकांक्षा के दो चमकते सितारे देखे। पाकिस्तान के साथ कई नजदीकियों के बावजूद हम उसके साथ नहीं गए, क्योंकि हमारे कार्यक्रम उसकी नीतियों में फिट नहीं बैठते थे। लेकिन मैं नतीजा निकाल रहा हूँ कि हम अपनी मेधा के अनुरूप राज्य का निर्माण नहीं कर सकते। मैं अपने अवाम को क्या जवाब दूँ?’’
शेख अब्दुल्ला का मोह भंग होने की शुरुआत हो चुकी थी। कारण क्या था? कारण था संघ की सहधर्मिणी संस्था, प्रजा परिषद का जम्मू में शुरू किया गया आंदोलन। नेहरू ने अपने मित्र और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय को पत्र में लिखा, ‘‘कश्मीर घाटी के लोग जम्मू और शेष भारत के सांप्रदायिक तत्वों से भयभीत हैं। आज हालत यह है कि जनमतसंग्रह हो तो कश्मीरी मुसलमानों का भारी बहुमत हमारे खिलाफ जाएगा। प्रजा परिषद के आंदोलन का लक्ष्य भारत में कश्मीर का अधिकाधिक एकीकरण है, लेकिन हो रहा है उल्टा। प्रजा परिषद के आंदोलन के कारण हम कश्मीर घाटी को खो बैठने के कगार पर पहुँच चुके हैं। यह सब प्रजा परिषद के आंदोलन की वजह से हुआ है।’’
1 जनवरी 1952 को कोलकाता में एक सभा में नेहरू ने चेतावनी दी, ‘‘अगर कल शेख अब्दुल्ला यह तय कर लें कि कश्मीर को पाकिस्तान के साथ जाना है, न तो मैं और न भारत की पूरी ताकत इसे रोक पाएँगे क्योंकि अगर नेता ऐसा चाहता है तो यह होकर रहेगा। इसलिए जनसंघ और आर.एस.एस. पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं। जरा कल्पना करें, अगर जनसंघ या अन्य किसी सांप्रदायिक पार्टी का भारत में राज होता तो कश्मीर में क्या होता। कश्मीर के लोग कह रहे हैं कि वे इस फिरकापरस्ती से आजिज आ चुके हैं। जिस देश में जनसंघ और आर.एस.एस. उन्हें लगातार परेशान कर रहे हों, वहाँ वह क्यों रहना चाहेंगे?’’
नेहरू की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। छह दशक से अधिक समय में भारत में कश्मीर का विलय बेशक मजबूत हुआ है, लेकिन संघ परिवार की खतरनाक सांप्रदायिक नीतियाँ यथावत हैं। आज जब भाजपा के नेता कश्मीर को लेकर कांग्रेस को कोसते हैं, तो यह खतरा और रेखांकित हो जाता है। कांग्रेस को कोसने के पीछे दरअसल वही पुराना सांप्रदायिक एजेंडा है।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
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